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कचनार
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कचनार
ऊँचा होता है । इसका तना ठिंगना और खड़ा होता है । इसका घेरा ४-५ फुट होता है। इसकी | डालियाँ पतलो २ ओर झुकी हुई होती हैं । छाल धूसर वर्ण को एक इंच मोटी किंचित् खुरदरी होती है। इसका अन्तस्तल श्वेत होता है। कूटने पर यह लाल रङ्ग की होती है। इसलिए इसकी छाल का चूर्ण लाल रंग का होता है। स्वाद में यह कुछ कुछ कसैला होता है। कचनार कई तरह का होता है और भारतवर्ष में प्रायः हर जगह मिलता है। इसकी पत्तियाँ गोल और सिरे पर दो फाँकों में कटी होती हैं, देखने में ये ऐसी प्रतीत होती हैं, मानो दो पत्तियाँ पत्रवृत को अोर से जुड़कर सिरे की ओर पृथक् हो गई हो । कदाचित इसी कारण आयुर्वेदीय निघण्टु ग्रन्थों में इसे 'युग्म-पत्र' संज्ञा द्वारा अभिहित किया गया है। पत्तों पर बारीक-बारीक नसें उठी होती हैं । पत्ते ३ से ५ इंच तक लम्बे चौड़े होते हैं। यद्यपि इनका अधस्तल स्वच्छ होता है, पर ऊर्ध्व तल सूक्ष्म रोमावृत होजाता है। यह पतझड़वाला वृक्ष है । माघ में या उसके कुछ समय बाद इसकी पत्तियाँ झड़ जाती हैं । फागुन से जेठ तक नये पत्र श्राजाते हैं। यह पेड़ अपनी कली के लिए प्रसिद्ध है। कलो हरी और लम्बी होती है और इसकी तरकारी होती और अचार पड़ता है। यह बसन्त-ऋतु में खिलती है। फूलों में भीनी सुगंध रहती है । प्रत्येक फूल में पाँच-पाँच पंखड़ी होती हैं, जिनके नीचे का भाग क्षीण और सिरे की ओर का चौड़ा होता है। ये पाँचों विषमाकृति की होती हैं । इसमें पुकेशर को संख्या पाँच होती हैं। उनके मध्य में एक स्त्री-केशर होती है। पर इसके विपरीत निगन्ध-पुष्प श्वेतकांचन में केसरों की संख्या १० होजाती है। पीतकाञ्चन में भी इतने ही केसर होते हैं। फूल के रंग के विचार से कचनार की संख्या इस प्रकार है-(१) बैंगनी या गम्भीर गुलाबी रंग का जिसे लाल फूल का कचनार कहते हैं। (२) सफेद फूलवाला-निर्गन्ध और सुगन्ध पुष्प भेद से पुनः |
इसके दो भेद हो जाते हैं। इससे भिन्न एक . प्रकार का सफेद कचनार और होता है। जिसे |
'प्रापटा' वा 'अश्मन्तक' कहते हैं । (३) पीला कचनार जिसे पीत काञ्चन कहते हैं। कचनार fasto ( Bauhinia tomentosa.) इसका अन्यतम भेद है । इनके अतिरिक्त हरे वा सफेद, पीला और हरा आदि मिलित रंग के फूल वाला कचनार भी देखा गया है । आगे इनमें से , प्रत्येक का पृथक् २ वर्णन होगा । इनमें से लाल कचनार फागुन चैत में पुषित होता है। सफेद कचनार का वृक्ष लाल कचनार के सर्वथा तुल्य होता है । यह शोत ऋतु में क्वचित् शरद ऋतु में पुषित होता है। पीले कचनार का वृहत् वृत प्रायः पर्वतों पर उत्पन्न होता है। अतएव इसका एक नाम 'गिरिज' भी है। इसका पत्र उक्त काञ्चनद्वय की अपेक्षा बृहत्तर होता है । इसलिए संस्कृत में इसे "महायमलपत्र" कहा गया है। इसका पुष भी बृहत्तर होता है । इसो कारण निघण्टुकार इसे "महापुष्प" कहते हैं । फूलों के झड़जाने पर कचनार में लम्बी लम्बी चिपटी फलियाँ लगती हैं और हर एक फलो में ६ से १२ तक बीज हमा करते हैं । ये बीज फूल आने से दो महीने के बाद पक जाते हैं। फलो लंबी और तलवार को प्राकृति की होती है। इसके पेड़ से एक प्रकार का भूरे रंग का गोंद निकलता है जो पानी में तो फूल जाता है, पर घुलता बहुत कम है। इसके बीजों से एक प्रकार का तेल निकला जाता है।
कचनार की जाति के बहुत पेड़ होते हैं । ऐन्सली मेटीरिया इन्डिका के द्वितीय भाग में लिखते हैं कि तेरह प्रकार के कचनार के पेड़ कलकत्ता के वनस्पत्युद्यान में लगाये गये हैं। प्रायः ये सभी भारतीय वृक्ष हैं। इनमें से एक प्रकार का कचनार कुराल वा कंदला ( Bauhinia Retusa. Ham.) कहलाता है, जिसका गोंद “सेम का गोंद" वा "सेमलागोंद" के नाम से बिकता है। डोमकके मतसे यह प्रापटा(B. Racemosa)का गोंद है। यह कतीरेकी तरह का होता है और पानी में घुलता नहीं। यह देहरादन को श्रोर से प्राता है और इन्द्रिय जुलाब तथा रज खोलने की दवा माना जाता है। एक प्रकार का कचनार बनराज वा अश्मन्तक ( B. Racemosa ) कहलाता है जिसकी छाल के रेशों की रस्सी बनती