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कटसरैया
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कटसरैया
Barleria Prionitis, Linn-ato il येलो वारलेरिया Yellow Barilerta,थॉर्नी | बार्लेरिया Tharny Barleria-अं•। शेम्मूलि एलखेय, वरमुल्लि-ता० । मूलगोविदं, मूलि (मूल.) गोरंटा, कोंड़ गौगु-ते. । होवणद गोरटे, गोरटी; मुल्लु गोरंट, गोरतीगे-कना। पीवला गोरटा (कोरांट, कोरंटा, कोरेटा )-मरा० । कालसुद, कोरहंटी,वज्रदंती-बम्ब० । काँट शेलियो काँटा सेरियो-गु० । वज्रदंत-कछ ।गोरटी-को । शेमुल्लि, कोलेट-वित्तला-मल० । वासक-अरंटोदउड़ि । कटुकरंदु-सिं० । लंडूल-जावा । वाणपुष्प गौड़।
कटसारिका वा आटरूष वर्ग (N. O. Acanthacee ) उत्पत्ति स्थान-उष्णकटिबंधस्थित समग्र भारतवर्ष हिमालय से लंका पर्यन्त । बंबई, मदरास, लंका, आसाम, सिलहट आदि स्थानों में इसके तुप बहुतायत से पाये जाते हैं।
रासायनिक संघट्टन-इसमें बड़ी मात्रा में लघु पेट्रोलियम् ईथर में बिलेय एक उदासीन एवं अम्लराम पाया जाता है। कोई क्षारीय सार नहीं पाया गया।
औषधार्थ व्यवहार-समग्र-तुप, विशेषतः पत्र एवं मूल ।
औषध-निर्माण-कल्क, पत्र-काथ,चूर्ण और औषधीय तैलादि।
__ गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारकुरण्टको हिमस्तिक्त: शोफतृष्णाविदाहनुत् । केश्यो वृष्योऽथ वल्यश्च त्रिदोष शमनो मतः।।
(ध०नि०) कटसरैया-शीतल, कडु ई,वीर्य वर्द्धक, वलवर्द्धक, त्रिदोष नाशक और केशों के लिये हितकारी होती है तथा यह सूजन, प्यास और विदाह को दूर करती है। किङ्किरात: कषायोष्णस्तिक्तश्च कफवातजित् । दीपनः शोफकण्डूतिरक्त त्वग्दोषनाशनः ।
(रा०नि०) पीली कटसरैया-कसेली, कहुई, गरम, दीपन और कफ वात नाशक है तथा यह सूजन, खुजली, |
रक्त विकार एवं त्वचा के रोगों को नाश करती है। किङ्किरातो हिमस्तिक्तः कषायश्च हरेदसौ । कफपित्त पिपासास्र दाह शोष वमि कृमोन् ।
(भा० पू० १ भ०) पीली कटसरैया-ठंढी, कषैली, कडुई है और यह कफ, पित्त, प्यास, रनदोष, दाह, शोष, वमन और कृमि रोग को दूर करती है। 'पीतः कुरण्टक'श्चोष्णस्तिक्त श्चतुवरः स्मृतः। अग्निदीप्तिकरो वातकफ कण्डूहरः स्मृतः । शोथं रक्तविकारश्च त्वग्दोषश्चैव नाशयेत् ॥
(निघण्टु रत्नाकर) पीले फूल की कटसरैया-गरम, कड़वी, कषेली अग्निदीपक तथा वात, कफ, कण्डू, सूजन, रकविकार और त्वचा के दोषों को दूर करती है ।
वैद्यकीय व्यवहार चक्रदत्त-कटसरैया के पत्तों को उबालकर उससे कुल्ले करने से हिलते दाँत मजबूत हो जाते हैं।
आर्य औषधि-इसके पत्तों की राख के घी में मिलाकर लगाने से सड़े हुये क्षत और नहीं पकने वाले फोड़े अच्छे हो जाते हैं।
रस रत्नाकर-संध्याकाल में पीली कटसरैया का काढ़ा करके सारी रात पड़ा रहने देकर दूसरे दिन पिलाने से अथवा पीली कटसरैयाकी जड़ को चाबकर उसका रस पान करने से सूतिका रोग के सब प्रकार के उपद्रब शांत होते हैं। इस काढ़े में यदि थोड़ा सा पीपर का चूर्ण भी मिला दिया जाय तो, विशेष लाभदायक हो जाता है ।
यूनानी मतानुसार गुण दोषप्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष (मतांतर से सर्द एवं तर म० मु० वा गर्मतर) है । फूल में अधिक उष्णता होती है । स्वादतिक्त और तीक्ष्ण। हानिकत्तो-शीतल प्रकृति को । दर्पघ्न-काली मिर्च एवं मधु ।
प्रतिनिधि-किसी किसी स्थल पर गदह पूरना।
प्रधान कर्म-मूत्र प्रवर्तक एवं प्राचैव प्रवतक।