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ककड़ी
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ककड़ी
ककड़ी प्रायः दो प्रकार की होती है। एक मीठी | जो कच्चे पर भी मोठी होती है। दूसरी तीती जो कच्चे पर अत्यन्त तिक होती है। पर पकने पर मीठी हो जाती है। इसके तिक भेद को हिंदी में तीत ककड़ी, कड़वी ककड़ी और बंगला में तितकाँकड़ी वा तित्काँकुड़ कहते हैं। इसके अतिरिक वह ककड़ी जो पकने पर फटती नहीं और स्वाद में कुछ कुछ खट्टी होती है, बंगला में 'गुमुक' कहलाती है । कोई-कोई बंगवासी कहते हैं कि 'गुमुक' सफेद ककड़ी को कहते हैं और यह फटती है। इसके सिवा वह जो आकार में छोटी और स्वाद में कड़वी होती है, “वनगुमुक" कहलाती है। हिंदी में इसे कचरी वा पेहंटुल कहते हैं।
इसकी एक और जाति है, जो ग्रीष्म ऋतु में जेठुई ककड़ी के साथ होती है । इसकी बेल भी उपयुक्र फूट ककड़ी की बेल के समान होती है | और फल भी प्रायः उन्हीं के समान होते हैं। कच्चे पर इसके फल नहीं खाये जाते, क्योंकि | अत्यन्त कड़वे होते हैं । पककर फूटने पर इसके फल खाये जाते हैं । उक्त दोनों प्रकार की ककड़ियाँ समस्त भारतवर्ष में बोई जाती हैं।
पारस्य देशी अर्थात् ईरानी चिकित्सकों ने इसके दो भेद लिखे हैं। उनके मतानुसार पहली वह है जो मोटी और बड़ी होती है। इसमें गूदा अधिक और बीज कम होते हैं। यह रबी की फसल के प्रारम्भ में होती है। इसका नाम 'खियाः गाज़रूनी' है । दूसरी वह जो पहली क़िस्म से छोटी होती है । इसके बीज कोमल होते हैं, पर अधिक होते हैं । यह ग्रीष्मांत में उत्पन्न होती है । इसको 'खियाजः नैशापुरी' वा 'किस्साउस्सिग़ार' छोटी ककड़ी कहते हैं। यह मधुरता
और स्वाद में पहली किस्म से बढ़ी हुई होती है। इनमें से कतिपय भेद कडुई निकलती हैं। दोनों प्रकार की ककड़ियाँ खूब पक चुकने के उपरांत खट्टी पड़ जाती हैं। विशेषतः दूसरी किस्म की यही दशा है। किसी-किसी के मत से वह ग़ाजरूनी उत्कृष्ट है, जो लम्बी, नरम और चिकनी हो
और वह निशापुरी निकृष्ट है जिस पर खुरदरी धारें हों । गीलानी के मतानुसार इसका जौहर
कद्द के जौहर के समीपतर है; क्योंकि यह भी पार्थिव एवं जलीयांशों से संघटित है। परन्तु उससे शीघ्रतर परिपाचित होजाती है। मौलाना नफीस किर्मानी का यह मत कि किस्साऽ गोल और कच्चा खरबूज़ा है, विलक्षण एवं साथ ही हास्यास्पद भी है।
पर्याय-उर्वारः, कर्कटी, व्यालपत्रा, लोमशा, स्थूला, तोयफला, हस्तिदन्तफला (ध० नि०, रा. नि०), एर्वारुः (रा०नि०), मूत्रफलं, वालुकं, प्रालम्ब (केयदेव ) एर्वार:' कर्कटी (भा०)। उरिः, इरिक ( भरतःद्विरूपकोष ), ऐरुिः (मद• व० ७, च० द० प्रदर-चि०), कर्काकः, रुारुका, कर्कटिका, ग्रीष्म कर्कटी, रुर्वारकसं० । बड़ी ककड़ी, फूट की ककड़ी; फूट (पका हुश्रा), कचड़ा ( कच्चा)-हिं० । काँकुड़, फुटीबं० । किर स.-१० । ख़ियाज़ः, खियाजः गाज़रूनी, लियाः निशापुरी-फ्रा० । क्युक्युमिस मोमोर्डिका ( Cucumis momordica, Linn.) ले | Cucumber Momordica) अं० । कंतरि-काय-ता० । पेद्द-काय, पेद्ददोसर, नक्कदोस, दोसकाया-ते. ।
टिप्पणी-धन्वन्तरीय तथा राजनिघण्टु में जो पंद्रह प्रकार के पुष विशेष का उल्लेख देखने में आता है, वे वस्तुतः त्रपुष के भेद नहीं, अपितु उद्भिदशास्त्रानुसार पुष वा कुष्माण्डवर्गीय उद्भिद विशेष हैं। उनमें से उद्भिदद्वय अर्थात् एर्वारु-फूट ककड़ी और कर्कटी-जेहुई ककड़ी का उल्लेख उपर्युक पंकियों में किया गया है। इनके अतिरिक्र उक्त वर्ग में दो प्रकार को ओर कर्कटी अर्थात् 'चीणा कर्कटी' और 'गोपालकर्कटी' का उल्लेख मिलता है। इनमें से चीणा वा चीनाकर्कटी को किसी ने चिचिंडा तो किसी ने चित्रकूट देशीय ककड़ी विशेष वा चीना ककड़ी लिखा है। इसी प्रकार कर्कटी को किसी ने एक प्रकार की अरण्यकर्कटी वा गोपालकाँकडी तो किसी ने कचरी वा पेहंटुल और किसी ने कुंदरू लिखा है । वस्तुतः यह कचरी का एक भेद है। इनका विवेचनात्मक एवं निर्णयात्मक विवरण यथास्थान दिया जायगा। ऐसे ही चिर्भिट, चिर्भट को किसी ने