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करैया
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मात्रा - ४ माशे ।
गुण, कर्म, प्रयोग - स्वाद में यह कड़ ुई एवं गरम होती है । यह अपने प्रभाव से केश्य वा केशों को पुष्ट करती और उन्हें काला करती है । तथा यह विष, चोट, स्वगूराग ( सुखवादा ) एवं कोढ़ को दूर करती है । ( ता० श० ) यह ज्वर एवं श्वास के रोग को नष्ट करती है । शहद के साथ खाने से यह नासिका एवं मुख से रक्क थाने को रोकती है । यह मूत्र एवं श्रार्त्तव का प्रवर्तन करता, कफ का छेदन करता; कोढ़ रोग का नाश करता और वेदना को शांत करता, तथा क्षुधा उत्पन्न करता है । इसके पीने से खुजली दूर होती है। इसके काढ़े का गण्डूष धारण करने से दंतशूल मिटता है । इसकी जड़ कास रोग में काम श्राती है । (बु० मु० म० मु० )
यह बालों को बढ़ाती, और उन्हें स्याह करती है । यदि पारा खाने से मुंह श्री जावे, तो इसकी जड़ और पत्ते सुमा के साथ कथित कर कुल्ली करने से उपकार होता है । यह स्वग्राग ( सुखबादा) को लाभकारी एवं विषों की नाशक है । यदि पत्र मूल सहित इसके तुप को छांह में सुखाकर पीस छानकर रख लें और उस चूर्ण में से प्रतिदिन प्रातः को एक मुट्ठी भर फाँक लिया करें, तो श्वास रोग एवं कफज कास श्राराम हो । साढ़े दस माशे इसकी जड़ पानीमें पीसकर यदि स्त्री दुग्ध ' के साथ सेवन करे, तो गर्भवती होजाय - यह गर्भधारक योग है । इसका लघु चुप जलाकर पानी में सानकर चना प्रमाण की वटिकायें बनाकर रखले । रात को गुलखेरू के पानी में भिगो दें और प्रातःकाल मल छानकर उसका लबाब निकालें 1 इस लबाब के साथ १-२ गोली सेवन करने से पुराना से पुराना सूजाक जाता रहता है। इसके फूल शीघ्रपाकी है तथा वायु एवं कफ को नष्ट करते, सुधा को वृद्धि करते और पित्त उत्पन्न करते हैं, ग्रन्थकार के मत से इसका स्वाद तोच्ण, स्निग्ध एवं मधुर होता हैं । इसकी पत्तियाँ मलने से हाथ काला होजाता है । यह श्यामता निरंतर २-३ दिन तक रहती है । बाँसें (श्रड़ से ) की अपेक्षा इसमें अधिक उष्णता होती है ।
( ० अ० )
कटसरैया
इसका काढ़ा वा चूर्ण कफज कास एवं तर श्वासकृच्छ्रता को उपकारी है और यह श्रार्त्तव प्रवर्त्तक; श्लेष्मा को छेदन करने वाला एवं सुधा जनक है । इसके काढ़े का गण्डूष करने से दंतशूल मिटता है। इसकी जड़ वा छाल का मुनक्का के साथ गोली बनाकर मुंह में रखने से तर खांसी श्राराम होती ( म० इ० )
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नव्यमत
। यह
खोरी - भिण्टी ईपत्ति एवं काय है। बालकों के कफ ज्वर एवं श्रगम्भीर शोथ ( Au asarca ) में सेवनीय है। इसकी पत्ती का स्वरस हाथ पैर पर मर्दन करने से हस्त-पदतल के फटने की अर्थात् पाददारी की शंका दूर हो जाती है । सामान्य कारण से अथवा जब मसूढ़े फूलकर पिलपिले हो गये हों । ( Spongy - gums) और उनसे रक स्राव होता हो, तब सैंधव लवण मिश्रित झिष्टी पत्र स्वरसं का कवल धारण करावें | स्फोटक एवं ग्रन्थि-शोध पर इसकी जड़ का प्रलेप करने से वे विलीन होते हैं, झिटी के कल्क में पकाया हुआ तेल कदक्षत में हितकारी है । आर० एन० खोरी, द्वि० खंड, पृ० ४६६
ऐन्सली - कहते हैं कि शिशुओं के कफोल्वण ज्वर में इसकी पत्ती का स्वरस जो ईषत् तिक एवं अम्ल होता है, दक्षिण भारत के हिंदुओं की सर्व प्रिय औषधि है । वे प्रायः इसमें किंचित् मधु या शर्करा तथा जल मिश्रित कर दो ( Tablespoonfuls ) की मात्रा दैनिक दिन में दोबार सेवन करते हैं ।
मैटीरिया इंडिका, भ० २, पृ० ३७६ । डीमक - देशी लोग वर्षा ऋतु में हाथ-पैर पर इसकी पत्तियों का स्वरस मर्दन करते हैं, जिसमें वे कड़े पड़ जायँ, जिससे ( हस्त-पदतल ) तलवों व हथेलियों के फटने व फूलनेकी श्राशंका मिट जाय । कोंकण में इसको सूखी छाल कूकर खाँसी ( Whooping cough) में दी और इसकी ताजी छाल का स्वरस २ तोले की मात्रा में श्रगम्भीर शोथ ( Anasarca ) में दिया जाता है। डाक्टर बिडो ( Dr. Bidie ) के अनुसार