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ककड़ी
ज्वरों को लाभकारी, स्थिर घटकों-मवादों को उभारनेवाला और खीरे के बीज की अपेक्षा
काल है । प्रलेप रूप से यह कपोलों को कांतिप्रदान करता है। (मु० ना० ना० मु० )
मख्ज़न मुफरिदात में यह अधिक लिखा है कि यह उल्लासप्रद है । बुस्तानुल मुफ़रिदात के मत से यह प्रभाव में खीरे के बीजों की अपेक्षा निर्बल है । यह उष्ण प्रकृति को उल्लासप्रद है I इसका प्रलेप त्वमृदुकर है । शेष गुणधर्म पूर्व बर्णनानुसार । मक़ालात इहसानी के अनुसार ककड़ी के बीज की गिरी के गुणधर्म भी ककड़ी केही सहरा हैं; परन्तु यह अधिक है कि इसका शीरा श्रमाराय को सांद्रकती है । क्वाथ वा फांट रूप में जौकुट किये हुए इसके बीजों का सेवन अधिक उत्तम है ।
खजाइनुल् अद्विया में उल्लेख है कि यह मूत्रप्रवर्त्तक है श्रोर इसमें खीरे के बीजों की अपेक्षा प्रवर्तन की शक्ति अधिक है । किंतु खरबूजे के बीजों से यह इस विषय में हीन है । यह अवरोधोद्घाटन करता, स्वच्छता करता - जिला करता, रंगों में से पिच्छिल एवं ल्हेसदार दोषों को निकालता, उष्णप्रधान ज्वरों को ऊप्पा को मूत्र द्वारा निःसृत करता, मूत्र का दाह व जलन मिटाता और प्यास बुझाता है । इसके पीसकर मुखमंडल पर मर्दन करने से चेहरे का रंग स्वच्छ होता है । परन्तु इसके उपयोग में इतना दोष अवश्य है, कि इसमें स्थिर दोषों को प्रकुपित करने की थोड़ी शकि ज़रूर है। इसे खीरे के बीजों के साथ मिलाकर सेवन करने से जलन, प्रदाह और मिर्रहे सफ़राएक प्रकार का श्रप्राकृतिक सफ़रा वा पित्त जो पतले कफ के साथ मिला हुआ हो- का प्रकोप शमन होता है । यदि दोष उल्वण हो गये हों, तो स्थिर हो जाते हैं। यह फुफ्फुसजात क्षत एवं वेदना को लाभकारी है और उसकी शुद्धि करता है । यह पैत्तिक कास वा गरम खाँसीको श्राराम पहुँचाता है। यदि श्रामाशय और यकृत में ऊष्मा अत्यधिक हो जाय या उन ऊष्मा के कारण सूजन श्राजाय, तो इसके उपयोग द्वारा उपकार होते देखा गया है। यह लागत उशोथ को भी विलीन करता है । मूत्रविरेचनीय होते हुये भी यह किंचित् मृदुरेचनोय
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ककड़ी
मुलय्यिन भी है और यह उसकी विशेषता है। क्योंकि मूत्र प्रवर्त्तनकारी पदार्थ सर्वदा ही मलावष्टंभकारी अर्थात् क़ाबिज़ होते हैं और काबिज़ प्रवर्तनकारी | इसका छिलका वायु एवं उदरशूल - कुलंज उत्पन्न करता है, दीर्घपाकी है और क़ै लाता है । वैद्यगण कहते हैं कि ककड़ी के बीज शीतल, मूत्रल
और बल्य हैं । जिस रोगी के पेशाब बनना रुक गया हो उसे ७ ॥ मा० इसके बीज पानी में पीसछानकर पिलाने से अधिक पेशाब श्राने लगता
ककड़ी के बीज और जवाखार दोनों को पानी में पीस-छानकर पीने से मूत्र की जलन मिटती है और मधुमेह रोग-पेशाब में शर्करा का श्राना - प्राराम होता है। अश्मरी रोगी को भी उक्त बीजों का सेवन श्रतीव गुणकारी सिद्ध होता
। इसके बीजों को सेंको हुई मींगियों का चूर्ण अत्यन्त मूत्रल है । बीजों को सुखा और पीसकर भक्षण करने से शरीर बहुत बलिष्ट होता है (कदाचित् इसी कारण बीजों को सुखा और छीलकर चीनी में पाग लेते हैं और सेवन करते हैं । यह खाने में भी अत्यन्त सुस्वादु होता है ) । इनकी afगियों द्वारा निकाला हुश्रा तेल- एर्वारुवीज तैल जलाने और खाने के काम में आता है।
( ख० अ० भा० ५ पृ० ४६२-३ ) नव्यमत
वैट-फूट के बीज शैल्यकारक औषध रूप से व्यवहार किये जाते हैं ।
उ० चं० दत्त - ककड़ी का बीज शीतल, खाद्योपयोगी, पुष्टिकर तथा मूत्रल है और सशूल मूत्रण - मूत्रकृच्छ, राग एवं मूत्ररोध में इसका उपयोग होता है । ककड़ी के बीज २ ड्राम पानी में पीसकर कल्क बनाते हैं और उसे अकेले वा सवय और काँजी के साथ सेवन कराते हैं।
नादकर्णी - दो ड्राम ककड़ी के बीज जल वा दुग्ध में पीसकर सेवन करने से अथवा केवल बीजों के चूर्ण में १० रत्ती सेंधानमक का चूर्ण मिला सेवन करने से सशूल मूत्रप्रसाव - मूत्रकृच्छ घोर मूत्ररोध रोग श्राराम होते हैं।
शुद्ध शिलाजीत, गोखरू, पाषाणभेद, इलायची, केशर, ककड़ी के बीज श्रीर सेंधानमक-इन सबको बराबर बराबर लेकर पीस-छान जो। इसमें से