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कंचनार
१८६६
भावप्रकाश – मसूरिका में कोविदार
मूलत्व—
कचनार की जड़ की छाल के काढ़े में सोना मक्खी को भरत का प्रक्षेप देकर पीने से अन्तर्लीन मसूरिका बाहर प्रकट हो जाती है । यथा"मसूरिकायां काञ्चनारत्वक् काञ्चनारत्वचः । क्वाथस्ताप्यचूर्णावचूर्णितः ।”
(म० ख ४ भ० )
वक्तव्य
चरक के वमनोपवर्ग में कोविदार का पाठ श्राया है । " कोविदारादीनां मूलानि ” ( सू० ३६ श्र० ) इस सोत वाक्य में कोविदार की जड़ वान्तिकर स्वीकार की गई है ।
यूनानी मतानुसार
प्रकृति - द्वितीय कक्षा में शीतल एवं रूक्ष । कोई-कोई शीतलता लिये समशीतोष्ण बतलाते हैं । हानिकर्त्ता-यह गुरु, चिरपाकी, श्राध्मान जनक और रद्दीयुगजा है | दर्पन—– गुलकन्द, मांस, लवण तथा गरम मसाला । प्रतिनिधि - कतिपय क्रियाओं में सूखा बाकला । प्रधान-कर्मबलप्रद, अतिसार हर और श्रार्त्तवरुद्धक । गुण, कर्म, प्रयोग—
लेखक तालोफ शरीफ़ो ने कचनार के श्रन्तर्गत इसके भावप्रकाशोक गुणों का उल्लेख किया है । वे 'इतना और लिखते है, " एक ग्रन्थ से यह ज्ञात हुआ कि कचनार संज्ञा का प्रयोग काञ्चनार बृक्ष के अर्थ में हुआ है । पर हमारे नगर में उक्त शब्द का उपयोग इसके अपरिस्फुटित पुष्पों एवं वृक्ष के श्रर्थ में भी होता है। लेखक के मत से यह ग्राही, दीपन- श्रामाशय बलप्रद, अर्श तथा श्रार्त्तव के रक्त areas और अतिसारनाशक है । वे कहते हैं कि इसकी छाल को कथित कर गण्डूष करने से पारद, हिंगुल, भल्लातकी और रसकपूर भक्षण जन्य मुख-पाक श्राराम होता है ।"
कचनार शब्द के अन्तर्गत मजनुल् श्रदविया नामक वृहन्निघंटु प्रन्थ के प्रणेता माननीय मुहम्मद हुसेन महोदय लिखते हैं कि इसको छाल संग्राही,
कचनार
तारल्यजनक (मुलत्ति) और बल्य है । वे कहते हैं कि प्रतिसार नारान एवं श्रत्रगत कृमि निवारणार्थ इसका प्रयोग किया जाता है तथा यह शोणित एवं दोषों को विकृत होने वा सड़ने-गलने से बात है । इसलिये यह कुछ एवं कंठमाला में उपकारी है । कचनार की छाल, श्रकाकिया और अनार के फूल - इनके काढ़े का गण्डूष करने से कंठत और लालास्राव श्राराम होता है । इनकी कलियों का काढ़ा कास, रक्कार्श, रक़मूत्रता और रक्तप्रदर में उपकारी हैं ।
कचनार चिरपाकी, संग्राही तथा ऐसा श्राहार है। जिस के पचने पर अत्यन्त न्यून श्रंश शरीरका भाग बनता ( रहीयु विज़ा) है एवं रूत होता है । तथा यह श्रामाशय और श्राँतों को शक्ति प्रदान करता और पेट को गुंरंग कर देता है । यह अतिसार का निवारण करता, उदरज कृमियों को नष्ट करता और रविकार को दूर करता है । इसके फूलमुख द्वारा रक्तस्त्राव होने के रुद्धक हैं और वे श्रतिरज को बन्द करते, एवं अन्तःस्थ ततों एवं गुदक्षत को आराम पहुँचाते हैं। इसकी छाल का चूर्ण शुक्रमेह को लाभकारी है । मुख-पाक और मुखरोगों में इसकी छाल के काढ़े का गण्डूष करने से उपकार होता है । -म० मु० ।
पारस्य निघण्टु प्रन्थों में यह उल्लेख है कि यह संग्राही है और रूक्षता उत्पन्न करता है । यह श्रामाशय तथा श्राँतों को शक्ति देता, दस्त बन्द करता, पेट के कीड़े एवं केचुत्रों को निकालता और रक्तदोष का निवारण करता है। यह कंठमाला को लाभकारी है । समभाग सुमाक़ के साथ इसकी छाल का काढ़ाकर पीने से रक्तनिष्ठीवन, हैज़ के खून तथा प्रांतरितत एवं गुदाके क्षतों में उपकार होता है । कचनार की छाल को विशेषतः श्रकाकिया एवं गुलनार (अनार विशेष के फूल ) के साथ क्वथित कर गण्डूष करने से पारद, हिंगुल, भलातकी एवं रसकपूर भक्षण जनित मुखपाक तथा कंठ एवं मुखरोगों में उपकार होता है। इसकी छालका चूर्ण शुक्रप्रमेह में गुणकारी है। कास (गरम-तर), अतिसार, अर्श, प्रतिरज, रक्तप्रमेह और पित्तविकार में इसकी कलियों को पकाकर खाने से उपकार