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कचनार
है । यदि सुबह शाम प्रथम कांचनार गुग्गुल खाकर ऊपर से उक्त काढ़े को पी लिया जाय, तो उक्त रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाय ।
(३) मयूख हफ्तरोजा - निम्बवृक्षत्वक्, कांचनार वृक्ष त्वक्, इन्द्रायन की जड़, बबुरी (बनूर को फज़ी), छोटी कटाई मय फल व पत्ती, गुड़ पुराना प्रत्येक १०-१० तोले । इनको ३ सेर पानी में काथ करें । पञ्चमांश जल शेष रहने पर छानकर रखलें ।
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मात्रा तथा सेवन-विधि - एक बोतल उक्त काढ़े की सात मात्रायें बनावें । इसमें से एक मात्रा श्रौषध प्रतिदिन प्रातः काल सेवन करें। इससे रेचन होने पर प्रत्येक विरेक के उपरान्त श्रर्क सौंफ वा श्रर्क मकोय कोष्ण सेवन करें। तीसरे पहर मूँ की मुलायम खिचड़ी खावें । इसी प्रकार निरन्तर सप्ताह पर्यन्त करें। यदि इससे पेचिरा हो जाय, तो श्रर्क पीना बन्द करदें । श्राराम होने पर पुनः प्रारम्भ करें। पेचिश होने की दशा में अधोलिखित योग का सेवन करें ।
( ४ ) बिहीदाने का लुनाब ३ माशे, रेशा खम्मी का लुआब और मधुरिका स्वरस (शीराबादियान ) प्रत्येक ५ माशे, रुब्ब-बिही २ तोले मिलाकर ७ माशे समूचा ईसबगोल छिड़क कर पीलिया करें ।
गुण-कर्म- यह अखिल वात-रोग, रक्क-विकार, फिरङ्ग और श्रमवात रोगमें उपकारी है तथा वातज दोषों को शरीर से मलमार्ग द्वारा उत्सर्ग करता है। सफेद कचनार वा कोबिदार
पर्याय-सं- कोविदार, कांचनार, कुद्दाल, कुण्डली, कुली, ताम्रपुष्प, चमरिक, महायमलपत्रक ( घ० नि० ), कोविदार, कांचनार, कुद्दाल, कनकारक, कान्तपुष्प, कटक, कानार, यमलच्छद. पीतपुष्प, सुवर्णार, गिरिज, कांचनारक, युग्मपत्र, महापुष्प, ( रा० नि० ), कोविदार, मटिक ( चमरिक ), कुद्दाल, युगपत्रक, कुंडली, ताम्रपुष्प, अश्मन्तक, स्वल्पकेशरी, ( भा० ) श्वेत काञ्चन ( प० मु० ) कबुदार, कबु दारक, ( प० मु० च० ) कांचनाल, बूदार, पाकारि (१०) युगपत्र (हे० ), कांचनाल, ताम्र
२० [फा०
कचनार
पुष्प, कुद्दार, रक्तकांचन, ( ज०) चम्प ( शब्द मा० ), विदल ( शा० २०), कांडपुष्प, कांढार, यमच्छद । हिं० – सफेद कचनार । बं० - श्वेत कांचन । लेटिन में निर्गन्ध श्वेतकोविदार को बहिनिया श्रक्युमिनेटा, ( Bauhinia acuminata, Roxb.) और सुरभिकुसुम कोवि दार को बौहिनिया कंडिडा ( Bauhinia candida, Roxb.) कहते हैं ।
टिप्पणी- धन्वन्तरि तथा राजनिघण्टु को देखने से ऐसा प्रतिभास होता है कि उन्होंने 'कोविदार' में ही तीनों प्रकार के कचनार के पर्यायों का संग्रह कर दिया है और बिना किसी भेद के तीनों के गुण भी एक ही स्थान में कोविदार के अन्तर्गत लिख दिये हैं। गुण-धर्म की दृष्टि से ऐसा करना संगत भी जान पड़ता है; क्योंकि पुष्प भेद से इनके गुणों में परस्पर कोई विशेष अन्तर नहीं होता । हमने उक्त निघण्टुद्वय के सभी पर्याय यहाँ देकर, उनके पृथक् पृथक् भेदों के पर्याय भेदों के अन्तर्गत भी दे दिये हैं । इसके सिवा श्रायुर्वेदक एवं यूनानो मतानुसार सभी प्रकार के कचनार के गुणधर्म तथा प्रयोग श्रादि लाल कचनार के अंतर्गत देकर नव्यमतानुसार उनके भेदों के गुणधर्म यादि पृथक् दिये हैं । यहाँ यह भी एक विचारणीय बात है कि सफेद कचनार के जिन दो भेदों का ऊपर उल्ल ेख हुआ है। उनमें से गन्ध - रहित फूलवाले कचनार के फूल के केसरों की संख्या दस और वही सुरभीयुक्त फूलवाले के केसरोंको संख्या केवल पाँच होती है । यह उन कचनारद्वय का मुख्यभेदक चिह्न है, जिससे उनकी सन्देहरहित पहचान होसकती है । उक्त दो भेदोंके अतिरिक्त सफेद कचनारका एक भेद और है जिसे 'पा' कहते हैं। विशेष विवरण के लिए दे० "आपटा" ।
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धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेद मतानुसार
कोविदाः काय संग्राही ब्रणरोपणः । गडमाला गुड़ शशमनः
कुष्ठकेशहा ॥ ( ध० नि० )
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