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ककोड़ा
१८८५
वन्ध्याकी तिक्ता कट्वी चोष्णा लघुः स्मृता । रसायिनी शोधिनी च स्थावरादि विषापहा ॥ कफनेत्रा शिरोरोग व्रणवीसर्प कासहा । रक्तदोषं सर्पविषं नाशयेदिति कीर्त्तिता ।।
(नि० र०) बनक कोडा - कड़वा, चरपरा, गरम, हलका, रसायन, शोधक, स्थावरादि विषनाशक तथा कफ, नेत्ररोग, शिरो रोग, व्रण, विसर्प, खाँसी, रुधिरविकार और सांप के विष को दूर करनेवाला है । गण निघण्टू के अनुसार यह पक चरपरा, उष्णवीर्य है ।
केयदेव के अनुसार इसका कंद विषय ( स्थावर-जंगम ) और शिरोरोग का नाश करता है ।
बॉझ ककोड़ा के वैद्यकीय व्यवहार बन्ध्याकर्कोटकी कन्दद्रवैद्यं दिनत्रयम् । तालकं च मृतं ताम्रं द्विगु मधुना लिहेत् । पिवेत्क्षारोदकं चानु स्थौल्य रोगं विनाशयेत् ॥
अर्थात् १ रत्ती मृत ताम्र और १ रत्तो शुद्ध हरताल लेकर वाँ ककोड़े के रस में तीन दिन मन कर शहद के साथ भक्षण करने और चार जल पान करने से स्थौल्यरोग का नारा होता है। बसव रा० १८ प्र० पृ० २७४ ।
रसरत्नसमुच्चय- के मतानुसार वाँझ ककोड़े के कंद को सुखाकर उसके चूर्ण को तीन माशे की मात्रा में शहद और शक्कर के साथ सेवन करने से पथरी नष्ट हो जाती है । इसी प्रयोग से जिन लोगों
गर्मी के कारण तालू में लिग पड़ गया हो वह भी मिट जाता है।
यूनानी मतानुसारप्रकृति - उष्ण है ।
गुण, कर्म, प्रयोग - यह हलका एवं कफ और विष के विकारों को दूर करता है तथा व्रण विस्फोटकादि और aa विशेष (मांसखोरा ) को लाभकारी है | यह कड़ ुश्रा और विषविकारनाशक है तथा समस्त प्रकार के प्रकोपों का शमन करता है । इसकी जड़ जहरबाद फोड़े को बिठाती और गाढ़े सूजन को लाभ पहुँचाती है । यह देशज विष और कास को दूर करता है । ( ता० श० )
ककोर
वैद्यों के कथनानुसार बाँझ ककोड़ा कड़वा चरपरा, रुधिर विकारनाशक एवं विषघ्न है । यह हलका है और कास को लाभ पहुँचाता है । यह फोड़े फुंसी और बालख़ारे को लाभकारी है तथा सूजन उतारता, प्राणिज विषों का अगद है और बहुमूत्र (ज़ियाबेस) रोग को लाभ पहुँचाता है । इसके कंद का मुरब्बा खाने से पलकों का रोग नारा होता है। साढ़े सात माशे वा इससे किंचित् श्रधिक ऐसी एक-एक मात्रा दिन में दो बार देवें । के कई रोगों में इसके कंद का मुरब्बा लाभ प्रदान करता है। शिरोरोग की यह
मध है । खोपरे की गिरी, कालीमिर्च, लाल चंदन श्रोर अन्य श्रोषधियों के साथ इसका कंद पीसकर प्रलेप करने से सर्व प्रकार का शिरः शूल निवृत्त होता है । छिपकली के मूत से जो सूजन हो जाती है उसे मिटाने के लिये इसकी जड़ का रस सेवन है । साँप, बिच्छू और बिल्ली प्रभृति विषधर प्राणियों के काटे हुये स्थान पर इसका कंद पानो में पीसकर प्रलेप करने से तज्जन्य विष शांत होजाता है । इसका एक तोला कद शहद और चीनी के साथ चटाने से पथरी गल जाती है। विष प्रभाव जन्य मूर्च्छा में रोगी को इसके कंद की छाल मूत्र में भिगोकर काँजी के साथ पीसकर सुँघाने से वह होश में श्रा जाता है । ( ख़० ० )
तब मुस्तफ़वी में उल्लिखित है कि यह हलका, कफ एवं विषनाशक, फोड़ा-फुंसीनिवारक, कफ एवं वित्तविकारनाशक, सूजन को उतारनेवाला और क्षत (क्रुरूह साइयः अर्थात् जोशीदगी सारी ) का नाश करनेवाला है। इसका फल ? शीतल और अम्ल होता है और उसका रस हृद्य, दुधावर्द्धक और पित्तनाशक है ।
इसके कंद को १॥ तोले की मात्रा में पानी के साथ पीस कर पिलाने से वमन होकर हर प्रकार का स्थावर और जंगम विष नष्ट हो जाता है । ककोर-संज्ञा पुं० [देश० चुनार ] बेर की की एक प्रकार की कँटीली झाड़ जिसके फल झड़बेरी के श्राकार के गोल किन्तु उससे बड़े और गूदारहित होते हैं। इसकी गिरी ग़रीब लोग खाते हैं। फल स्वाद में-कपाय युक्त होते