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कङकुष्ठ
प्रकार के नाना परस्पर विरोधी मत पाये जाते हैं। अभी तक इसका कोई सर्वमान्य निर्णय नहीं हो पाया है और इसका नाम भी संदिग्ध द्रव्यावली के अंतर्गत सन्निविष्ट है। इसके विषय में इस समय दो प्रमुख मत देखने में आते हैं।
(१) मुरदाशङ्खवादी और (२) उसारहे- | रेवन्दवादी। भावप्रकाश, शालिग्राम निघण्टु इत्यादि निघण्टग्रन्थ एवं बहशः प्राचीन वैद्य प्रथम मत के अनुयायी हैं और जैपूर के सुप्रसिद्ध वैद्य स्व० स्वामी लक्ष्मीराम जी और बंबई के ख्यातनामा वैद्य जादव जी त्रिकम जी द्वितीय मत के समर्थक हैं। वि० दे० "उसारहे रेवंद"।
पर्याय-कंकुष्टं, कालकुठं, विरङ्ग, रङ्गनायकं (रङ्गदायकं), रेचकं, पुलकं, ह्रासं, शोधनं (क), कालपालकं (ध०नि०, रा०नि०), कंकुष्ठं, काककुष्ठं, विरङ्गं, कोलकाकुलं ( भा०)-सं०।
भेद-आयुर्वेद में कंकुष्ठ के इन दो भेदों का उल्लेख पाया जाता है-नालिक और रेणुक । इनमें नालिक रौप्यवर्ण अर्थात् सफेद और रेणुक स्वर्णवण अथोत् पीला होता है। दोनों में रेणुक ही अधिक गुणकारी समझा जाता है । राजनिघण्टुकार ने ताराभ्रक और हेमाभ्रक संज्ञा द्वारा उक्त कंकुष्ठ द्वय का उल्लेख किया है। भावप्रकाशकार ने इन्हें रक्तकाल और दण्डक नाम से स्मरण किया है और लिखा है
"पीतप्रभं गुरु स्निग्धं श्रेष्ठं कंकुष्ठमादिमम् । श्यामपीतं लघु त्यक्तसत्वं नेष्टं तथाऽण्डकम्" ।।
( भा० पू० वर्ग प्र. ६) रसेंद्रचूड़ामणि तथा रसरत्नसमुच्चय में इसके संबन्ध में यह लिखा है-"हिमालय की तलहठी के ऊपर के भाग में कंकुष्ठ पैदा होता है। इसकी दो जातियाँ होती हैं। एक नलिका कार और दूसरा रेणुकाकार । नलिका कंकुष्ठ पीला, भारी और स्निग्ध होता है, यह उत्तम है। रेणुका कंकुष्ठ वज़न में हलका, सत्वरहित और कालापन लिए होता है। यह निकृष्ट जाति का होता है।"
पूर्वोक्त वर्णनानुसार कुछ लोग, तुरत के जन्मे हुए हाथी के बच्चे के मल को जो काले और पीले ।
रंग का होता है, कंकुष्ठ कहते हैं। कुछ लोग घोड़े के बच्चे की नाल को कहते हैं जोकि हलके पीले रंग की पोर अत्यन्त रेचक होती है। परन्तु ये दोनों ही बातें मिथ्या हैं।
आयुर्वेदप्रकाश में भी यही मत दिया गया है। मूल-सुश्रुत में कंकुष्ठ शब्द केवल एक स्थान पर मिलता है । वि. दे. “सल्यानासो"।
गुणधर्म तथा प्रयोगककुष्ठं तिक्तकटुकं वीर्येचोष्णं प्रकीतितम् । गुल्मोदावर्त शूलघ्नं रसरशं व्रणापहम् ।।
(ध०नि० चन्दनादि ३ व.) कंकुष्ठ तिक, चरपरा और उष्णवीर्य है तथा गुल्म, उदावर्त एवं शूलनाशक, रसरञ्जक (रस, जन्तु) और वणनाराक है। कटुकं कफवातघ्नं रेचकं व्रणशूलहृत् ।
(रा. नि० १३ व०) कंकुष्ठ चरपरा (मतांतर से कटु एवं उपण ), कफनाशक, वातनाशक, रेचक और व्रण तथा शूल नाशक है। कंकुष्ठं रेचनं तिक्तं कटूष्णवर्णकारकम् । कृमिशोथोदराध्मान गुल्मानाह कफापहम् ।।
(भा० प्र० पू० वर्ग ६) कंकुष्ठ रेचक, तिक, कटु-चरपरा, उष्णवीर्य और वर्णकारक है तथा शोथ, कृमि, उदरश्राध्मान गुल्म, अनाह और कफ के रोगों का नाश करता है। कंकुष्ठं पित्तकृद्धेदि विबंधकफ गुल्मनुत्। भजेदनं विरेकार्थे ग्राहिभिर्यवमात्रया ।। नाशयेदामपूतिं च विरेच्यंक्षणमात्रतः ।
सुभक्षितं च ताम्बूलं विरेकं तं विनाशयेत् ।। __ कंकुष्ठ-पित्तकारक और भेदक है तथा यह विबंध, कफ और गुल्म का नाश करता है । इसे एक जौ की मात्रा में मलावरोध पीड़ित को देने से क्षणमात्र में दस्त होने लगते हैं और दुर्गंध आम दूर होजाती है । ( ताम्बूल भक्षण) पान खाने से वे दस्त बन्द होजाते हैं।