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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन आराधना
न
कन्द्र
महावीर
कोबा.
॥
अमर्त
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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श्री जिनदत्तसूरि प्राचीनपुस्तकोद्धार फण्ड.
ग्रन्थाङ्कः ३८
॥ अर्हम् ॥
जैनाचार्यश्रीमज्जिनकृपाचन्द्रसूरीश्वराणां शिष्येण
प्रवर्त्तक-मुनि सुखसागरेण संगृहीतः
सुनापित-संग्रहः
कोटानिवासी दीवानबहादूर शेठ केशरीसिंहजी बुद्धिसिंहजी बाफना द्रव्यसाहाय्येन
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प्रकाशकः
जिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार - सुरत.
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प्रतिः ५००
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= =e e @ = =? श्री जिनदत्तसूरिप्राचीनपुस्तकोद्धार फण्ड.
ग्रन्थाङ्कः ३८
॥ अहम् ॥ जैनाचार्यश्रीमज्जिनकृपाचन्द्रसूरीश्वराणां शिष्येण
प्रवर्तक-मुनि सुखसागरेण संगृहीतः ।
सन्नाषित-संग्रहः
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कोटानिवासी दीवानबहादूर शेठ केशरीसिंहजी
बुद्धिसिंहजी बाफना द्रव्यसाहाय्येन
प्रकाशकः
जिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार-सुरत.
प्रतिः ५००
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वीर संवत् २४६०
विक्रम संवत् १९९०
मुद्रक:
राट देवचंद दामजी मानन्द प्रिन्टींग प्रस
भावनगर.
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श्रीमद् जङ्गम युगप्रधान भट्टारक खरतरग
च्छाधीश्वर श्री कृपाचन्द्रसूरीश्वराणाम्
अष्टकम.
शार्दूलविक्रीडितम् श्रीमन्तः श्रुतदर्शनावनपराश्चारित्रमुख्यव्रताः । स्वस्याचार्यपरंपरागतमहागच्छाग्यपीठेश्वराः ॥ धर्मोद्धारमहाव्रतस्य विधिवत् संपादने तत्पराः । जीयासुर्गणपालका जिनकृपाश्चन्द्राख्यसूरीश्वराः ॥ १॥ नानाशास्त्रविचारनिर्णयविधौ तवार्थसंपादकाः । सद्धर्माचरणप्रचारणपरा वाणीश्वरस्पर्धिनः । सम्यक्त्वैकपथानुगाः पटुतमस्फुर्जन्मतिप्रक्रमाः। जीयासुर्गणपालका जिनकृपाश्चन्द्रारूयसूरीश्वराः ॥ २ ॥ यैः स्वीयैः प्रखरप्रतापदहनैर्दग्ध्यात्मीयान्तररिपून् । जैनेषु कृतकृत्यतां खरतरे त्युच्चंपदं प्रापितं ॥ सदरत्नत्रिकपालनाय सततं बद्धोधमाः सवेतः। जीयासुगणपालका जिनकृपाश्चन्द्राख्यसूरीश्वराः ॥३॥
शिखरणीवृत्तम् श्रिया सेव्यो मुक्त्यै सुरनरफणीन्द्रश्च मुनिभिः । धिया ध्येयो धर्मे सुरगुरुसमानैश्च कविमिः ॥
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( ४ ) मिया हेयोऽजस्रं भवमलमलिष्ठै प्रकुमतिभिः । क्रियानिष्ठः सोऽव्याद् भुवि जिनकृपाचन्द्रयतिराट् ।।४ । अपाकर्तुं दोषान् निखिलजनगान् दोषजनकान् । भ्रमद् ग्रामाद् ग्रामं जिनसदुपदेशानुपदिशन् । सुशिष्यान् सच्छाद्धान् विनयरसपात्रांश्च विदधत् । कृपाचन्द्राचार्यों जगति यतिसूर्यो विजयताम् ॥ ५ ॥ मलिष्टान् मिथ्यात्वाग्रहमतविलीनान् जनगणान् । महीनान कुर्वन् श्रुतपदसुधास्नानकरणैः ।। पृथिव्यां चारित्र्यं श्रुतगणमयोदर्शन मवन् । कृपाचन्द्राचार्यो जगति यतिस्र्यों विजयताम् ६॥
स्रग्धरावृत्तम्
श्रीम(मा)न्मान्यो वदान्यो जनहितनिरतो विश्वतो वन्धमानः । प्रीत्या सत्योपदेशैः श्रुतचरणपरैः प्राणिमिनन्द्यमानः ।। प्राचार्याचार्यमुख्यः खरतरगणपः श्रीकृपाचन्द्रमरिः। पाखण्डान् खण्डयन् स स्वमतिततिबलैः पातु नः पूज्यपाद:७
पुष्पितामा अधिमुवि जय तात्प्रवर्तकश्रीमुनिसुखसागरमोक्षमंत्रदाता। खरतरगणपः कृपादिचन्द्रो मुनिवरमंडलमानितः स सूरिः ॥८॥
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the SSSSSS दिवान बहादुर शेठ केसरीसिहजी साहब
कोटा-रतलामवाले
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Banker & Honorary Government Treasurer
KOTA (Rajputana)
در سریال پرستاری کاری
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॥ अहम् ॥ ॥ सुन्नापित संग्रह ॥
धर्माराधन का फल ।
यत्कन्याणकरोऽवतारसमयः स्वप्नानि जन्मोत्सवो । यद्रत्नादिकवृष्टिरिन्द्रविहिता यद्रूपराज्यश्रियः॥
यद्दानं व्रतसंपदुज्ज्वलतरा यत्केवल श्रीनवा । .. यद्रम्यातिशया जिने तदखिलं धर्मस्य विस्फुर्जितम् ॥१॥ तीर्थकरो की राज्यलक्ष्मी ।
संती कुंथू अ अरो, अरिहंता चेव चकवट्टी । ।
अवसेसा तिथ्थयरा, मंडलिया आसि रायाणो ॥२॥ धर्म से सात प्रकार की वृद्धि होती है।
मायुर्वृद्धिर्यशोवृद्धि-वृद्धिः प्रज्ञासुखश्रियां ।
धर्मसंतानवृद्धिश्च, धर्मात्सप्ताऽपि वृद्धयः ॥३॥ बीज से बीज होता है । धर्मवृद्धि ।
बीजेनैव भवेद्वीजं, प्रदीपेन प्रदीपकः । द्रव्येणैव भवेद् द्रव्यं, भवेनैव भवांतरः ॥४॥
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( २ ) धर्म से संतानवृद्धि।
बालाण रवो तुरियाण, हिंसणं बंदिविन्दनिग्घोसो। गुरुओ मंथासदो, धन्नाण घरे समुच्छलइ ॥ ५ ॥ वरबालामुहकमलं, बालमुहं धूलिधूसरच्छायं ।
सामिमुहं सुपसन्नं, तिनि वि सग्गं विसेसति ॥ ६ ॥ प्रस्थान समय यह मंगलिक के लीए होते है । कन्यागोपूर्णकुंभं दधिमधुकुसुमं पावकं दीप्यमानं । यानं वा गोप्रयुक्तं करिनृपतिरथः थं) शंखवाद्यध्वनिवर्वा । उत्क्षिप्ता चैव भूमी जलचरमिथुनं सिद्धमन्नं यतिर्वा । वेश्यास्त्रीमद्यमांसं जनयति सततं मंगलं प्रस्थितानां ॥७॥
श्रमणस्तुरगो राजा, मयूरः कुञ्जरो वृषः ।
प्रस्थाने वा प्रवेशे वा, सर्वसिद्धिकरा मताः ॥८॥ भोजराजा के लिये मंत्रीयों का विलाप ।
अद्य धारा निराधारा, निरालम्बा सरस्वती ।
पण्डिता रण्डिताः सर्वे, त्वयि भोज दिवं गते ॥ ६ ॥ दया रहित को दीक्षादि नक्कामी है ।
न सा दीक्षा न सा भिक्षा, न तदानं न तत्तपः।
न तद्ध्यानं न तन्मौनं, दया यत्र न विद्यते ॥ १० ॥ योगीश्रेष्ठ स्थूलीभद्र अथवा सब से बड़ा दानी, मानी, भोगी और योगी यह है।
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श्रीशान्तिनाथादपरो न दानी, दशार्णभद्रादपरो न मानी। श्रीशालिभद्रादपरो न भोगी, श्रीस्थूलभद्रादपरो न योगी।११॥ बुद्धि आदि का सार क्या है ? बुद्धेः फलं तच्चविचारणं च, देहस्य सारं व्रतधारणं च । अर्थस्य सारं किल पात्रदान, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् भ्रमर की माफक सब से सार लेना चाहीए ।
षट्पदः पुष्पमध्यस्थो, यथा सारं समुद्धरेत् ।
तथा सर्वेषु कार्येषु, सारं गृह्णाति बुद्धिमान् ॥१३॥ बहोत धनवाले की दसा बुरी है । दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीमुजो । गृह्णन्ति च्छलमाकलय्य हुतभुग भस्मीकरोति क्षणात् ॥ अम्मा प्लावयति क्षितौ विनिहितं यक्षा हरन्ति हठाद् । दुर्वृत्तास्तनया नयन्ति निधन धिग्बह्वधीनं धनम् ॥१४॥ वस्तुपाल तेजपाल के धन का सद्व्यय ।
जैनागारसहस्रपञ्चकमविस्फारं सपादाधिकं । लक्षं श्री जनमतयस्तु विहिताः प्रोत्तुंगमाहेश्वराः ॥ प्रासादाः पृथिवीतले ध्वजयुताः सार्ध सहस्रद्वयं । प्राकाराः परिकल्पिता निजधनैात्रिंशदत्र ध्रुवम् ॥१॥ सत्रागारशतानि सप्त विमला वाप्यश्चतुःषष्टयः । उच्चैः पौषधमन्दिराणि प्रवरा जैनाश्च शैवा मठाः ॥
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देह की अनित्यता ।
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( ४ )
विद्यायाच तथैव पञ्चशतिकाः प्रत्येकतः प्रत्यहं | पञ्चत्रिंशशतानि जैनमुनयो गृह्णन्ति भोज्यादिकम् ॥ १६ ॥
देह का सार क्या है ?
क्षीराब्धेरमृतं धने वितरणं वाणीविलासेऽनृतं । देहेऽन्योपकृतिस्तरौ शुभफलं वंशे च मुक्ताफलं ॥ मृत्स्नायां कनकं सुमे परिमलः पङ्के पयोजं यथा । संसारे पुरुषायुषं निगदितं सारं तथा कोविदैः ॥ १७ ॥
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
युगे युगे व्यतीतानि, कस्याहं कस्य बान्धवाः १ ॥ १८ ॥
शालभद्र का महान् आश्चर्य ।
पूर्वं न मंत्रो न तदा विचारः, स्पर्धा न केनापि फले न वाञ्छा । पश्चानुतापोऽनुशयो न गर्यो, हर्षस्तथा संगम के बभूव ॥ १६ ॥ पुण्यहीन के मनोरथ सिद्ध नहीं होते ।
वनकुसुमं कृपणश्रीः, कूपच्छाया सुरंगधूली च । तत्रैव यान्ति विलयं, मनोरथा भाग्यहीनानाम् ||२०|| पुन्यशाली का कर्तव्य |
शिष्टे संग ः श्रुतौ रंगः, सद्ध्याने धीर्धृतौ मतिः । दाने शक्तिर्गुरौ भक्तिः, षडेते सुकृताकराः ॥ २१ ॥
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(५) संगति का माहात्म्य ।
पश्य संगस्य माहात्म्यं, स्पर्शपाषाणयोगतः ।
लोहं स्वर्णीमवेत् स्वर्ण,-योगात्काचो मणीयते ॥२२॥ संसर्ग से दोष और गुण आते है । गवाशनानां स वचः शृणोति,अहं च राजन् मुनिपुंगवानाम् । प्रत्यक्षमेतद्भवतापि दृष्ट, संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ॥२३॥ मन ही मोक्ष को बन्ध को प्राप्त करता है ।
मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धस्तु(स्य) विषयासंगे(गो), मुक्तनिर्विषयं मनः॥२४॥ मणमरणे इं(d)दियमरणं, इंदियमरणे मरंति कम्माई ।
कम्ममरणेण मुक्खो, तम्हा मणमारणं बिति ।। २५ ॥ हस्तादि दानादि से शोभते है। दानेन पाणिर्न तु कंकणेन, मानेन तृप्तिन तु भोजनेन । भनेन कान्तिनं तु चन्दनेन, ध्यानेन मुक्तिनं तु दर्शनेन ॥२६॥ मत का धन अच्छा नहीं है । दुर्मियोदयमन्त्रसंग्रहपरः पत्युर्वध बन्धकी। ध्यायत्यर्थपतेर्मिषग्गदगणोत्पातं कलिं नारदः ॥ दोषग्राही जनश्च पश्यति परच्छिद्रं छलं राक्षसी । निःपुत्रं म्रियमाणमाढ्यमवनीपालो हहा वाञ्च्छति ॥२७॥
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( ६ )
दान कहीं भी नक्कमा नहीं होता ।
पात्रे धर्मनिबन्धनं तदपरे प्रोद्यद्दयाख्यापकं । मित्रे प्रीतिविवर्धकं रिपुजने वैरापहारक्षमं ॥
भृत्ये भक्तिभरावदं नरपतौ सन्मानपूजाप्रदं । भट्टादौ च यशस्करं वितरणं न क्वाप्यहो निष्फलम् ||२८|| गुरुमति विना संब निष्फल है ।
विना गुरुभ्यो गुणनीरधिम्यो, जानाति धर्म न विचचणोऽपि । यथार्थसार्थं गुरुलोचनोऽपि, दीपं विना पश्यति नांधकारे । २९| जैसी भावना वैसी सिद्धि ।
मन्त्रे देवें गुरौ तीर्थे दैवज्ञे स्वमभेषजे ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥ ३० ॥
असार से सार लेना चाहिए ।
दानं वित्तातं वाचः, कीर्तिधर्मों तथायुषः । परोपकरणं कायाद, सारात्सारमुद्धरेत् ।। ३१ ।। म्यादिपाणी के फेन समान है ।
कल्लोलचपला लक्ष्मीः, संगमाः स्वप्नसन्निभाः । - वात्याव्यतिकरोत्क्षिप्त, - तूलतुल्यं च यौवनम् ॥ ३२ ॥ कृपण का धन निष्फल होता है । शास्त्रैर्निःप्रतिभस्य किं गतदृशो दीप्रैः प्रदीपैश्च किं । किं क्लीवस्य वधूजनैः प्रहरणैः किं कातरस्योम्बणैः ॥
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किं वाचैधिरस्य भूषणगणैर्लावण्यहीनस्य किं । किं भोज्यैर्ध्वरजर्जरस्य विभवैः प्रौढेरदातुश्च किं ? ॥३३॥ वाणी सच्ची बोलनी चाहिए।
सत्यपूतं वदेद्वाक्य, वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, मनःपूतं समाचरेत् ॥ ३४ ॥ हरणादि मरे हुए शरीर से परोपकार करते हैं। कस्तूरी पृषतां, रदाः करटिनां, कृत्तिः पशूनां, पयो, धेनूनां, छदमंडलानि शिखिना, रोमाण्यवीनामपि ॥ पुच्छस्नायुवसाविषाणनखरस्वेदादिकं किञ्चन । स्यात्कस्याप्युपकारि मर्त्यवपुषो नामुष्य किश्चित्पुनः।।३।। इन्द्रियदमन कठिन है। विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो ये चाम्बुपत्राशिनस्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः । प्राहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवास्तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भः समालोक्यताम् ॥३६॥ पशुपक्षी भि काल से काम का सेवन करते है । सिंहो बली द्विरदशकरमांसभोजी,
संवत्सरेण रतिमेति किलैकवारं । पाराषतः खरशिलाकणभोजनोऽपि,
कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः ॥ ३७॥
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( ८ ) काम को जितनेवाले स्थूलभद्र को धन्य है। वेश्या रागवती सदा तदनुगा षड्भी रसैर्भोजनं,
रम्यं धाम मनोहरं वपुरहो नव्यो वयम्संगमः । कालोऽयं जलदाविलस्तदपि यः कामं जिगायादरात् ,
तं वन्दे युवतिप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलभद्रं मुनिम् ॥३८॥ कलियुग का प्रभाव । धर्मः पर्वगतस्तपः कपटतः सत्यं च दूरे गतं, पृथ्वी मंदफला नृपाश्च कुटिलाः शस्त्रायुधा ब्राह्मणाः । लोकः स्त्रीषु रतः स्त्रियोऽतिचपला लोल्ये स्थिता मानवाः, साधुः सीदति दुर्जनः प्रभवति प्रायः प्रविष्टः (टे) कलिः(लौ)३६। निवर्या पृथिवी निरौषधिरसा नीचा महत्त्वं गता, भूपाला निजधर्मकर्मरहिता विप्राः कुमार्गे रताः । मार्या भर्ववियोगिनी पररता पुत्राः पितुषिणो, हा ! कष्टं खलु दुर्लभाः कलियुगे धन्या नराः सजनाः।४०। विद्वत्ता वसुधातले विगलिता, पाण्डित्यधर्मो गतः । श्रोतृणां हृदयेष्वबुद्धिरधिका, ज्ञानं गतं चारणे ॥ गाथागीतविनोदवाक्यरचनायुक्त्या जगदंजितं । ज्योतिर्वैद्यकशास्त्रसारमखिलं शरेषु जातं कलौ ।। ४१ ॥ सीदंति संतो विलसंत्यसंतः, पुत्रा म्रियन्ते जनकश्चिरायुः । स्वजनेषु रोषश्च परेषु तोषः, पश्यन्तु लोकाः कलिकौतुकानि
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दाता दरिद्रः कृपणो धनाढयः,पापी चिरायुः सुकृती गतायुः। कुलीनदास्यं ह्यकुलीनराज्यं,कलौ युगे षद् गुणमावहन्ति।४३॥ यह दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते है। मत्तंगा भिंगंगा, तुडिअंगा दीवसिह जोइसिहा । चित्तंगा चित्तरसा, मणिभंगा गेहागारा अणिगा य ॥४४॥ देव की अपेक्षा मनुष्य जन्म अच्छा है ।
देवा विसयपसत्ता, नेरइया विविहदुक्खसंतत्ता ।
तिरिमा विवेगविगला, मणुभाणं धम्मसामग्गी ॥४॥ धन के सिवाय सब नक्कमा है। जातियतु रसातलं गुणगणस्तस्याप्यधो गच्छतां, शीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः संदह्यतां वह्निना । शौर्ये वैरिणि वज्रमाशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं, येनकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे ॥ ४६ ॥ पुण्य के चिह्न ।
कुंकुम कजल केवडो भोजन कूरकपूर ।
कामिनी कंचन कप्पडां एह पुण्य अंकूर ।। ४७ ॥ भाग्य से ज्यादा कोई नहीं देता । भाग्याधिकं नैव नृपो ददाति, तुष्टोऽपि वित्तं खलु याचकस्य । रात्री दिवा वर्षतु वारिधारा,तथापि पत्रत्रितयं पलाशे॥४८॥
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(१०) मोक्षाभिलाषी जिनेश्वर पर प्रीति रखता है।
देहे द्रव्ये कुटुम्बे च, सर्वसंसारिणां रतिः ।
जिने जिनमते संघ, पुनर्मोचाभिलाषिणाम् ॥ ४६ ।। पांच प्रमाद । मजं विसयकसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । एए पंचपमाया जीवं पाडंति संसारे ॥५०॥ वर्ष मेघ कुणालायां दिनानि दश पंच च । मुशलप्रमाण(लमान)धाराभिर्यथा रात्रौ तथा दिवा ॥५१॥ भाग्यहीन को पास में रही लक्ष्मी नहीं दीखती । पदे पदे निधानानि, योजने रसकूपिकाः । भाग्यहीना न पश्यन्ति, बहुरत्ना वसुंधरा ॥ ५२ ॥ तीर्थ में जानेवाला भवभ्रमण नहीं करता है ।
श्रीतीर्थपाथरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु बंभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति । द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः,
पूज्या भवंति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ ५३ ॥ पुरुष पृथ्वी का आभूषण है। वसुधाभरणं पुरुषाः, पुरुषाभरणं प्रधानतरलक्ष्मीः । लक्ष्म्याभरणं दानं, दानाभरणं सुपात्रं च ॥ ५४॥
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( ११ ) द्रव्य के विना सब निष्फल है । साकारोऽपि सविद्योऽपि, निद्रव्यः कापि नाय॑ते । व्यक्ताक्षरः सुवृत्तोऽपि, द्रम्मा कूटो यथा जने ॥ ५५ ॥ धनवाला सर्व श्रेष्ठ है। यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः,स पंडितः स श्रुतवान् गुणज्ञः। स एव वक्ता स च दर्शनीयः, सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते।५६। धन अन्याय से नहीं लेना चाहिए। अन्यायोपार्जितं वित्तं, दश वर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते त्वेकादशे वर्षे, समूलं च विनश्यति ।। ५७ ॥ दान और भोग नहीं करनेवाले का धन नहीं रहता। दानं भोगो नाश-स्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुङ्के, तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥५८॥ दातव्यं भोक्तव्यं, सति विभवे संचयो न कर्त्तव्यः । पश्येह मधुकरीणां, संचितमर्थ हरन्त्यन्ये ॥ ५९ ॥ नकार की विचित्रता। नाणं नियमग्गहणं, नवकारो नयरुई अनिट्ठा य । पंच नविभूसियाणं, न दुलहा सुग्गई लोए ॥ ६० ॥ नारी-नदी-नरेन्द्राणां, नागानां च नियोगिनां । नखिनां च न विश्वासः, कर्तव्यः श्रियमिच्छता ॥ ६१ ॥
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( १२ )
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ज्ञान का प्रभाव ।
यानपात्रसमं ज्ञानं, बुडतां भववारिधौ । मोहान्धकारसंहारे, ज्ञानं मार्तंडमण्डलम् || ६२ ॥
मणिमिसनया मणक-ज साहया पुष्कदाम अमिलाया । चउरंगुलेण भूमिं न बिन्ति सुरा जिला बिंति ॥ ६३ ॥
पंचपरमेष्ठि का माहात्म्य |
संग्रामसागरकरीन्द्रभुजंगसिंहदुर्व्याधिवह्निरिपुबन्धन संभवानि । चौरग्रहव्रजनिशाचरशाकिनीनां,
नश्यन्ति पञ्चपरमेष्ठिपदैर्भयानि ।। ६४ ।।
प्रभुपूजा का महत्त्व |
यो लक्षं जिनबद्धलक्ष्यसुमनाः सुव्यक्तवर्णक्रमः । श्रद्धावान् विजितेन्द्रियो भवहरं मन्त्रं जपेत् श्रावकः || पुष्पैः श्वेतसुगंधिभिश्च विधिना लक्षप्रमाणैर्जिनं । यः संपूजयते स विश्वमहितः श्रीतीर्थराजो भवेत् ॥ ६५॥ नवकार का महिमा |
नमस्कारसमो मन्त्रः, शत्रुंजयसमो गिरिः । आदिनाथसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ।। ६६ ॥ जो गुणइ लक्खमेगं, पूअइ जिणं (गुणइ ) च नवकारं । तित्थयर नामगोयं, सो बंधइ नत्थि संदेहो ॥ ६७ ॥
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( १३ ) नवकारइक्कमक्खर, पावं फेडेइ सत्तअइराणं । पन्नासं च पयाणं, सागरपणसमग्गेण ॥ ६८ ॥ पचेन्द्रिय को सेवन करनेवाला कैसे नहीं नष्ट होता ?
कुरंग-मातंग-पतंग-भंगा, मीना हताः पंचभिरेव पंच । एकाप्रमादी स कथं न हन्यात् , यः सेवते पंचभिरेव पंचा६९। संसार विरक्तता। पूमा पञ्चक्खाणं, पडिकमणं पोसहो परुवयारो। पंच पयारा जस्स उ, न पयारो तस्स संसारे ॥ ७० ॥ शौचादि काकादि में नहीं होते है । काके शौचं, घृतकारेषु सत्यं क्लीबे धैर्य, मद्यपे तत्त्वचिंता । सर्पक्षान्तिः,स्त्रीषु कामोपशांती,राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ।७१॥ जिनपूजा का महत्त्व । सायरजलस्स पारं, पारं जाणामि तारगाणं वा।। गोयम जिणवरपूत्रा,-फलस्स पारं न जाणामि ॥ ७२ ॥ चैत्यवंदन दक्षिण भाग से करना ।
अर्हतो दक्षिणे भागे, दीपस्य विनिवेशनं ।
ध्यानं तु दक्षिणे भागे, चैत्यानां वन्दनं तथा ॥७३॥ गुरु का महत्त्व । विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थ,
सुगतिकुगतिमार्गों पुण्यपापे व्यनक्ति ।
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( १४ ) अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुयो,
भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् ॥७४।। हितशिक्षा बालक से भी लेनी चाहिए।
बालादपि हितं ग्राह्य-ममेध्यादपि काश्चनं ।
निचादप्युत्तमा विद्या, स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥ ७५ ।। धूतासक्तता ।
स वटः पंच ते यक्षा, ददति च हरन्ति च ।
अक्षान् पातय कन्याणि, यद्भाव्यं तद्भविष्यति ॥७६॥ भावना फलदायी होती है।
भावना मोक्षदा स्वस्य, स्वान्ययोस्तु प्रभावना ।
प्रकारेणाधिकं मन्ये, भावनातः प्रभावनाम् ।। ७७ ॥ पुण्यानुबन्धी पुण्य ।
दया दानेषु (नं च) वैराग्यं, विधिवजिनपूजनं । विशुद्धा न्यायवृतिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥७॥ देवद्रव्य नहीं खाना चाहिए।
देवद्रव्येण या वृद्धि,-गुरुद्रव्येण यद्धनं ।
तद्धनं कुलनाशाय, मृतोऽपि नरकं व्रजेत् ॥ ६ ॥ स्वर्ग से पात कब होता है ? प्रभास्वं (साधारणद्रव्यं) ब्रह्महत्या च, दरिद्रस्य च यद्धनं । गुरुपत्नी देवद्रव्यं, स्वर्गस्थमपि पातयेत् ।। ८०॥
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( १५ ) विद्यादि यत्न से आते है। यत्नानुसारिणी विद्या, लक्ष्मीः पुण्यानुसारिणी। दानानुसारिणी कीर्ति-बुद्धिः कर्मानुसारिणी ॥ ८१ ॥ देवपूजा में कैसे पुष्प लेना ?
नैकपुष्पं द्विधा कुर्या-न्न छिन्द्यात् कलिकामपि ।
चंपकोत्पलभेदेन, भवेदोषो विशेषतः ।। ८२ ।। गुरु कैसा होना चाहिए।
नरयगइगमणपडिह-त्थए कए तहय पएसिणा रण्णा।
अमरविमाणं पत्तं, तं आयरिअप्पभावेण ॥ ३ ॥ अभयदान महिमा ।
हेमधेनुधरादीनां, दातारः सुलभा भुवि ।
दुर्लभः पुरुषो लोके, यः प्राणिध्वभयप्रदः ॥८४॥ पशुधात करनेवाले की दशा।
यावन्ति रोमकूपाणि, पशुगात्रेषु भारत ! ।
तावन्ति वर्षलक्षाणि, पच्यन्ते पशुघातकाः ॥ ८५ ॥ भावना से क्या होता है ?
दारिद्यनाशनं दानं, शीलं दुर्गतिनाशनं ।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा, भावना भवनाशिनी ॥ ८६ ।। ऋषि का उपशमभाव । सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं, मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजंग ।
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वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोन्ये त्यजन्ति, श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहं ॥८७॥ मृग का पश्चात्ताप ।
भावण भावे हरिणउ, नयणे नीर झरन्त ।
मुणि विहरावत भावसुं, जो हुं माणस हुंत ॥ ८ ॥ रात्रिभोजन नहीं करने का फल ।।
ये च रात्रौ सदाहारं, वर्जयन्ति सुमेधसः ।
तेषां पक्षोपवासस्य, फलं मासेन जायते ।। ८९ ॥ शील का महिमा । श्रीमन्नेमिजिनो दिनोऽधतमसा जम्बुप्रभुः केवली,
सम्यग्दर्शनवान् सुदर्शनगृही स स्थूलभद्रो मुनिः । सञ्चंकारी सरस्वती च सुभगा मीता सुभद्रादयः,
शीलोदाहरणे जयन्ति जनितानंदा जगत्यद्भुताः ।९०। गृहस्थ के षट्कर्म ।
देवपूजा गुरूपास्तिः, स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने ॥९१॥ तीर्थकर की पूजा का फल । मायुष्कं यदि सागरोपमामितं व्याधिव्यथावर्जितं,
पाण्डित्यं च समस्तवस्तुविषयं प्रावीण्यलब्धास्पदं । जिह्वा कोटिमिता च पाटवयुता स्यान्मे धरित्रीतले,
नोशनोमि तथापि वर्णितुमलं तीर्थेशपूजाफलम् ॥१२॥
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( १७ ) ब्रह्मचर्य सब से श्रेष्ठ है। पौदार्येण विना पुंसां, सर्वेऽन्ये (सर्वान्या) निष्फलाः कलाः। अमचर्य विना याद्, यतीनां निष्फला गुणाः ॥१३॥ पुरुषोत्तम कोण है ? स्त्रीणां श्रीणां च ये वश्या-स्तेऽवश्यं पुरुषाधमाः । स्त्रियः श्रियश्च यद्वश्या-स्तेऽवश्यं पुरुषोत्तमाः ॥ ९४ ॥ धर्मलाभ का माहमा । दीर्घायुः स्वस्ति धनवान् , पुत्रवान् प्रमुखाः परे । पाशीवादा अमी सर्वे, धर्मलाभस्य किंकराः ॥६५॥ प्रारंभे नस्थि दया, महिलासंगेण नासए बंभं । .. संकाए सम्मत्तं, पव्वजा दव्यग्ग(ग)हणेणं ॥ ९६ ॥ विनय का माहात्म्य ।
विणो सासणे मूलं, विणो संजो भवे ।
विणयाओ विप्पमुक्कस्स, को धम्मो को तवो ॥९७॥ जिनपूजा का महिमा । महाव्याधिग्रस्तः शटितवसनो दीनवदनो,
बुभुक्षाक्षामात्मा परगृहशतप्रेक्षणपरः । सुदुःखातों लोके भ्रमति हि भवे येन कुधिया, न सद्भक्त्या ध्यातो ननु जिनपतिश्चिंतितफलः॥९८॥
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(१८) पांच प्रकार के शौच ।
सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
सर्वभूतदया शौचं, जलशौचं च पंचमं ॥९९॥ पात्रपरीक्षा।
मूर्खस्तपस्वी राजेन्द्र, विद्वांश्च वृषलीपतिः । उभौ तौ तिष्ठतो द्वारे, कस्य दानं प्रदीयते ॥१०॥ श्वानचर्मगता गंगा, चीरं मद्यघटस्थितं । कुपात्रे पतिता विद्या, किं करोति युधिष्ठिर ? ॥१०१॥ न विद्यया केवलया, तपसापि च पात्रता ।
यत्र विद्या चरित्रे(त्र) च, तद्धि पात्रं प्रचक्ष्यते ॥१०२॥ जीवन का फल । भवणं जिणस्स न कयं, न य बिवं न य पहना साहू । दुद्धरवयं न धरियं, जम्मो परिहारिओ तेहिं ।। १०३ ॥ न देवपूजा न च पात्रपूजा, न श्राद्धधर्मश्च न साधुधर्मः । लब्ध्वापि मानुष्यमिदं समस्तं, कृतं मयारएपविलापतुल्यं ॥
॥१०४॥ उदारभावना ।
अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतसां । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ १०५ ॥
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( १९ ) देवांशी कोण होता है ?
देवपूजा दया दानं, दाक्षिण्यं दक्षता दमः ।
यस्यैते षट् दकाराः स्युः, स देवांशो नरः स्मृतः॥१०६॥ चार प्रकार का धर्म । दानं सुपात्रे विशदं च शीलं, तपो विचित्रं शुभभावना च । भवाणेवोत्तारणसत्तरंडं, धर्म चतुर्धा मुनयो वदन्ति ॥१०७॥ अभयदान प्रशंसा ।
यो दद्यात्कांचनं मेरु, कृत्स्नां चैव वसुंधरां ।
एकस्य जीवितं दद्या-न च तुल्यं युधिष्ठिर! ॥१०८ ॥ अहिंसाव्रत श्रेष्ठ है। ___ अपि वंशक्रमायाता, यस्तु हिंसां परित्यजेत् ।
स श्रेष्टः सुलस इव, कालसूकरिकात्मजः ॥ १०९ ॥ पात्र की प्रशंसा । भौमे मंगलनाम विष्टिविषये भद्रा कणानां आये, वृद्धिः शीतलिकेऽतितीव्रपिटके राजा रजःपर्वणि । मिष्टत्वं लवणे विषे च मधुरं राः कंटकान्या यथा, पात्रत्वं च पणांगनासु रुचिरं नाम्ना तथा नार्थतः ॥११०॥ दया सर्वत्र करना चाहिये।
दानक्षणे महेच्छानां, किं पात्रापात्रचिंतया । दीनाय देवदृष्याध, यथादात्कृपया प्रभुः ॥ १११ ॥
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( २० ) अपकारिष्वपि कृपा, सुधीः कुर्याद्विशेषतः ।
दंदशकं दशंतं श्री-वीरः प्राबोधयद्यथा ॥ ११२ ॥ प्रमचारी पवित्र है ?
शुचि भूमिगतं तोयं, शुचिर्नारी पतिव्रता ।
शुचिर्धर्मपरो राजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः ॥११३॥ प्रतभंग से क्या होता है ?
प्राणान्तेऽपि न भक्तव्यं, गुरुसाक्षिकृतं व्रतं ।
व्रतमंगोऽतिदुःखाय, प्राणा जन्मनि जन्मनि ॥११४॥ स्त्री-चरित्र की विचित्रता ! रविचरियं गहचरियं, ताराचरियं च राहुचरियं च । जाणंति बुद्धिमंता, महिलाचरियं न जाणंति ॥ ११५ ॥ तप का प्रभाव ।
चक्रे तीर्थकरैः स्वयं निजगदे तैरेव तीर्थेश्वरैः, श्रीहेतुर्भवहारि दारितरुजं सन्निर्जराकारणं । सद्यो विघ्नहरं हृषीकदमनं मांगल्यमिष्टार्थकृत,
देवाकर्षणमारदर्पदलनं तस्माद्विधेयं तपः ॥ ११६॥ कोप वर्जनीय है।
एकेन दिनेन तनो-स्तेजः षण्मासिकं ज्वरो हति । कोपःक्षणेन सुकृतं, यद-र्जितं पूर्वकोट्यापि ॥११७॥
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( २१ ) कपाय से हानि ।
कषाया देहकारायां, चत्वारो यामिका इव ।
यावजाग्रति ते पापा-स्तावन्मोक्षः कुतो नृणां ॥११८॥ मुक्ति का मंत्र । माशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, न तत्त्ववादे न च तर्कवादे । न पक्षसेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ।।
दानादि से रहित का जीवन निष्फल है ।
दानं तपस्तथा शीलं, नृणां भावेन वर्जितं ।
अर्थहानिस्तथा पीडा, कायक्लेशश्च केवलं ॥ १२० ॥ सद्भाव से क्या फल होता है ?
दुग्धं देयानुमानेन, कृषिर्मेघानुसारतः ।
लाभो व्ययानुसारेण, पुण्यं भावानुसारतः ॥१२॥ भाव का महिमा ।
भावेषु विद्यते देवो, न पाषाणे न मृन्मये । नरत्नेन च सौवर्णे, तस्माद्भावो हि कारणम् ।।१२२।।
सात क्षेत्र।
जिनभवनविम्बपुस्तक-चतुर्विधश्रमणसंघरूपाणि । सप्त क्षेत्राणि सदा, जयन्ति जिनशासनोक्तानि ॥१२॥
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( २२ ) वक्ता का लक्षण ।
शतेषु जायते शूरः, सहस्रेषु च पण्डितः।
वक्ता शतसहस्रेषु, दाता भवति वा न वा ॥ १२४ ॥ भागम लिखने का फल । न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति, न मूकतां नैव जडस्वभाव । नैवान्धतां बुद्धिविहीनतां च, ये लेखयन्त्यागमपुस्तकानि ।।
॥ १२५ ॥ धर्म का फल ।
न कयं दीणुद्धरणं, न कयं साहम्मियाणवच्छल्लं ।
हिययंमि वीयराओ, न धारिश्रो हारिो जम्मो ।।१२६॥ उत्तम पात्र कोण है ?।
उत्तमपत्तं साहू, मज्झं पत्तं सुसावगा भणिया ।
अविरयसम्मदिही, जहन्नपत्तं मुणेयव्वं ॥ १२७ ॥ पूजा का महिमा । संसाराम्भोधिबेडा शिवपुरपदवी दुर्गदारियभूभृ
दंगे दम्भोलिभूता सुरनरविभवप्राप्तिकल्पद्रुकल्पा । दुश्खाग्नेरम्बुधारा सकलसुखकरी रूपसौभाग्यकर्वी, पूजा तीर्थेश्वराणां भवतु भवभृतां सर्वकन्याणकर्ती॥१२८ । सयं पमञ्जणे पुण्णं, सहस्सं च विलेवणे । सयसाहस्सिया माला, अणंतं गीयवाइए ॥ १२६ ॥
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( २३ ) वीतराग कैसे हो सकते है ? ।
वीतरागं स्मरन् योगी, वीतरागत्वमश्नुते ।
ईलिका भ्रमरीभीता, ध्यायंती भ्रमरी यथा ॥ १३० ॥ जिनपूजा का महिमा । स्वर्गस्तस्य गृहांगणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुभा,
सौभाग्यादिगुणावलिविलसति स्वैरं वपुर्वेश्मनि । संसारः सुतरः शिवं करतलकोडे लुठत्यंजसा, __ यः श्रद्धाभरभाजनं जिनपतेः पूजां विधत्ते जनः ।१३१॥ तवनियमेण य मुक्खो, दाणेण य हुंति उत्तमा भोगा। देवचणेण रजं, अणसणमरणेण इंदत्तं ॥१३२ ।। यास्याम्यायतनं जिनस्य लभते ध्यायंश्चतुर्थ फलं,
षष्ठं चोत्थितुमुद्यतोऽष्टममथो गंतुं प्रवृत्तोऽध्वनि । श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात् प्राप्तस्ततो द्वादशं,
मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतो मासोपवासं फलम् ।१३३॥ बस्तुपाल की तीर्थयात्रा का वर्णन । चत्राणां हयशस्वबंदिषु भवेद् द्रव्यव्ययः प्रायशः, शृंगारे पणयोषितां च वणिजां पराये कृषी क्षेत्रियां । पापानां मधुमांसयोर्व्यसनिनां स्त्रीचूतमद्यादिके, भूमध्ये कृपणात्मनां सुकृतिनां श्रीतीर्थयात्रादिषु ॥१३४।।
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( २४ )
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स्त्रीधों की जूठी प्रशंसा |
,
नो सत्येन मृगाङ्क एव वदनीभूतो न चेन्दीवरद्वन्द्वं लोचनतां गतं न कनकैरप्यङ्गयष्टिः कृता । किं त्वेवं कविभिः प्रतारितमनास्तवं विजानन्नपि, त्वङ्मांसास्थिमयं वपुर्मृगदृशां मत्वा जनः सेवते १३५
यदेतत्पूर्णेन्दुद्युतिहरमुदाराकृतिधरं.
मुखाब्जं तन्वङ्गयाः किल वसति यत्राधरमधुः । इदं तत्किम्पाकद्रुमफलमिवातीव विरसं,
व्यतीतेऽस्मिन् काले विषमिव भविष्यत्य सुखदम् । १३६ । व्यादीर्घेण चलेन वक्रगतिना तेजस्विना भोगिना,
नीलाब्जद्यतिनाऽहिना वरमहं दष्टो न तच्चक्षुषा । दष्टे संति चिकित्सका दिशि दिशि प्रायेण पुण्यार्थिनो, मुग्धाक्षीक्षणवीक्षितस्य नहि मे वैद्यो न वाप्यौषधम् १३७ नूनं हि ते कविवरा विपरीतबोधा, ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् ||
याभिर्विलोलतरतारकदृष्टिशतैः,
शक्रादयोऽपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः १ ॥ १३८ ॥
सम्पत्ति कहां जाती है ? |
स किं सखा साधु न शास्ति याऽधिपं, हितान्न यः संशृणुते स किं प्रभुः ।
सदाऽनुकूलेषु हि कुर्वते रतिं, नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः
सर्वसम्पदः ।। १३९ ॥
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( २५ ) पूर्वपुण्य का फल मीलता है।
पूर्वोपार्जितपुरयानां, फलमप्रतिमं खलु ।
पुण्यच्छेदेऽथवा सर्व, प्रयाति विपरीतताम् ॥ १४० ॥ श्रोत्रिय की व्याख्या ।
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेया. संस्काराद् द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं, त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते ॥१४॥ प्रभु की स्तवना । वहिज्वालावलीढं कुपथमथनधीर्मातुरस्तोकलोक
स्याग्रे संदर्य नागं कमठमुनितपः स्पष्टयन् दुष्टमुच्चैः। यः कारुण्यामृताब्धिर्विधुरमपिकिल स्वस्य सद्यः प्रपद्य,
प्राज्ञैः कार्य कुमार्गस्खलनमिति जगौ देवदेवं स्तुमस्तम् ।। दानप्रशंसा । दानेन भूतानि वशीभवन्ति, दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् । परोऽपि बन्धुत्वमुपैति दानात् , ततः पृथिव्यां प्रवरं हि दानम् ।। व्याकरण की महत्ता । अङ्गीकृतं कोटिमितं च शास्त्रं, नाङ्गीकृतं व्याकरणं च येन। न शोभते तस्य मुखारविन्दं, सिन्दूरबिन्दुर्विधवाललाटे ॥ धर्म को जल्दी करना चाहिए ।
अजरामरवत्प्राज्ञो, विद्यामर्थं च चिन्तयेत् । गृहीत इव केशेषु, मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ १४५ ॥
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( २६ ) विद्याप्रशंसा।
गतेऽपि वयसि ग्राह्या, विद्या सर्वात्मना बुधैः ।
यद्यपि स्यान सुलभा, सुलभा सान्यजन्मनि ॥१४६॥ न चौरहार्य न च राजहार्य, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि। व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, विद्याधनं सर्वधनं प्रधानम् ॥ धर्महीन पशु है। भाहारनिद्राभयमैथुनं च, सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥ काम की उपशान्ति ।
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ १४९ ॥ द्वारिध निन्दा ।
हे ! दारिद्र ! नमस्तुभ्यं, सिद्धोऽहं त्वत्प्रसादतः ।
अहं सर्वत्र पश्यामि, मां च कोऽपि न पश्यति ॥१५०॥ वीर कोण है ?
संपदि यस्य न हों, विपदि विषादो रणे च धीरत्वम् । तं भुवनत्रयतिलकं, जनयति जननी सुतं विरलम् ॥१५॥ कर्तव्य नहि भूलना चाहीए ।
कर्त्तव्यमेव कर्तव्यं, प्राणैः कण्ठगतैरपि । अकर्तव्यं न कर्त्तव्यं, प्राणैः कण्ठगतैरपि ॥ १५२॥
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( १७ ) कालिदास का भोज से प्रश्न । खादन गच्छामि हसन्न भाषे, गतं न शोचामि कृतं न मन्ये । द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन् ! अस्मादृशाः केन गुणेन मुखाः। तृष्णा निरुपद्रव है।
यौवनं जरया ग्रस्त, शरीरं व्याधिपीडितम् ।
मृत्युराकासति प्राणा-स्तृष्णका निरुपद्रवा ॥१५४॥ दरिद्रता सर्वशून्य है।
अपुत्रस्य गृहं शून्यं, दिशः शून्या ह्यबान्धवाः ।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं, सर्वशून्या दरिद्रता ॥ १५५ ॥ समय व्यर्थ नहीं करना ।
धर्मारम्भे ऋणच्छेदे, कन्यादाने धनागमे ।
शत्रुधातेऽग्निरोगे च, कालक्षेपं न कारयेत् ॥ १५६ ॥ ब्रह्मचारी की गति ।
एकरात्र्युषितस्यापि, या गतिब्रह्मचारिणः ।
न सा क्रतुसहस्रेण, वक्तुं शक्या युधिष्ठिर ! ॥१५७।। राजा सब का आश्रय है।
दुर्बलानामनाथानां, बाल वृद्धतपस्विनाम् ।
अनार्यैः परिभूतानां, सर्वेषां पार्थिवो गतिः॥१५८।। भय कहाँ नहीं जाता ?। उद्यमे नास्ति दारिद्रय, जपतो नास्ति पातकम् । मौनेन कलहो नास्ति, नास्ति जागरतो भयम् ॥ १५९ ॥
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( २८ ) पार्श्वप्रभुस्तुति । कोऽयं नाथ ! जिनो भवेत्तव वशी हूँ हूँ प्रतापी प्रिये !, हूँ हूँ तर्हि विमुश्च कातरमते शौर्यावलेपक्रियां। मोहोऽनेन विनिर्जितः प्रभुरसौ तकिकराः के वयं, इत्येवं रतिकामजन्पविषयः पार्थः प्रभुः पातु नः ॥१६॥ जाति कारण नहीं है।
श्वपाकीगर्भसंभूतः, पाराशरमहामुनिः।
तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥१६१॥ कैवर्तीगर्भसंभूतो, व्यासो नाम महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १६२ ॥ शशकीगर्भसंभृतः, शुको नाम महामुनिः।। तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥ १६३ ॥ न तेषां ब्राह्मणी माता, संस्कारश्च न विद्यते । तपसा ब्राह्मणो(णा) जात(ता)-स्तस्माजातिरकारणम् ।१६४। शूद्रोऽपि शीलसंपन्नो, गुणवान् ब्राह्मणो भवेत् । ब्राह्मणोऽपि क्रियाहीनः, शूद्रापत्यसमो भवेत् ।। १६५॥ जीव का होम करनेवाले अपने संबंधी का होम क्युं नहीं करते। नाहं स्वर्गफलोपभोगरसिको, नाभ्यर्चितस्त्वं मया, संतुष्टस्तृणभक्षणेन सततं, साधो न युक्तं तव । स्वर्गे यांति यदि त्वया विनिहता, यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो, यज्ञ किं न करोषि मातृपितृभिः, पुत्रैस्तथा बांधवैः ॥१६६।।
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( २९ ) इन को गंगा पवित्र नहीं करती। चित्तं रागादिभिः क्लिष्टं, अलीकवचनैर्मुखम् ।
जीवघातादिभिः कायो, गङ्गा तस्य पराङ्मुखी ॥१६७॥ हिंसा की व्याख्या। पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च,
उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिक्ता
स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा । १६८ ॥ लक्ष्मी का प्रभाव । पूज्यते यदपूज्योपि, यदगभ्योऽपि गम्यते । वंद्यते यदवंद्योऽपि, तत्प्रभावो धनस्य च ॥१६६ ॥ जिन की व्याख्या
रागो द्वेषस्तथा मोहो, जितो येन जिनो ह्यसौ ।
अस्त्रीशस्त्राक्षमालात्वा-दहनेवानुमीयते ॥ १७ ॥ चोर निष्फल कैसे हो ?।
आदिचौरकपिलस्य, ब्रह्मलब्धवरस्य च । तस्य स्मरणमात्रेण, चोरो गच्छति निष्फलम् ।। १७१ ॥ दिवा काकरवाभीता, रात्रौ तरति नर्मदा । तत्र किं मकरो नास्ति, सा हि जानाति सुंदरी ॥१७२॥
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( ३० )
लंका का नाश ।
दिधक्षन्मारुतेर्वालं तमादीप्यद् दशाननः ।
प्रात्मीयस्य पुरस्यैव, सद्यो दहनमन्वभूत् ॥१७३ ॥ नारी आश्रित को कलंकित करती है ।
लोके कलंकमपहातुमयं मृगाङ्को, जातो मुखं तव पुनस्तिलकच्छलेन । तत्रापि कल्पयसि तन्वि कलंकरेखां,
नार्यः समाश्रितजनं हि कलंकयन्ति ॥१७४॥ शान्तिप्रिय कोण है ?। काव्यं सुधा रसज्ञानां, कामिना कामिनी सुधा । धनं सुधा सलोभाना, शान्तिः संन्यासिनां सुधा ॥१७॥ आत्मशिक्षा । यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरौषधीना
माविष्कृतोऽरुणपुरःसर एकतोऽर्कः । तेजोद्वयस्य युगपद् व्यसनोदयाभ्यां,
लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु ॥ १७६ ॥ सद्गुणी का लक्षण ।
स्वश्लाघा परनिंदा च, लक्षणं निर्गुणात्मनाम् । परश्लाघा स्वनिंदा तु, लक्षणं सद्गुणात्मनाम् ॥१७७॥
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उत्तमता गुण से आती है।
गुणैरुत्तमतां याति, न तु जातिप्रभावतः ।
क्षीरोदधिसमुत्पन्ना, कालकूटः किमुत्तमः १॥ १७॥ अतिपरिचय का निषेध । अतिपरिचयादवज्ञा, भवति विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः । लोकः प्रयागवासी, कूपे स्नानं सदा कुरुते ॥ १७६ ।। मित्रता कहां करना ? मृगा मृगैः संगमनुव्रजति, गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरंगैः । मुखांश्च मूखैः सुधियःसुधीभिः, समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ।। सच्चा वीतराग कोण है ?। . प्रशमरसनिमग्नं दष्टियुग्मं प्रसन्नं,
वदनकमलमंकः कामिनीसंगशून्यः । करयुगमपि यत्ते शस्त्रसंबन्धवन्ध्यं,
तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव ।। १८१॥ निर्मल ज्ञानी सम्यक्त्वहीन नहीं हो सकता। जानन्ति यद्यपि चतुर्दश चारुविद्या,
देशोनपूर्वदशकं च पठन्ति सार्थम् । सम्यक्त्वाश ! न धृतं तव नैव तेषां,
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥१८२॥
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( ३२ )
काक भी काक का विवेक करता है ।
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प्रभु को नमस्कार ।
काकोऽप्याहूय काकेभ्यो, दवान्नाद्युपजीवति । ततोsपि हीनस्तदहं भोगान् भुंजे विना समृन् ॥ १८३॥
यह सब घातक हैं |
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नमस्तुभ्यं जगन्नाथ, विश्वविश्वोपकारिणे ! | श्राजन्मब्रह्मनिष्ठाय दयावीराय तायिने ॥ १८४ ॥
हन्ता पलस्य विक्रेता, संस्कर्ता भचकस्तथा । क्रेतानुमन्ता दाता च, घातकाः सर्व एव ते ।। १८५ ॥
महात्मा को दुःख नहीं देना चाहिए ।
महात्मगुरुदेवाना - मश्रुपातः चितौ यदि । देशभ्रंशो महद्दुःखं, मरणं च भवेद् ध्रुवम् ।। १८६ ॥
श्राघ्रातं परिचुम्बितं परिमुहुर्लीढं पुनः चर्वितं, त्यक्तं वा भुवि नीरसेन मनसा तत्र व्यथां मा कृथाः । हे ! सद्रत्न तदा तवैव कुशलं यद्वानरेणादरादन्तःसारविलोकन व्यसनिना चूर्णीकृतं नाश्मना । १८७ |
यह सब दूसरे के लिये है ।
वृक्षच्छाया यतिद्रव्यं, कीटिकाधान्यसंचयः । पिता पालयते कन्या, ते सर्वे परकारणम् ॥ १८८ ॥
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( ३ ) विषय के लिये क्या २ होता है ?
भिक्षाशनं तदपि नीरसमेकवारं, शय्या च भूः परिजनो निजदेहमानं । वस्त्रं च जीर्णशतखंडमयी च कंथा,
हा हा तथापि विषया न परित्यजन्ति ॥ १८६ ।। सर्व श्रेष्ठ क्या है ?।
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥१९० ॥ प्रभु की स्तुति । सिद्धार्थराजांगज देवराज!, कल्याणकैः षड्भिरित स्तुतस्त्वम् । तथा विधेयांतरवैरिषद्कं, यथा जयाम्यद्य तव प्रसादात् ।१६१। निद्रादि से रहित कोण होता है। चिंतातुराणां न सुखं न निद्रा ।
__ कामातुराणां न भयं न लजा। अर्थातुराणां स्वजनो न बंधुः।
नुधातुराणां न बलं न तेजः ॥ १२ ॥ भावसे रहित धर्म क्या काम का ?। गुरुं विना न विद्या स्यात् , फलं नैव विना तरुम् । नाब्धिपारो विना नावं, धर्मो मावं विना न हि ।।१९३।।
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(३४) धर्म को करना श्रेष्ठ है। संसारम्मि असारे नत्थि सुहं वाहिवेअणापउरे । जाणंता इह जीवा न कुणइ जिनदेसियं धम्मं ॥ १६४ ॥ न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुआ जत्थ, सजीवा अणंतसो ॥१६॥ अलस्स मोहवना थंभा कोहा य लोह किवनत्तं । निद्दा विगहा य कीडा इसा नेह च वीरायतं ॥ १९६ ॥ वचन में दरिद्रता क्यों करना ।
प्रियवाक्यप्रसादेन सर्वे तुष्यन्ति जंतवः ।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता ? ॥ १९७ ॥ दम्भी से सब ठगाते है। त्रिदशा अपि वंच्यंते, दाम्मिकैः किं पुनराः ।।
देवी यक्षश्च वणिजा, लीलया वंचितावहो ॥ १९८ ॥ रक्षक भक्षक होंगे तो रक्षण कोण करेगा ? माता यदि विषं दद्यात, पिता विक्रयते सुतं । राजा हरति सर्वस्वं, पूत्कर्तव्यं ततः क च ? ॥ १९९ ।। प्रथमं डंबरं दृष्ट्वा, न प्रतीयाद् विचक्षणः । अत्यल्पं पठितं कीरं, मेने च कुट्टिनी यथा ॥२०० ॥ संग्रह फलदायी है।
कृतो हि संग्रहो लोके, काले स्यात् फलदायकः । मृतसर्पसंग्रहेण, लेभे हारं वणिक पुरा ॥२०१॥
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( ३५ ) कर्म ही सब कुछ है।
वैद्या वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारं, ज्योतिर्विदो ग्रहगणादिनिमित्तदोषं । भूतोपसर्गमथ मंत्रविदो वदन्ति,
कर्मेति शुद्धमतयो यतयो वदंति ॥२०२॥ पशुवत् जीवन कीस का है ? । नानाशास्त्रसुभाषितामृतरसैः श्रोत्रोत्सवं कुर्वतां, येषां यान्ति दिनानि पंडितजनव्यायामखिन्नात्मनां । तेषां जन्म च जीवितं च सफलं तैरेव भूर्भूषिता, शेषैः किं पशुवविवेकविकलैः भूभारभूतैनरैः ।। २०३ ॥ निःस्पृह को जगत् तृण तुल्य है। तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम् । विरक्तस्य तृणं नारी, निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥ २०४ ॥ क्षणं तुष्टः क्षणं रुष्टो, नानापूजां च वांछति । कन्याराशिस्थितो नित्यं, जामाता दशमो ग्रहः ॥ २०५॥ यह पांच जीने पर भी मरे समान है । जीवन्तोऽपि मृताः पंच, व्यासेन परिकीर्तिताः । दरिद्रो व्याधितो मूर्खः, प्रवासी नित्यसेवकः ॥ २०६॥ अतिलोभ नहीं करना ।
एकं दृष्ट्वा शतं दृष्ट्वा, दृष्ट्वा सप्त शतानि च । - अतिलोमामिभूतस्य, चक्र भ्रमति मस्तके ॥२०७॥
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( ३६ ) स्त्री के स्वाभाविक दोष ।
वंचकत्वं नृशंसत्वं, चंचलत्वं कुशीलता ।
इति नैसर्गिका दोषा, यासांतासु रमेत कः ॥२०॥ पांच अनर्थ । मर्मवाग् दासविश्वासः, स्वैः कलिः खलसंगतिः । विरोधो बलिभिश्चामी, पंचाना प्रपंचकः ॥२०६ ।। कर्म की महत्ता । नमस्यामो देवान् ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा, विधिवंद्यः सोऽपि प्रतिनियतकमैकफलदः। फलं कर्मायत्तं यदि किममरैः किं च विधिना ?, नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ॥ २१०॥ क्रोध क्या नहीं करता । क्रोधः कृपावल्लिदवानलोऽयं,
क्रोधो भवांमोनिधिवृद्धिकारी । क्रोधो जनानां कुगतिप्रदाता,
क्रोधो हि धर्मस्य विघातविघ्नः ॥२११ ॥ स्वकर्मनिरताः सर्वे नान्यशिक्षामपेक्षते ॥ २१२ ॥ जीवदया सर्व श्रेष्ठ है। व्यर्थ दानं मुधा ज्ञानं, वृथा निग्रंथतापि हि ।। अनार्या योगचर्यापि, न चेत् जीवदया भवेत् ॥२१३॥
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( ३७ ) सच्चे और नित्य कुटुम्बी कोण है ? धर्मों यस्य पिता क्षमा च जननी भ्राता मनःसंयमो, मित्रं सत्यमिदं दया च भगिनी वीरागता गेहिनी । शय्या भूमितलं दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजनं, यस्यैतानि सदा कुटुम्बमनघं तस्येह कष्टं कथं ? ॥२१४॥ वह्नि प्रशंसा ।
तेजोमयोऽपि पूज्योऽपि, पापिना नीचधातुना ।
अयसा संगतो वह्निः, सहते घनताडनम् ॥ २१५ ॥ नाच संगकी निन्दा । महतोऽपि कुसंसर्गात् महिमा हीयते किल । कियन्नन्दति कर्पूरगन्धो लशुनसंगतः ॥ २१६ ॥ अंबस्स य निंबस्स य दुण्हवि समागयाई मूलाई । संसग्गए विणहो, अंबो निंवत्तणं पत्तो ॥ २१७ ।। कर्म की प्रधानता। इन्द्रोऽपि कीटतां याति, नरकं चक्रवर्त्यपि । पृथ्वीनाथोऽपि भृत्यत्वं, धनाढ्योऽपि दरिद्रताम् ॥ २१८ ॥ नीरोगोऽपि सरोगत्वं दौर्भाग्यं सुभगोऽपि च । सर्वसुख्यपि दुःखित्वं, समर्थोऽप्यसमर्थताम् ॥२१९ ॥ कौन कारण से नारी दूसरा पति कर सकती है । ( पुराण) पत्यौ प्रव्रजिते क्लीवे प्रनष्टे पतिते मृते । पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ २२० ।
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( ३८ ) मानभंग नहीं होना चाहिये । वरं प्राणपरित्यागो, न मानपरिखण्डनम् । प्राणनाशात् क्षणं दुःखं मानभंगात् दिने दिने ॥ २२१ ॥ सब भाग्याधीन है। अन्यथा चिंतितं कार्य दैवेन कृतमन्यथा । राजकन्याप्रसादेन मृदंगीमरणं भवेत् ।। २२२ ॥ कैसे देव देव हो सकते है। हास्यादिष चतुरः कषायान्, पंचाश्रवान् प्रेममदौ च केलिम् । तत्याज यस्त्याजयते च दोषान्, देवः स सेव्यः कृतिभिः
. शिवाय ॥ २२३ ।। ब्रह्म का लक्षण ।
सत्यं ब्रह्म तपो ब्रह्म ब्रह्म चेन्द्रियनिग्रहः ।
सर्वभूतदया ब्रह्म एतद्ब्राह्मणलक्षणं ॥ २२४ ॥ ब्राह्मण होने पर शूद्र जैसा कोण है ।
ब्रह्मकुले च संभूतः, क्रियाहीनश्च यो नरः।
नाम्ना स ब्राह्मणो भूत्वा, शूद्रापत्यसमो भवेत् ।।२२।। शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकते। जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते । शूद्रकुले च संभूतः ब्राह्मणः किं न जायते ॥ २२६ ॥
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रात्रिभोजन निषेध |
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( ३९ )
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अस्तंगते दिवानाथे, आपो रुधिरमुच्यते । अनं मांससमं प्रोक्तं, मार्कण्डेन महर्षिणा ।। २२७ ॥
सच बन्धु को है ? ।
श्रादौ धर्मधुरा कुटुम्बनिचये, क्षीणे च सा धारिणी, विश्वासे च सखी हिते च भगिनी, लज्जावशाच्च स्नुषा । व्याधौ शोकपरिवृते च जननी, शय्यास्थिते कामिनी, त्रैलोक्येऽपि न विद्यते भुवि नृणां भार्यासमो बान्धवः ॥
॥ २२८ ॥
एको ध्यानमुभौ पाठं त्रिभिर्गीतं चतुःपथम् । पंच सप्त कृषिं कुर्यात्, सङ्ग्रामं बहुभिर्जनैः ॥ २२६ ॥ सुगुणं विगुणं नैव गणयंति दयालत्रः,
॥ २३० ॥
दश प्रकारकी नरक पीडा ।
ज्वरोष्णदाहभयशोकतृष्णा कण्डूबुभुचा अपि पारवश्यम् । शीतं पुनर्नारकिणामतीव दशप्रकाराः प्रभवन्ति पीडाः ॥
॥ २३१ ॥
घोर नरक कीसके मिलता है ।
धर्मभ्रष्टा हि ते ज्ञेयास्तमाखुधूम्रपानतः । पतन्ति नरके घोरे रौरखे नात्र संशयः ।। २३२ ।। तमाखु - मंग-मधानि ये पिबन्ति नराधमाः । तेषां हि नरके वासो यावद् ब्रह्मा चतुर्मुखः || २३३ ॥
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( ४० )
ये पिबन्ति तमाखुं वै लक्ष्मीर्नश्यति तद्गृहात् । दारिद्र्यं वसति तेषां गुरौ भक्तिर्न संभवेत् ॥ २३४ ॥ घोरे कलियुगे प्राप्ते सर्वे वर्णाश्रमे रताः । तमालं भक्षितं येन स गच्छेत् नरकार्णवे ।। २३५ ॥
ब्रह्मा भी खुश नहीं रहता ।
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि तं नरं न रञ्जयति ।। २३६ ॥
मातंगी प्रथमे प्रोक्ता द्वितीये रजकी मता । रजस्वला तृतीये च शूद्रा तुर्ये च वासरे ॥ २३७ ॥
जातिका प्रभाव |
नेच्छन्ति प्राकृतं मूर्खा मक्षिका चन्दनं यथा । क्षीरानं शूकरा यद्वद्, घूका इव रविप्रभाम् ॥ २३५ ॥
तमाखुपान निन्दा |
ब्राह्मणाः चत्रिया वैश्याः शूद्राय मुनिसत्तम ! | श्वपचैः सदृशा ज्ञेयास्तमाखुपानमात्रतः ।। २३९ ॥ धूम्रपानरतं विप्रं दानं कुर्वन्ति ये नराः । दातारो नरकं यान्ति ब्राह्मणो ग्रामशूकरः ॥ २४० ॥ यस्तमाखुं पिबेत् सोऽपि स्वाश्रमान्निरये पतेत् । नारदाऽत्र न संदेहः सत्यं सत्यं मयोदितम् ॥ २४१ ॥
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( ४१ )
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- कालिदास का उत्तर |
कियदत्र जलं विप्र ! जानुदन्नं नराधिप ! | तदा केयमवस्था ते, न हि सर्वे भवादृशाः ॥ २४२ ॥ रामचन्द्र स्तुति |
"
यद्भग्नं धनुरीश्वरस्य शिशुना यद् जामदग्न्यो जितः, त्यक्ता येन गुरोर्गिश वसुमती बद्धो यदम्भोनिधिः । एकैकं दशकंधरस्य भयकृत् रामस्य किं वर्ण्यते, दैवं वर्णय येन सोऽपि सहसा नीतः कथाशेषतां ॥ २४३ ॥
देह असारता ।
यदि नामास्य कायस्य यदंतस्तद्वहिर्भवेत् । दण्डमादाय लोकोऽयं, शुनः काकश्च वारयेत् ॥ २४४ ॥ उप्तो यः स्वत एव मोहसलिलो जन्मालवालोऽशुभो, रागद्वेषकषायसन्ततिमहानिर्विघ्न वीजस्व या । रोगैरंकुरितो विपत्कुसुमितः कर्मद्रुमः साम्प्रतं सोढा नो यदि सम्यमेष फलितो दुःखैरधोगामिभिः ॥ २४५॥ साधुप्रशंसा |
सावद्ययोगविरतो, गौरवत्रयवर्जितः । त्रिगुप्तः पंचसमितो रागद्वेषविनाकृतः ॥ २४६ ॥ निर्ममो नगरवसत्यं गोपकरणादिषु । ततोऽष्टादशशीलांगसहस्रधारणोद्धुरः || २४७ ।। निरन्तरं यथाशक्ति, नानाविधतपः परः । संयमं सप्तदशधा, धारयन्नविखण्डितम् ॥ २४८ ॥
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(४२) अष्टादशप्रकारं च ब्रह्मचर्य समाचरन् । यत्रेग् ग्राहको दानं, तत्स्याद् ग्राहकशुद्धिमत् ॥२४९ ॥ नित्यवस्तु को न छोडना चाहिए। विहाय जम्बुको मांसं, तीरे मीनाय धावितः । मीनोऽपि प्राविशत्तोयं, मांसं गृध्रोऽप्यपाहरत् ॥ २५० ॥ व्यसनी की पास लक्ष्मी नहिं जाती है। प्रासन्ने व्यसने लक्ष्म्या, लक्ष्मीनाथोऽपि मुच्यते । प्रकृतिव्यत्ययः प्रायो भवत्यंते शरीरिणाम् ।। २५१ ।। विषयसेवन निन्दा।
आमसूत्रव्यूतखवा-धिरोहणसहोदरम् । भवभूमौ निपाताय, नृणां विषयसेवनम् ॥ २५२ ॥ दुःख की सीमा नहिं है। भाविकार्यानुसारेण, वागुच्छलति जल्पताम् । अस्मिन्नसारे संसारे, निसर्गेणाऽतिदारुणे । अवधिनास्ति दुःखानां, यादसामिव वारिधौ ॥ २५३ ॥ साधु की वाणी निष्फल नहीं होती है । ब्रुवते हि फलेन साधवो, न तु कष्टेन निजोपयोगिताम् कर्म कः स्वकृतमत्र न भुङ्क्ते दुर्जया हि विषया विदुषापि बुद्धिशाली कोण है । झटिति पराशयवदिनो हि विज्ञाः ।। २५५ ।।
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(४३) गुण कहां रहते है। यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति ॥ २५६ ॥ अवश्यभव्येष्वनवग्रहग्रहा, यया दिशा धावति वेधसः स्पहा। तृणेन वात्येव तयाऽनुगम्यते, जनस्य चित्तेन भृशावशात्मना ॥ कथं विधातर्मयि पाणिपङ्कजा-त्तव प्रिया शैत्यमृदुत्वशिल्पिनः। वियोक्ष्यसे वल्लभयेति निर्गता लिपिर्ललाटंतपनिष्ठुराऽक्षरा ।। ममैव शाकेन विदीर्णवक्षसा, त्वया विचित्रांगि विपद्यते यदि । तदाऽस्मि दैवेन हतोऽपि हा हतः, स्फुटं यतस्ते शिशवः
परासवः ॥ २५९ ।।. आपत्तिकाले बुद्धि नष्ट होती है। असंभवं हेममृगस्य जन्म तथापि रामो लुलुमे मृगाय । प्रायः समापनविपत्तिकाले धियोऽपि पुंसां मलिना भवन्ति ।। भाग्यकी विचित्रता। कान्तं वक्ति कपोतिकाऽऽकुलतया, नाथांत कालोऽधुना, व्याधोऽधो धृतचापसजितशरः, श्येनो नमो भ्राम्यति । इत्यस्मिन्नहिना स दष्ट इषुणा, श्येनोऽपि तेनाहतस्तूर्ण तौ तु यमालयं प्रति गतौ, दैवी विचित्रा गतिः ॥ प्रकृतेर्महाँस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्यः पंच भूतानि ॥ २६२ ॥
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( ४४ )
पंचविंशतितत्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे रतः । जटी मुंडी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ।। २६३ ॥
असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावात् च सत्कार्यम् ॥ २६४॥
भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्व । कारण कार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य ।। २६५ ॥
ब्रह्माकी स्तुति ।
रजोजुषे जन्मनि सच्चवृत्तये स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे । अजाय सर्गस्थितिनाशतंत्रिणे त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः ॥ पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवन्यार्थ तथा प्रधानस्य । पुग्वन्द्यवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥ २६६ ॥
रागान्धकी दशा कैसी होती है ।
दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागान्धस्तु यदस्ति तत्परिहरन् यन्नास्ति तत् पश्यति । कुन्देदीवर पूर्ण चन्द्रकलशश्रीमल्लतापल्लवानारोप्याशुचिराशिषु प्रियतमा - गात्रेषु यन्मोदते ॥ २६७ ॥
चाद्यपि यदि चोद्यं स्यात् तव चोद्यं चोद्यते मया । तस्माच्चोद्यं परीहार्य नास्ति चोद्यस्य चोद्यता ॥ २६८ ॥
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(४५) समय पर सब अच्छा लगता है। अनागतं यः कुरुते स शोभते न शोभते यो न करोत्यनागतम्। वने वसन्तस्य जराप्युपागता बिलस्य वाचा न कदापि निर्गता।। धर्मकी त्वरितगति होती है। अर्बुमेकोविलंबेषु विलंबेसजनग्रहै । परदाराविलंबेषु धर्मस्य त्वरिता गतिः॥ २७० ।। जाप्यं शतगुणं पुण्यं अजाप्यं लक्षमेव च । गुप्तं कोटिगुणं पुण्यं सेवादानस्य निष्फलम् ।। २७१ ।। क्षमा तपस्वी का रूप है। कोकिलानां स्वरं रूपं नारीरूपं पतिव्रता । विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् ॥ २७२ ॥ अन्म किसका नकमा है। धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते । अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम् ॥ २७३ ।। पण्डित कोण है। प्रस्तावसदृशं वाक्यं स्वभावसदृशं प्रियम् । आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः ॥ २७४ ॥ सत्त्व कोण है। प्राणा द्वि-त्रि-चतुःप्रोक्ताः भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्वाः प्रकीर्तिताः ॥२७॥
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(४६) अच्छे का संग अच्छा। वरं न राज्यं न कुराज्यराज्यं. वरं न दारा न कुदारदाराः । वरंन मित्रं न कुमित्रमित्रं, वरं न शिष्यो हि कुशिष्यशिष्यः २७६ दिवा निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्रौ नैव च नैव च । विचरन्ति महाधूर्ताः, वटे वररुचिर्यथा ॥ २७७ ।। स्त्रीणां चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं देवो न जानाति कुतो मनुष्यः । क्रोध निन्दा । क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोधः संसारवर्धनः । धर्मक्षयंकरः क्रोधस्तस्मात्क्रोधं विवर्जयेत् ॥२७६ ॥ निन्दा अच्छी नहीं है।
मा मतिः परदारेषु परद्रव्येषु मा मतिः ।
परापवादिनी जिह्वा मा भूदेव कदाचन ॥ २८० ॥ वीर कोण है । विरला जानंति गुणा विरला पालन्ति निद्धने नेहं । विरला परकजकरा परदुक्खे दुक्खिया विरला ॥ २८१॥ सजन प्रशंसा। सुजनो न याति विकृति परहितनिरतो विनाशकालेऽपि । छेदेऽपि चंदनतरु सुरभयति मुखं कुठारस्य ॥ २८२ ॥
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(१७) विश्वास नहीं करनेलायक कौण है। विश्वसेन हि सर्पस्य खड्गपाणेर्न विश्वसेत् । स्त्रियाश्च चलचित्ताया नृपस्यापि न विश्वसेत् ॥ २८३ ॥ मनुष्याणां पशूनां च पक्षिणां कृमिसंज्ञिनाम् । शुश्रूषणेन धर्मस्य समुत्पत्तिः प्रजायते ।। २८४ ॥ आयुष्यादि गर्भमें निश्चित होते हैं।
आयुः कर्म च वित्तं च, विद्या निधनमेव च ।
पंचतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।। २८५ ॥ विचक्षण समय देख चलते है।
गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत् ।
वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः ॥ २८६ ।। स्त्रीयोंको काम आठगुणा होता है ।
स्त्रीणां द्विगुण आहारो लज्जा चापि चतुर्गुणा । साहसं षद्गुणं प्रोक्तं कामश्चाष्टगुणः स्मृतः ।। २८७ ॥ कृष्णमुखी न मार्जारी द्विजिह्वा न च सर्पिणी ।
पंचभत्तो न पांचाली तस्याहं कुलबालिका ॥२८८ ॥ कर्म करनेवाला फल पाता है।
मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोऽहं गतास्ते फलभोगिनः ॥ २८६ ।।
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(४८) विचित्रता कहाँ होती है। किं चित्रं यदि शास्त्रवेदिनिपुणो विप्रो भवेत् पंडितः ?, किं चित्रं यदि नीतिशास्त्रनिपुणो राजा भवेद्धार्मिकः १ । तचित्रं यदि रूपयौवनवती साध्वी भवेत् कामिनी, तचित्रं यदि निर्धनोऽपि पुरुषः पापं न कुर्यात् कचित् २६० भाग्य समयपर फलता है।
नैवाकृतिः फलति नैव कुलं न शीलं, विद्याऽपि नैव न च यत्नकृतापि सेवा । भाग्यानि पूर्वतपसा किल संचितानि,
काले फलन्ति पुरुषस्य यथेह वृक्षाः ॥ २६१ ॥ धनान्ध क्या नहीं करता है। यद् दुर्गामटवीमटन्ति विकटं कामन्ति देशान्तरं, गाहन्ते गहनं समुद्रमतनुक्लेशां कृषि कुर्वते । सेवन्ते कृपणं पति गजघटासंघट्टदुःसंचरं,
सर्पन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभविस्फूर्जितम् ॥२९२॥ जिनस्तुति
सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसङ्गमय्यं, सार्वीयमस्मरमनीशमनीहमिद्धम् । सिद्धं शिवं शिवकरं करणव्यपेतं, श्रीमजिनं जितरिपुं प्रयतः प्रणौमि ॥२९३॥
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(१९) विधुकरपरिरम्भादात्मनिष्यन्दपूर्णैः, शशिदृषदुपक्कृप्तरालवालस्तरूणाम् । विफलितजलसेकप्रक्रियागौरवेण,
व्यरचि स हृतचित्तस्तत्र भैमीवनेन ॥ ॥२९४ ॥ शूरेषु विप्नैकपरेषु को नरः, करस्थमप्यर्थमवाप्तुश्विरः ।२९॥ न काकुवाक्यैरतिवाममङ्गजं द्विषत्स याचे पवनं तु दक्षिणम् दिशापि मद्भास्मकिरत्वयं तया प्रियो यया वैरविधि
वधावधिः ॥ २९६ ॥ जंचिय विहिणा लिहियं तंचिय परिणमई सयललोयस्स । इइ जाणिऊण धीरा विहुरे वि न कायरा हुंति ॥ २९७ ।। अच्छेको बुरा समझनेवाले कोण है ? । अज्ञानी निन्दति ज्ञानं चौरा निन्दति चन्द्रमाः । अधमा धर्म निन्दन्ति मूर्खा निन्दन्ति पण्डितान् ।।२९८॥ धर्मबुद्धि ।
भत्ती जिणेसु मेत्ती जियेसु तत्ती गुरूवदेसेसु । पीइ सीलगुणड्डेसु तह मति धम्मसवणम्मि ॥ २९९ ॥ बोधके पात्रको बोध देना चाहीए । किलात्र यो यथा जन्तुः, शक्यते बोधभाजनम् ।
कर्तुं तथैव तद्बोधो विधेयो हितकारिभिः ॥ ३०० ॥ . उपदेश वयके प्रमाण अच्छा होता है ।
न चादौ मुग्धबुद्धिनां, धर्मों मनसि भासते । कामार्थकथनात्तेन, तेषामाक्षिप्यते मनः ॥ ३०१ ॥
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(५०) मद्य-तूर्य-ग्रह-ज्योतिर्भूषा-भोजनविग्रहाः ।
स्रग्दीपवस्त्रपात्री गा दशधा परिकल्पिताः ॥३०२ ॥ मासी की लडकी से विवाह नहिं करना चाहीए ।
मातृस्वस्सुतां भोक्तुं मोहितो येन कांक्षति ।
न मद्यतस्ततो निन्धं दुःखदं विद्यते परम् ॥ ३०३ ॥ मद्यपानकी स्थिति ।
मूत्रयन्ति मुखे श्वानो वस्त्रं मुष्णन्ति तस्कराः । मधमूढस्य रथ्यायां पतितस्य विचेतसः ॥ ३०४ ।। विवेकः संयमः क्षान्तिः सत्यं शौचं दया दमः ।
सर्वे मधेन सूद्यन्ते पावकेनेव पादपाः ॥३०५॥ निर्लजकी स्थिति ।
तं तं नमति निर्लज्जो यं यम विलोकते ।।
रोदिति भ्रमति स्तौति रौति गायति नृत्यति ॥३०६॥ ताडनके गुण ।
लालने बहवो दोषास्ताडने बहवो गुणाः ।
तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन तु लालयेत् ॥३०७॥ पर्व-प्रशंसा ।
चतुर्दश्यष्टमी च अमावास्या च पूर्णिमा । पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च ॥३०८॥
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(५१) नरक प्राप्तिका साधन ।
तैलस्त्रीमांससंभोगी पर्वस्वतेषु वै पुमान् । विण्मूत्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं मृतः ॥३०९॥ मूर्खताकी निशानी ।
शाठ्यन धर्म कपटेन मित्रं परोपतापेन समृद्धिभावम् । सुखेन विद्यां परुषेण नारी वाञ्छन्ति ये व्यक्तमप
ण्डितास्ते ॥ ३१० ॥ शूर कोण है ?। न रणे निर्जिते शूरो, विद्यया न च पण्डितः ।
न वक्ता वाक्पटुत्वेन, न दाता धनदायकः ।। ३११ ।। असत्य कहां फलदायी होता है ? ।
न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन विवाहकाले । प्राणात्यये सर्वधनापहारे पश्चानृतान्याहुरपातकानि ॥ रक्षक शत्रु कैसे होते है ?।
ऋणकर्ता पिता शत्रुः माता च व्यभिचारिणी।
भायो रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपण्डितः ।। ३१३ ।। क्लेशभाजन कोण है ।
पूर्वेषां यः कुलं कीर्ति पुण्यं नाधिकतां नयेत् । जातेनाप्यथ किं तेन जननीक्लेशकारिणा ? ॥३१४ ॥
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(५२) आगमकी आवश्यकता । इह किल कलिकाले चएडपाखण्डिकीर्णे व्यपगतजिनचन्द्र केवलज्ञानहीने । कथमिव तनुभाजां संभवेद् वस्तुतत्त्वाऽवगम इह यदि स्यानागमः श्रीजिनानाम् ॥३१५ ॥ लोभादि निन्दनीय है।
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकै ?, सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम् । सौजन्यं यदि किं निजैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मंडन:,
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ॥ वैशेषिककी मुक्ति निन्दनीय है।
वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्टुत्वं परिवाश्चिछतम् ।
न तु वैशेषिकी मुक्तिं गौतमो गन्तुमिच्छति ॥ ३१७ ॥ तीर्थ-प्रशंसा।
अन्यस्थाने कृतं पापं, धर्मस्थाने विनश्यति । धर्मस्थाने कृतं पापं, वज्रलेपो भविष्यति ॥ ३१८ ॥ अन्यक्षेत्रे कृतं पापं, तीर्थक्षेत्रे विनश्यति । तीर्थक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥ ३१९ ॥
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( ५३ )
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-गुणी से गुणी होता है ।
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः । सुस्वाद्यतोयाः प्रवहन्ति नद्यः समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः ॥
॥ ३२० ॥
नाम सान्वय कब होता है ? ।
योगेन योगी सुधिया नियोगी, भोगेन भोगी प्रमिति प्रयोगः भूपेन सेना विनयेन सूनु-र्ज्ञानेन देही द्रविणेन गेही ॥ विषय से हानि ।
संसारपाशो नरके निवासः, शिष्टेषु हासः सुकृतस्य नाशः । दास्यावकाशः कुयशोविलासो भवन्ति नृणां विषयाभि
संगात् ।। ३२२ ॥
दुःख की अवधि |
शिशूनां जननीनाशो, भार्यानाशस्तु यौवने । वृद्धस्यात्मजनाशश्च दुःखमेभ्यः परं न हि ॥ ३२३ ॥
दुर्लभ क्या है ?
अर्थलुब्धकतप्रश्नौ, सुलभौ तौ गृहे गृहे ।
दाता चोत्तरदाता च दुर्लभौ पुरुषावुभौ ॥ ३२४ ॥ वकार प्रवीण कोण होता है ? ।
व्यापारे वाङ्मये वादे, विज्ञाने विनये व्रते । षट्स्वमीषु वकारेषु, धीमानेव पुरस्सरः ॥ ३२५ ॥
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(५४ ) योग्यकी प्रति योग्य । । शठं प्रति शाठ्यं कुर्यात्, आदरं प्रति चादरं ।
त्वया स मुच्यते पक्ष, मया च नाम्यते शिरः ॥३२६॥ शृंगारवर्णन।
क्षौरं मजनवस्त्र भालतिलकं गात्रेषु गंधार्चनम् । कर्णे कुण्डलमुद्किा च मुकुटं पादौ च चर्मायती । हस्तं खड्गकटारकं कटिधुरि विद्याविनीतं मुखे ।
ताम्बूलं करकंकणं चतुरता शृंगारके षोडशः ॥ ३२७ ।। परपीडा पाप है।
अष्टादशपुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥ ३२ ॥ शूरवीरता ।
अनेन तव पुत्रस्य, प्रसुप्तस्य वनान्तरे । शिखामाक्रम्य पादेन, खड्गेन पातितं शिरः ॥३२९ ।। वनिकपुत्र ।
आदौ नम्रः पुनर्नम्रः, कार्यक्लेशेषु निष्ठुरः । कार्य कृत्वा पुनर्नम्रः, शिशुतुल्यवणिक्सुतः ।। ३३० ॥ नरक-प्रतिति ।
यत्र नास्ति मनःप्रीतिः, यत्र न प्रियदर्शनम् । यत्रास्ति परतन्त्रत्वं, तद्राज्यं नरकं विदुः ॥ ३३१ ।।
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(५५) स्वभाव प्रशंसा ।
एकतडागे यद्यपि, पिबति भुजङ्गो जलं तथा गौश्च ।
परिणमति विषं सर्प, तदेव गवि जायते क्षीरम् ॥३३२॥ पुण्य का फल । सती सुरूपा सुभगा विनीता,प्रियाभिरामा सरलस्वभावा ।
सदा सदाचारविचारदक्षा, सा प्राप्यते पुण्यवशावरेण। भार्या कैसी होनी चाहिए ?। कार्येषु मंत्री कर्णेषु दासी, भोज्येषु माता शयेनेषु रम्भा। मनोऽनुकूला क्षमया धरित्री, षड्गुणमायो कुलमुद्धरति।। हंसादरनिवासिनो वसुमती प्रादुर्भवत्कन्दला, पद्मानो निधनं जडैः परिचयः पङ्कातिरेकः पथि । जातः स्वैरविहारिणो द्विरसनाः शूरप्रतापक्षयः जीमुतौ हि करालकेलिकलितस्तन्मूर्तिभाजामभूत् ।। सूर्य भत्तरिमुत्सृज्य, जीमूतं मारुतं गिरि । स्वयोनि मूषिका प्राप्ता स्वजाति१रतिक्रमा ॥३३६॥ महाभारत ।
अत्र द्रोणशतं दग्धं, पाण्डवानां शतत्रयम् । दुर्योधनसहस्रं च, कर्णसंख्या न विद्यते ॥ ३३७ ।। गङ्गास्तुति ।
मातः शैलसुता सपत्निवसुधा शृंगारहारालि, स्वर्गारोहणवैजयन्ति भवती भागीरथी प्रार्थये ।
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(५६) त्वत्तीरे वसतस्त्वदम्बु पिवतस्त्वद्ध्यानध्यातः सदा, त्वन्नामस्मरतस्त्वदर्पित दृशः स्यान्मे शरीरव्ययः ।। सपत्नीदर्शनं दूरे, श्रुतं नामाप्यसौख्यदं ।
गङ्गा विप्राय नो तुष्टा, श्रुतं शैलसुतेति यत् ॥ ३३९ ।। प्रश्न । किं तद्वर्ण चतुष्टयेन वनजं वणस्त्रिभिर्भूषणं । श्राद्यैः के न महीद्वयेन विहगो मध्ये द्वये प्राणदः । व्यस्ते गोत्र तुरङ्गचारिरखिलं प्रान्ते च संप्रेषणं ।
ये जानन्ति विचक्षणाः क्षितितले तेषामहं किंकरः ॥ जीवदया प्रशंसा। तत् श्रुतं यातु पातालं, तच्चातुर्य विलीयताम् ।
ते विशन्तु गुणा वह्नौं, यत्र जीवदया नहि ॥ ३४१ ॥ पापकी अतिरेकता ।
साधुस्त्रीबालवृद्धानां, पीडितानां च केनचित् ।
उल्लङ्घने च तीर्थानां, विमानं स्थिरतां भजेत् ।। ३४२॥ निवृत्ति फलद यी है ।
न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥ ३४३ ।। नारी निन्दा ।
दर्शने हरते चितं, स्पर्शने हरते बलम् । संगमे हरते वीर्य, नारी प्रत्यक्षराक्षसी ॥ ३४० ॥
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( ५७ ) सज्जन-प्रशंसा ।
तो सुमणो जइ सुमणो भावेण य जइ न होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु ॥३४॥ नत्थि यसि कोइ वेसो पिभो व सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अनोऽवि पज्जाओ ॥ ३४२ ॥ उन्मत्तप्रेमसंरंभादारम्भन्ते यदङ्गनाः ।
तत्र प्रत्यूहमाधातुं, ब्रह्मापि किल कातरः ॥३४३ ॥ भाग्य-प्रशंसा ।
भाग्यं फलति सर्वत्र, न च विद्या न च पौरुषम् ।
समुद्रमथनाल्लेभे, हरिर्लक्ष्मी हरो विषम् ॥३४४ ॥ कर्मकी प्रधानता।
कर्मणो हि प्रधानत्वं, किं कुर्वन्ति शुभा ग्रहाः।
वसिष्ठदत्तलनोऽपि, रामः प्रव्रजितो वने ॥ ३४५।। श्रावककी व्याख्या। श्रद्धालुतां श्राति पदाचिन्तनाद्,
धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनाद्
अद्यापि तं श्रावकमाहुरंजसा ।। ३४६ ॥ कामानेन्दा ।
कामोऽयं नरके दृतः, कामो व्यसनसागरः। कामो विपल्लताकन्दः, कामापापद्रुसारणिः ॥३४७॥
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(५८) अर्थ धर्म च मोक्षं च वेश्मेव गृहमेधिनः ।
प्रासादितप्रवेशोऽयं खनत्याखुरिव स्मरः ॥ ३४८ ।। कुसंसर्ग निन्दा।
कुसंसर्गात्कुलीनानां भवेदभ्युदयः कुतः।
कदली नंदति कियद्बदरीतरुसंनिधौ ॥ ३४९ ॥ अधर्म निन्दा ।
चक्रव_प्यधर्मः सन् जन्म तल्लभते पुनः। कदन्नमपि संप्राप्तं यत्र राज्याय मन्यते ॥ ३५० ॥ महाकुलप्रसूतोऽपि धर्मोपार्जनवर्जितः । भवेद्भवान्तरे श्वेव परोच्छिष्टान्न भोजनः ॥ ३५१ ।। धर्महीनो द्विजन्मापि नित्यं पापानुबन्धका । बिडाल इव दुर्वृत्तो म्लेच्छयोनिषु जायते ।। ३५२ ॥ बिडालव्यालशार्दूलश्येनगृध्रादियोनिषु । भवन्ति भूयिष्ठभवा भविनो धर्मवर्जिताः ॥ ३५३ ॥ धर्महीनाः कुमयः स्युरसकृच्छकृदादिषु ।
कुकुटादेलेभन्ते च चञ्चुचरणताडनम् ॥ ३५४ ।। कर्मका फल ।
किं च प्रत्यक्षमीक्ष्यन्ते जलस्थलखचारिणः । प्राणिनो विविधं दुःखमापेदानाः स्वकर्मजम् ।। ३५५॥ तत्र वारिचराः स्वैरं खादन्त्यन्योन्यमुत्सुकाः । धीवरैः परिगृह्यन्ते गिल्यन्ते च बकादिभिः ॥ ३५६ ॥
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(५९) विश्वासघात ।
विश्वासप्रतिपन्नानी, वञ्चने का विदग्धता ।
अङ्कमारुह्य सुप्तानां, हन्तुः किं नाम पौरुषम् ।।३५७॥ मित्रद्रोही निन्दा।
सेतुं गत्वा समुद्रस्य, गङ्गासागरसङ्गमे ।।
ब्रह्महा मुच्यते पापैः, मित्रद्रोही न मुच्यते ।। ३५८ ।। नरक कोण जाता है ।
मित्रद्रोही कृतघ्नश्च, स्तेयी विश्वासघातकः ।
चत्वारो नरकं यान्ति, यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ३५९ ।। दान महिमा ।
राजंस्त्वं राजपुत्रस्य, यदि कल्याणमिच्छसि ।
देहि दानं सुपात्रेषु, गृही दानेन शुध्यति ॥ ३६० ॥ कौनसे शकुन फलदायी है ?।।
बुद्धिपूर्वकं शकुनं तथा न फलदं यथाकस्मिकम् । गुरुप्रशंसा ।
देवगुरूप्रसादेन, जिह्वाग्रे में सरस्वती।
तेनाहं नृप जानामि, भानुमत्यास्तिलकं यथा ।। ३६२।। विपत्तिका मूल क्या है ?।
कूलच्छाया दुर्जनाश्च, विषं च विषयास्तथा । दंदशूकाश्च जायन्ते, सेव्यमाना विपत्तये ।। ३६३ ॥
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(६० ) तृष्णा ।
प्रासंसारं सरिन्नाथः किं तृप्यति सरिजलैः । सरित्पतिपयोमिवा किमेष वडवानलः ॥ ३६४ ॥ अन्तको जन्तुभिः किं वा, किमेधोमिर्हताशनः । सुखैवैषयिकैरात्मा किं तथैव कदाचन ॥ ३६५ ।। सत्कारयन्ति ह्यात्मानं, कृत्वाप्यागांसि मायिनः।
अत्युग्रपुण्यपापानां, फलमत्रैव जन्मनि ।। ३६६ ॥ पक्षपाती । सहजान्धदृशः स्वदुर्नये परदोषेक्षणदिव्यचक्षुषः स्वगुणोच्चगिरो मुनिव्रताः परवर्णग्रहणेष्वसाधवः ॥३६७॥ त्यजन्त्यसूशर्म च मानिनो वरं, त्यजन्ति न त्वेकमयाचितव्रतम्
॥३६८ ॥ तत्र दायकशुद्ध तन्न्याय्यार्थी ज्ञानवान् सुधीः । निराशंसोऽननुतापी दायकः प्रददाति यत् ॥ ३६९ ॥ भाग्यहीनकी दशा।
खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरण : सन्तापितो मस्तके, वाञ्च्छन् देशमनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः। तत्राप्यस्थ महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः, प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः ।३७० कायाकी शोभा कीससे है ? ।
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन, दानेन पाणिनं तु कङ्कणेन । विभाति कायः करुणापराणां, परोपकारैर्न तु चन्दनेन ।३७१।
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(६१) वणिक अवस्था ।
कार्य सपौरूषणापि वणिजा न हि पौरुषम् ।
वणिजो लोकसामान्येऽप्यर्थे साशंकवृत्तयः ॥ ३७२ ॥ जरावस्था ।
पुरुषस्य जरा पंथा अश्वानां मैथुनं जरा ।
अमैथुनं जरा स्त्रीणां, वस्त्राणां वमलं जरा ॥३७३ ॥ कार्य विना दूसरेके घर जाना निन्दनीय है।
विना कार्येण ये मूढा, गच्छन्ति परमन्दिरम् ।
अवश्यं लघुतां यान्ति, कृष्णपक्षे यथा शशी ॥३७४॥ मेदपाटके मनुष्यकी प्रशंसा ।
निर्विवेका मरुस्थल्यां, निर्लजा गुर्जरे जनाः।
निर्दया मालवे प्रोक्ता, मेदपाटे त्रयो न हि ॥ ३७५ ॥ यह छ शास्त्रवर्जित है।
अलसो मन्दबुद्धिश्च, सुखितो व्याधितस्तथा ।
निद्रालुः कामलुब्धश्व, षडेते शास्त्रवर्जिताः ॥ ३७६ ॥ समानता बुरी है।
राजा राजानमालोक्य, वैद्यो वैद्य नटो नटम् ।
भिक्षुको भिक्षुकं दृष्ट्वा, श्वानवत् घुघुरायते ॥३७७ ।। कीसके लीये कैसा धन अच्छा है।
ब्राह्मणानां धनं विद्या, क्षत्रियाणां धनं धनुः । ऋषीणां च धनं सत्यं, योषितां यौवनं धनम् ॥३७८॥
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सेन्ट्रैनौकिकालवस्तुविषादीश्वरम्
(६२) परमात्मा कोण है ?।
दूषणेभ्यो विनिर्मुक्तो-ऽष्टादशभ्यो भवेद्धि यः।
प्रातिहार्याष्टकैर्युक्तः, परमात्मा स उच्यते ॥३७९ ॥ श्री आदीश्वर स्तुति ।
श्रीशत्रुजयभूपणं जिनवरं श्रीनाभिभूपात्मजं, सेन्द्र किवरैर्नरेन्द्रनिकरैर्भया प्रणुनैनतम् । ज्ञानं यस्य त्रिकालवस्तुविषयं लोकेतराभाषकं,
सर्वेषां हितदं कृपारसमयं वन्दे तमादीश्वरम् ॥३८॥ विद्या-प्रशंसा । विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो, धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा । सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नविना भूषणं, तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥३८१॥ लाभनिन्दा ।
अतिलोभो न कर्तव्यश्चक्रं भ्रमति मस्तके ।
अतिलोभप्रसादेन, सागरः सागरं गतः ॥३८२ ॥ मालवदेश प्रशंसा।
मालवे पञ्चरत्नानि कंट भाटा पर्वताः । चतुर्थ वस्त्रहरणं पञ्चमं प्राणघातकाः ॥३८३ ॥
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अज्ञान-निंदा ।
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति
॥ ३८४ ॥ नरक प्राप्ति कैसे होती है । तिलसिक्तेन मात्रेण, अन्नं भुञ्जन्ति ये नराः ।
ते नरा नरकं यान्ति, यावचन्द्रदिवाकरौ ॥३८५ ॥ वीरस्तुति ।
धर्मोपदेशनविधौ रदनाच्छकान्ति:, सान्द्रोद्यती जनतनूर्विशदीचकार । अन्तर्विशुद्धिकरगीर्विजिगीषयेव,
यस्य श्रियं जिनपतिस्तनुतात् स वीरः ॥३८६ ।। विना अग्निका दाह । पुत्रश्च मूखों विधवा च कन्या,
शंठ च मित्रं चपलं कलत्रम् । विलासकालेऽपि दरिद्रता च,
विनाऽग्निना पञ्च दहन्ति देहम् ॥३८७॥ सज्जनका सज्जनत्व । प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः,
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
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( ६४ )
विनैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति
नरककी आगाही ।
धूर्त कौन है ? |
नराणां नापितो धूर्तः, पक्षिणां चैव वायसः । चतुष्पदे शृगालस्तु, स्त्रीणां धूर्ता च मालिनी ॥ ३८९ ॥ विद्या आदि का मूळ क्या ?
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विज्झामूलं च विनश्रो, लच्छीमूलं तहा अवीसासो । भवमूलं महिलाओ, दानमूलं च कित्ती ॥ ३९० ॥
अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वर्जनेषु वैरम् ।
नीचप्रसंग : कुलहीनसेवा.
चिह्नानि देहे नरकस्थितानि
कैसी लक्ष्मी अच्छी है ? ।
॥ ३८८ ॥
।। ३९१ ॥
किं तया क्रियते लक्ष्म्या, या वधूरिव केवला । याच वेश्येव सामान्या, पथिकैरुपभुज्यते ॥ ३९२ ॥
निन्दनीय क्या है ? |
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,
किं गीतं कण्ठहीनस्य किं रूपं गुणहीनस्य । किं धनं दानहीनस्य, मानहीनस्य भोजनम् ॥ ३९३॥
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( ६५) वृद्धत्व प्रशंसा।
वयोवृद्धास्तपो वृद्धा, राजवृद्धा बहुश्रुताः
सर्वेऽपि धनवृद्धस्य, द्वारे तिष्ठन्ति किङ्कराः ॥ ३९४ ॥ ज्यादा भोजन और बोलना मरण के लीये है ।
अतिभुक्तमतीवोक्तं, प्राणिनां मरणप्रदम् ।
न कार्योऽत्र स्मयो येन, बहुरत्ना वसुंधरा ॥३९५ ॥ युक्ति प्रशंसा।
उपायेन प्रकर्तव्यं, न शक्यं यत्पराक्रमैः ।
अभीप्सितानि सिध्यन्ति, जने हास्यं न जायते ॥३९६॥ दश अवतार ।
मत्स्यः कूर्मों वराहश्च, नरसिंहोऽथ वामनः ।
रामो रामश्च कृष्णश्च, बुद्धः कल्की च ते दश ॥३९७।। सज्जनो के लक्षण । तृष्णां छिन्धि भज क्षमा जहि मदं पापे रति मा कृथाः,
सत्यं ब्रह्मनुयाहि साधुपदवीं सेवस्व विद्वज्जनान् । मान्यान्मानय विद्विषोऽप्यनुनय प्रच्छादय स्वान्गुणान् , कीर्ति पालय दुःखिते कुरु दयामेतत्सतां लक्षणम् ॥३९८॥
आसीदिदं तमोभृत-मप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतळमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥३९९ ।।
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( ६६ ) तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गमे । नष्टामरनरे चैव, प्रनष्टोरगराक्षसे ॥४० ॥ केवलं गहरीभृते, महाभूतविवर्जिते । अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥४०॥ तत्र तस्य शयानस्य, नाभेः पद्म विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिभं, हृद्यं काञ्चनकर्णिकम् ॥४०२॥ तस्मिन् पझे भगवान् , दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः। ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ॥४०३ ॥ अदितिः सुरसङ्घानां दितिरसुराणां मनुमनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ४०४ ।। कद्रूः सरीसृपाणां सुलसा माता च नागजातीनाम् ।
सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वबीजानाम् ॥ ४०५ ॥ ईश्वर सर्वव्याप्त है।
जले विष्णुः स्थले विष्णुर्विष्णुः पर्वतमस्तके ।
ज्वालामालाकुले विष्णुः, सर्व विष्णुमयं जगत् ॥४०६॥ ईश्वर सर्वत्र है।
अहं च पृथिवी पार्थ ! वास्वग्निजलमप्यहम् ।
वनस्पतिगतश्चाहं, सर्वभूतगतोऽप्यहम् ॥४०७ ।। कामदेव कैसा नीच है। कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकला,
क्षुधाचामो जीर्णः पिठरककपालार्पितगलः।
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( ६७ ) व्रणैः पूयक्लिभैः कृमिकुलशतैरावृततनुः,
शुनीमन्वेति वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ॥४.८॥ साधुकी निन्दा नहीं करना ।
देवनिन्दा च दारिद्री, गुरुनिन्दा च पातकी।
धर्मनिन्दा भवेत् कुष्ठी, साधुनिन्दा कुलक्षयः ॥४०९।। यह सब नरकमें जाते है।
स्वामिद्रोही कृतघ्नश्च, येन (यो हि) विश्वासघातकः ।
ते नरा नरकं यान्ति, यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ४१० ॥ मूर्ख हित करनेवाला होनेपर मित्रके लायक नहीं है।
पण्डितोऽपि वरं शत्रुन मृो हितकारकः ।
वानरेण हतो राजा, विप्रचौरेण रक्षितः ॥४११ ॥ धर्मकथा से मूर्ख को लाभ नहीं होता । कि मौक्तिहारं न च मर्कटस्य,
मिष्टान्नपानं न च गर्दभस्य । अन्धस्य दीपं बधिरस्य गीतं । मूर्खस्य किं धर्मकथाप्रसंगः
॥४१२॥ कोनसा द्रव्य उत्तम है।
उत्तमं स्वार्जितं द्रव्यं, मध्यमं पितुरार्जितम् । अधमं मातृवित्तं च, स्त्रीवित्तं (स्वसुरवित्तं)
चाधमाधमम् ।। ४१३॥
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(६८) दरिद्रको मान नहीं मीलता ।
आदरं लभते लोके, न कापि धनवर्जितः ।
कान्तिहीनो यथा चन्द्रो, वासरे न लभते प्रथाम् ॥४१४॥ दुर्जनका संग नहीं करना ।
दुर्जनः परिहर्तव्यो, विद्यया भूषितोऽपि सन् ।
मणिना भूषितः सर्पः, किमसौ न भयङ्करः ।। ४१५ ॥ प्राण और धनको कोण हरण करता है ?
वैद्यराज ! नमस्तुभ्यं, यमराजसहोदर । यमस्तु हरते प्राणान् , त्वं च (वैद्य:) प्राणान्
धनानि च ।। ४१६॥ मांसाहारी क्रूर होता है।
कामलुब्धे कुतो लज्जा, धर्महीने कुतः क्रिया ।
मद्यपाने कुतः शौचं, मांसाहारे कुतो दया ॥ ४१७ ॥ कामावस्था । मुण्डं शिरो वदनमेतदनिष्टगन्धं,
भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य । गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोभ,
चित्रं तथापि मनसो मदनेऽस्ति वाञ्छा ।। ४१८ ।। वचन से बदलना न चाईए।
राज्यं यातु श्रियो यान्तु, यान्तु प्राणा विनश्वराः । या मया स्वयमेवोक्ता, वाचा मा यातु शाश्वती ॥४१९॥
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निगुणी से क्या प्रयोजन ?
( ६९ )
गुणेषु यत्नः क्रियतां किमाटोपैः प्रयोजनम् । विक्रीयन्ते न घण्टाभि-र्गावः क्षीरविवर्जिताः ॥४२० ||
निन्दासे दूर रहना चाहीए ।
शिवभक्तिः ।
लोकाचारानुवृत्तिश्च सर्वत्रौचित्यपालनम् । प्रवृत्तिर्गर्हिते नेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि
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मोक्षको सब कोई चाहता है ।
यत्र जीवः शिवस्तत्र न भेदः शिवजीवयोः । न हिंस्यात् सर्वभृतानि शिवभक्तिचिकीर्षकः ॥ ४२२ ॥
यथामृतरसास्वादी, नान्यत्र रमते जनः ।
तथा मुक्तिसुखाभिज्ञो रज्यते न सुखान्तरे ॥ ४२३ ॥ कम निद्रावालेका धन्य है ।
मत्तेभकुम्भपरिणाहिनि कुङ्कुमार्द्रे, कान्तापयोधरयुगे रतिखेदखिन्नः । वक्षो निधाय भुजपञ्जर मध्यवर्ती, धन्यः क्षपां चपयति चणलब्धनिद्रः
उद्यमके विना सब नक्कमा है ।
४२१॥
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।। ४२३ ॥
उद्यमेन विना राजन्, सिद्ध्यन्ति न मनोरथाः । कातरा इति जल्पन्ति यद्भाव्यं तद्भविष्यति ॥ ४२५ ॥
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( ७० )
कुलीन पुरुष नीतिको नहिं छोडते ।
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वनेऽपि सिंहा मृगमांसभच्या, बुभुक्षिता नैव तृणं चरन्ति । एवं कुलीना व्यसनाभिभृता, न नीतिमार्ग परिलङ्घयन्ति ॥ कालवशात् बडा छोटा और छोटा बढा होता है ।
रामस्य व्रजनं बलेर्नियमनं पाण्डोः सुतानां वनं,
वृष्णीनां निधनं नलस्य नृपते राज्यात्परिभ्रंशनम् | नाट्याचार्यकमर्जुनस्य पतनं संचिन्त्य लङ्केश्वरे,
सर्व कालवशाजनोऽत्र सहते कः कं परित्रायते ||४२७|| पुरुषका पतन कब होता है ।
सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां तावद्विधत्ते नियमपि समालम्बते तावदेव । भ्रूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां हृदि न धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति ॥ ४२८ ॥ दान से अच्छा सुख मीलता ।
न्यस्तो हन्त यदेन्द्रजालविदुषा मोहेन बन्धो दृशां, दृष्टाः काश्चन चन्द्रचम्पकनिभाकारास्तदा योषितः । सम्प्रत्यत्र विवेकमन्त्रपयसा ध्वस्ते यथावस्थितं,
तत्कार्येषु वसात्वगस्थिपिशितस्तामादि संलच्यते ॥ ४२९ ॥ वस्त्रं पात्रं भक्तपानं पवित्रं स्थानं ज्ञानं भेषजं पुण्यहेतुः । ये यच्छन्ति स्वात्मभावकसारं ते सर्वाङ्गं सौख्यमासादयन्ति
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( ७१ )
शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो, नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ । व्याधिर्भेषज संग्रहैश्च विविधैमंत्र प्रयोगैर्विषं, सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ॥ ४३१ ॥
तीर्थयात्रा कीस को फलदायी होती है ?
।। ४३२ ।।
॥ ४३५ ॥
मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कन्दभक्षणम् | ये कुर्वन्ति वृथा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः वृथा चैकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः । वृथा च पौष्करी यात्रा वृथा चान्द्रायणं तपः ॥ ४३३ ॥ देवानन्दोदरे श्रीमान्, श्वेतषष्ठ्यां सदा शुचिः । 'अवतीर्णोऽसि मासस्याषाढस्य शुचिता ततः ॥ ४३४ ॥ त्रिशला सर्वसिद्धेच्छा त्रयोदश्यामभूद्यतः । तवावतारस्तेनैषा सर्वसिद्धा त्रयोदशी शुक्लत्रयोदश्यां यश्चापलं मेरुं प्रचालयन् । चित्रं कृतवस्तद्योगाच्चैत्रमासोऽपि कथ्यते यस्याद्यदशम्यां दुर्ग - मोक्षमार्गस्य शीर्षकम् । चारित्रमादतं युक्ता, मासोऽस्य मार्गशीर्षता ॥ ४३७ ॥ दशम्यां यस्य शुक्लायां, केवल श्रीरहो त्वया । व्याहृता तेन मासोऽस्य, युक्ता माधवता प्रभो ! ।।४३८ || तब निर्वाणकल्याणं, यद्दिनमागमिष्यति । ततो न वेद्मि नाथोsहं, मादृशोऽध्यक्ष वेदिनः ॥ ४३६ ॥
॥ ४३६ ॥
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( ७२ )
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सर्वदेव नमस्कार |
भवबीजाङ्कुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ ४४० ॥ जुगुप्साभयाज्ञाननिद्राविरत्यंगभूहास्यसुखैः द्वेषमिथ्यात्वरागैर्नयोऽस्त्यरत्यरत्यरायैः
।
सिषेवे स एव परात्मगतिः मे जिनेन्द्रः । ईश्वर सब के लीये समान है, मान्यता भिन्न २ है ।
॥। ४४१ ॥
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदांतिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः । अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः, सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ४४२ काम क्या नहीं करता ?
ये रामरावणादीनां संग्रामाग्रस्त मानवाः । श्रूयन्ते स्त्रीनिमित्तेन, तेषु कामो निबन्धनम् ॥ ४४३ ॥
af का विश्वास कोण कर सकता |
दुर्ग्राह्यं हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतं, भावः पर्वत मार्गदुर्गविमः स्त्रीणां न विज्ञायते ।
चित्तं पुष्करपत्रतोयतरलं, नैकत्र संतिष्ठते,
नार्यो नाम विषाङ्कुरैरिव लता दोषैः समं वर्धिताः ॥ २४४ ॥ कश्चित् काननकुञ्जरस्य भयतो नष्टः कुबेरालयः, शाखासु ग्रहणं चकार फणिनः कूपे त्वधो दृष्टवान् ।
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( ७३ )
वृक्षो वारकम्पितोऽथ मधुनो बिन्दुर्नितो लेढि सः, लुब्धश्चामरशब्दितोऽपि न ययौ संसारसक्तो यथा ४४५ प्रशंसा कीसकी करनी चाहीये ।
॥४४६॥
लोकेभ्यो नृपतिस्ततोऽपि च वरश्चक्री ततो वासवः । सर्वेभ्योऽपि जिनेश्वरः समधिको विश्वत्रयीनायकः ॥ सोsपि ज्ञानमहोदधिं प्रतिदिनं सङ्घ नमस्यत्यहो । वीरस्वामिवदुन्नतिपदं यः स प्रशस्यः क्षितौ विधि की बलिहारी । शशिनि खलु कलङ्कः कण्टकाः पद्मनाले, युवतिकुचनिपातः पक्कता केशजाले । जलधिजलमपेयं पण्डिते निर्धनत्वं, वयसि धनविवेको निर्विवेको विधाता कवि कालिदास प्रत्ति उनकी स्त्रीका प्रश्न | अनिलस्यागमो नास्ति द्विपदं नैव दृश्यते । वारिमध्ये स्थितं पद्मं कम्पितं केन हेतुना कवि कालिदास का प्रत्युत्तर |
।। ४४८ ।।
॥। ४४७ ॥
पावकोच्छिष्टवर्णोऽयं, शर्वरीकृतबन्धनः । मोक्षं न लभते कान्ते, ! कम्पितं तेन हेतुना ॥ ४४९ ॥ सामान्य हास्य भी उपयोगी है ।
,
गुरुणापि समं हास्यं कर्त्तव्यं कुटिलं विना । परिहासविहीनस्य, जन्तोर्जन्म निरर्थकम्
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॥। ४५० ।।
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(७४ ) महासती कैसी होती है । पहुं मूकं च कुब्जं च, कुष्ठाङ्गं व्याधिपीडितम् । श्रापत्सु च गतं नाथं, न त्यजेत् सा महासती ॥४५॥ सज्जन और दुर्जन का फरक । तुष्यन्ति भोजनैर्विप्रा, मयूरा घनगर्जितैः । साधवः परकल्याणे, खलाः परविपत्तिभिः ॥ ४५२ ॥ तप से क्या होता है ? सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा । पुराकृतं कर्म तदेव भुज्यते, दुष्कर्म नूनं तपसा च हीयते। वुद्धिशाली इतनी वस्तु गोपाता है ।
अर्थनाशं मनस्तापं, गृहे दुश्चरितानि च । वञ्चनं चापमानं च, मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥ ४५४ ॥ सच्चा पाण्डित्य क्या है। स्वकार्यपरकार्येषु, यस्य बुद्धिः स्थिरा भवेत् । तस्य चेवेह पाण्डित्यं, शेषाः पुस्तकवाचकाः ॥ ४५५ ।। गुरु की अवज्ञा करनेवाले की क्या दशा होती है । एकाक्षरप्रदातारं, यो गुरुं नैव मन्यते । श्वानयोनिशतं गत्वा, याति चाण्डालयोनिषु ॥ ४५६ ॥ नीच पुरुष की उपर सज्जनो का उपकार ।
अनर्थाय भवेन्नीचेषूपकारः सतामपि । पक्षान्तरक्षितौ हंसमाखुः शीघ्रममारयत् ॥४५७ ।।
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पूर्व पुण्य का फल एसा होता है। .. भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं,
सर्वो जनः सुजनतामुपयाति तस्य । कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा,
यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य ॥४५८ ।। कवि कालिदास जगमशहूर कैसे हुए | काव्येषु नाटकं रम्यं, तत्र रम्यं शकुन्तलम् । तत्रापि च चतुर्थोङ्कस्तत्र श्लोकचतुष्टयम् ।।४५९ ॥ शकुन्तला के जाने से सब को दुःख होता है । यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया, कण्ठस्तम्मितबाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम् । वैक्लव्यं मम तावदीदृशमपि (मिदं) स्नेहादरण्यौकसः, पीड्यन्ते गृहिणः कथं न तनयाविश्लेषदुःखैनवैः ॥४६०॥ शकुन्तला का वृक्षादिसे स्नेह । पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या, नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् । माये वः कुसुमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः, सेयं याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञायताम् ॥४६१।। अस्मान् साधु विचिन्त्य संयमधनानुच्चैः कुलं चात्मनस्त्वय्यस्य कथमप्यवान्धवकृतां स्नेहप्रवृत्तिश्च ताम् ।
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( ७६ ) सामान्यप्रतिपत्तिपूर्वकमियं दारेषु दृश्या त्वया, भाग्यायत्तमतः परं न खलु तद्वाच्यं वधूबन्धुभिः ॥४६२॥ शुश्रूषस्व गुरुन् कुरु प्रियसखीवृत्ति सपत्नीजने, मर्तुर्विप्रकृतापि रोषणतया मा स्म प्रतीपं गमः । भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भोगेष्वनुत्सेकिनी, यान्त्येवं गृहिणीपदं युवतयो वामाः कुलस्याधयः ॥४६३|| सर्वामिरपि नैकोऽपि तृप्यत्येकापि नाखिलैः, द्वितीयं द्वावपि द्विष्टः धिग् धिक्कायविडम्बनाम् ॥४६४॥ कामी के लीये और क्या अच्छा होता हे ? मांसासृग्पूतिपिण्डेषु, चर्मणा वेष्टितेषु वै । पयोधरेषु रागान्धा ब्रूत किं रामणीयकम् ॥४६५ ॥ जैनको यह पालन करना चाहीए ।
अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसंचयः ।
मद्यमांसमधुत्यागो, रात्रिभोजनमेव च ॥ ४६६ ॥ इन के पर देव भी नाराज होते है ।
चौराणां वश्चकाणां च, परदारापहारिणाम् । निर्दयानां च निःस्वानां, न तुष्यन्ति सुराः कदा ॥४६७॥ कर्मरिपु से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता। . राजानः खेचरेन्द्राश्च केशवाश्चक्रवर्तिनः । देवेन्द्रा वीतरागाश्च, मुच्यन्ते नैव कर्मणा ॥४६८ ॥
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( ७७ ) सब शत्रु से कामशत्रु बहोत खराब है।
दुर्जयोऽयमनंगो हि, विषमा कामवेदना ।
कृत्याकृत्यं न जानाति, भूतग्रस्त इव भ्रमेत् ।। ४६९ ॥ शरीर अनित्य है, धर्म नित्य है।
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः । नित्यं सन्निहितो मृत्युः, कर्तव्यो धर्मसङ्ग्रहः ॥ ४७० ॥ लक्ष्मीदेवी इतने की पास नहीं जाती। कुचेलिनं दन्तमलावधारिणं, बह्वाशनं निष्ठुरवाक्यभाषिणम् । सूर्योदये चास्तमने च शायिनं, विमुञ्चति श्रीर्यदि चक्रपा
णिनम् ॥ ४७१ ॥ सम्यक्त्व क्या है ? या देवे देवता बुद्धि-गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥ ४२ ॥ धनका व्यय कहां करना ? व्याजे स्याद् द्विगुणं वित्तं, व्यवसाये चतुर्गुणम् ।
क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, पात्रेऽनन्तगुणं तथा ॥४७३ ।। न्यायी पुरुष क्या करता है । निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ॥४७४ ॥ अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥ ४७५ ।।
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( ७८ ) सज्जनों के संसर्ग का फल ।
महानुभावसंसर्गः, कस्य नोन्नतिकारकः ।
रथ्याम्बु जाह्नवीसङ्गात्रिदशैरपि वन्द्यते ॥४७६ ।। दुर्जनोंकी संगति नहीं करना ।
वरं पर्वतदुर्गेषु, भ्रान्तं वनचरैः सह ।
न मुर्खजन संपर्कः, सुरेन्द्र भवनेष्वपि ॥४७७ ॥ रात्रिभोजन नरक का द्वार है।
चत्वारो नरकद्वारा, प्रथमं रात्रिभोजनम् ।
परस्त्रीसेवनं चैव, संधानानन्तकायकम् ॥४७८ ॥ पात्र देखके उपदेश चाहीए ।
यो यथा येन बुध्येत तं तथा बोधयेद् बुधः
दग्धकाकादिजटिनो यथा विज्ञेन बोधिताः ॥ ४७९ ॥ वेश्या अग्नि की ज्वाला है।
वेश्यासौ मदनज्वाला, रूपेन्धनसमधिता।
कामिभिर्यत्र हूयन्ते, यौवनानि धनानि च ॥ ४८०॥ भाग्य की परीक्षा दुसरे स्थानमें जाके करनी चाहीए । गन्तव्यं नगरशते विज्ञानशतानि वीक्षितव्यानि । नरपतिशतं च सेव्यं स्थानान्तरितानि भाग्यानि ॥४१॥ यह पांच पिता समान है।
जनकचोपनेता च, यश्च विद्यां प्रयच्छति । अभयदाता भयत्राता, पञ्चैते पितरः स्मृताः॥४८२॥
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( ७९ )
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- साधारण द्रव्य से क्या फायदा |
किं तया क्रियते लक्ष्म्या, या वधूरिव केवला । या च वेश्येव सामान्या, पथिकैरुपभुज्यते ॥ ४८३ ॥ युवावस्था सब से श्रेष्ठ है ।
यौवनं सफलं भोगैः, भोगाः स्युः सफला धनैः । तद्विना मानुषं जन्म, जायते वनपुष्पवत् हांसी से कर्मबन्ध होता है ।
इसन्तो हेलया जीवा, कर्मबन्धं प्रकुर्वते । द्विपाको हि कार्येषु, रटद्भिरपि भुज्यते गुणहीन शोभास्पद नहीं होता है ।
॥ ४८४ ॥
।। ४८५ ।।
विभूतिस्त्यागशून्येव, सत्यशून्येव भारती । विद्या विनयशून्येव, न भाति स्त्री पति विना ॥ ४८६ ॥ पञ्चमो लोकपालस्त्वं, कृपालुः पृथिवीपतिः ।
॥। ४८७ ।।
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दैवेनाई पराभूतः आगतः शरणं तत्र दरिद्राधिगमे जीव - देहस्थाः पञ्च देवताः । सद्यो निर्गत्य गच्छन्ति, श्री-ही-धी- कान्ति - कीर्त्तयः || ४८८ ॥ धनाढ्यता राजकुले च मानं प्रियानुकूला तनयो विनीतः । धर्मे मतिस्सजन संगतिश्च षट् स्वर्गलोका जगतीतलेऽपि ॥ ४८९ ॥ स्वार्थ नहीं छोडना चाहीए ।
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अपमानं पुरस्कृत्य मानं कृत्वा च पृष्ठतः । स्वार्थमालम्बयेत्प्राज्ञः, स्वार्थभ्रंशों हि मूर्खता ॥ ४९०॥
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मूर्ख पुत्र से कुलका नाश होता है।
कुपुत्रेण कुलं नष्टं, जन्म नष्टं कुभार्यया ।
कुभोजनेन दिनं नष्टं, पुण्यं नष्टं कुकर्मतः ॥४९१ ॥ धर्म के विना सुख नहीं मीलता । ग्रामो नास्ति कुतः सीमा, धर्मों नास्ति कुतः सुखम् । दानं नास्ति कुतः कीर्तिर्भार्या नास्ति कुतः सुतः ॥४९२।। शास्त्र बुद्धिमानों का जीवन है।
जीवन्ति सुधियः शास्त्रैः, व्यापारैर्वणिजां बजाः।
करैर्विश्वंभराधीशाः, कपटैः कमलेक्षणाः ॥४९३ ॥ शक्ति का उपयोग करना चाहीए । द्वौ हस्तौ द्वौ च पादौ च, दृश्यते मनुजाकृतिः । अहो ! कपीन्द्र ! राजेन्द्र ! गृहं किन्न करिष्यति ।।४९४॥
सूचिमुखे दुराचारे रण्डे पण्डितमानिनि ।
असमर्थो गृहकरण, समर्थो गृहभञ्जने ॥ ४९५ ॥ मन चलायमान कैसे हो।
पुष्पं दृष्ट्वा फलं दृष्ट्वा, दृष्ट्वा नारी सुशोभिताम् ।
एतानि त्रीणि वने दृष्ट्वा, कस्य न चलते मनः ॥४९६॥ कामदेव क्या चीज है।
सतीव्रतेऽग्नौ तृण यामि जीवितम् । स्मरस्तु किं वस्तु तदस्तु भस्म यः ॥ ४६७॥
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( ८१ ) सात प्रकारका चौर ।
चौरश्चौरापको मन्त्री, भेदज्ञः काणकक्रयी ।
अन्नदः स्थानदश्चैव, चौराः सप्तत्रिधाः स्मृताः॥४६८ आलसीको ज्ञान नहीं होता। अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्र-ममित्रस्य कुतो बलम् ॥ ४९९ ॥ यह सातमें दया नहीं होती है ।
द्यूतकारस्तलारक्षस्तैलिको मांसविक्रयी। वार्धकी नृपतिर्वैद्यः, कृपया सप्त वर्जिताः ॥ ५०० ।। मूर्ख की पास में वाणीविलास नक्कमा है । मृर्खाणामग्रतो वाचां, विलासो वाग्मिनां मुधा । लास्यं वेषसृजां वन्ध्यं. पुरतोऽन्धसभासदाम् ।। ५०१ ॥ कीडी ( चींटी ) आदि पेट में न जाना चाहिए । मेधां पिपीलिका हन्ति, यूका कुर्याजलोदरम् । कुरुते मक्षिका वान्ति, कुष्ठरोगं च कोलिकः ॥५०२ ॥ वींछु की विडम्बना । कण्टको दारुखण्डश्च, वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तर्निपतित-स्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥ ५०३ ॥
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। ८२ ) रात्रिभोजनसे हानि । विलग्नश्च गले वालः, स्वरमाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशि भोजने ॥५०४ ।। उलूक-काक-मार्जार-गृध्र-शम्बर-शूकराः । अहि-वृश्चिक-गोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥५०॥ नैवाहुतिन च स्नानं, न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं च विशेषतः ॥ ५०६ ।। स्त्रीके स्वाभाविक दोष। अनृतं साहसं माया, मूर्खत्वमतिलोभता । अंशाचं निर्दयत्वं च, स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ॥५०७॥ विश्वास नहिं करने लायक कोण है ? । विद्युल्लताचश्चलताश्रयाणां, स्त्रीणां नृपाणामथ दुर्जनानाम् । स्वार्थप्रियाणां परवञ्चकानां, कुर्वीत विश्वासमहो न धीमान् ।। देवता को कैसे वस करना ?। कूटेन कूटं विजयेत धीमान् , सत्ये च सत्यं रचयेत् प्रपश्चम् । विगन्धधूपेन जयेत् पिशाचान्, सुगन्धधूपेन जयेद्धि देवान् । याचक की पहेचाण । गतेभङ्गः स्वरो हीनो, गात्रे स्वेदो महद्भयम् । मरणे यानि चिह्नानि, तानि चिह्नानि याचके ॥ ५१०॥
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(८३) साक्ष्मी का निवास कहां होता है । गुरवो यत्र पूज्यन्ते, यत्र वित्तं नयार्जितम् । भदन्तकलहो यत्र, शक्र ! तत्र वसाम्यहम् ॥५११ ॥ श्रेष्ठ क्या है । वरं मौनं कार्य, न च वचनमुक्तं यदनृतं, वरं प्राणत्यागो, न च पिशुनवाक्येष्वभिरुचिः । वरं मिक्षाशित्वं, न च परधनास्वादनसुखं, वरं वासोरण्ये, न पुनरविवेकाधिपपुरे ॥५१२॥ धन का माहात्म्य ।
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं, दुमालथं पकफलाम्बुभोजनम् । तृणानि (वसन) शय्या परिधानवल्कलं,
न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् ॥ ५१३ ॥ कन्दमूलनिषेध । पुत्रमांसं वरं भुक्तं, न तु मूलकभक्षणम् । भक्षणाबरकं गच्छेव, वर्जनात् स्वर्गमाप्नुयात् ॥५१४॥ कुवे वगेरे में स्नान करना अच्छा नहीं है । कूपेषु ह्यधमं स्नानं, वापीस्नानं च मध्यमम् । तटाके वर्जयेत् स्नानं, नद्याःस्नानं न शोभनम् ॥५१५।।
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स्वार्थवश सब कुछ होता है । वृक्ष क्षीणफलं त्यजन्ति विहगा:, शुष्कं सर: सारसाः, निद्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिका, भ्रष्टं नृपं सेवकाः । निर्गन्धं कुसुमं त्यजन्ति मधुपा, दग्धं वनान्तं मृगाः, सर्वे स्वार्थवशाजनोऽभिरमते,नो कस्यचिद्(को) वल्लभः।५१६॥ मनुष्यादि को पीडाभूत क्या है ?। अध्वा जरा मनुष्याणां, हस्तिनां बन्धनं जरा, अभोगेन जरा स्त्रीणां, संभोगो वाजिनां जरा ॥ ५१७ ॥ आगे बढा हुआ क्या करता है ? । . प्रवर्धमानः पुरुषस्त्रयाणामुपघातकः । पूर्वोपार्जितमित्राणां, दाराणामथ वेश्मनाम् ॥ ५१८ ॥ राजा को इतने मित्र नहीं होना चाहीए । वैद्यो गुरुश्च मन्त्री च, यस्य राज्ञः प्रियंवदाः ।
शरीरधर्मकोशेभ्यः, क्षिप्रं स परिहीयते ॥ ५१९ ॥ सजन और दुर्जन का भेद । अपराधशतं साधुः, सहेतैकोपकारतः । शतं चोपकृती चो, नाशयेदेकदुष्कृतात् ॥५२० ॥ दृष्टानपि सतो दोषान् मन्यन्ते नहि रागिणः ॥ ५२१ ॥
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सब धर्मवालोंको क्या प्रिय है ? । पञ्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ ५२२ ।। भूषण सच्चा क्या है ? । तृतीयं लोचनं ज्ञानं, द्वितीयो हि दिवाकरः । अचौर्यहरणं वित्तं, विना स्वर्ण हि भूषणम् ।। ५२३ ॥ चतुरता कीससे आती है ? देशाटनं पण्डितमित्रता च, वाराङ्गना राजसभाप्रवेशः । अनेकशास्त्रार्थविलोकनं च, चातुर्यमूलानि भवन्ति पञ्च ५२४॥ स्वभाव का औषध नहीं होता है। काकः पद्मवने रतिं न कुरुते, हंसो न कूपोदके, मूर्खः पण्डितसङ्गमे न रमते, दासो न सिंहासने । कुस्त्री सञ्जनसङ्गमे न रमते, नीचं जन सेवते, या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता, केनापि न त्यज्यते ॥५२॥ बुद्धि भाग्याधीन है। ननिर्मितं न (नापि) च केन दृष्टं, न श्रूयते हेममयः कुरङ्गः। तथापि तृष्णा रघुनन्दनस्य, विनाशकाले विपरीतबुद्धिः कलसे कार्य होता है बलसे नहीं । यस्य बुद्धिर्बलं तस्य, निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् । वने सिंहो मदोन्मत्तः, शशकेन निपातितः ॥ ५२८ ॥
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( ८६ )
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भावी की पहचाण ।
शिरसः स्फुरणे राज्यं, बाहोश्च प्रियमेलकः । चक्षुषः स्फुरणे प्रीति - रधरस्य प्रियागमः सत्तर प्रकार का संयम ।
।। ५२६ ।।
पश्चाश्रवाद्विरमणं, पश्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति, संयमः सप्तदशभेदः लक्ष्मी का त्याग करनेवाला कैसा होता है ? |
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उत्पादिता स्वयमियं यदि तत्तनूजा, तातेन वा यदि तदा भगिनी खलु श्रीः । यद्यन्य संगमवती च तदा परस्त्री, तयागबद्धमनसः सुधियो भवन्ति ॥ ५३१ ॥ राग और द्वेष से युक्त को कोण बुद्धिमान नमेगा ? शक्रं वज्रधरं (बलं) हरं हलधरं विष्णुं च चक्रायुधं, स्कन्दं शक्तिधरं श्मशाननिलयं रुद्रं त्रिशूलायुधम् । एतान्दोषभयार्दितान् गतघृणान् बालान् विचित्रायुधान्, नानाप्राणिषु चोद्यतप्रहरणान् कस्तान्नमस्येद् बुधः ॥ ५३२॥ पश्चाद्दत्तं परैर्दत्तं, लभ्यते वा न लभ्यते स्वहस्तेन च यद् दत्तं लभ्यते तन्न संशयः ॥ ५३३ ॥ रत्न उपद्रवरहित नहीं होते है ।
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चन्द्रे लाञ्छनता हिमं हिमगिरौ चारं जलं सागरे, रुद्धावन्दनपादपा विषधरैरम्भोरुहं कण्टकैः ।
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( ७ )
स्त्रीरत्नेषु जरा कुचेषु पतनं विद्वत्सु दारिद्रता, सर्व रत्नमुपद्रवेण सहितं दुर्वेधसा निर्मितम् ॥ ५३४ ॥ कर्णान्तायतलोचना शशिमुखी मत्तेभकुम्भस्तनी, बिम्बोष्ठी मृगराजपेशलकटी गाङ्गेय गौरद्युतिः । श्रोणीभारघना मरालगमना कुन्दावदातद्विजा, तन्वी पेशलपाणिपादयुगला कन्या न केषां मता ॥ ५३५॥ लोकः पृच्छति मे वार्ता, शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्माकं, गलत्यायुर्दिने दिने पुण्यं कीर्त्तिर्यशो लक्ष्मीः, स्वर्थाः साम्राज्यमद्भुतम् । प्रयांति मानतो इन्त, भवेद् दुर्गतिसंगतिः ॥ ५३७ ॥ श्री शत्रुंजय शक्रवारण भवो मुक्तामणिः सच्छ्रियः, श्रेणिः पुण्यनभोमणिः शुभयशोवेणित्रिलोकी गुरुः || श्रीमन्नाभिनरेन्द्रवंशजमणिः श्रीमान् युगादिः प्रभुर्देयात्सौख्यमखण्डितं कुत्रलयोद्बोधकदेषामणिः || ५३८ ||
॥ ५३६ ॥
भव तरने में दान हि साधन है ।
दानं सिद्धिनिदानं हि देयमत्र महाधिया |
"
न तरन्ति विना दानं, प्राणिनो भवसागरम् ।। ५३९ ।।
धर्मलाभ प्रशंसा |
वश्यौषधं सर्वलक्ष्म्या, विपत्पन्नगगारुडम् | धर्मलाभं ददौ तस्मै, गुरुः संसारतारकम्
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॥ ५४० ॥
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(८८) गीत का महत्त्व । त्रैलोक्यवशकृद्गीतं, गीतं स्वर्गादिसौख्यकृत् ।
गीतं सर्वजनानन्दि, गीतं सर्वार्थसाधकम् ॥ ५४१ ॥ हिंसा निषेध । न कार्या सर्वथा हिंसा, नरकस्येव दुतिका । परपीडाकृतः पुंसः, प्रत्यासन्नो न धर्मराट् । ५४२ ।। गत समय फीर नहिं आता है । नाभ्यस्ता भुवि वादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता, खद्गाप्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः । कान्ताकोमलपल्लवाधररसः, पीतो न चन्द्रोदये, तारुण्यं गतमेव निःफल महो, शून्यालये दीपवत् ।।५४३।। मूर्ख लडके से लडका नहिं होना ही अच्छा है । वरं गर्भस्रावो वरमपि च नैवाभिगमनं, वरं जातप्रेतो वरमपि च कन्यैव जनिता । वरं वन्ध्या भार्या वरमपि च गर्नेषु वसतिने चाविद्वान्रूपद्रविण गुणयुक्तोऽपि तनयः ॥ ५४४ ।। वाताहारतया जगद्विषधरैराश्वास्य निःशेषितं, ते ग्रस्ताः पुनरभ्रतोयकणिका तीव्रव्रतैर्हिभिः । तेऽपि क्रूरचमूरुचर्मवसनैनीताः क्षयं लुब्धकैदम्भस्य स्फुरितं विदन्नपि जनो जाल्मो गुणानीहते ॥५४॥
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(८९) विभेमि चिन्तामपि कर्तुमीशी, चिराय चित्तार्पितनैषधेश्वरा । मृणालतन्तुच्छिदुरा सतीस्थितिर्लवादपि त्रुट्यति चापलादपि।। उचित और अनुचित को कोण जानता है ? । किमु कुवलयनेत्राः सन्ति नो नाकनार्यः, त्रिदशपतिरहल्यां तापसी यत् सिषेवे । हृदयतृणकुटीरे दीप्यमाने स्मरानावुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पण्डितोऽपि ? ॥५४७ ।। प्राकृत एव प्राप्ते द्रव्ये देदीप्यते न सत्पुरुषः । वारिणि तैलं विकसति, निर्मुक्तं स्त्यायते सपिः ॥५४८।। धूमः पयोधरपदं कथमप्यवाप्य, वर्षाम्बुभिः शमयति ज्वलनस्य तेजः । देवादवाप्य कलुषप्रकृतिमहवं, प्रायः स्वबन्धुजनमेव तिरस्करोति
॥ ४९॥ पुरुष-स्त्री संवाद । पाकं किं न करोषि पापिनि ! कथं ?, पापी त्वदीयः पिता, रण्डे ! जन्पसि किं ? त्वदीयजननी, रण्डा त्वदीया स्वसा । निर्गच्छ स्वगृहाद् बहिर्मम गृहं, नेदं त्वदीयं गृहं, हा! हा! नाथ !ममापि देहि मरणं, शष्पं मदीयं गतम् ५५०। जगन्नाथ कवि का कथन ।
न यांचे गजालिं न वा वाजिराजिम् , न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदापि ।
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(९०) इयं सुस्तनी मस्तकन्यस्तहस्ता,
लवङ्गी-कुरङ्गी-दृगङ्गी-करोतु ॥५५१ ।। गुण-दुर्गुण होता है, दुर्गुण गुण बनता है । असंतुष्टा द्विजा नष्टाः, संतुष्टाश्च महाभुजः । सलजा गणिका नष्टा, निर्लजाश्च कुलाङ्गनाः ॥ ५५२ ॥ पुरुषार्थहीन से भाग्य भी चीडता है। त्रिषु श्यामां त्रिषु श्वेता, त्रिषु ताम्रां त्रिनताम् । त्रिगंभीरां त्रिविस्तीर्णा, व्यायतां त्रिक्रशीयसीम् ॥५५३।। स्वर्गीय सुख । वापी कापि स्फुरति गगने तत्परं सूक्ष्मपमा, सोपानालीमधिगतवती काञ्चनीमैन्द्रनीली । भग्रे शैलौ सुकृतिसुगमौ चन्दनाच्छनदेशौ, तत्रत्यानां सुलभममृतं सविधानात् सुधांशोः ॥५५४॥ उत्सङ्गे सिन्धुभर्तुर्भवति मधुरिपुर्गाढमाश्लिष्य लक्ष्मीमध्यास्ते वित्तनाथो निधिनिवहमुपादाय कैलासशैलम् । शक्रः कन्पद्रुमादीन् कनकशिखरिणोऽधित्यकासु न्यधासीत्, धूर्तेभ्यस्त्रासमित्थं दधति दिविषदो मानवाः के वराकाः ।। इक्ष्वाकुवंश का व्रत । अथ स विषयव्यावृत्तात्मा यथाविधि सूनवे, नृपतिककुदं दवा यूने सिताऽऽतपवारणम् ।
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(९१) मुनिवनतरुच्छायां देव्या तया सह शिश्रिये,
गलितवयसामित्वाकूणामिदं हि कुलवतम् ॥ ५५६ ।। कवि-प्रशंसा।
ते केचिदस्खलितबन्धनवप्रबन्धसन्धानबन्धुरगिरः कवयो जयन्ति । येषामचर्वितरसापि चमत्करोति,
कर्णे कृतैव भणितिर्मधुरा सुधेव ॥ ५५७ ॥ एकः श्लोकवरो रसौषमधुरो हृयो वरं सत्कवेनैवेष्टः कुकवेः प्रलापबहुला कृत्स्नः प्रबन्धोऽपि वा । वक्रोक्त्या वलितः सहासरमसः पौराङ्गनाविभ्रमो, हर्षोत्कर्षकरो यथा नहि तथा ग्रामीणवध्वारतम् ॥५५८।। किं कवेस्तस्य काव्येन, किं काण्डेन धनुष्मतः । परस्य हृदये लग्नं, न घूर्णयति यच्छिरः ॥ ५५९ ।। वचन कैसा बोलना चाहिये ।।
पिपासुता शान्तिमुपति वारिजा, न जातु दुग्धान्मधुनोऽधिकादपि । गुरोगिरः पल्लवनाऽर्थलाघवे,
मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता ॥ ५६० ॥ यदि स्वभावान्मनोज्ज्वलं कुलं ततस्तदुद्भावनमौचिती कुतः। अथाऽवदातं तदहो विडम्बना तथा कथा प्रेष्यतयोपसेदुषः ।। महाजनाचारपरम्परेशी स्वनाम नामाददते न साधवः। अतोऽभिधातुं न तदुत्सहे पुनर्जनः किलाचारमुचं विगायति ।
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विधि की बलिहारी ।
पुरा गादिन्द्रो मुकुलितकरः किङ्कर इव, स्वयं स्रष्टा सृष्टेः पतिरथ निधीनां निजसुतः । क्षुधित्वा षण्मासान् स किल पुरुरव्याट जगती,
अहो ! केनाप्यस्मिन् विलसित मलवयं हतविधेः ॥५६३॥ भङ्गोऽभूत् भरतेश्वरस्य सगरस्यापत्यशोको वने, विभ्रान्तिः गृहिणी गृहाद्रघुपतेः पण्डोस्तु जामापदः । स्थानाद् विच्युतिरच्युतस्य महतामीदग्विधा दुःस्थिति:, को वाऽन्यः कुशली कृतीह बलवान् नान्यो बलीयान् विधेः ।। अच्छी भावना । सवेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं. क्लिष्टषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ. सदा ममात्मा विदधातु देव ! ।। ज्ञानावरणीयकर्म कैसे उत्पन्न होते है ? ।
ज्ञानस्य ज्ञानिनो वाऽपि, निन्दाप्रद्वेषमत्सरैः ।
उपघातैश्च विनैश्च, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते ॥५६६ ॥ वुद्धिगम्य क्या है ?। तन्नेत्रस्त्रिभिरीक्षते न गिरिशो नो पद्मजन्मा अष्टभिः, स्कन्दो द्वादशभिर्न वा न मघवा चतुःसहस्रेण च । संभूयापि जगत्त्रयस्य नयनस्तद्वस्तु नो वीक्ष्यते, प्रत्याहृत्य दृशः समाहितधियः पश्यन्ति य पण्डिताः
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लुषा की पहेचाण ।
प्राक् पादयोः पतति खादति पृष्ठमांस, कर्णे कलं किमपि रौति शनैर्विचित्रम् । छिद्रं निरूप्य सहसा प्रविशत्यशङ्क, सर्व खलस्य चरितं मशकः करोति ॥५६८ ॥ पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकः परमधार्मिकः । शनैः शनैः पदं धत्ते जीवानां वधशङ्कया ।। ५६९ ।। सहवासी हि विजानाति सहवासिविचेष्टितम् । बकः किं वयेते राम ! येनासो निष्कुलीकृतः॥५०॥
पश्यनपि न मन्येत यस्तस्मै स्वस्ति धीमते ॥५७१॥ विषय कैसा है ?।
आपातमात्रमधुरा, परिणामेऽतिदारुणाः ।
शठवाच इवात्यन्तं, विषया विश्ववञ्चकाः ।। ५७२ ।। आयुष्यादि विनश्वर है।
आयुर्धनं यौवनं च, स्पर्द्धयेव परस्परम् ।
सत्वरं गत्वराण्येव, संसारेऽस्मिन् शरीरिणाम् ।।५७३।। समय समय का काम करता है। उपचितेषु परेष्वसमर्थतां व्रजति कालवशाद् बलवानपि । तपसि मन्दगभस्तिरभीषुमानहि महाहिमहानिकरोऽभवत् ।। को निर्दग्धीत्रपुरजयिना ? कश्च कर्णस्य हन्ता ? नद्या; कूलं विघटयति कः कः परस्त्रीरतश्च ? ॥ ५७४ ॥
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कः समद्धो भवति समरे १, कः प्रियवाङ्गनानां १ को दुःसङ्गाद् भवति विदुषां १, मानपूजापहारः ||५७५ ॥ पुष्पेषु माता पुरुषायमाणा लखावती विश्वसृजं विलोक्य । नाभीसरोजे नयनं मुरारेवमेतरं वारयति स्म वेगात् ॥ ५७६ ॥ जाता लता हि शैले, जातु लतायां न जायते शैलः । संप्रति तद्विपरीतं, कनकलतायां गिरिद्वयं जातम् ॥ ५७७ ॥ सहायक से शोभा बढती है ।
वस्त्रहीनमलङ्कारं, घृतहीनं च भोजनम् । स्वरहीनं च गान्धर्व, भावहीनं च मैथुनम् ॥ ५७८ ॥
प्रभु की बोध देने की कुशलता ।
सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेषु हि तामसेषु,
सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः ॥ ५७९ ॥
तावश्चंद्रबलं ततो गृहबलं ताराबलं भूबलं, तावत्सिद्ध्यति वांछितार्थमखिलं तावज्जनः सञ्जनः । मुद्रामंडल मंत्रतंत्र महिमा तावत्कृतं पौरुषं, यावत्पुण्यमिदं सदा विजयते पुण्यक्षये चीयते ॥ ५८० ॥ धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनदः कामार्थिनां कामदः, सौभाग्यार्थिषु तत्प्रदः किमपरं पुत्रार्थिनां पुत्रदः,
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( ९५ ) राज्यार्थिष्वपि राज्यदः किमथवा नानाविकल्पैर्नृणां, तत् किं यमकरोति किंच कुरुते स्वर्गापवर्गाद्यपि ॥२८॥ पत्नी प्रेमवती सुतः सुविनयो भ्राता गुणालंकृतः, स्निग्धो बंधुजनः सखापि चतुरो नित्यं प्रसन्नः प्रभुः। निर्लोभानुचराः स्वबंधुसुमनःप्रायोऽत्र भोग्यं धनं, पुण्यानामुदयेन संततमिदं कस्यापि संपद्यते ॥५८२ ॥ वापी वप्रविहारवर्णवनिता वाग्मी वनं वाटिका, विद्वद् (वैद्य)ब्राह्मणवादिवारिविबुधा वेश्या वणिग् वाहिनी। विद्या वीरविवेकवित्तविनयो वाचंयमो वल्लिका, वस्त्रं वारणवाजिवेसरवरं राज्यं च वै शोभते ॥५८३ ।। राज्यं निःसचिवं गतप्रहरणं सैन्यं विनेत्रं मुखं, वर्षा निर्जलदा धनी च कृपणो भोज्यं तथाज्यं विना । दुःशीला दयिता सुहृनिकृतिमान् राजा प्रतापोज्झितः शिष्यो भक्तिविवर्जितो नहि विना धर्म नरः शस्यते ॥५८४॥ कुग्रामवासः कुनरेन्द्रसेवा कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या । कन्याबहुत्वं च दरिद्रता च षड् जीवलोके नरका भवंति । राजा कुलवधूवित्रा नियोगिमंत्रिणस्तथा । स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दंता केशा नखा नराः ॥ ५८६ ॥ पूगीफलानि पत्राणि राजहंसतुरंगमाः। स्थानभ्रष्टा सुशोभते सिंहाः सत्पुरुषा गजाः ॥ ५८७ ।। निर्दतः करटी हयो गतजयश्चंद्रं विना शर्वरी, निर्गन्धं कुसुमं सरोगतजलं छायाविहीनस्तरुः ।
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( ९६ )
भोज्यं निर्लवणं सुतो गतगुणश्चारित्रहीनो यतिनिर्द्रव्यं भुवनं न राजति तथा धर्म विना मानवः ॥ ५८८ || श्रमेध्यपूर्णे कृमिजालसंकुले स्वभावदुर्गंध अशौचनिन्हवे कलेवरे मूत्रपुरीषभाजने लपंति मूढा विरमन्ति पंडिता: । ५८९ | स्पृष्ट्वा शत्रुंजयं तीर्थं, नत्वा रैवतकाचलं । स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते भक्ति तीर्थंकरे गुरौ जनमते संधे च हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहव्युपरमं क्रोधाद्यरीणां जयं । सौजन्यं गुणिसंगमिंद्रियदमं दानं तपो भावनां, वैराग्यं च कुरुष्व निर्वृतिपदे यद्यस्ति गंतुं मनः ॥ ५९१ ॥ श्री तीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु भ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति । तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः, पूज्या भवंति जगदीश मथा त्रयंतः छट्टे भत्तेणं पाणएणं तु सत्तजताय जो कुइ सितुंजये सो तइए भवे लहइ सिद्धिं ॥ ५९३ ॥ | यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठते,
यं तीर्थं कथयंति पावनतया येनाऽस्ति नान्यः समः । यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सतां यस्माच्छुभं जायते, स्फूर्तिर्यस्य परा वसंति च गुणा यस्मिन् स संघोऽर्च्यताम् ५९४ लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रभसा कीर्तिस्तमालिंगति, प्रीतिस्तं भजते मतिः प्रयतते तं लब्धुमुत्कण्ठया ।
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।। ५९० ।।
।। ५९२ ।।
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( ९७ ) स्व:श्रीस्तं परिरन्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते, यः संघ गुणराशिकेलिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ।। ५९५॥ आतुरे व्यसने प्राप्ते, दुर्भिक्षे शत्रुनिग्रहे । राजद्वारे श्मशाने च, यस्तिष्ठति स बान्धवः ॥ ५९६ ॥ कीटिकासंचितं धान्यं, मक्षिकासंचितं मधु । कृपणेन संचिता लक्ष्मी-स्परैः परिभुज्यते ॥ ५९७॥ पा जे धन मेलियु, ते धन किं थिर थाय । मेलणहारो मरी गयो, ते धन कोक ज खाय ॥ ५९८ ॥ पिबंति नद्यः स्वयमेव नाम्भः, खादन्ति न स्वादुफलानि वृक्षाः पयोमुचः किं विलसति सस्यं, परोपकाराय सतां विभूतयः५९९ कैवर्तकर्कशकरग्रहणाच्च्युतोऽपि,
जाले पुनर्निपतितः शफरोऽविवेकी। जालात् पुनर्विगलितो गलितो बकेन, ___ वामे विधौ बत कुतो व्यसनानिवृत्तिः ॥ ६०० ॥ एकेनाऽपि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम् ।
सहैव दशभिः पुत्रीरं वहति गर्दभी ॥६०१ ॥ आदाय मांसमखिलं स्तनवर्जमङ्गाद् ,
मां मुञ्च वागुरिक ! यामि कुरु प्रसादम् । अद्यापि सस्यकवलग्रहणानभिज्ञा,
मन्मार्गेवीक्षणपरा:शिशवों मदीयाः ॥६०२।।
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( ९८ )
जगणी जम्मभूमी पच्छिमनिद्दा सुभासिश्रा गुट्ठी मग माणुस्सं पंच वि दुक्खेण मुच्चति ।। ६०३ ॥ रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिताः सप्त तुरगा, निरालंबो मार्गश्वरणविकलः सारथिरपि । रविर्यात्येवान्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः,
क्रियासिद्धिः सच्चे वसति महतां नोपकरणे ॥ ६०४ | विजेतव्या लङ्का चरणतरणीयो जलनिधिः,
विपक्षः पौलस्त्यो रणभुवि सहायाश्च कपयः । तथाप्याज रामः सकलमबधीद् राक्षसकुलम्, क्रियासिद्धिः सच्चे वसति महतां नोपकरणे ॥ ६०५ ॥ श्रद्यापि नोज्झति हरः किल कालकूटं, कूर्मो बिभर्ति धरणीमपि पृष्टकेन । अम्भोनिधिर्वहति दुर्वहवाडवाग्नि
मङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति रिक्तपाणिर्न पश्येच्च राजानं देवतां गुरुम्
उपाध्यायं च वैद्यं च फलेन फलमादिशेत् || ६०७ ॥ स्तन्यपानाञ्जननी पशूनामादारलाभाच्च नराधमानाम् । गेहकम्मैव तु मध्यमानामाजीवितात् तीर्थमिवोचमानाम् ॥ ६०८ ॥
॥ ६०६ ॥
जातापत्या पतिं द्वेष्टि, कृतदारस्तु मातरम् । कृतार्थः स्वामिनं द्वेष्टि, जितरोगचिकित्सकम् ॥ ६०९ ॥
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( ९९ )
एका भार्या त्रयः पुत्रा द्वे हले दश धेनवः । ग्रामे वासः पुराने स्वर्गादपि विशिष्यते ॥ ६१० ॥ तरुणं सर्पपशाकं नवौदनं पिच्छिलानि च दर्धानि । अपव्ययेन सुन्दरि ! ग्राम्यजनो मिष्टमश्नाति ॥३१९॥ अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । अनाथा पृथिवी नास्ति, याम्नायाः खलु दुर्लभाः ॥ ६१२ ॥ वेश्याका नृपतिश्रौरो नीरमार्जारदंष्ट्रिणः । जातवेदाः कलादश्च न विश्वास्या इमे क्वचित् ॥ ६१३ || द्यूतं सर्वापदां धाम, द्यूतं दीव्यन्ति दुर्धियः । द्यूतेन कुलमालिन्यं द्यूताय श्लाघतेऽधमः खलः सत्क्रियमाणोऽपि ददाति कलहं सताम् । दुग्धौतोऽपि किं याति वायसः कलहंसताम् ॥ ६१५|| शास्त्रं बोधाय दानाय धनं धर्माय जीवितम् । वपुः परोपकाराय धारयन्ति मनीषिणः अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये, महार्णवे पर्वतमस्तके वा । सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा, रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ६१८ संपदि यस्य न हर्षो, विपदि विषादो रणे च धीरत्वम् ।
॥ ६१४ ॥
॥ ६१६ ॥
·
।। ६१७ ॥
तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं विरलम् ||६१९ ॥ गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता दंताश्च नाशं गता । दृष्टिभ्रश्यति रूपमेव मते वैरूप्यवर्णोदयम् ॥
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(१००) वाक्यं नैव करोति बांधवजनः पत्नी न शुश्रूषते । धिकष्टं जरयाभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥६२० ॥ दिव्यज्ञानयुता जगत्रयनुताः शौर्यान्विताः सत्कृताः। देवेंद्रासुरवृंदवंद्यचरणाः सद्विक्रमाश्चक्रिणः॥ वैकुण्ठा बलशालिनो हलधरा ये रावणाद्याः परे । ते कीनाशमुखं विशंत्यशरणा यद्वा न लंध्यो विधिः ॥६२१॥ ये पातालनिवासिनोऽसुरगणा ये स्वैरिणो व्यंतरा । ये ज्योतिष्कविमानवासिविबुधास्तारांतचंद्रादयः ।। सौधर्मादिसुरालये सुरगणा ये चापि वैमानिकास्ते सर्वेऽपि कृतांतवासमवशा गच्छंति किं शुच्यते? १६२२॥ यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा । यावच्चेंद्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।। श्रात्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महानादीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कादशः ॥६२३॥ जिणसासणस्स सारो, चउद्दसपुव्वाण जो समुद्धारो। जस्स मणे नमुकारो, संसारो तस्स किं कुणइ ? ॥ ६२४ ॥ नात्यन्तसरलैीव्यं गत्वा पश्य वनस्पतिम् । सरलास्तत्र छिद्यते कुब्जास्तिष्टंति पादपाः ॥६२५ ॥ शीलं नाम नृणां कुलोन्नतिकरं शीलं परं भूषणं । . . शीलं ह्यप्रतिपाति वित्तमनघं शीलं सुगत्यावहं ।। शीलं दुर्गतिनाशनं सुविपुलं शीलं यशः पावनं । शीलं निवृतिहेत्वनंतसुखदं शीलं तु कल्पद्रुमः ॥२६॥
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(१०१) भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तेऽग्निभूभृद्भय । माने म्लानिभयं जये रिपुभयं वंशे कुयोषिद्धयम् ।। दास्ये स्वामिभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं । सर्व नाम भयं भवेदिह नृणां वैराग्य मेवाभयम् ।। ६२७ ॥ लज्जा दया दमो धैर्य पुरुषालापवर्जनम् । एकाकित्वपरित्यागो नारीणां शीलरक्षणम् ॥६२८ ॥ यौवनं धनसंपत्तिः, प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय, किं पुनस्तचतुष्टयम् ॥६२९ ॥ आदौ मजनचारुचीरतिलकं नेत्रांजनं कुंडलं, नासामौक्तिकहारपुष्पकलिकं झंकारवन्नू पुरम् ।। अंगं चंदनचर्चितं कुचमणिचुद्रावली घण्टिका, ताम्बूलं करकंकणं चतुरता शृंगारकाः षोडश ॥ ६३० ॥ दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटहो गोत्रे मषीकूर्चकचारित्रस्य जलांजलिगुणगणारामस्य दावानलः ॥ संकेतः सकलापदां शिवपुरद्वारे कपाटो दृढः । शीलं येन निजं विलुप्तमखिलं त्रैलोक्यचूडामणिः ॥६३१॥ भक्खणे देवदव्वस्स परत्थीगमणेण य सत्तमं नरयं यांति सत्त वारा उ गोयमा! ॥६३२॥ विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं । विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ॥ विद्या बंधुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतं । विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्याविहीनः पशुः ।६३३॥
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( १०२ )
६३४ ॥
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं ? । लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति १ ।। कोहो पीई पणासेड़, माणो विणयनासणो । माया मिति पणासेह, लोहो सव्वविणासो || ६३५ ॥
॥ ६३६ ॥
वैरवैश्वानरव्याधि-वादव्यसनलक्षणाः । महानर्थाय जायन्ते वकाराः पंच वर्द्धिताः पासा वेश्या अग्नि जल ठग ठाकुर सोनार । ए दश न होये आपणा दुर्जन सर्प मंजार दिवा पश्यति नो घूकः, काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोऽपि कामांधो, दिवा नक्तं न पश्यति ॥ ६३८ ॥ न पश्यति हि जात्यंधः, कामांधो नैव पश्यति ।
॥ ६३७ ॥
॥ ६४० ॥
न पश्यति मदोन्मत्तो, अर्थी दोषं न पश्यति ॥ ६३९ ॥ न स्वर्धुनी न फणिनो न कपालदाम । नेन्दोः कला न गिरिजा न जटा न भस्म ॥ यत्रान्यदेव च न किश्चिदुपास्महे तद्, रूपं पुराणमुनिशीलितमीश्वरस्य || स्वपतिं या परित्यज्य निस्त्रपोपपतिं भजेत् । तस्यां क्षणिकचित्तायां विश्रम्भः कोऽन्ययोषिति ॥ ६४१ ॥ प्राणसन्देहजननं परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धं च परस्त्रीगमनं त्यजेत् जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः ॥ ६४३ ॥
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॥ ६४२ ॥
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(१०३) जम्मंतीए सोगो, वईतीए य बड्डए चिंता । परिणीयाए दंडो, जुवइपिया दुकिवो निचम् ॥६४४॥ छटुं छटेण तवं कुणमाणो पढमगणहरो भय । अक्खीणमहाणसीओ सिरिगोयमसामित्रो जाओ ॥६४।। कूटसाक्षी मृषाभाषी कृतघ्नो दीर्घरोषणः । मद्यपापर्द्धिकुन्नीरैर्न शुद्ध्यति कदाचन ॥६४६ ॥ चित्तमन्तर्गतं दुष्टं तीर्थस्नानन शुद्ध्यति । शतशोऽपि जलैधौंतं सुराभाण्डमिवाऽशुचि ॥६४७ ॥ आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्धं गतम्, तस्यार्द्धस्य कदाचिदधमधिकं वृद्धत्ववाल्यत्वगम् । शेष व्याधिवियोगशोकमदनासेवादिभिनीयते देहे वारितरगचंचलतरे धर्मः कुतः प्राणिनाम् ॥६४८॥ दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवेद्गर्भवासे नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलितवपुः स्त्रीपयःपानमिश्रम् ॥ तारुण्ये चापि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारेरे मनुष्या वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ६४९ दारिद्याकुलचेतसां सुतसुताभार्यादिचिंताजुषां, नित्यं दुर्भरदेहपोषणकृते रात्रिंदिवं खिद्यताम् । राजाज्ञा प्रतिपालनोद्यतधियां विश्राममुक्तात्मनां, सर्वोपद्रवशंकिनामघभृतां धिग् देहिनां जीवितम् !!॥६५०॥
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( १०४ )
निर्द्रव्यो धनचितया धनपतिस्तद्रक्षणे चाकुलो । निःस्त्री कस्तदुपायसंगतमतिः श्रीमानपत्येच्या ॥ पाप्तस्तान्यखिलान्यपीह सततं रोगैः पराभूयते । जीवः कोऽपि कथंचनापि नियतं प्रायः सदा दुःखितः । ६५१ | कस्तूरीकृष्णकायच्छविरतनुफणारत्न रोचिष्णुमाली । विद्युच्छाली गभीरानघवचनमहागर्जिविस्फूर्जितश्रीः ॥ वर्षन् तच्चां पूरैर्भविजनहृदयोर्व्यां लसद्बोधिवीजाङ्कुरं श्रीपार्श्वमेघः प्रकटयतु शिवानर्घ्य सस्याय शश्वत् । ६५२ | शत्रूणां तपनः सदैव सुहृदामानन्दनश्चन्द्रवत् ।
पात्रापात्र निरीक्षणे सुरगुरुर्दीनेषु कर्णोपमः ॥ नीतौ रामनिभो युधिष्ठिरसमः सत्ये श्रिया श्रीपतिः । स्वीयान्येष्वपि पक्षपातसुभगः स्वामी यथार्थो भवेत् ॥ ६५३ ॥
वरं रेणुर्वरं भस्म नष्टश्रीर्न पुनर्नरः । मुवत्वैनं दृश्यते पूजा क्वापि पर्वणि पूर्वयोः यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता | साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ॥ अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या । धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च दयैव धर्मेषु गुणेषु दानं प्रायेण चान्नं प्रथितं प्रियेषु । मेघः पृथिव्यामुपकारकेषु तीर्थेषु माता तु मता नितान्तम्
॥ ६५५ ॥
।। ६५६ ।।
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।। ६५४ ॥
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(१०५) दुष्टस्य दण्डः स्वजनस्य पूजा, न्यायेन कोशस्य सदैव वृद्धिः । अपक्षपातो रिपुराष्ट्ररक्षा, पश्चैव धर्माः कथिता नृपाणाम् ।।
॥६५७ ।। सीह सउण न चंदबल नवि जोइ धण रिद्धि । एकल्लो लक्खहि भिडइ जिहां साहस तिहां सिद्धि ॥६५८।। उपाध्यायाद्दशाचार्य, प्राचार्याणां शतं पिता। सहस्रं तु पितुर्माता गौरवेणातिरिच्यते ॥६५९ ॥ बद्धा येन दिनाधिपप्रभृतयो मञ्चस्य पादे ग्रहाः । सर्वे येन कृताः कृताञ्जलिपुटाः शक्रादिदिक्पालकाः ॥ लङ्का यस्य पुरी समुद्रपरिखा सोऽप्यायुषः संक्षये। कष्टं विष्टपकण्टको दशमुखो दैवाद् गतः पञ्चताम् ॥६६०॥ धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतामानन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमकेशयाः ॥ अस्माकं तु मनोरथैः परिचितप्रासादवापीतटक्रीडाकाननकोलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ॥ ६६१ ॥ पानीयस्य रसः शान्तः परान्नस्यादरो रसः । प्रानुकूल्यं रसः स्त्रीणां मित्रस्यावंचनं रसः ॥६६२ ॥ एकं ध्याननिमीलितं मुकुलितं चक्षुर्द्वितीयं पुनः । पार्वत्या विपुले नितम्बफलके शृङ्गारभारालसम् ।। अन्यत्क्रूरविकृष्टचापमदनक्रोधानलोद्दीपितम् ॥ शम्भोभिन्नरसं समाधिसमये नेत्रत्रयं पातु वः॥ ६६३ ॥
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( १०६ )
॥ ६६६ ॥
।। ६६७ ॥
कर्तुः स्वयं कारयितुः परेण, तुष्टेन भावेन तथाऽनुमन्तुः । साहाय्यकर्तुश्च शुभाशुभेषु, तुल्यं फलं तत्रविदो वदन्ति ॥ हरिहरचउरायण चंद-मूर - खंदाइयो वि जे देवा । नारीण किंकरत्तं कुणंति धि द्धी विसयतण्हा ॥ ६६४ ॥ श्रणिमिसनया मणकजसाहणा पुष्पदामामिलाणा । चउरंगुलेण भूमिं न द्विवंति सुरा जिला चिंति ॥ ६६५ ।। श्वेताम्बरधरा नारी श्वेतगन्धावलेपना । अवगूहेत यं स्वप्रे तस्य श्रीः सर्वतोमुखी क्षमा खड़गं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति १ । तृणे पतितो वह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ॐ नमो विश्वनाथाय विश्वस्थितिविधायिने । अर्हते व्यक्तरूपाय युगादीशाय योगिने श्री श्रियः स्वामी चामीकरसमप्रभः । स्तुत्यः सत्कृत्य लाभाय श्रीशांतिः शुभतांतिकृत् ॥ ६६९ ॥ हेलांदोलितदैत्यारिर्जरासंधप्रतापहृत् । स्मरणीयं स्मरं कुर्वन् श्रीमान्नेमिः पुनातु वः यस्य दृष्टिसुधावृष्टिदानादहिरहश्विरः । जातस्तापत्रयान्मुक्तः स श्रीपार्श्वो मुदेऽस्तु वः सुराद्रिं सुरनाथस्य संशयापनयाय यः । अकंपयत्रिधा वीरः श्रीवीरः श्रेयसेऽस्तु वः धर्मार्थकाममोक्षेषु वैलक्षण्यं कलासु च । करोति कीर्ति प्रीतिं च साधुकाव्यनिषेवणम् ॥ ६७३ ॥
॥ ६६८ ॥
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॥ ६७२ ॥
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॥६७१ ॥
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(१०७) नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र च दुर्लभा । कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र च दुर्लभा ॥६७४।। काव्यालापाश्च ये केचित् गीतकान्यखिलानि च ।। शब्दमूर्तिधरस्यैते विष्णोरंशा महात्मनः ।। ६७५ ॥ न्यकारो ह्ययमेव मे यदरयस्तत्राप्यसौ तापसः । सोऽप्यत्रैव निहन्ति राक्षसकुलं जीवत्यहो रावणः । धिग् धिक् शक्रजितं प्रबोधितवता किं कुम्भकर्णेन वा। स्वर्गग्रामटिकाविलुण्ठनवृथोच्छूनैः किमेभिर्भुजैः? ॥६७६।। यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चैव क्षपास्ते चोन्मीलितमालतीसुरभयः प्रौढाः कदम्बानिलाः। सा चैवाऽस्मि तथाऽपि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधौ। रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कण्ठते ॥६७७ ॥ शून्यं वासगृहं विलोक्य शयनादुत्थाय किश्चिच्छनैनिद्राव्याजमुपागतस्य सुचिरं निर्वर्ण्यपत्युर्मुखम् । विश्रब्धं परिचुंब्य जातपुलकामालोक्य गण्डस्थली ।। लजानम्रमुखी प्रियेण हसता बाला चिरं चुम्बिता ॥६७८॥ यस्यालीयत शल्कसीम्नि जलधिः पृष्ठे जगन्मण्डलं, दंष्ट्रायां धरणी नखे दितिसुताधीशः पदे रोदसी । क्रोधे चत्रगणः शरे दशमुखः पाणौ प्रलम्बासुरो, ध्याने विश्वमसावधामिककुलं कस्मैचिदस्मै नमः ॥६८९॥ वाली जोइउ नहु वलई हीइडइ धरई कसाय । मेन्ही उटारस सींदरो जहीं भावइ तहि जाइ ॥६८०॥
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( १०८ )
अक्खाणणी कम्माण मोहणी तह वयाण बंभवयं । गुत्तीण य मणगुत्ती चउरो दुक्खेण जिप्पति ॥ ६८१ ॥ वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः । कुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते, निवृत्तरागस्य गृहं ततो वनम् ॥
॥ ६८२ ॥
यः प्राप्य दुष्प्रापमिदं नरत्वं, धर्म न यत्नेन करोति मूढः । क्लेशप्रबन्धेन स लब्धमब्धौ चिंतामणि पातयति प्रमादात् ॥ ६८३ ॥
श्रासन्नमेव नृपतिर्भजते मनुष्यं, विद्याविहीनमकुलीनमसंस्तुतं च प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताथ, यत्पार्श्वतो भवति तत्परिवेष्टयंति ॥ ६८४ ॥ अनागतं यः कुरुते स शोभते, न शोभते यो न करोत्यनागतम् वने वसन्तस्य जराप्युपागता, चिलस्य वाचा न कदापि निर्गता ॥ ६८५ ॥ किं किं न कयं को को न पत्थिश्रो, कहकहवि न नामियं सीसं । दुब्भरपिट्टस्स कए, किं न कथं किं न कापव्वं ॥ ६८६ ॥
कुलं च शीलं च सनाथता च, विद्या च वित्तं च वपुर्वयश्च । एतान गुणान् सप्त निरीक्ष्य देया, ततः परं भाग्यवशा च कन्या ।। ६८७ ॥
कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्
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(१०९) कर्मणो हि प्रधानत्वं किं कुर्वन्ति शुभा ग्रहाः । वसिष्ठदत्तलग्नोऽपि रामः प्रबजितो वने ॥६८९ ॥ जातेति शोको महतीति चिन्ता, कस्य प्रदेयेति महान वितर्कः। दत्ता सुखं स्थास्यति वान वेति,कन्यापितृत्वं खलु नाम कष्टम् ।। विलंबो नैव कर्तव्यो आयुर्याति दिने दिने । न करोति यमः क्षांतिं धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥ ६९० ।। जैनो धर्मः प्रकटविभवः संगतिः साधुलोके । विद्वद्गोष्ठी वचना टुता कौशलं सर्वशास्त्र ।। साध्वी लक्ष्मीश्चरणकमलोपासना सद्गुरूणां । शुद्धं शीलं मतिरमलिना प्राप्यते भाग्यवद्भिः ।। ६९१ ।। जिनमक्तिः कृता तेन, शासनस्योन्नतिस्तथा। साधर्मिकेषु वात्सल्यं कृतं येन सुबुद्धिना ॥६९२ ॥ षष्टिमिनके दोषा, अशीतिमधुपिंगले ।। शतं च टुंटमुंटे च, काणे संख्या न विद्यते ॥ ६९३।। तावद् गजः प्रसृतदानगण्डः, करोत्यकालाम्बुदगर्जितानि । यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु, लाङ्गुलविस्फोटरवं शृणोति
॥६९४ ॥ क्षान्तं न चमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः, सोढा दुःसहतापशीतपवनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितं द्वन्दैन त परं, तत् तत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो तैस्तैः फलचिताः॥६९।।
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(११०) काय नुत्प्रभवं कदन्नमशनं शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मह्यास्तले केवले । एतान्येव गृहे वहन्त्यवनति तान्युन्नति संयमे, दोषाश्चापि गुणा भवन्ति हि नृणां योग्ये पदे योजिताः ॥ दारिद्र को किसीने जलाया नहीं। दग्धं खाण्डवमर्जुनेन बलिना, द्रव्यैर्दुमैः सेवितम्, दग्धा वायुसुतेन रावणपुरी, लंका सकलस्वर्णभूः । दग्धः पंचशरः पिनाकपतिना, तेनापि युक्तं कृतम्,
दारियं जनतापकारकमिदं, केनापि दग्धं नहि ॥ ६९७॥ विधिकी प्रबलता । पञ्चैते पाण्डुपुत्राः, क्षितिपतितनया धर्मभीमार्जुनाद्याः, शूराः सत्यप्रतिज्ञा, दृढतरवपुषः, केशवेनापि गूढाः । ते वीराः पाणिपात्रे कृपणजनगृहे, भिक्षुचर्या चरन्तः, को वा समर्थो भवति विधिवशाद् भाविनी कर्मरेखा ।३९८॥ पादाहतः प्रमदया विकसत्यशोकः, शोकं जहाति बकुलो मुखसीधुसिक्तः। आलिङ्गितः कुरुषकः कुरुते विकाशमालोकितः सतिलकः तिलको विभाति ॥६९९ ॥ न स्नेहेन न विद्यया न च धिया रूपेण शौर्येण वा, नेया॑चाटुभयार्थदानविनयक्रोधक्षमामार्दवैः ॥ लजायौवनभोगसत्यकरुणासत्वादिभिर्वा गुणै- ... गुह्यन्ते न विभूतिभिश्च ललना दुःशोलचित्ता यतः॥७००।
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स्वाध्यायादि नहीं करनेवाला जगत् में पापी कहा जाता है । आवश्यक-ध्यान-तपोविधान-स्वाध्यायशून्यानि
दिनानि यस्य । प्रयांति तारुण्यहता स्वमातुर्जातेन पापेन किमत्र तेन ७०१ यः सर्वमृलोत्तरसद्गुणादि, प्रध्वंसपापेन न निंदति स्वं ।। निलीननीलीप्रचयांशुकश्रीः, कथं स शुध्येदपिवर्षलक्षः।७०२।
आत्मायुनरके धनं चरपतौ, प्राणास्तुलायां कुलं, वाच्यत्वे हृदि दीनता त्रिभुवने, तेनायशः स्थापितम् । येनेदं बहुदुःखदायि सुहृदा, हास्यं खलानां कृतं, शोच्यं साधुजनस्य निंदितपरस्त्रीसंगसेवासुखम् ॥७०३॥ सत्य का महिमा । सत्येनाग्निर्भवेच्छीतो, गाधं दत्तऽम्बु सत्यतः । नासिश्छिनत्ति सत्येन, सत्याद्रज्जूयते फणी॥ ७०४ ॥ दसण-वय-सामाइय-पोसह-पडिमा-सचित्त-आरंभ। पेसं-उद्दिट वज्जरा समणभूए अ॥ ।। ७०५॥ विजयापत्रमादाय, श्वेतसर्षपसंयुतम् । अनेन लेपयेद्देह, मोहनं सर्वतो जगत् ॥७०६॥ गृहीत्वा तुलसीपत्रं, छायाशुष्कं तु कारयेत् । अष्टगंधसमायुक्तं विजयावीजसंयुतम् ॥ ॥७०७॥ कपिलादुग्वसाद्धे, वटकाकंटप्रमाणतः । भक्षित्वा प्रातरुत्थाय, मोहनं सर्वतो जगत् ॥७०८॥
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( ११२ )
॥ ७१० ॥
पचांगं दाडिमीपिष्टो, श्वेतगुञ्जासमन्वितः । एभिस्तु तिलकं कृत्वा, मोहनं सर्वतो जगत् ॥ ७०९ ।। कटुतुम्बीरबीजतैलं, ज्वालयेत् पतवर्त्तिका । कज्जलेन जयेनेत्रे, मोहनं भवति ध्रुवम् किं ब्रूमो जलधेः श्रियं स हि खलु, श्रीजन्मभूमिः स्वयं, वाच्यः किं महिमाऽपि यस्य हि किल, द्वीपं महीति श्रुतिः । त्यागः कोऽपि स तस्य विभ्रति जगद्यस्यार्थिनोऽप्यम्बुदाः । शक्तेः कैव कथाsपि यस्य भवति चोभेण कल्पान्तरम् ७११ पार्वती और शंकर का प्रश्नोत्तर |
कस्त्वं शूली मृगय भिषजं, नीलकण्ठः प्रियेऽहं, कामेकां कुरु पशुपतिर्लाङ्गुलं ते कथं न १ । स्थाणुर्मुग्धे न वदति तरुर्जीवितेशः शिवाया, गच्छाटव्यामिति हतवचाः पातु चश्चन्द्रचूडः ॥ ७१२ ॥ निरर्थक दूसरों का हित नष्ट करनेवाले कैसा जानना ? | एके सत्पुरुषाः परार्थरचकाः स्वार्थं परित्यज्य ये, सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ॥ ते मी मानुषराक्षसाः परहितं, स्वार्थाय निघ्नन्ति ये, ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीम हे ॥७१३ ॥ ॥ जिनेश्वर भगवान का तत्त्वः । जीवोsनादिरनैधनः स गुणवान् कर्त्ता च भोक्ता विदन्, सूक्ष्मो देहमितश्च याति नरकं तिर्यग्गतिं चाघतः |
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( ११३ )
पुण्यात् स्वर्गमुपैति मानुषगतिं प्राप्नोति तन्मिश्रणात्, मुक्तिं गच्छति पुण्यपापविलयादित्याह तच्वं जिनः ॥७१४ || भग्गोट्टो मुवि गिरिकन्दरपइट्टो |
तत्थ वि सासणदेवी पसाए सावज्जो दिट्ठो || ७१५ ।।
कुलीन पुरुष किस को कहते हैं ? |
प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते संभ्रमविधिनिरुत्सेको लक्ष्म्यामनभिभवगन्धाः परकथाः । प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृते:, श्रुतेऽत्यन्तासक्तिः पुरुषमभिजातं कथयति ॥ ७१६॥ रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं, भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः । इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे,
।। ७१७ ॥
।। ७१८ ।।
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार मय्येव जीर्णतां यातु, यत् त्वयोपकृतं हरेः । नरः प्रत्युपकारार्थी, विपत्तिमभिकांक्षति यवनेत्र समानकान्ति सलिले मग्नं तदिन्दीवरं, मेघैरन्तरितः प्रिये तव मुखच्छायाऽनुकारी शशी । येsपि त्वद्गमनानुसारिगतयस्ते राजहंसा गतास्त्वत्सादृश्यविनोदमात्रमपि मे दैवेन न क्षम्यते ॥ ७१६ ॥
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( ११४ ) सन्तः सच्चरितोदयव्यसनिनः प्रादुर्भवद्यन्त्रणाः, सर्वत्रैव जनापवादचकिता जीवन्ति दुःखं सदा। अव्युत्पन्नमतिः कृतेन न सता नैवासता व्याकुलो,
युक्तायुक्तविवेकशून्यहृदयो धन्यो जनः प्राकृतः ॥७२० ॥ रत्याप्तप्रियलाञ्छने कठिनता वासे रसालिङ्गिते,
प्रह्लादैकरसे क्रमादुपचिते भूभृद्गुरुत्वापहे । कोकस्पर्धिनि भोगभाजि जनतानङ्गे खलीनोन्मुखे,
भाति श्रीरमणावतारदशकं बाले भवत्याः स्तने ॥ ७२१॥ किसी भी रीति से प्रसिद्धि में आना चाहिए ।
घटं भित्त्वा पटं छित्त्वा, कृत्वा रासभरोहणं ।
येन केन प्रकारेण, प्रसिद्धः पुरुषो भवेत् ॥ ७२२ ॥ व्यसनों से हानि । द्यूतं च मांसं च सुरा च वेश्या, पापर्द्धिचौर्ये परदारसेवा । एतानि सप्तव्यनांनि लोके, घोरातिघोरं नरकं नयन्ति ॥
||७२३॥ धूताद् राज्यविनाशनं नलनृपः प्राप्तोऽथवा पाण्डवाः, मद्यात्कृष्णनृपश्च राघवपिता पापड़ितो दूषितः । मांसात् श्रेणिकभूपतिश्च नरके चौर्याद्विनष्टा न के ?
वेश्यातः कृतपुण्यको गतधनोन्यस्त्रीमृतो रावणः ॥७२४॥ तात्कालिक पाप को कौन नष्ट करता है ?
सद्यः प्रीतिकरो नादः, सद्यः प्रीतिकराः स्त्रियः सद्यः शीतहरो वह्निः, सद्यः पापहरो जिनः ॥७२॥
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( १९५) दानादि कैसे निष्फल जाते हैं ?
दानं पूजा तपश्चैव, तीर्थसेवा श्रुतं तथा ।
सर्वमेव वृथा तस्य, यस्य शुद्धं न मानसम् ॥७२६॥ किसका शकुन अच्छा होता है ? ।
वामस्वरा शिवा श्रेष्ठा, पिंगला दक्षिणस्वरा ।
प्रदक्षिणा च वामा च, कोकिला सिद्धिदायिनी ॥७२७॥ भाग्यको भी बिचार करना पडता है।
उद्यमः साहसं धैर्य, बलं बुद्धिः पराक्रमः।
षडेते यस्य विद्यन्ते, तस्य देवोऽपि शंकते ॥ ७२८॥ लक्ष्मी कहां स्थिर नहीं होती ? ।
वेश्यासक्तस्य चौरस्य, द्यूतकारस्य पापिनः ।
अन्यायोपार्जकस्यैव, पुंसो लक्ष्मीः स्थिरा नहि।।७२९॥ कौनसा पुरुष माननीय होता है ? । दानेन लक्ष्मीविनयेन विद्या, नयेन राज्यं सुकृतेन जन्म । परोपकारक्रिययाऽपि कायः, कृतार्थ्यते येन पुमान् स मान्यः
|| ७३०॥ धन ही पुरुषका सच्चा मित्र है। त्यजन्ति मित्राणि धनविहीन, पुत्राश्च दाराश्च सहोदराश्च । तमर्थवन्तं पुनराश्रयन्ति, अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धुः
॥ ७३१ ॥
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( ११६ )
विना पढे पण्डित और पढे हुए कतिपय मूर्ख --
दम्भ हानिकर्ता है |
अपठाः पण्डिताः केचित् केचित्पठितपण्डिताः । अपठा मूर्खकाः केचित् केचित् पठितमूर्खकाः ॥७३२ ॥
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,
विद्यादम्भः चणस्थायी, दानदम्भो दिनत्रयम् । रसदम्भस्तु षण्मासान् धर्मदम्भस्तु दुस्तरः ||७३३॥
ऐसे राजाको धिक्कार हो जो निर्दय है
"
पदे पदे सन्ति भटा रणोद्भटा, न तेषु हिंसारस एषः पूर्यते । घिगीदृशं ते नृपते कुविक्रमं कृपाश्रये यः कृपणे पतत्रिणि ।। ।। ७३४ ॥
न वासयोग्या वसुधेयमीदृशस्त्वमङ्ग यस्याः पतिरुज्झितस्थितिः । इति प्रहाय क्षितिमाश्रिता नमः - खगास्तमाचुक्रुशुराखैः खलु
॥ ७३५ ।।
धिगस्तु तृष्णातरलं भवन्मनः, समीक्ष्य पक्षान्मम हेमजन्मनः । तवावस्येव तुषारसीकरै-मवेदमीभिः कमलोदयः कियान् ॥
ब्राह्मणपुत्रका वक्तव्य ।
सतिक्ता ढेकरा यान्ति, सशब्दापानवायवः । पुनरामन्त्रणं प्राप्तं, किं करवाणि तात भोः ! ||७३७||
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(११७) पिता कहता है।
परान्नं प्राप्य दुर्बुद्धे !, मा प्राणेषु दयां कुरु ।
परानं दुर्लभं मन्ये, प्राणा जन्मनि जन्मनि ।।७३८॥ पूजारी शब्दकी व्युत्पत्ति ।
पूर्वजन्मनि पूतत्वा-जारत्वादिह जन्मनि ।
श्ररित्वाद्देवपूजायां, पूजारीत्यभिधीयते ॥७३९ ।। पुरोहित शब्दकी व्युत्पत्ति ।
पुरीषस्य च रोषस्य, हिंसायास्तस्करस्य च ।
आद्याक्षराणि संगृद्य, वेधाश्चक्रे पुरोहितम् ॥ ७४० ॥ मिनु और राजाकी साम्यता ।
पृथुकार्तस्वरपात्रं, भूषितनिःशेषपरिजनं देव ! ।
विलसत्करेणुगहनं, सम्प्रति सममावयोः सदनम्।।७४१॥ धनपाल कविका राजाके प्रति कथन ।
अहो! खल भुजंगस्य, विचित्रोऽयं वधक्रमः ।
अन्यस्य दशति श्रोत्र-मन्यः प्राणैर्वियुज्यते ॥ ७४२॥ स्वभावकी अतिरेकता। न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणं,
न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मनः स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते,
यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः ॥ ७४३॥
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(११८ ) विद्याका अध्ययन सहेल नही है। नानुद्योगवता न च प्रवसता मानं न चोत्कर्षता, नालस्योपहतेन नान्यमनसा नाचार्यविद्वेषिणा । न भ्रूभंगकटाचसुन्दरमुखीं सीमन्तिनीं ध्यायता,
लोके ख्यातिकरः सतां बहुमतो विद्यागुणः प्राप्यते।।७४४॥ श्रीशीतलनाथ तीर्थकरका पृथक् २ वर्णमें रहा हा महत्त्व । मायेन हीनं जलधावदृष्टं, मध्येन हीनं भुवि वर्णनीयम् । अन्त्येन हीनं धुनुते शरीरं, तन्नामकं तीर्थपतिं नमामि ।।
" शीतल " ॥ ७४५॥ दरिद्रताकी शंकासे लोभी और दाता क्या करते है।
लुन्धो न विसृजत्यर्थ, नरो दारिद्रयशंकया । दाताऽपि विसृजत्यर्थ, तयैव ननु शंकया ॥७४६ ॥ ध्येयस्त्वं सर्वसत्त्वानामन्यं ध्यायसि न प्रभो!। पूज्यस्त्वं विबुधेशाना-मपि पूज्यो न ते क्वचित्॥७४७॥ प्राधस्त्वं जगतां नाथ, नैवाद्यः कोऽपि ते प्रभो!। स्तुत्यस्त्वं स्तूयसे नान्यं, जगदीश्वरभावतः ।। ७४८ ॥ शरण्यस्त्वं हि सर्वेषां, न कोऽपि शरणं तव । त्वं प्रभुर्विश्वविश्वस्य, प्रभुरन्यो न ते जिन! ॥ ७४९ ॥ मुक्तिसौख्यं त्वदायत्तं, तदाता यत्परो नहि । परात्परतस्त्वं हि, तवास्ति न परः क्वचित् ॥ ७५०॥
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(११६) नमस्तुभ्यं भवाम्भोधि-यानपात्राय तायिने। त्वत्तः शिवसुखानंद, प्रार्थये नतवत्सल ! ७५१ ॥ तव प्रेष्योऽस्मि नाथाहं, त्वत्तो नाथामि नाथताम् । जगच्छरण्य ! मां रक्ष, प्रसीद परमेश्वर ! ॥ ७५२ ।। क्वाहं बुद्धिधनहीनः, क्व च त्वं गुणसागरः।
तथापि त्वां स्तवीम्येष, त्वद्भक्तिमुखरीकृतः ॥ ७॥३॥ त्वया हतास्तपोऽस्त्रेण, सर्वथान्येन दुर्जयाः। रागाद्या रिपवः स्वामि-नात्मनः स्वार्थघातकाः ॥७५४॥ रागाथै रिपुभिर्देवा भाषा अन्यैर्विडंबिताः, पश्यति ते बहिः शत्रून् विहायातनिकेतिन ॥ ७५५ ॥ अनन्तज्ञानमाहात्म्यवारिधे ! चतुरप्रभो!। जगत्प्रदीप ! भगवन् ! नाभेय ! भवते नमः ॥७५६॥ अष्टांगानि तथा नाथ ! भवान् योगस्य निर्ममे । यथा तानि प्रवर्तन्ते, कर्माष्टकनिपिष्टये ॥७५७ ॥ शत्रुजयशिरोरत्नं, श्रीनाभिकुलभास्करम् । . स्वर्गापवर्गव्यापारं, निदानं त्वां विभो स्तुमः ।। ६५८ ॥ रत्नेन काश्चनमिव, तेजसेव नभोमणिः । अलंकृतं त्वया नाथ तीर्थ शत्रुजयं ह्यदः ॥ ७५६ ॥ नाभ्यर्थये स्वर्गसुखं, न मोक्षं न नरश्रियम् ।। सदा त्वत्पादपमानि, वसन्तु मम मानसे ॥७६० ॥
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(१२०.) दानेन प्राप्यते लक्ष्मीः , शीलेन सुखसंपदा । तपसा चीयते कर्म, भावना भवनाशिनी ॥४६१ ॥ आग्रही बत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पाक्षपातरहितस्य तु युक्ति-यंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥७६२॥ त्रयः स्थानं न मुञ्चति, काकाः कापुरुषा मृगाः । अपमाने त्रयो यान्ति, सिंहाः सत्पुरुषा गजाः ॥ ७६३ ।। उत्तमाः स्वगुणः ख्याता, मध्यमास्तु पितुर्गुणैः। अधमा मातुलैः ख्याताः, श्वशुरैरधमाधमाः ॥७६४ ।। स्त्रीजातौ दाम्भिकता, भीलुकता भृयसी वणिग्जातौ । रोषः क्षत्रियजातो, द्विजातिजातौ पुनर्लोभः ॥७६५ ॥ विरोधो नैव कर्तव्यः, साक्षरेभ्यो विशेषतः। त एव विपरीताः स्यु, राक्षसा एव केवलम् ॥७६६ ॥ अनुचितकर्मारंभः, स्वजनविरोधो बलीयसा स्पर्धा । प्रमदाजनविश्वासो, मृत्युद्वाराणि चत्वारि ॥७६७॥ कान्तावियोगः स्वजनापमानं,
रणस्य भीतिः कुजनस्य सेवा । दरिद्रभावः खलसंगमश्व, विनामिना पंच दहन्ति देहम्
॥ ७६८॥ भिक्षुर्विलासी निर्धनश्च कामी, - वृद्धो विटः प्रव्रजितश्च मूर्खः । पण्यांगना रूपविलासहीना,
प्राजायत दुश्चरितानि पंच ॥ ७६९ ॥
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(१२१) अपरीक्षितं न कर्त्तव्यं, कर्त्तव्यं सुपरीक्षितम् । पश्चाद्भवति संतापो, ब्राह्मणी नकुलं यथा ॥ ७७० ॥ शकटारपंचहस्तेषु, दशहस्तेषु वाजिनः । हस्तिनः शतहस्तेषु, देशत्यागश्च दुर्जनात् ॥७७१ ॥ न विश्वसेत्पूर्वविरोधितस्य, शत्रोश्च मित्रत्वमुपागतस्य दग्धा गुहा पश्य उलूकपूर्णा, काकप्रकीर्णेन हुताशनेन
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः, पापे पापाः समे समाः। राजानमनुवर्तन्ते, यथा राजा तथा प्रजाः ॥ ७७२ ॥ शास्त्रे सुनिश्चितधिया परिचिन्तनीय
माराधितोऽपि नृपतिः परिशंकनीयः। अंके स्थिताऽपि युवतिः परिरक्षणीया
शास्त्रे नृपे च युवतौ च कुतः स्थिरत्वम् ? ॥ ७७३ ॥ हावो मुखविकारः स्याद् , भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ॥ ७७४ ॥ गतानुगतिको लोको, न लोकः पारमार्थिकः । शोको राजकुले सर्वे, कुन्तकृन्मदने मृते ॥७७५ ॥ दश धर्म न जानन्ति, धृतराष्ट्र निबोधनात् । मूर्खः प्रमत्त उन्मत्तः, क्रुद्धः श्रान्तो बुभुक्षितः त्वरमाणश्च रक्तश्च लुब्धकामी च ते दश ॥ ७७६ ॥ मांसास्वादनलुब्धस्य, देहिनं देहिनं प्रति । हन्तुं प्रवर्तते बुद्धिा, शाकिन्या इव दुर्धियः ।। ७७७ ।।
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(१२२) कालेन पच्यते धान्यं, फलं कालेन पच्यते । वयसा पच्यते देहं, पापी पापेन पच्यते ॥७७८ ।। अभ्रच्छाया तृणाग्निश्च, स्थले जलं खले प्रीतिः । वेश्यारागः कुमित्रं च, षडेते बुबुदोपमाः ॥ ७७६ ॥ दशशूनासमश्चक्री, दशक्रिसमो द्विजः।
दशद्विजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः । ७८० ॥ मद तीन प्रकारका है।
मत्तस्तु मदिरामत्ता, प्रमत्तो धनगर्वितः ।
उन्मत्तः स्त्रीमदांधश्च, मदत्रयमुदाहृतम् ॥ ७८१ ॥ मीयोंका विश्वास मत करो।
अपसेत्ववटे नीरं, चालिन्यो सूक्ष्मपिष्टकम् ।
स्त्रीणां च हृदये वार्ता, न तिष्ठन्ति कदाचन ।। ७८२ ।। इनके उपर उपकार नहीं हो सकता।
जामाता कृष्णसर्पश्च, नापितो दुर्जनस्तथा ।
उपकारैर्न गृह्यन्ते, पंचमो भागिनेयकः ॥ ७८३ ॥ कृपण दान या भोग नहीं कर सकता है । न दातुं नोपभोक्तुं च, शक्नोति कृपणः श्रियम् । किन्तु स्पृशति हस्तेन, नपुंसक इव स्त्रियम् ॥ ७८४ ॥ गुप्त बात स्त्रीयोंको नही कहना चाहिए ।
स्त्रीणां गुह्यं न वक्तव्यं, प्राणैः कण्ठगतैरपि । नीतो हि पक्षिराजेन, पद्मरागो यथा फणी ॥ ७८५ ॥
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(१२३) दुष्टानां दुर्जनानां च, पापिनां क्रूरकर्मणाम् । अनाचारप्रवृत्तानां, पापं फलति तद्भवे ॥७८६ ॥ परोपकारः कर्त्तव्यः, प्राणैरपि धनैरपि । परोपकारजं पुण्यं, न स्यायज्ञशतैरपि ॥७८७ ॥ तीर्थस्नानैन सा शुद्धि-बहुदानैर्न तत्फलं ।।
तपोभिरुप्रैस्तन्नाप्य-मुपकाराद्यदाप्यते ॥ ७८८ ॥ उदयति यदि मानुः पश्चिमायां दिशायां
विकसति यदि पध्र पर्वताग्रे शिलायाम् । प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्नि___ स्तदपि न चलतीयं भाविनी कर्मरेखा ॥ ७८९ ॥ शंभुस्वयंभूहरयो हरिणेक्षणानां,
येनाक्रियन्त सततं गृहकुम्भदासाः । वाचामगोचरचरित्रविचित्रिताय,
तस्मै नमो भगवते मकरध्वजाय ॥ ७९० ॥ दैत्येन दानवेनैव, राज्ञा सिंहेन हस्तिना। रक्षसा ताड्यमानोऽपि, न गच्छेच्छैवमन्दिरम् ॥ ७९१ ॥ पश्चापि मम रोचन्ते, पाण्डवास्तात ! सुन्दराः । तथापि बलीयान् कामो, मतिः षष्ठेऽपि जायते ॥ ७९२ ।। तारुण्यं द्रुममञ्जरी किमथवा कन्दर्पसंजीवनी,
किं लावण्यनिधानभूमिरथवा संपूर्णचन्द्रावली। किं नारी किमु किन्नरी किमथवा विद्याधरी वाथ किं, केयं केन कियचिरेण कियता कस्मै कथं निर्मिता ? ॥७९३॥
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( १२४ )
मृच्यालनी महिसहंसशुकस्वभावा, मार्जारकाकमशका च जलौकसाम्या | सच्छिद्रकुम्भपरिकर्षशिलोपमानं, श्रोतुर्गुणा भुवि चतुर्दशधा भवन्ति प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्र हृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रस्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद् धर्मकथां गुणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ।। ७९५ || चिन्तया नश्यते बुद्धिः, चिंतया नश्यते बलम् । चिन्तया नश्यते ज्ञानं, व्याधिर्भवति चिन्तया ॥ ७९६ ॥ अथीनामर्जने दुःखं, अर्जितानां च रक्षणे |
।। ७९९ ॥
आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थो दुःखभाजनम् ॥ ७९७ ॥ विनयेन विद्या ग्राह्या, पुष्कलेन धनेन वा । अथवा विद्यया विद्या, चतुर्थं नास्ति कारणम् ॥ ७९८ ॥ नाणाविहाई दुक्खाई, अनुहोति पुणो पुणो । संसारचक्कवालंमि, मच्चुवा हिजराकुले उच्चावयाणि गच्छन्ता, गब्भमेस्संति तसो । नायपुत्ते महावीरे, एवमाह जिणोत्तमे ॥ ८०० ॥ स्रष्टा यन्न सृजेत् सृष्टौ हरो ध्यानेन दृष्टवान् । नोदरे वैष्णवे चास्ति, तत् कुर्व्वन्ति स्त्रियोऽदयाः || ८०१ || द्यूतासक्तस्य सच्चित्तं धनं कामाः सुचेष्टितम् । नश्यन्त्येव परं शीर्ष, नामापि च विनश्यति
॥ ८०२ ॥
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।। ७९४ ।।
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( १२५ ) विषयव्याकुलचित्तो, हितमहितं वा न वेत्ति जन्तुरयम् । तस्मादनुचितचारी, चरति चिरं दुःखकान्तारे || ८०३ ॥ रक्तः शब्देन हरिणः, स्पर्शान्नागो रसेन वारिचरः । कृपण पतंगो रूपे, भुजंगो गंधेन तु विनष्टः 11 508 || अनभ्यासे विषं शास्त्रं, अजीर्णे भोजनं विषम् । दरिद्रस्य विषं गोष्ठी, वृद्धस्य तरुणी विषम् रसातलं यातु यदत्र पौरुषं, कुनीतिरेषा शरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यद्धलिनाऽपि दुर्बलो, हहा महाकष्टमराजकं जगत् ।। ८०६ ।।
॥ ८०५ ॥
कन्दः कल्याणवल्ल्याः सकलसुखफलप्रापणे कल्पवृक्षो, दारिद्र्योद्दीप्तदावानलशमनघनो रोगनाशैकवैद्यः । श्रेयः श्रीवश्यमन्त्रो विगलितकलुषो भीमसंसार सिन्धोः, तारे पोतायमानो जिनपतिगदितः सेवनीयोऽत्र धर्मः 11 200 11
॥ २०८ ॥
संवत्सरेण यत्पापं कैवर्त्तकस्य जायते । एकाहेन तदाप्नोति, अपूतजल संग्रही उपकारिषु यः साधुः, साधुत्वे कीदृशो गुणः १ । अपकारिषु यः साधुः, श्लाघ्यः स भुवि मानवैः ॥ ८०९ ॥ विवेको न भवेत् प्रायो, जन्तोर्दुर्गतिगामिनः, चित्रस्था अपि चेतांसि हरन्ति हरिणीदृशः ॥ ८१० ॥
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(१२६) किं पुनः स्मरविस्मेरा, विस्फारितविलोचनः । विवेकी यत् श्रियं प्राप्य, सत्कार्य न प्रणोद्यति ॥११॥ आवर्तः संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानां,
दोषाणां संनिधानं कपटशतगृहं क्षेत्रमप्रत्ययानाम् । दुह्यं यन्महाद्भर्नरवरवृषभैः सर्वमायाकरण्ड, स्त्रीयन्त्रं केन लोके विषममृतमयं शर्मनाशाय सृष्टम् ॥
॥१२॥ निषिद्धमप्याचरणीयमापदि, क्रिया सती नावति यत्र सर्वथा। घनाम्बुना राजपथेहि पिच्छिले, कचिद् वुधै रथ्यापथेन गम्यते द्वयं गतं संप्रति शोचनीयता, समागमप्रार्थनया कपालिनः । कला च सा कान्तिमती कलावतस्त्वमस्य लोकस्य च नेत्र
___ कौमुदी ।। ८१३॥ शत्रुजयः शिवपुरं, नदी शत्रुजयाभिधा । श्रीशान्तिः शमिनांदानं, शकारा पंच दुर्लभागा८१४॥ प्राप्तुं पारमपारस्य पारावारस्य पार्यते । स्त्रीणां प्रकृतिवक्राणां दुश्चरित्रस्य नो पुनः ॥ ८१५ ॥ षटको भिद्यते मंत्र-चतुष्को न भिद्यते ।
द्विकर्णस्य तु मंत्रस्य, ब्रह्माप्यन्तं न गच्छति ॥१६॥ लंकेशोऽपि दशाननोऽपि विजिताशेषत्रिलोकोऽपि सन् ,
रक्षोलक्षयुतोऽपि सेन्द्रजिदपि व्यापाद्यते रावणः ।
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( १२७ )
निःस्वेनैव सुखेन काननजुषा सर्वेण मर्त्येन यत्, रामेणामिततेजसा जनकजाशीलस्य तद्वल्गितम् ॥
॥ ८१७ ॥
श्रद्ध गिरिजां विभर्ति गिरीशो विष्णुर्वहत्यन्वहं, शस्त्रश्रेणिमथाऽचसूत्रवलयं धत्ते च पद्मासनः । पौलोमीचरणाहतिं च सहते धृष्टः सहस्रेक्षण
स्तन्मोहस्य विजृम्भितं निगदितं तिर्यग्जने का कथा १ 11686 11
"
ब्रह्मचारि-यतीनां च विधवानां च योषितां । ताम्बूलभक्षणं विप्र !, गोमांसान्न विशिष्यते ॥। ८१९ ।। देयं भोज ! धनं घनं सुकृतिभिर्नो संचनीयं कदा, श्री कर्णस्य बलेश्व विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता | अस्माकं मधु दानभोगरहितं कष्ठैश्चिरात्सेवितं,
लुप्तं तन्मधु पादपाणियुगलं घर्षत्यसौ मक्षिका ||८२०॥ प्रातः द्यूतप्रसंगेन, मध्याह्ने स्त्रीप्रसंगतः । सायं चौरप्रसंगेन, कालो गच्छति धीमताम् ॥ ८२१ ॥
तथापि चित्रमुत्पद्य - कालक्षेपः करिष्यते । कालचे पाद्यदि पुनः प्रभो कोऽपि निवर्तते ॥ ८२२ ॥ शुद्धान्तसंभोगनितान्ततुष्टे, न नैषधे कार्यमिदं निगाधम् । अपां हि तृप्ताय न वारिधारा, स्वादुः सुगन्धि स्त्रदते तुबारा ।। ८२३ ।।
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(१२८) गुरुत्यागे भवेदःखी, मन्त्रत्यागे दरिद्रता । गुरुमंत्रपरित्यागे, सिद्धोऽपि नरकं व्रजेत् ॥८२४ ॥ देवा दैवीं नरा नारी, शवराश्च शाबरीम् । तिर्यश्चोऽपि तैरश्ची, मेनिरे भवतो गिरम् ॥२५॥ दाने तपसि शौर्य, यस्य न प्रथितं मनः। विद्यायामर्थलाभे वा, मातुरुच्चार एव सः ॥ ८२६ ॥ कलारत्नं काव्यं, श्रवणसुखरत्नं हरिकथा, रणे रत्न वाजी, गगनमुखरत्नं दिनकरः । निशारत्नं चंद्रः, शयनसुखरत्नं शशिमुखी,
सभारत्नं विद्या, जयति नृपरत्नं रघुकुलः ॥८२७ ॥ काया हंसविना नदी जलविना दातुर्विना याचकाः; भ्राता स्नेहविना कुलं सुतविना धेनुश्च दुग्धं विना । भार्या भक्तिविना पुरं नृपविना वृक्षं च पत्रं विना, दीपः स्नेहविना शशी निशि विना धर्म विना मानवाः ८२८ हसंति पृथिवी नृपतोऽपि राजा, हसंती कालो गम वैद्यराज। हसंती भार्या व्यभिचारणीच, हसंती लक्ष्मीः कृपणे गृहे च ।।
॥८२९ ॥ उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी,
दैवेन देयमिति कापुरुषा बदन्ति । दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या, .. यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः ॥ ८३० ॥
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पुनः ।
(१२६) भाभिग्गहियमणाभिग्गहं च अनिवेसियं चेव । संसइयमणाभोगं मिच्छत्तं पंचहा होइ ॥ ८३१ ॥ बन्मिनां प्रकृतिसृत्युर्विकृति वितं पुनः । ततः स्वभावसिद्ध्यर्थे, को विषादो विवेकिनः ॥ ८३२ ।। न स्वादु नौषधमिदं न च वा सुगन्धि
नाक्षिप्रियं किमपि शुष्कतमाखुचूर्णम् । किं चाक्षिरोगजनकं च तदस्य भोगे
बीजं नृणां नहि नहि व्यसनं विनान्यत् ॥८३४॥ या मतिर्जायते पश्चात्सा यदि प्रथमं भवेत् । न विनश्येत् तदा कार्य, न हसेत् कोऽपि दुर्जनः ॥८३४॥ विषस्य विषयाणां च, दृश्यते महदन्तरं । उपभुक्तं विषं हंति, विषयाः स्मरणादपि ॥ ८३५ ॥ अभक्ष्यभक्षणाद् दोषात् कण्ठरोगः प्रजायते ॥ ८३६ ॥ कन्याविक्रयिणश्चैव रसविक्रयिणस्तथा । विषविक्रायणश्चैव नरा नरकगामिनः ॥८३७ ॥ कोटं च बूटं-पटलौनं कौश्च मुखे च धुम्रं सिगरेट पिबन्तम् । घडी छडी गन्ध लवण्डरं च जानन्ति सर्वे कुलधर्ममेवम् ।।
॥८३८॥ ध्यानं दुःखनिधानमेव तपसां संतापमानं फलं, स्वाध्यायोऽपि हि वन्ध्य एव कुधियां तेऽभिग्रहाः कुग्रहाः।
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( १३०) अश्लीला खलु दानशीलतुलना तीर्थादियात्रा वृथा, सम्यक्त्वेन विहीनमन्यदपि यत्तत्सर्वमंतगडु ॥ ८३९ ॥ लुद्धा नरा अत्थपरा हवंति, मूढा नरा कामपरा हवंति । बुद्धा नरा खंतिपरा हवात, मिस्सा नरा तिनि वि पायरंति
॥ ८४०॥ कोहाभिभूया न सुहं लहंति,
माणंसिणो सोयपरा हवंति । मायाविणो हुंति परस्स पेसा,
लुद्धा महिच्छा नरयं उर्वति ॥८४१ ॥ न सेवियव्वा पमया परक्का,
न सेवियव्वा पुरिसा अविजा । न सेवियव्वा अहिया निहीणा,
न सेवियव्या पिसुणा मणुस्सा ॥ ८४२ ।। दानं दरिदस्स पहुस्स खंती, इच्छा निरोहो च सुहोइयस्स । तारुण्णए इंदियनिग्गहो य, चत्तारि एयाई सुदुक्कराई ॥८४३॥ जूए पसत्तस्स धनस्स नासो, मसे पसत्तस्स दयाई नासो । मज्झे पसत्तस्स जसस्स नासो, वेसापसत्तस्स कुलस्स नासो
॥८४५ ॥ असासयं जीवियमाहु लोए, धम्मं चरे साहु जिणोवइटुं । धम्मो य ताणं सरणं गई य, धम्मं निसेवितु सुहं लहंति ८४५ नयास्तव स्थात्पदलाञ्छना इमे
रसोपविद्धा इव लोहधातवः ।
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(१३१) भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो
भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ ८४६ ॥ भौषधं शकुन मन्त्रं, नक्षत्रं गृहदेवता। भाग्यकाले प्रसीदन्ति, अभाग्ये यान्ति विक्रियाम् ।।८४७॥ अग्निर्विरो यमो राजा, समुद्र उदरं स्त्रियः । अतृप्ता नैव तृप्यन्ति, याचन्ते च दिने दिने ॥८४८॥ स्त्रीचरित्रं प्रेमगति, मेघोत्थानं नरेन्द्रचित्तं च । विषमविधिविलसितानि च को वा शक्नोति विज्ञातुम् ८४९ सत्येन धार्यते पृथ्वी, सत्येन तपते रविः सत्येन वायवो वान्ति, सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ ८५० ॥ अंतर्विषमा हि ता ज्ञेया, बहिरेव मनोहराः। गुंजाफल समाकारा, योषितः केन निर्मिताः ॥८१२॥ कुटिलगतिः कुटिलमतिः, कुटिलात्मा कुटिलशीलसंपन्ना । सर्व पश्यति कुटिलं कुटिलः कुटिलेन भावेन ॥ ८५३ ॥ संपीन्याहिदंष्ट्राऽग्नि-यम जिह्वा-विषव्रजात् । जगजिघांसुना नार्यः कृता क्रूरेण वेधसा ॥८५५ ।। समेषु शौर्य प्रशमं महत्सु नीचेष्ववज्ञां प्रणतेषु मानं । बृजत्वं निपुणे विदध्याद् धूर्तेषु कुर्यादतिधूर्तभावम् ।।८५६।।
वारिदस्तृप्तिमामोति सुखमक्षयमन्त्रदः। तिलप्रदः प्रजाभीष्टामायुष्कमभयप्रदः ॥८५७ ॥
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( १३२) रुधिरमांसमेदोऽस्थि, मलमूत्रादिपूरितम् । नवद्वार रतविस्य रसक्लिनमिदं वपुः ।। ८५९ ॥ वणिकपण्यांगना दस्युतकृत्पारदारिकः ।।
स्वार्थसाधकनिद्रालु सप्तासत्यस्य मन्दिरम् ॥ ८६० ॥ गुर्वेकवाक्यादपि पापभीता, राज्यं त्यजन्ति स्म नरा हि सन्तः न्याख्यासहस्रैर्न भवेद् विरागो, ध्रुवं कलौ वज्रहृदो मनुष्याः
.८६१ ॥ अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,
जातं दशनविहीनं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥८६२॥ लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराः धन्वंतरिश्चंद्रमाः
गावः कामदुधाः सुरेश्वरगजो रंभादिदेवांगनाः। अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोऽमृतं चांबुधेः रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात् सदा मंगलम् ॥८६३।। चीरिण्यः सन्तु गावो भवतु वसुमती सर्वसंपन्नशस्या,
पर्जन्यः कालवर्षी सकलजनमनानन्दिनो वान्तु वाताः । मोदन्तां जन्मभाजः सततमभिमता ब्राह्मणाः सन्तु सन्तः श्रीमन्तः पान्तु पृथ्वीं प्रशमितरिपवो धर्मनिष्ठाश्च भूपाः८६४ श्रसितगिरिसमं स्यात् कजलं सिंधुपात्रे,
सुरतरुवरशाखा लेखिनी पत्रमुवी ।
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(१३३) लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालम् ,
तदपि तव गुणानां ईश ! पारं न याति ।। ८६५॥ जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता,
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया । तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपम यत् प्रकुरुषे,
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।८६६॥ घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनश्चंदनं चारुगन्धं
छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादु चैवेनुकाण्डम् । दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवणेम्
न प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते चोत्तमानाम् ।।८६७॥ मुक्त्वा निःश्रीकमप्यजं मराली न गतान्यतः । भ्रमराली त्वगाद् वेगादिदं सदसदन्तरम् ॥ ८६८ ॥
असद्भिः शपथेनोक्तं जले लिखितमक्षरम् । सद्भिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखितमक्षरम् ।।८६९।। मापदो महतामेव महतामेव संपदः । बीयते वर्धते चन्द्रः कदाचित्रैव तारकाः ॥ ८७० ॥ गुणग्रामाविसंवादि नामापि हि महात्मनाम् । यथा सुवर्णश्रीखण्डरत्नाकरसुधाकराः ॥८७१ ।। किं जन्मना च महता पितृपौरुषेण
शक्या हि याति निजया पुरुषः प्रतिष्ठाम् ।
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( १३४ )
कुम्भा न कूपमपि शोषयितुं समर्थाः कुम्भोद्भवेन मुनिनाम्बुधिरेव पीतः अन्या जगद्धितमयी मनसः प्रवृत्तिः अन्यैव कापि रचना वचनावलीनाम् | लोकोत्तरा च कृतिराकृतिरार्तहृद्या
॥ ८७२ ॥
विद्यावतां सकलमेव चरित्रमन्यत् ॥ ८७३ ॥ तरुमूलादिषु निहितं, जलमाविर्भवति पल्लवाग्रेषु । निभृतं यदुपक्रियते, तदपि महांतो वहंत्युच्चैः ॥ ८७४ ॥ अहो किमपि चित्राणि चरित्राणि महात्मनाम् । लक्ष्मीं तृणाय मन्यन्ते तद्भरेण नमन्त्यपि ॥ ८७५ ॥ मौने मौनी गुणिनि गुणवान् पण्डिते पण्डितोऽसौ
दीने दीनः सुखिनि सुखवान् भोगिनि प्राप्तभोगः । मूर्खे मूर्खो युवतिषु युवा वाग्मिषु प्राढवाग्मी
धन्यः कोऽपि त्रिभुवनजयी योऽवधूतेऽवधूतः ॥ ८७६ ॥ केनादिष्टौ कमलकुमुदोन्मीलने पुष्पवन्तौ
विश्वं तोयैः स्नपयितुमसौ केन वा वारिवाहः । विश्वानन्दोपचयचतुरो दुर्जनानां दुरापः श्लाघ्यो लोके जयति महतामुज्ज्वलोऽयं निसर्गः ||८७७॥ दुर्जनस्वभावः ।
स्खलः सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यति । श्रात्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ८७८ ॥
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( १३५ ) अनुकुरुतः खलसुजनावग्रिमपाश्चात्यभागयोः सूच्याः। विदधाति रन्ध्रमेको गुणवानन्यस्तु पिदधाति ॥ ८७९ ॥ त्यजन्ति शूर्पवद् दोषान् गुणान् गृह्णन्ति साधवः । दोषग्राही गुणत्यागी चालिनीव हि दुर्जनः ॥ ८८० ॥ रविरपि न दहति तादृग् यादृक् संदहति वालुकानिकरः । अन्यस्माल्लब्धपदः प्रायो नीचोऽपि दुःसहो भवति ॥८८१॥ शरदि न वर्षति गर्जति वर्षति वर्षासु निःस्वनो मेघः । नीचो वदति न कुरुते न वदति सुजनः करोत्येव ॥ ८८२॥
उपकारोऽपि नीचानामपकारो हि जायते । पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम् ॥ ८८३ ।। मुखं पद्मदलाकारं वाणी चन्दनशीतला ।
हृदयं कर्तरीतुन्यं त्रिविधं धूर्तलक्षणम् ॥८८४ ॥ नलिकागतमपि कुटिलं, न भवति सरलं शुनः पुच्छम् । तद्वत् खलजनहृदयं, बोधितमपि नैव याति माधुर्यम् ।।८८५ बोधितोऽपि बहुसूक्तिविस्तरैः
किं खलो जगति सजनो भवेत् । स्नापितोऽपि बहुशो नदीजलै
गर्दभः किमु हयो भवेत् कचित् ॥८८६ ।। न देवाय न धर्माय न बंधुभ्यो न चार्थिने । दुर्जनेनार्जितं द्रव्यं भुज्यते राजतस्करैः ॥८८७॥
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( १३६ )
मूर्खस्य पंच चिह्नानि गर्वी दुर्वचनी तथा । हठी चाप्रियवादी च परोक्तं नैव मन्यते
॥ ८८ ॥
॥ ८६० ॥
॥। ८६१ ॥
काकस्य कति वा दंता मेषस्यांडे कियत् पलम् । गर्दभे कति रोमाणि व्यर्थैषा तु विचारणा ॥ ८८६ ॥ गर्गो हि पादशौचात् लघ्वासनदानतो गतः सोमः । दत्तः कदशनभोज्यात् श्यामलकश्चार्धचंद्रेण श्रजातमृतमूर्खाणां वरमाद्यौ न चान्तिमः । सकृद् दुःखकरावाद्यावन्तिमस्तु पदे पदे क्षणे तुष्टाः चणे रुष्टास्तुष्टा रुष्टाः क्षणे क्षणे । अव्यवस्थितचित्तानां प्रसादोऽपि भयंकरः यस्यास्ति सर्वत्र गतिः स कस्मात् स्वदेशरागेण हि याति नाशम् । तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणाः चारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति देवविलास
॥। ८९२ ।।
॥ ८९३ ॥
सच्छिद्र मध्यकुटिलः कर्णः स्वर्णस्य भाजनम् । वि दैवं विमले नेत्रे पात्रं कञ्जलभस्मनः
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॥ ८९४ ॥
आपद्गतं हससि किं द्रविणान्धमूढ लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम् । एतान् प्रपश्यसि घटान जलयन्त्रचक्रे
रिक्ता भवन्ति भरिता भरिताश्च रिक्ताः ॥८९५ ॥
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(१३७) अवश्यंभाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि । सदा दुःखैन लिप्येरन् नलराजयुधिष्ठिराः ॥८९६ ॥ प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यो
देवोऽपि तं लवयितुं न शक्तः । तस्मान शोचामि न विस्मयो मे
यदस्मदीयं न हि तत् परेषाम् ॥८६७॥ लिखिता चित्रगुप्तेन ललाटेऽक्षरमालिका ।। तां देवोऽपि न शक्नोति उल्लिख्य लिखितुं पुनः ॥८६॥
शशिदिवाकरयोग्रहपीडनम् __ गजभुजंगमयोरपि बन्धनम् मतिमतां च विलोक्य दरिद्रताम्
विधिरहो बलवानिति मे मतिः ॥८९९ ॥ तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यो
भाग्यात् परं नैव ददाति किंचित् । अहर्निशं वर्षति वारिवाहः
तथापि पत्रत्रितयः पलाशः ॥९०० ॥ प्रश्वं नैवं गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च । अजापुत्रं बलिं दद्याद् देवो दुर्बलघातकः ॥९०१ । यः सुन्दरस्तद्वनिता कुरूपा
या सुंदरी सा पतिरूपहीना । यत्रोभयं तत्र दरिद्रता च विधेर्विचित्राणि विचेष्टितानि ॥९.२॥
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(१३८ ) व्याघ्र च महदालस्यं स चैव महद्भयम् । पिशुने चैव दारिद्यं तेन जीवन्ति जन्तवः ।। ९.३॥ पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम्
नोलूकोऽप्यवलोकते याद दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् । धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम् __यत्पूर्व विधिना ललाटलिखितं तन्मार्जितुंकः क्षमः ९०४ अधः पश्यसि किं वाले पतितं तव किं भुवि । रे रे मूढ न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम् ॥६०५ ।। चतुरः सखि मे भर्ता यल्लिखति तत् परो न वाचयति तस्मादप्यधिको मे स्वयमपि लिखितं स्वयं न वाचयति
॥६०६॥ दश व्याघ्राः जिताः पूर्व सप्त सिंहास्त्रयो गजाः । पश्यन्तु देवताः सर्वाः अद्य युद्धं त्वया मम ॥९०७ ।। गच्छ सूकर भद्रं ते बेहि सिंहो मया जितः । पण्डिता एव जानन्ति सिंहसूकरयोर्बलम् ॥६०८ ॥
अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य
हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम् । एको हि दोषो गुणसंनिपाते
निमजतींदोः किरणविवांक: ॥६०९॥ एको हि दोषो गुणसंनिपाते निमजतींदोरिति यो बभाषे ।
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(१३९) नूनं न दृष्टं कविनाऽपि तेन
___ दारिद्यदोषो गुणराशिनाशी ॥९१० ॥ कस्त्वं लोहितलोचनास्य चरणः हंसः कुतो मानसात् किं तत्रास्ति सुवर्णपङ्कजवनान्यंभः सुधासनिभम् । रत्नानां निचयाः प्रवाललतिका वैडूर्यरोहः कचित् शम्बूकाः न हि सन्ति नेति च बकैराकर्ण्य हीही कृतम् ६११ गृहात्येष रिपोः शिरः प्रजविनं कर्षत्यसौ वाजिनम्
धृत्वा धर्म धनुः प्रयाति पुरतः संग्रामभूमावपि । चूतं चौर्यकथा तथा च शपथं कुर्यान्न वामः करो
दानानुद्यमता विलोक्य विधिना शौचाधिकारी कृतः ९१२ विप्रास्मिन् नगरे महान् कथयतां तालद्रुमाणां गण:
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातहीत्वा निशि । को दक्षः परवित्तदारहरणे सर्वोऽपि दक्षो जना कस्माजीवसि हे सखे विषकृमिन्यायेन जीवाम्यहम् ॥९१३
भूरिभारमराक्रान्तो बाधति स्कन्ध एष ते न तथा बाधते स्कन्धो यथा बाधति बाधते ॥९१४॥ निरर्थकं जन्म गतं नलिन्या
यया न दृष्टं तुहिनांशुबिम्बम् । उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलैव
कृता विनिद्रा नलिनी न येन ॥९१५ ॥ भवित्री रम्भोरु त्रिदशवदनग्लानिरधुना
स रामो मे स्थाता न युधि पुरतो लक्ष्मणसखः ।
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(१४० ) इयं यास्यत्युच्चैर्विपदमधुना वानरचमूः
लघिष्ठदं षष्ठावरपरविलोपात् पठ पुनः ॥ ९१६ ।। न तज्जलं यन्न सुचारुपङ्कजं __न पङ्कजं तद्यदलीनषट्पदम् । न षट्पदोऽसौ कलगुंजितो न यो
न गुंजितं तन्न जहार यन्मनः ॥६१७ ॥ मिक्षो कन्था श्लथा ते नहि शफरिवधे जालमश्नासि मत्स्यान् ते वै मद्योपदंशाः पिबसि मधु समं वेश्यया यासि वेश्याम् । दत्वाविं मूय॑रीणां तव किमु रिपवो भित्तिभेत्तास्मि येषाम् चौरोऽसि छूतहेतोस्त्वयि सकलामिदं नास्ति नष्टे विचार!
॥६१८॥ पादिमध्यान्तरहितं दशाहीनं पुरातनम् । अद्वितीयमहं वन्दे मद्वस्त्रसदृशं हरिम् ॥६१६ ॥ कोऽयं द्वारि हरिः प्रयायुपवनं शाखामृगस्यात्र किम् कृष्णोऽहं दयिते बिभेमि सुतरां कृष्णादहं वानरात् । राधेऽहं मधुसूदनो व्रज लतां तामेव पुष्पान्विताम् इत्थं निर्वचनीकृतो दयितया हीणो हरिः पातु वः॥२०॥
गवीशपत्रो नगजापहारी __ कुमारतातः शशिखण्डमौलिः । लंकेशसंपूजितपादपद्मः
पायादनादिः परमेश्वरो नः ॥६२१ ।। विना गोरसं को रसः कामिनीनाम्
विना गोरसं को रसः पण्डितानाम् ।
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( १४१) विना गोरसं को रसो भूपतीनाम्
विना गोरसं को रसो भोजनानाम् ॥ २२ ॥ कन्याप्रसूतस्य धनुष्प्रसंगात्
अंगाधिकासादितविक्रमस्य । धनंजयाधीनपराभवस्य
शीतस्य कर्णस्य च को विशेषः ॥ ९२३ ॥ अहं च त्वं च राजेन्द्र लोकनाथावुमावपि । बहुव्रीहिरहं राजन् षष्ठीतत्पुरुषो भवान् ।। ९२४ ।। यो रात्रिंचरशेखरः किल दशास्यः कोणपान्याश्रयः वजाबाधितशक्तिको नृरुधिरं पातुं सदा वाञ्छति । उन्मत्तो मधुयोगतो भवति यस्तन्मत्कुणो रावणः तस्मान्नश्यति पुत्रपौत्रसहितः सीताभिसंधानतः ॥ ९२५ ॥ द्वंद्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः । तत्पुरुष कर्म धारय येनाहं स्यां बहुब्रीहिः ॥६२६ ॥ तनुग्रासे स एव स्याद् असुग्रासेऽपि स स्मृतः। तस्मात् सर्वप्रयत्नेन भवेद् नित्यं सुभोजनः ॥ २७ ॥ शूली जातः कदशनवशाद्वेक्ष्ययोगात् कपाली वस्त्राभावादगनवसनः स्नेहशून्याजटावान् । इत्थं राजन् तव परिचयादीश्वरत्वं मयाऽऽप्तम् तस्मान्मह्यं किमिति कृपया नार्धचंद्रं ददासि ॥१२८ ॥ खलानां धनुषां चापि सवंशजनुषामपि । गुणलामो भवेदाशु परहृद्भेदकारका ॥९२६ ॥
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( १४२ ) भक्तद्वेषो जडप्रीतिः सुरुचिर्गुरुलछने मुखे कटुकता नूनं धनिनां ज्वरिणामिव ॥ ६३० ॥ जनस्थाने भ्रान्तं कनकमृगतृष्णाकुल तया
वचो वैदेहीति प्रतिपदमुदश्रु प्रलपितम् । कृतालंकाभर्तुर्वनपपरिपाटीषु घटना
मयाप्तं रामत्वं कुशलवसुता न त्वधिगता ।।९३१॥ जाता शुद्धकुलं जघान पितरं हत्वापि शुद्धा पुनः स्त्री चैषा वनिता पितेव सततं विश्वस्य या जीवनम् । सङ्गं प्राप्य पितामहेन जनकं प्रास्त या कन्यका सा सर्वैरपि वन्दिता चितितले सा नाम का नायिका ॥६३२॥ शमीगर्भस्य यो गर्भस्तस्य गर्भस्य यो रिपुः । रिपुगर्भस्य यो भर्ता स मे विष्णुः प्रसादतु ॥९३३ ॥ पानीयं पातुगिच्छामि स्वतः कमललोचने । यदि दास्यसि नेच्छामि नो दास्यसि पिबाम्यहम् ।।६३४॥ काचिद् बाला रमणवसतिं प्रेषयन्ती करण्डं
सा तन्मूले समयमलिखद् व्यालमस्योपरिष्टात् । गौरीनाथं पवनतनयं चम्पकं चास्य भावं पृच्छत्यार्यान् प्रति कथमिदं मलिनाथः कवीन्द्रः ॥९३शा अपदो दरगामी च साचरो न च पण्डितः। प्रमुखः स्फुटवक्ता च यो जानाति स पण्डितः ॥ ९३६ ॥
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(१३) वृक्षाग्रवासी न च पधिराजः
त्रिनेत्रधारी न च शूलपाणिः त्वग्वस्त्रधारी न च सिद्धयोगी
जलं च विभ्रन् न घटो न मेघः ॥६३६ ॥ चक्री त्रिशूली न हरो न विष्णु
महान् बलिष्ठो न च भीमसेनः । स्वछन्दचारी नृपतिर्न योगी
सीतावियोगी न च रामचंद्रः ॥९३७ ।। अणोरणीयान् महतो महीयान् ___ योगे वियोगे दिवसः प्रियस्य । यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं
स्पृष्ट्वा सखे सत्यमहं ब्रवीमि ॥३८॥ यस्य षष्ठी चतुर्थी च विहस्य च विहाय च । अंहं कथं द्वितीया स्याद् द्वितीया स्यामहं कथम् ॥ ९३९ ॥ अकुबेरपुरीविलोकनं, न धरासूनुकरं कदाचन । अथ तत्प्रतिकारहेतवेऽदमयन्तीपतिलोचनं भज ॥ १४१ ॥
सुतं पतन्तं प्रसमीक्ष्य पावके ___ न बोधयामास पति पतिव्रता । तदाऽभवत् तत्पतिमक्तिगौरवात् हुताशनश्चंदनपङ्कशीतलः
॥ ६४२ ॥ राजाभिषेके मदविहलाया हस्ताच्च्युतो हेमघटस्तरुण्याः ।
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( १४४ )
॥ ६४३ ॥
॥ ६४५ ।।
सोपानमासाद्य करोति शब्द ਂ ਂ ਂ ਨਕਂ ਂ ਨ जम्बूफलानि पकानि पतन्ति विमले जले | कपिकम्पितशाखाभ्यो गुलुगुग् गुलुगुग् गुलुः ॥ ६४४ ॥ नवनीतमयं लिंगं पूजार्थे केनचित् कृतम् । हन्त तस्य प्रमादेन श्रोतुना भक्षितः शिवः पतिश्वशुरता ज्येष्ठे पतिदेवरतानुजे । इतरेषु च पाञ्चाल्यास्त्रितयं त्रितयं त्रिषु ॥ ६४६ ॥ यदि रामा यदि च रमा, यदि तनयो विनयधीगुणोपेतः । तनये तनयोत्पत्तिः, सुरवरनगरे किमाधिक्यम् ॥ ६४७ ॥ लोभमूलानि पापानि व्याधयो रसमूलकाः । स्नेहमूलानि दुःखानि त्रयं त्यक्त्वा सुखी भवेत् ॥ ९४८ ॥ यत्र नास्ति दधिमन्थनघोषो यत्र नो लघुलघूनि शिशूनि । यत्र नास्ति गुरुगौरवपूजा
तानि किं बत गृहाणि वनानि अर्थागमो नित्यमरोगिता च
प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च । वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या
षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥ ६५० ॥
॥ ९४६ ॥
सदा वक्रः सदा क्रूरः सदा पूजामपेक्षते । कन्याराशिस्थितो नित्यं जामाता दशमो ग्रहः ।। ९५१ ।।
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(१४५) कोशन्तः शिशवः सवारि सदनं पङ्कावृतं चांगणं,
शय्या दंशवती च रुक्षमशनं धूपेन पूर्ण गृहम् । भार्या निष्ठुरभाषिणी प्रभुरपि क्रोधेन पूर्णः सदा स्नानं शीतलवारिणा हि सततं धिर धिग् गृहस्थाश्रमम् ।।
॥६५२ ॥ न विप्रपादोदकपकिलानि, ___ न वेदशास्त्रध्वनिगर्जितानि । स्वाहास्वधाकारविवर्जितानि
श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि ॥६५३ ।। न विषं विषमित्याहुब्रह्मस्वं विषमुच्यते । विषमेकाकिनं हन्ति ब्रह्मस्वं पुत्रपौत्रकम्
॥६५४॥ भार्यावियोगः स्वजनापवाद,
ऋणस्य शेष कृपणस्य सेवा । दारिद्यकाले प्रियदर्शनं च
विनाग्निना पञ्च दहन्ति कायम् ॥९५५ ॥ चिता चिन्ता समा ढुक्ता, बिन्दुमात्रं विशेषतः । सजीवं दहते चिन्ता, निर्जीवं दहते चिता ॥६५६ ॥ दिव्यं चूतरसं पीत्वा, गर्व नायाति कोकिलः । पीत्वा कर्दमपानीयं, भेको रटरटायते ॥६५७॥ भद्रं कृतं कृतं मौनं, कोकिलैजेलदागमे ।। दर्दुरा यत्र वक्तारः, तत्र मौनं हि शोभनम् ॥ ६५८ ॥ रे रे चातक सावधानमनसा मित्र क्षणं श्रूयताम् , मम्मोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वे तु नैतादृशाः ।
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(१४६) केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ।९५९। यास्यति जलधरसमयस्तव च समृद्धिलेघीयसी भविता । तटिनि ! तटद्रुमपातनपातकमेकं चिरस्थायि ॥९६० ॥ दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णतालैः,
दूरीकृताः करिवरेण मदांधबुद्धया। तस्यैव गण्डयुगमण्डनहानिरेषा
भुंगाः पुनर्विकचपझवने वसन्ति ॥९६१॥ किं केकीब शिखण्डमण्डिततनुः किं कीरवत् पाठकः,
किं वा हंस इवांगनागतिगुरुः शारीव किं सुस्वरः । किं वा हन्त शकुन्तबालपिकवत् कर्णामृतं सिञ्चति,
काकः केन गुणेन काश्चनमये व्यापारितः पञ्जरे ॥९३२॥ स्थितिं नो रे दध्याः क्षणमपि मदान्धेक्षण सखे
गजश्रेणीनाथ त्वमिह जटिलायां वनभुवि । असौ कुंभिप्रान्त्या खरनखरविद्रावितमहागुरुग्रावग्रामः स्वपिति गिरिगर्मे हरिपतिः ॥६६३ ॥ चातकस्य मुखचंचुसंपुटे
नो पतंति यदि वारिबिंदवः ।। सागरीकृतमहीतलस्य किं
दोष एव जलदस्य दीयते ॥६६४ ।। रे रे रासम ! वस्त्रभारवहनात् कुमासमश्नासि किम् ?
राजाश्वावसथं प्रयाहि चणकाम्यूषान् सुखं भक्षय ।
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(१४७ ) सर्वान पुच्छवतो हयानिति वदंत्यत्राधिकारे स्थिताः
राजा तैरुपदिष्टमेव मनुते सत्यं तटस्थाः परे ॥९६५।। स्वयि वर्षति पर्जन्ये सर्वे पल्लविता द्रुमाः। अस्माकमर्कवृक्षाणां जीणे पत्रेऽपि संशयः ॥९६६॥ गिरिगड्वरेषु गुरुगर्वगुंफितो।
गजराजपोत न कदापि संचरेः । यदि बुध्यते हरिशिशुः स्तनंषयो भविता करेणुपरिशेषिता मही
॥९६७॥ गानं कण्टकसङ्कटं प्रविरलच्छाया न चायासहृत्
निर्गन्धः कुसुमोत्करस्तव फलं न नुविनाशक्षमम् । बब्बूलद्रुममूलमति न जनस्तत् तावदास्तामहो
ह्यन्येषामपि शाखिनां फलवता गुप्त्यै वृतिजायसे॥६६८॥ साधारणतरुबुद्ध्या न मया रचितस्तवालवालोऽपि । लज्जयसि मामिदानी चंपक भवनाधिवासितैः कुसुमैः॥९६६॥ उत्कन्धरो विततनिर्मलचारुपक्षो
हंसोऽयमत्र नभसीति जनैः प्रतीतः । गृह्णाति पन्वलजलाच्छफरी यदासौ
ज्ञातस्तदा खलु वकोऽयमितीह लोकैः ॥१७॥ हेलया राजहंसेन यत् कृतं कलकूजितम् । न तद् वर्षशतेनापि जानात्याशिक्षितुं बक: ॥६७१॥ उष्ट्राणां च गृहे लग्नं गर्दभाः शान्तिपाठकाः । परस्परं प्रशंसन्ति महो.रूपम् महो ध्वनिः ! ॥९७२॥
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(१४८)
कुटिला लक्ष्मीर्यत्र प्रभवति न सरस्वती वसति तत्र । प्रायः श्वश्रूस्नुषयोर्न दृश्यते सौहृदं लोके ॥६७३॥ पिंडे पिंडे मतिर्भिन्ना कुंडे कुंडे नवं पयः।। जाती जातौ नवाचारा नवा वाणी मुखे मुखे ॥ ९७४ ॥ यो न संचरते देशान् यो न सेवेत पंडितान् । तस्य संकुचिता बुद्धिघृतबिन्दुरिवाभसि ॥९७५ ॥ यस्तु संचरते देशान् यस्तु सेवेत पंडितान् । तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवामसि ॥३७६ ।। यः पठति लिखति पश्यति परिपृच्छति पंडितानुपासयति । तस्य दिवाकरकिरणैर्नलिनीदलमिव विकास्यते बुद्धिः॥९७७ एकेन राजहंसेन या शोमा सरसो भवेत् । न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना 8७८॥ यथा देशस्तथा भाषा यथा राजा तथा प्रजा। यथा भूमिस्तथा तोयं यथा बीजं तथांकुरः ॥६७६ ॥ स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः। स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥९८० ॥ यत्र विद्वजनो नास्ति श्लाध्यस्तत्राल्पधीरपि । निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि दुमायते ॥९८१ ॥ नक्रः स्वस्थानमासाद्य गजेन्द्रमापि कर्षति । स एव प्रच्युतः स्थानाच्छुनापि परिभूयते ॥९८२॥ अश्वः शसं शास्त्रं वीणा वाणी नरश्च नारी च । पुरुषविशेष प्राप्ता भवन्दि योग्या अयोग्याश्च ॥ ९८३ ॥
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(१४९) वार्ता च कौतुकवती विमला च विद्या
लोकोत्तरः परिमलश्च कुरंगनाभेः। तैलस्य बिन्दुरिव वारिणि दुर्निवार
मेतत् त्रयं प्रसरति स्वयमेव लोके ॥९८४ ॥ केचिनिद्रागताः केचित् कथयन्ति बहिर्गताः।। केचिदन्तर्गताः केचित्रो जाने क्व गता इति ? ॥९८५ ॥ बंधनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुदृढबंधनमाहुः । दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रि-निष्क्रियो भवति पंकजकोषे ।।८६। अर्थातुराणां न पिता न बंधुः, कामातुराणां न भयं न लजा। नुधातुराणां न बलं न तेजः,चिंतातुराणां न सुखं न निद्रा ६८७ विशाखांतं गता मेघाः प्रसवांतं हि यौवनम् । प्रणामांतः सतां कोपो याचनांतं हि गौरवम् । ९८८ ॥ संग्रामे सुभद्राणां कवीनां कविमंडले । दीप्तिर्वा दीप्तिहानिर्वा मुहूर्तादेव जायते ॥९८९ ॥ मौनं कालविलंबश्व प्रयाणं भूमिदर्शनम् । भृकुख्यन्यमुखी वार्ता नकारः षड्विधः स्मृतः ॥ ९६० ॥ यत्रात्मीयो जनो नास्ति भेदस्तत्र न विद्यते । कुठारैर्दण्डनिमुक्तर्भिद्यते तरवः कथम् ? ॥8॥१॥ यथा खरश्चंदनभारवाही, भारस्य वेत्ता न तु चंदनस्य । तथा हि विप्रःश्रुतिशास्त्रपूर्णो, ज्ञानेन हीनः पशुभिः समानः६६२ अन्तर्विशति मार्जारी शुनी वा राजवेश्मनि । बहिष्ठस्य गजेन्द्रस्य किमर्थः परिहीयते
॥९९३ ॥
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( १५०) सद्यः फलति गांधर्व, मासमेकं पुराणकम् । वेदाः फलंति कालेषु, ज्योतिर्वैद्यं निरंतरम् ॥ ९९४ ॥ सहते शरशतघातानाजानेयः कशां नैव । सहते विपत्सहस्रं मानी नैवापमानलेशमपि ॥६६५ ।।
जानामि नागेन्द्र तव प्रभावं __ कण्ठे स्थितो गर्जसि शंकरस्य । स्थानं प्रधानं न बलं प्रधानं
स्थानं स्थितः कापुरुषोऽपि शूरः ॥९९६ ॥ सत्सङ्गाद् भवति हि साधुता खलाना,
पंडितसाधूनां न हि खलसंगमात् खलत्वम् । आमोदं कुसुमभवं मृदेव धत्ते
मृद्गन्धं न हि कुसुमानि धारयन्ति ॥९९७ ॥ अजायुद्धमृषिश्राद्धं प्रभाते मेघडम्बरम् । दम्पत्योः कलहश्चैव परिणामे न किंचन उत्तमा आत्मना ख्याता पितुः ख्याताश्च मध्यमाः। अधमा मातुलात् ख्याताः श्वशुराचाधमाधमाः ।। ६६६ ॥ हस्तादपि न दातव्यं गृहादपि न दीयते । परोपकरणार्थाय वचने किं दरिद्रता ? ॥१००० ॥ निजदोषावृतमनसामतिसुन्दरमेव भाति विपरीतम् । पश्यति पित्तोपहता शशिशुभ्रं शङ्खमपि पीतम् ॥१००१॥ सुलभाः पुरुषा राजन् , सततं प्रियवादिनः । अप्रियस्य च पथ्यस्य, वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥१००२॥
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( १५१) पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । न पापफलमिच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः ॥ १००३ ॥ बालोऽपि चौरः स्थविरोऽपि चौर,
समागतः प्राघुर्णिकोऽपि चौरः । दिल्लीप्रदेशे मथुराप्रदेशे
चौरं विना न प्रसवन्ति नार्यः ॥१००४॥ अनमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षत । विनाश्रयं न शोभन्ते पण्डिता वनिता लताः ॥१००५॥ गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः । रामरावणयोयुद्धं रामरावणयोरिव ॥१.०६॥ कालो वा कारणं वा राज्ञो राजा वा कालकारणम् । इति ते संशयो मा भूत् राजा कालस्य कारणम् ।।१००७॥ दृष्ट्वा यतियति सद्यो वैद्यो वैद्य नट नटः। याचको याचकं दृष्ट्वा श्वानवद् घुघुरायते ॥१००८॥ आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशृंखला । यया बद्धाः प्रधावंति मुक्तास्तिष्ठंति पंगुवत् ॥१००९॥ शृगालोऽपि वने कर्ण शशैः परिवृतो वसन् । मन्यते सिंहमात्मानं यावत् सिंहं न पश्यति ॥१.१०॥ नमस्कारसहस्रेषु शाकपत्रं न लभ्यते । आशीर्वादसहस्रेषु रोमवृद्धिर्न जायते ।। १०११॥ सुभाषितेन गीतेन युवतीनां च लीलया। यस्य न द्रवते चित्तं स वै मुक्तोऽथवा पशुः ॥ १०१२ ।।
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(१५२) क्षणशः कर्णशश्चैव विद्यामर्थ च चिंतयेत् । क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥१०१३॥ गुरोर्यत्र परीवादो निन्दा वापि प्रवर्तते । कौँ तत्र पिधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥१०१४ ॥ तैलाद्रक्षेजलाद्रक्षेद्रक्षेच्छिथिलधनात् । मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम् ॥१.१५ ॥ घटं भिन्द्यात् पटं छिन्द्यात् कुर्याद् वा रासभध्वनिम् । येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत् ॥१०१६ ।। शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्रं स्नानमाचरेत् । लक्षं विहाय दातव्यं कोटिं त्यक्त्वा हरिं भजेत् ॥१०१७ ॥ जिह्वे! प्रमाणं जानीहि भोजने भाषणेऽपि च । अतिभुक्तिरतीवोक्तिः सद्यः प्राणापहारिणी ॥१०१८ ॥ अनुकूले विधौ देयं यत: पूरयिता प्रभुः ।। प्रतिकूले विधौ देयं यतः सर्व हरिष्यति ॥१०१९ ।। स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः केशा नखा नराः । इति विज्ञाय मतिमान् स्वस्थानं न परित्यजेत् ॥१०२० ॥ परिचरितव्याः संतो यद्यपि कथयंति नो सदुपदेशम् । यास्तेषां स्वैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि ॥१०२१ ॥ युद्धं च प्रातरुत्थानं भोजनं सह बंधुभिः । स्त्रियमापद्गतां रक्षेत् चतुः शिक्षेत कुक्कुटात् ॥ १०२२ ॥ अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणीतरणम् । भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिंदमकृतं वरं न कृतम् ॥१०२३।।
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(१५३) हरेः पदाहतिः श्लाघ्या न श्लाघ्यं खररोहणम् । स्पर्धाऽपि विदुषा युक्ता न युक्ता मूर्खमित्रता ॥१०२४ ॥ दारेषु किंचित् स्वजनेषु किंचिद्
गोप्यं वयस्येषु सुतेषु किंचित् । युक्तं न वा युक्तमिदं विचित्य
वदेद् विपश्चिन्महतोऽनुरोधात् ॥१०२५ ।। पठतो नास्ति मूर्खत्वं जपतो नास्ति पातकम् । मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥१०२६॥ ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् । तयोमैत्री विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥१०२७ ।। शनैः पन्थाः शनैः कन्थाः शनैः पर्वतमस्तके। शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चैतानि शनैः शनैः ॥१०२८॥ एकस्तपो द्विरध्यायी विमिर्गीतं चतुः पथम् । सप्त पश्च कृषीणां च संग्रामो बहुभिर्जनैः ॥१०२६ ।। श्रुतिविभिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना
नैको मुनिर्यस्य वचोऽप्रमाणम् । धर्मस्य तवं निहितं गुहायां
महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥१०३० ॥ अन्यैः साकं विरोधेन वयं पञ्चोत्तरं शतम् ।
परस्परविरोधेन वयं पञ्च च ते शतम् ॥ १०३१ ।। भरावप्युचितं कार्यमातिथ्यं गृहमागते । छत्तुः पार्श्वगतां छायां नोपसंहरते द्रुमः ॥१०३२ ॥
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यावजीवं सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ? ॥१०३३ ।। सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।। प्रियं च नानृतं ब्रूयाद् एष धर्मः सनातनः ॥१०३४ ।। मलातं तिन्दुकस्येव मुहूर्तमपि हि जल । मा तुषाग्निरिवानर्चिधूमायस्व जिजीविषुः ॥१०३५ ॥ निर्वनो बध्यते व्याघ्रो नियाघ्रं छिद्यते वनम् । तस्माद् व्याघ्रो वनं रक्षेद् वनं व्याघ्रं च पालयेत् ॥१०३६॥ प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये नार्जितं धनम् । तृतीये न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यसि ? ॥१०३७ ।। कन्या वरयते रूपं माता वित्तं पिता श्रुतम् । बान्धवाः कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरे जनाः ॥ १०३८ ॥ कमला कमले शेते हरिः शेते महोदधौ । हरो हिमालये शेते मन्ये मत्कुणशङ्कया ॥१०३९ ।। भस्माकं बदरीचक्रं युष्माकं बदरीतरुः ।। बादरायणसंबन्धात् यूयं यूयं वयं वयम् ॥१०४०॥ न स्थातव्यं न गन्तव्यं क्षणमप्यधमैः सह । पयोऽपि शौण्डिनीहस्ते मदिरां मन्यते जनः ॥१०४१॥ इतरपापफलानि यथेच्छया,
वितर तानि सहे चतुरानन । अरसिकेषु कवित्वनिवेदनं
शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख ॥१०४२॥
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( १५५ )
दुर्जन दूषितमनसां पुंसां सुजनेऽपि नास्ति विश्वासः । पाणौ पायसदग्धे तक्रं फूत्कृत्य बालकः पिवति ॥१०४३॥ अतिपरिचयादवज्ञा संततगमनादनादरो भवति । मलये भिल्लपुरन्ध्री चन्दनतरुकाष्ठमिन्धनं कुरुते ॥। १०४४ ॥ असारे खलु संसारे सारं श्वशुरमंदिरम् । हरो हिमालये शेते हरिः शेते महोदधौ अगस्तितुन्याच घृताब्धिशोषणे भोलितुल्या वटकाद्रिभेदने । शाकावलीकाननवह्निरूपाः
त एव भट्टा इतरे भटाश्व
।। १०४५ ॥
।। १०४६ ।।
भो भाद्रपक्ष सकलद्विजकल्पवृक्ष,
क्वास्मान् विहाय गतवानसि देहि वाचम् ।
डिण्डीरपिण्डपरिपाण्डुरवर्ण भाजां,
लाभः कथं त्वयि गते घृतपाय सानाम् १ ॥ १०४७॥
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इह तुरगशतैः प्रयान्तु मूर्खाः,
धनरहिता विबुधाः प्रयान्तु पद्भ्याम् । गिरिशिखरगतापि काक पंक्तिः
॥। १०४८ ॥
पुलिनगतैर्न समत्वमेति हंसैः पीतोऽगस्त्येन तातश्चरणतलहतो वल्लभोऽन्यंन रोषाद्, श्रावान्याद् विप्रवर्षैः स्ववदनविवरे धारिता वैरिणी मे । गेहूं में छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्त पूजानिमित्तं, तस्मात् खिन्ना सदाहं द्विजकुलसदनं नाथ नित्यं त्यजामि ||
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(१५६)
हस्तमुत्तिप्य यातोऽसि बलात् कृष्ण किमद्भुतम् ? हृदयाद् यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते ॥१०५० ॥ भकारो कुंभकर्णेऽस्ति भकारोऽस्ति विभीषणे । तयोज्येष्ठे कुलश्रेष्ठे भकारः किं न वर्तते ॥१०५१॥ क्वचिद् वीणावाद्यं क्वचिदपि च हाहेति रुदितम् क्वचिद् विद्वद्गोष्ठी कचिपि सुरामत्तकलहः । क्वचिद् रम्या रामाः क्वचिदपि गलत्कुष्ठवपुषो न जाने संसारः किममृतमयः किं विषमयः ? ॥१०५२॥ काक माह्वयते काकान् याचको न तु याचकान् । काकयाचकयोर्मध्ये वरं काको न याचकः ॥१०५३।। हस्ती स्थूलतनुः स चाङ्कुशवशः किं हस्तिमात्रोऽङ्कशो वज्रेणाभिहताः पतन्ति गिरयः किं शैलमात्रः पविः । दीप प्रज्वलिते विनश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः तेजो यस्य विराजते स बलवान् स्थूलेषु का प्रत्ययः।।१०५४॥ कचिद् भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यशयनम् क्वचिच्छाखाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरूचिः। कचित् कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् ॥१०५॥ अद्यापि दुर्निवारं स्तुतिकन्या वहति कौमारम् । सद्भ्यो न रोचते साऽसंतोऽप्यस्यै न रोचन्ते ॥१०५६॥ वाङ्माधुर्यानान्यदस्ति प्रियत्वं वापारुष्याच्चोपकारोऽपि नष्टः ।
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(१५७) किं तद्व्यं कोकिलेनोपनीतं ___को वा लोके गर्दभस्यापराधः ॥१०५७॥ ऊर्णा नैष बिभर्ति नैष विषयो दोहस्य वाहस्य वा, तृप्तिर्नास्य महोदरस्य बहुभिर्घासैः पलालैरपि । हा कष्टं कथमस्य पृष्ठशिखरे गोणी समारोप्यते, को गृह्णाति कपर्दकैरिममिति ग्राम्यैर्गजो हास्यते ॥१०५८॥
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे ___भार्या गृहद्वारि जनः श्मशाने । देहश्चितायां परलोकमार्गे
कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ॥ १७५४ ।। निर्वाणदीपे किमु तैलदानं
चौरे गते वा किमु सावधानम् । वयोगते किं वनिताविलासः
पयोगते किं खलु सेतुबन्धः ॥ १०६०॥ इयं सुंदरी मस्तकन्यस्तकुंभा
कुसुंभारुणं चारु चेलं वसाना । समस्तस्य लोकस्य चेतःप्रवृत्ति
गृहीत्वा घटे न्यस्य यातीव भाति ॥१०६१ ॥ समत्वाकांक्षिणी भार्या विवादे ज्यूरराऽभवत् । स्तन्यार्थे बालको गेहे रोति नाथोऽप्यनाथवत् ॥१०६२॥ चांचल्यमुच्चैःश्रवसस्तुरंगात्,
कौटिल्यमिदोर्विषतो विमोहः । ...
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(१५८) इति श्रियाऽशिक्षि सहोदरेभ्यो, __ न वेमि कस्माद् गुणवद्विरोधः ॥१०६३॥ मान्धाता स महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः सेतुर्येन महोदधौ विरचितः कासौ दशास्यांतका ?। अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते ! नैकेनापि समं गता वसुमती नूनं त्वया यास्यति ॥१०६४॥
एकेन तिष्ठताऽधस्तादन्येनोपरि तिष्ठता। दातृयाचकयोर्मेदः कराभ्यामेव सूचितः ॥१०६॥ अयश्चणकचर्वणं फणिफणामणेः कर्षणम्,
करेण करितोलनं जलनिधेः पदा लंघनम् । प्रसुप्तहरिबोधनं निशितखङ्गसंस्पर्शनम् । __ कदाचिदपि संभवेत्र कृपणस्य वित्तार्जनम् ॥१०६६॥ ग्रासोदलितसिक्थस्य का हानिः करिणो भवेत् । पिपीलिका तु तेनैव सकुटुंबाऽपि जीवति ॥१०६७ ॥ अलंकरोति हि जरा राजामात्यभिषग्यतीन् । विडंबयति पण्यस्त्रीमल्लगायकसेवकान् ॥१०६८ ॥ दूरस्थाः पर्वता रम्या वेश्या च मुखमंडने । युद्धस्य वार्ता रम्या च त्रीणि रम्याणि दूरतः ॥ १०६९ ॥ अमितगुणोऽपि पदार्थो दोषेणैकेन निन्दितो भवति ।। सकलरसायनमहितो गन्धेनोग्रेण लशुन इव ॥ १०७० ॥ कवयः परितुष्यन्ति नेतरे कवियक्तिभिः ।। न झपारवत् कृपा वर्धन्ते विधुकान्तिभिः ॥१०७१ ।।
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(१५९ ) तत्त्वं किमपि काव्यानां जानाति विरलो भुवि । मार्मिकः को मरन्दानामन्तरेण मधुव्रतम् ॥१०७२ ॥ शिला बाला जाता चरणरजसा यत्कुलशिशोः
स एवायं सूर्यः सपदि निजपादैगिरिशिलाम् । स्पृशन् भूयो भूयो न खलु कुरुते कामपि वधूम्
कुले कश्चिद् धन्यः प्रभवति नरः श्लाध्यमहिमा ||१०७३॥ तृणादपि लघुस्तूलस्तूलादपि च याचकः । वायुना किं न नीतोऽसौ मामेवं प्रार्थयेदिति ॥१०७४॥ पङ्गो वन्यस्त्वमसि न गृहं यासि योऽर्थी परेषां
धन्योऽन्ध त्वं धनमदवतां नेक्षसे यन्मुखानि । श्लाघ्यो मूक त्वमपि कृपणं स्तौषि नार्थाशया य: स्तोतव्यस्त्वं बधिर न गिरं यः खलानां शृणोषि ॥१०७॥ वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि । एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च ॥ १०७६ ।। शय्या वस्त्रं चन्दनं चारु हास्यं
वीणा वाणी सुन्दरी या च नारी। न भ्राजन्ते नुत्पिपासातुराणां
सर्वारम्भास्तण्डुलप्रस्थमूलाः ॥१०७७ ॥ भादौ रामतपोवनादिगमनं मायामृगोन्माथनं, वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसंभाषणम् । वालिव्याहननं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम् पभाद् रावणकुंभकर्णहननं एतद्धि रामायणम् ॥१०७८॥
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( १६०) उचैरध्ययनं पुरातनकथा स्त्रीभिः सहालापनम् तासामर्थकलालनं पतिनुतिस्तत्पाकमिथ्यास्तुतिः । आदेशस्य करावलम्बनविधिः पाण्डित्यलेखक्रिया होरागारुडमंत्रतंत्रकविधीभिक्षार्गुणा द्वादश ॥१०७९॥ जटा नेयं वेणीकृतकचकलापो न गरलम्
गले कस्तूरीयं शिरसि शशिलेखा न कुसुमम् । इयं भूतिर्नाङ्गे प्रियविरहजन्मा धवलिमा
पुरारातिभ्रान्त्या कुसुमशर किं मां प्रहरसि ? ॥१०८०॥ द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ । परिवाड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ॥१०८१॥ चते प्रहारा निपतन्त्यमीक्ष्णं
धनक्षये वर्धति जाठराग्निः । आपत्सु वैराणि समुद्भवन्ति छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति
॥१०८२ ॥ अभूत् प्राची पिङ्गा रसपतिरिव प्राश्य कनकम्
गतच्छायश्चन्द्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि । क्षणात् क्षीणास्तारा नृपतय इवानुद्यमपरा
न दीपा राजन्ते द्रविणरहितानामिव गुणाः ॥१०.३॥ सौमित्रिर्वदति विभीषणाय लंका
देहि त्वं भुवनपते विनैव कोशम् । एतस्मिन् रघुपतिराह वाक्यमेतद्
विक्रीते करिणि किमंकुशे विवादः ॥ १०८४ ॥
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( १६१ )
आनन्दतांडवपुरे द्रविडस्य गेहे
चित्रं वसिष्ठवनितासममाज्यपात्रम् । विद्युल्लतेव परिनृत्यति तत्र दव
धारां विलोकयति योगबलेन सिद्धः ।। १०८५ ।। नाहं जानामि केयूरे नाहं जामामि कुण्डले । नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ।। १०८६ ॥ अस्य मूर्खस्य यागस्य दक्षिणा महिपशितम् । स्वयार्धं च मयार्धं च विघ्नं मा कुरु पण्डित ! || १०८७ ॥ यदि नाम दैवगत्या, जगदसरोजं कदाचिदपि जातम् । वकरनिकरं विकिरति, तत् किं कृकवाकुरिव हंसः || १०८८ ॥ खिलेषु विहङ्गेषु हन्त स्वच्छन्दचारिषु । शुक पञ्जरबन्धस्ते मधुराणां गिरां फलम् । स्वस्त्यस्तु विद्रुमवनाय नमो मणिभ्यः कल्याणिनी भवतु मौक्तिकशुक्तिमाला । प्राप्तं मया सकलमेव फलं पयोधे
।। ११८९ ।।
यद्दारुणैर्जलचरैर्न विदारितोऽस्मि कुमुदवन मपनि श्रीमदम्भोजखण्डं त्यजति मुदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः । उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं
इतविधिलसितानां ही विचित्रो विपाकः मर्कटस्य सुरापानं तस्य वृश्चिकदंशनम् ! तन्मध्ये भूतसंचारो यद्वा तद्वा भविष्यति
१.१
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॥ १०९० ॥
॥ १०६१ ॥
॥ १०६२||
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( १६२) मार्गे मार्गे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं ___वृन्दे वृन्दे तत्त्वचिन्तानुवादः । वादे वादे जायते तत्वबोधो
बोधे बोधे भासते चन्द्रचूडः ॥१०९३ ।। चिकीर्षिते कर्मणि चक्रपाणे
पेक्षते तत्र सहायसंपत् । पाश्चालजायाः पटसंविधाने ___ मध्येसमं यत्र तुरी न वेमा ॥१०६४ ॥ पुष्पेषु चम्पा नगरीषु लङ्का
नदीषु गङ्गा च नृपेषु रामः । योषित्सु रंभा पुरुषेषु विष्णुः
काव्येषु माघः कविकालिदासः ॥१०९५ ॥ गतास्ते दिवसा राजन् देवाः सेवानुवर्तिनः । दशानन दशां पश्य तरन्ति दृषदोऽम्भसि ॥१०९६।।
अग्रतश्चतुरो वेदाः पृष्ठतः सशरं धनुः।। इदं ब्राह्ममिदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ॥१०९७॥ अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित् । इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ॥१०९८।। न तेन स्थविरो भवति येनास्य पलितं शिरः ।
बालोऽपि यः प्रजानाति तं देवाः स्थविरं विदुः॥११९६।। भारं स वहते तस्य ग्रन्थस्यार्थ न वेत्ति यः। यस्तु ग्रन्थार्थतत्त्वज्ञो नास्य ग्रन्थागमो वृथा ॥११०० ॥
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( १६३ )
तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते सोsहं रथी नृपतयो यत आनमन्ति । सर्व क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तम्
॥ ११०३ ॥
भस्मन् हुतं कुझ्कराद्धमिवोसमृष्याम् ॥ ११०१ ॥ स्त्रीणां स्पर्शात् प्रियंगुर्विकसति बकुलः सीधुगण्डूष से कात् पादाघातादशोकस्तिलककुरवको वीक्षणालिंगनाभ्याम् । मन्दारो नर्मवाक्यात् पदुमृदुहसनाञ्चम्पको वक्त्रवातात् चूतो गीतान्नमेरुर्विकसति च पुरो नर्तनात् कर्णिकारः ।। ८१०२ तमाखुपत्रं राजेन्द्र भज भाज्ञानदायकम् । तमाखुपत्रं राजेन्द्र भज माज्ञानदायकम् रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः | रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ।। ११०४ ।। सीताचिन्ताकुले रामे निद्रा निरगमद् रुषा । कथमेकाकिनं जह्याम्, इत्येवं न जहाँ निशा ।। ११०५ ।। कः कौ के कं कौ कानू, इसति हसतो इसन्ति तन्वंग्याः । दृष्ट्वा पल्लवमधरो, पाणी पद्मे च कोरकान् दन्ताः ॥ ११०६ ।। कर्णमकरोच्छेषं विधिर्ब्रह्मांड भंगधीः ।
श्रुत्वा रामकथां रम्यां शिरः कस्य न कम्पते ।। ११०७ ॥ सरसो विपरीतश्चेत् सरसत्वं न मुंचति । साक्षरा विपरीताचेद् राचसा एव केवलम्
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॥ ११०८ ॥
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(१६४) मौखर्य लाघवकर मौनमुन्नतिकारकम् । मुखरं नूपुरं पादे कंठे हारो विराजते ॥११०९॥ यो वर्तते शुचित्वेन स वैश्वानर उच्यते । यो वर्ततेऽशुचित्वेन स वै श्रा नर उच्यते ॥१११०।। राजंस्त्वत्कीर्तिचन्द्रेण तिथयः पौर्णिमाः कृताः। मद्गेहान्न बहिर्याति तिथिरेकादशी भयात् ॥ ११११ ।। यदि वा यात गोविंदो मथुरातः पुनः सखि । राधाया नयनद्वंदे राधानामविपर्ययः ॥१११२ ॥ निद्राप्रियो यः खलु कुंभकर्णो
हतः समीके स रघूत्तमेन । वैधव्यमापद्यत तस्य कान्ता
श्रोतुं समायाति कथां पुराणम् ॥१११३ ।। न संध्यां संधत्ते नियमितनिमाजान कुरुते
न वा मौञ्जीबन्धं कलयति न वा सौनतविधिम् । न रोजां जानीते व्रतमपि हरे व कुरुते
न काशी मका वा शिव शिव न हिंदुने यवनः॥१११४ खद्योतो द्योतते तावद्यावन्नोदयते शशी।। उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चंद्रमाः ॥१११५ ॥ सहसा विदधीत न क्रिया-मविवेकः परमापदां पदम् । वृणुते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः॥१११६ सुखं हि दुःखान्यनुभूय शोमते, घनान्धकारेष्वि दीपदर्शनम् । सुखाच्च यो याति नरो दरिद्रता, धृतः शरीरेण मृतःस जीवति
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(१६५) वाहने ये गुणाः प्रोक्तास्ते गुणाः कटिबंधने निवाते ये गुणाः प्रोक्तास्ते गुणाः कर्णबंधने । लंघने ये गुणाः प्रोक्तास्ते गुणा लघुभोजने व्यायामे ये गुणाः प्रोक्तास्ते गुणा प्राणधारणे ॥१११८॥ धनुषि धनुराकारः मकरे कुंडलाकृतिः। कुंभे शीतमशीतं वा मीने शीतनिवारणम् ॥१११६ ॥ मञ्जन्ति मुनयः सर्वे त्वमेकः किं न मजसि । अंबे त्वदर्शनाद् मुक्तिः न जाने स्नानजं फलम् ॥११२०॥ विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च । न्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम् । शान्तिभूषयते विद्यां दानं भूषयते धनम् ॥११२२ ।। अतिदानाद् बलिबद्धो ह्यतिदद सुयोधनः विनष्टो रावणो लोभादति सर्वत्र वर्जयेत् ॥११२३ ॥ वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तस्य भोजनम् । वृथा दानं समर्थेभ्यो वृथा दीपो दिवाऽपि च ॥११२४॥ शोभते विद्यया विप्रः क्षत्रियो विजयेन वै । अर्थः पात्रे प्रदानेन लज्जया च कुलाङ्गना ॥११२५ ॥ सौवर्णानि सरोजानि निर्मातुं सन्ति शिल्पिनः ।। तत्र सौरभनिर्माणे चतुरश्चतुराननः ॥११२६ ॥ प्रदोषे दीपकश्चन्द्रः प्रभाते दीपको रविः त्रैलोक्ये दीपको धर्मः सुपुत्रः कुलदीपकः ॥११२७ ॥
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हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम् । श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रं भूषणैः किं प्रयोजनम् ॥११२८।। नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभरणं गुणः। गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा ॥११२९ ।। प्रात्मनो मुखदोषेण बध्यन्ते शुकसारिकाः । बकास्तु नैव बध्यन्ते मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥ ११३० ॥ महो दुर्जनसंसर्गान्मानहानिः पदे पदे । पावको लोहसङ्गेन मुद्गरैरभिहन्यते ॥११३१ ।। एकोऽपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैः किं शतैरपि । एकश्चन्द्रो जगन्नेत्रं नक्षत्रैः किं प्रयोजनम् ॥११३२ ।। दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः । ससर्प च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः ॥११३३ अनदानं महादानं विद्यादानं महत्तरम् । अन्नन क्षणिका तृप्तिर्यादजीवं तु विद्यया ॥११३४ ॥ कवयः किं न पश्यन्ति किं न खादन्ति वायसाः मद्यपाः किं न जल्पन्ति किं न कुर्वन्ति दुर्जनाः।।११३५॥ जनिता चोपनेता च विद्यायाश्च प्रदायकः । अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः ॥११३६ ।। पादपानां भयं वातात् पद्मानां शिशिराद् भयम् । पर्वतानां भयं वज्रात् साधूनां दुर्जनाद् भयम् ॥११३७।। उद्योगः खलु कर्तव्यः फलं मार्जारवद् भवेत् । जन्मप्रभृति गौनास्ति पयः पिबति नित्यशः ॥११३८॥
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( १६७) उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥११३९ ।। दरिद्रोऽपि नरो नूनं तमा नैव मुश्चति । निवारितोऽपि मार्जारस्तमा नैव मुञ्चति ॥११४० ॥ धीराणां भूषणं विद्या मन्त्रिणां भूषणं नृपः भूषणं च नयो राज्ञां शीलं सर्वस्य भूषणम् ॥ ११४१ ।। पण्डिते हि गुणाः सर्वे मूर्खे दोषाश्च केवलम् । तस्मान्मूर्खसहस्रेभ्यः प्राज्ञ एको विशिष्यते ॥११४२ ॥ उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये । पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम् ॥११४३ ॥ वित्ते त्यागः क्षमा शक्तौ दुःखे दैन्वविहीनता । निर्दम्भता सदाचारे स्वभावोऽयं महात्मनाम् ॥ ११४४ ॥ सर्पदुर्जनयोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः । सर्पो दशति कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे ॥११४५ ॥ खलः करोति दुर्वृत्तं नूनं फलति साधुषु । दशाननोऽहरत् सीता बन्धं प्राप्तो महोदधिः ॥ ११४६ ॥ यथाऽऽमिषं जले मत्स्यैर्भक्ष्यते श्वापदैः स्थले । आकाशे विहगैश्चैव तथा सर्वत्र वित्तवान् ॥११४७ ॥ जायते नरकः पापात् पापं दारिद्यसम्भवम् । दारिद्यमप्रदानेन तस्माद् दानपरो भव ॥११४८ ॥ दारिद्रान् भर कौन्तेय मा यच्छ प्रभवे धनम् । व्याधितस्यौषधं पथ्यं नीरुजस्य किमौषधैः ॥११४६ ।।
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(१६८) मातरं पितरं पुत्रं भ्रातरं बान्धवानपि । लोभाविष्टो नरो हन्ति स्वामिनं वा सुहृत्तमम् ॥ ११५० ॥ निर्विषेणापि सर्पण कर्तव्या महती फटा । विषं भवतु वा मा वा फटाटोपो भयङ्करः ॥११५१ ॥ नष्टं नैव मृतं चैव नानुशोचन्ति पण्डिताः । पण्डितानां जडानां च विशेषोऽयमतः स्मृतः ॥ ११५२ ॥ धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तथैव च ।। पञ्च यत्र न विद्यन्ते मा तत्र दिवसं वस ॥११५३॥ ऋणशेषोऽग्निशषश्च शत्रुशेषस्तथैव च । पुनः पुनः प्रवर्तन्ते तस्माछेषं विनाशय ॥११५४ ॥ सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्यध त्यजति पण्डितः।। अर्धेन कुरुते कार्य सर्वनाशः सुदुःसहः ॥ ११५५ ॥ षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता । निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध बालस्यं दीर्घसूत्रता ॥ ११५६ ॥ विद्या विनयोपेता, हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य । काश्चनमणिसंयोगो, नो जनयति कस्यलोचनानन्दम् ।।११५७ इच्छति शती सहस्रं, ससहस्रः कोटिमीहते कर्तुम् । कोटियुतोऽपि नृपत्वं, नृपोऽपि बत चक्रवर्तित्वम् ।। ११५८ ॥ अङ्ग गलितं पलितं मुण्ड
दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्ड
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥११५६ ॥
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( १६९) विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः। परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम् ॥११६० ॥ लोभात् क्रोधः प्रभवति लोभात् कामः प्रजायते । लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ॥११६१॥ क्षमा बलमशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा । क्षमया जीयते लोकः क्षमया किं न सिद्ध्यति ॥ ११६२ ॥ दुर्बलस्य बलं राजा बालानां रोदनं बलम् । बलं मूर्खस्य मौनित्वं चौराणामनृतं बलम् ॥११६३ ।। उपकारः परो धर्मः परार्थकर्म नैपुणम् । पात्रदानं परं सौख्यं परो मोक्षो वितृष्णता ॥११६४ ॥ दुर्मन्त्री राज्यनाशाय ग्रामनाशाय कुञ्जरः । श्यालको गृहनाशाय सर्वनाशाय दुर्जनः ॥११६५ ॥ उदारम्य तृणं वित्तं शूरस्य मरणं तृणम् । विरक्तस्य तृणं भार्या निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥११६६ ।। जननी जन्मभूमिश्च जाह्नवी च जनार्दनः । जनकः पञ्चमश्चैव जकाराः पञ्च दुर्लभाः ॥११६७ ॥ सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः ।। सत्येन वहते वायुः सत्यं सर्वस्य कारणम् ॥११६८ ॥ किं कुलेन विशालेन शीलमेवात्र कारणम् । कृमयः किं न जायन्ते कुसुमेषु सुगन्धिषु ॥११६९ ॥ कुस्थानस्य प्रवेशेन गुणवानपि पीड्यते । वैश्वानरोऽपि लोहस्थोऽयस्कारैरभिहन्यते ॥११७० ।।
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( १७० )
साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ फलति कालेन सद्यः साधुसमागमः ॥११७१ ॥ शुचित्वं त्यागिता शौर्य समत्वं सुखदुःखयो । दाक्षिण्यं चानुरक्तिश्च सत्यता च सुहृद्गुणाः ॥११७२ ॥ एकेन शुष्कवृक्षण दह्यमानेन वह्निना । दह्यते काननं सर्व दुष्पुत्रेण कुलं तथा ॥११७३ ॥ नास्ति क्षुधासमं दुःखं क्षुधा प्राणापहारिणी । नास्त्याहारसमं सौख्यमाहारः प्राणरक्षकः ॥११७४ ॥ मद्यपस्य कुतः सत्यं दया मांसाशिनः कुतः । अलसस्य कुतो विद्या निर्धनस्य कुतः सुखम् ॥ ११७५ ॥ साणां च खलानां च परद्रव्यापहारिणाम् । मनोरथा न सिध्यन्ति तेनेदं वर्तते जगत् ॥ ११७६ ॥ नास्ति विद्यासमं नेत्रं नास्ति सत्यसमं तपः । नास्ति लोभसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥११७७॥ पण्डिते चैव मुर्खे च बलवत्यवलेऽपि च । सधने निर्धने चैव मृत्योः सर्वत्र तुल्यता ॥११७८ ॥ मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् । मात्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ॥११७६ ॥ राजपत्नी गुरोः पत्नी भ्रातृपत्नी तथैव च । पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैता मातरः स्मृताः ॥ ११८० ॥ ज्ञातिभिर्मज्यते नैव चौरेणापि न नीयते । दानेन न चयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥११८१ ॥
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(१७१) पिपीलिकार्जितं धान्यं मक्षिकासश्चितं मधु । लुब्धेन सश्चितं द्रव्यं समूलं वै विनश्यति ॥११८२ ॥ विवेकः सह सम्पया विनयो विद्यया सह । प्रभुत्वं प्रश्रयोपेतं चिह्नमेतन्महात्मनाम् ॥११८३॥ सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सात् क्रूरतरः खलः । मन्त्रेण सान्त्व्यते सर्पः खलस्तु न कथंचन ॥ ११८४ ॥ प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः। तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने किं दरिद्रता ॥११८५ ॥ गौरवं प्राप्यते दानान तु वित्तस्य सञ्चयात् । स्थितिरुच्चैः पयोदानां पयोधीनामधः स्थितिः ॥११८६॥ गीतशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम् । व्यसनेन तु मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ॥११८७ ।। यस्मिन् देशे न सम्मानो न प्रीतिर्न च बान्धवाः । न च विद्यागमः शक्यो मा तत्र दिवसं वस ॥११८८ ।। अतिसञ्चयकर्तृणां वित्तमन्यस्य हेतवे । भन्यैः सञ्चीयते यत्नादन्यैश्च मधु पीयते ॥११८९ ॥ च्युता दन्ताः सिता केशा दृष्टिरोधः पदे पदे। क्षीणं जीर्ण मिमं देहं तृष्णा नूनं न मुञ्चति ॥११९० ॥ गुणवजनसम्पर्काद् याति नीचोऽपि गौरवम् । पुष्पाणामनुषङ्गेण सूत्रं शिरसि धार्यते ॥११९१ ॥ गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते पितृवंशो निरर्थकः ।। वासुदेवं नमस्यन्ति वसुदेवं न मानवाः ॥ ११९२ ॥
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(१७२) उद्यमः साहसं धैर्य बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः। एतानि यत्र वर्तन्ते तत्र देवः प्रसीदति ॥११९३ ॥ आरोग्यं विद्वत्ता, सज्जनमैत्री महाकुले जन्म । स्वाधीनता नराणां, महदैश्वर्य विनाप्यर्थैः ॥ ११९४ ॥ गुणी गुणं वेत्ति ज वेत्ति निर्गुणो
बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः। पिको वसन्तस्य गुणं न वायसः
करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥ ११९५ ॥ सत्यं तपो ज्ञानमहिंसतां च
वृद्धप्रणामं च सुशीलतां च । एतानि यो धारयते स विद्वान् __ न केवलं वेदविदेव विद्वान् ॥११६६ ।। परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थमिदं शरीरम् ॥ ११९७ ॥ पुस्तकं येन नाधीतं नाधीतं गुरुसनिधौ । सभायां शोभते नैव हंसमध्ये बको यथा ॥११९८ ॥ स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य स जीवति । गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवितम् ॥ ११९९ ॥ चाण्डालश्च दरिद्रश्च जनावेतौ समाविह । चाण्डालस्य न गृह्णन्ति दरिद्रो न प्रयच्छति ॥ १२००॥
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( २७३ )
।। १२०१ ।।
॥ १२०४ ॥
तीक्ष्णधारेण खङ्गेन वरं जिह्वा द्विधा कृता । न तु मानं परित्यज्य देहि देहीति भाषणम् उपकर्तु यथा स्वल्पः समर्थो न तथा महान् । प्रायः कूपस्तृषां इन्ति न कदापि तु वारिधिः ॥ १२०२ ॥ सुखार्थी च त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी च त्यजेत् सुखम् । सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ॥ १२०३ ॥ श्रात्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । परं परोपकारार्थ यो जीवति स जीवति बहूनामन्पसाराणां समवायो दुरत्ययः । तृणैर्विधीयते रज्जुर्बध्यन्ते दन्तिनस्तया महाजनस्य संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः । पद्मपत्रस्थितं वारि धत्ते मुक्ताफलश्रियम् काचः काञ्चनसंसर्गाद् धत्ते मारकतीं चुतिम् । तथा सङ्गेन विदुषां मूर्खो याति प्रवीणताम् निष्णातोऽपि हि वेदान्ते साधुत्वं याति नो खलः । चिरं जलनिधौ मग्नो मैनाक इव मार्दवम् प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः । किं नु मे पशुभिस्तुल्यं किं नु सत्पुरुषैरिति चिन्तनीया हि विपदामादावेव प्रतिक्रियाः । न कूपखननं युक्तं प्रदीप्ते वह्निना गृहे
।। १२०६ ॥
।। १२०७ ।।
॥। १२०८ ॥
।। १२०९ ॥
॥। १२१० ।।
१ ' पुरुषः ' इति शेषः ।
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।। १२०५ ।।
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(१७४) मर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च । वचनं चापमानं च मतिमान् न प्रकाशयेत् ॥१२११ ॥ सद्भिरेव सहासीत सद्भिः कुर्वीत सङ्गतिम् । सद्भिर्विवादं मैत्री च नासद्भिः किञ्चिदाचरेत् ॥ १२१२ ।। जानन्ति पशवो गन्धाद् वेदाजानन्ति पण्डिताः। चरैर्जानन्ति राजानो नेत्राभ्यामितरे जनाः ॥ १२१३ ॥ सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो निवृतिर्यतः । तन्मित्रं यत्र विश्वासः स देशो यत्र जीव्यते ॥१२१४ ॥ द्वाविमौ पुरुषौ लोके न भूतो न भविष्यतः । प्रार्थितं यश्च कुरुते यश्च नार्थयते परम् ॥ १२१५ ॥ वेपथुमलिनं वक्त्रं दीना वाग् गद्गदस्वरः। मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके ॥ १२१६ ।। न कश्चिदपि जानाति किं कस्य श्वो भविष्यति । अतः श्वःकरणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान् ॥१२१७ ॥ निःसारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान् । न सुवर्णाद् ध्वनिस्तादृग् यादृक् कांस्यात् प्रजायते ॥१२१८।। सा श्रीर्या न मदं कुर्यात् तन्मित्रं यत् सदा समम् । स सुखी यो वितृष्णश्च स नरो यो जितेन्द्रियः ॥ १२१६ ॥ गुरुशुश्रूषया विद्या प्राप्यते द्रविणेन वा । अथवा विद्यया विद्या न दृष्टं साधनान्तरम् ॥१२२० ॥ यावत् स्वस्थो ह्यसौ देहो यावन्मृत्युश्च दूरतः । तावदात्महितं कुर्याः प्राणान्ते किं करिष्यसि ॥ १२२१ ॥
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( १७५ ) कोतिभारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम् । को विदेशः सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ॥ १२२२ ॥ स्थान एव नियोज्यन्ते भृत्याश्चाभरणानि च । न हि चूडामणिः पादे नू पुरं मूनि धार्यते ॥१२२३ ॥ न यस्य चेष्टितं विद्यान्न कुलं न पराक्रमम् । विश्वस्यात् तत्र न प्राज्ञो यदीच्छेच्छेय आत्मनः ॥१२२४॥ सद्भिः सम्बोध्यमानोऽपि दुरात्मा पापपूरुषः । घृष्यमाण इवाङ्गारो निर्मलत्वं न गच्छति ॥१२२५ ॥ गुणानामन्तरं प्रायस्तज्झो जानाति नेतरः। मालतीमल्लिकामोदं घ्राणं वेत्ति न लोचनम् ॥ १२२६ ॥ सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदरपूरणे । शुकोऽप्यशनमामोति राम रामेति वै ब्रुवन् ॥ १२२७॥ विदुषां वदनाद् बाचः सहसा यान्ति नो बहिः । याताश्चेन्न पराश्चन्ति द्विरदानां रदा इव ॥१२२८ ॥ उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमने तथा ।। सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ॥१२२९ ॥ श्लोको वै श्लोकतां याति यत्र तिष्ठन्ति साधवः । लकारो लुप्यते तत्र यत्र तिष्ठन्त्यसाधवः ॥१२३० ।। सजना एव साधूनां प्रथयन्ति गुणोत्करम् । पुष्पाणां सौरमं प्रायस्तनुते दिक्षु मारुतः ॥१२३१ ॥
१ तत्र शोको भवति, इत्यर्थः
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( १७६ ) यथा गजपतिः श्रान्तश्वायार्थी वृक्षमाश्रितः विश्रम्य तं द्रुमं हन्ति तथा नीचः स्वमाश्रयम् ॥१२३२।। युध्यन्ते पक्षिपशवः पठन्ति शुकसारिकाः। दातुं शक्नोति यो वित्तं स शूरः स च पण्डितः॥१२३३ ।।
युधिष्ठिरो यक्ष प्रति ब्रूतेपञ्चमेऽहनि वा षष्ठे शाकं पचति यो गृहम् । अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ॥१३३४ ।। एकचक्रो रथो यन्ता विकलो विषमा हयाः। आक्रामत्येव तेजस्वी तथाप्यर्को नभस्तलम् ॥१२३५ ।। गुणगौरवमायाति न महत्याऽपि सम्पदा । पूर्णेन्दुर्न तथा वन्यो निष्कलङ्को यथा कृशः ॥१२३६ ॥ प्रभुभिः पूज्यते लोके कलैव न कुलीनता । कलावान् धार्यते मूर्ध्नि सत्सु देवेषु शम्भुना ॥१२३७ ।। अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् । अश्वमेधसहस्राद् हि सत्यमेव विशिष्यते ॥१२३८ ॥ किं कुलेनोपदिष्टेनं शीलमेवात्र कारणम् । भवन्ति सुतरा स्फीताः सुक्षेत्रे कण्टकिद्रुमाः ॥१२३९ ।। प्रद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा । अनुग्रहश्व दानं च शीलमेतद् विदुर्बुधाः ॥१२४०॥
१ हे यक्ष । २ . किं कुलस्य कथनेन' इत्यर्थः ।
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१२
( १७७ )
॥ १२४१ ॥
॥। १२४२ ॥
॥। १२४३ ॥
परोचे हन्ति यत कार्य प्रत्यचे भाषते प्रियम् । वर्जयेत् तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् पिबन्ति मधु पद्येषु भृङ्गाः केसरधूसराः । हंसाः शैवालमश्नन्ति धिग् दैवमसमञ्जसम् सेवया धनमिच्छद्भिः सेवकैः पश्य किं कृतम् । स्वातन्त्र्यं यच्छरीरस्य मूढैस्तदपि हारितम् यथ सञ्चरते देशान् सेवते यश्च पण्डितान् । तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि छिन्नोऽपि रोहति तरु- चन्द्रः चीणोऽपि वर्धते लोके । इति विमृशन्तः सन्तः, सन्तप्यन्ते न लोकेऽस्मिन् ॥ १२४५ ॥ रत्नाकरः किं कुरुते स्वरत्नैर्विन्ध्याचलः किं करिभिः करोति । श्रीखण्डवृक्षैर्मलयाचलः किं, परोपकाराय सतां विभूतयः । ४६ चारं जलं वारिमुचः पिबन्ति तदेव कृत्वा मधुरं वमन्ति । सन्तस्तथा दुर्जनदुर्वचांसि
॥ १२४४ ॥
श्रुत्वा हि सूक्तानि सदा वदन्ति
याचना हि पुरुषस्य महत्त्वं, नाशयत्यखिलमेव तथाहि ।
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सद्य एव भगवानपि विष्णुवमनो भवति याचितुमिच्छन्
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॥। १२४७ ।।
।। १२४८ ॥
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( १७८)
पापानिवारयति योजयते हिताय,
गुह्यानि गृहति गुणान् प्रकटीकरोति । आपद्गतं च न जहाति ददाति काले,
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥ १२४९ ॥ मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते __ कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् । लक्ष्मी तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्ति
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥ १२५० ।। वासो वल्कलमास्तरः किसलयान्योकस्तरूणां तलं
मूलानि क्षतये नुधो गिरिनदीतोयं तृषाशान्तये । क्रीडा मुग्धमृगैवयांसि सुहृदो नक्तं प्रदीपः शशी स्वाधीने विभवेऽपि हन्त कृपणा याचन्त इत्यद्भुतम् ॥१२५१। यो नात्मजे न च गुरौ न च भृत्यवर्गे
दीने दयां न कुरुते न च बन्धुवर्गे । किं तस्य जीवितफलं हि मनुष्यलोके । __काकोऽपि जीवति चिराय बलिं च भुते ॥१२५२॥ हर्तन गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता । कम्पान्तेऽपि न सा नश्येत् किमन्यद् विद्यया समम् ॥१२५३ केचिदज्ञानतो नष्टाः केचिन्नष्टाः प्रमादतः । केचिज्ज्ञानावलेपेन केचिद् दुष्टैश्च नाशिताः ॥१२५४ ॥ को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरितः । मृदङ्गो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम् ॥ १२५५ ।।
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( १७९)
दुर्जनेन समं सख्यं मा कुरुष्व कदाचन ।
।। १२५८ ।।
उष्णो दहति चाङ्गारः शीतः कृष्णायते करम् ।। १२५६ ।। यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः । यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः || १२५७|| कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति । अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति परोपकारशून्यस्य धिङ् मनुष्यस्य जीवितम् । जीवन्तु पशवो येषां चर्माऽप्युपकरिष्यति विहाय पौरुषं यो हि दैवमेवावलम्बते । प्रासादसिंहवत् तस्य मूनि तिष्ठन्ति वायसाः ॥ १२६० ।। चन्दनं शीतलं लोके चन्दनादपि चन्द्रमाः । साधुसङ्गतिरेताभ्यां नूनं शीततरा स्मृता
।। १२५९ ।।
॥ १२६१ ॥
यस्य मित्रेण सम्भाषा यस्य मित्रेण संस्थितिः । मित्रेण सह यो भुङ्क्ते स मतः पुण्यवान् बुधैः ॥ १२६२ ॥
वाणी रसवती यस्य भार्या प्रेमवती सती । लक्ष्मीर्दानवती यस्य सफलं तस्य जीवितम् ॥ १२६३ ॥
॥। १२६४ ॥
सुहृदो ज्ञातयः पुत्रा भ्रातरः पितरावपि । प्रतिकूलेषु भाग्येषु त्यजन्ति स्वजनं खलु क्षमापरं तपो नास्ति न सन्तोषात् परं सुखम् । न च लोभात् परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः ।। १२६५ ॥
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( १८० )
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् । ग्रामं जनपदस्यार्थे ह्यात्मार्थे च महीं त्यजेत् ॥ १२६६ ॥
॥ १२६७ ॥
।। १२६८ ।।
।। १२६९ ।।
स्पृशमपि गजो हन्ति जिघ्रन्नपि भुजङ्गमः । इस मपि नृपो इन्ति मानयन्नपि दुर्जन: चलत्येकेन पादेन तिष्ठत्यन्येन पण्डितः । नामीच्य परं स्थानं पूर्वमायतनं त्यजेत् द्वाविमौ पुरुषौ लोके सुखिनौ न कदाचन । यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः वनानि दद्दतो वह्नेः सखा भवति मारुतः । स एव दीपनाशाय कृशे कस्यास्ति सौहृदम् ॥ १२७० ॥ परोऽपि हितवान् बन्धुर्बन्धुरप्यहितः परः । हितो देहजो व्याधिर्हितमारण्यमौषधम् एकस्य कर्म संवीक्ष्य करोत्यन्योऽपि गर्हितम् । गतानुगतिका लोका न लोकास्तच्चदर्शिनः कुसुमानां यथा हृद्यं सारं गृह्णाति षट्पदः । सारं तथैव गृह्णाति शास्त्राणां खलु पण्डितः ॥ १२७३ ॥ मनसा चिन्तितं कार्यं वचसा न प्रकाशयेत् । अन्यलक्षित कार्यस्य यतः सिद्धिर्न जायते पुस्तकस्था हि या विद्या धनं यद् वाऽन्यहस्तगम् । नोपकुर्याजनस्येह कार्यकाले समुत्थिते
॥ १२७१ ॥
।। १२७२ ॥
॥ १२७४ ॥
।। १२७५ ।।
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(१८१ )
भये महति हर्षे वा सम्प्राप्ते यो विचिन्तयेत् । कृत्यं न कुरुते वेगान्न स सन्तापमाप्नुयात् ॥ १२७६ । पापनाशाय विबुधैः कर्तव्याः सुहृदोऽमलाः । न तरत्यापदं कश्चिद् योऽत्र मित्रविवर्जितः ॥१२७७ ॥ यः पृष्ट्वा कुरुते कार्य प्रष्टव्यान् स्वान् हितान् गुरुन् । न तस्य जायते विनः कस्मिंश्चिदपि कर्मणि ॥ १२७८ ।। दुर्जनो जीयते युक्त्या विग्रहेण न धीमता । निपात्यते महावृक्षस्तत्समीपक्षितिक्षयात् ॥१२७९ ॥ किं कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिनः । अकुलीनोऽपि विद्यावान् विबुधैरपि पूज्यते ॥ १२८० ॥ यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः। चित्ते वाचि क्रियायां च साधूनामेकरूपता ॥ १२८१ ॥ स्वभावं नैव मुश्चन्ति सन्तः संसर्गतोऽसताम् । न त्यजन्ति रुतं मञ्जु काकसम्पर्कतः पिकाः ॥ १२८२ ॥ यथा परोपकारेषु नित्यं जागर्ति सजनः । तथा पराऽपकारेषु नित्यं जागर्ति दुर्जनः ॥१२८३ ॥ लोभाविष्टो नरो वित्तं वीक्षते न स आपदम् ।। दुग्धं पश्यति मार्जारो यथा न लगुडाहतिम् ॥ १२८४ ॥ जानीयात् सारे भृत्यान् बान्धवान् व्यसनागमे । आपत्कालेषु मित्राणि भार्या च विभवक्षये ॥१२८५ ॥
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( १८२) देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पञ्च देवताः । मुखानिर्गत्य गच्छन्ति श्रीहीधीधृतिकीर्तयः ॥ १२८६ ।। यस्य नास्ति विवेको वै केवलं यो बहुश्रुतः । न स जानाति शास्त्रार्थान् दर्वी पाकरसानिव ॥ १२८७ ॥ चितां प्रज्वलितां दृष्ट्वा वैद्यो' विस्मयमागतः । नाहं गतो न मे भ्राता कस्येदं हस्तलाघवम् ॥१२८८ ॥ नालिकेरसमाना हि दृश्यन्ते खलु सञ्जनाः।। भन्ये बदरिकातुल्या बहिरेव मनोहराः ॥१२८९ ॥ त्याग एको गुणः श्लाध्यः किमन्यैर्गुणराशिमिः । त्यागाजगति पूज्यन्ते नूनं वारिदपादपाः ॥१२९० ।। दानोपभोगरहिता दिवसा यस्य यान्ति वै । स लोहकारभनव श्वसनपि न जीवति ॥१२६१ ॥ कुसुमस्तबकस्येव द्वे गतीह मनस्विनः ।। मूनि वा सर्वलोकस्य शीर्यते वन एव वा ॥ १२६२ ॥ गुणेन स्पृहणीयः स्यान रूपेण पुनर्जनः । गन्धहीनं न गृह्णाति पुष्पं कान्तमपीह नो ॥१२६३ ॥ योजनानां सहस्रं वै शनैर्गच्छेत् पिपीलिका । अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति ॥१२६ ॥ नाऽसत्यवादिनः सख्यं न पुण्यं न यशो भुवि । दृश्यते नापि कन्याणं कालकूटमिवाश्नतः ॥१२६५ ॥
१ 'कुवैद्यः' इत्यर्थः । २ मनुष्यः ।
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(१८३) यः स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रमः। श्वा यदि क्रियते राजा स किं नाश्नात्युपानहम् ।। १२६६ ॥ न मातरि न दारेषु न सोदर्ये न चात्मनि । विश्वासस्तादृशो नृणां यादृङ् मित्रे हितैषिणि ॥ १२६७ ॥ शिरसा धार्यते सोमो नीलकण्ठेन सर्वदा । तथापि कृशतां याति कष्टः खलु पराश्रयः ॥ १२६८ ॥ वैकम्यं धरणीपातमयथोचितजल्पनम् । सन्निपातस्य चिह्नानि मद्यं सर्वाणि दर्शयेत् ॥१२६९ ॥ किमत्र चित्रं यत् सन्तः परानुग्रहतत्पराः। न हि स्वदेहशैत्याय जायन्ते चन्दनद्रुमाः ॥१३०० ॥ रक्तत्वं कमलानां, सत्पुरुषाणां परोपकारित्वम् । असतां च निर्दयत्वं, स्वभावसिद्धं त्रिषु त्रितयम् ॥ १३०१॥ अमृतं किरति हिमांशु-विषसेव फणी समुद्रिति । गुणमेव वक्ति साधु-र्दोषमसाधुः प्रकाशयति ॥ १३०२ ॥ अर्थी करोति दैन्यं, लब्धार्थो गर्वमपरितोषं च । नष्टधनोऽस्ति सशोकः सुखमास्ते नि:स्पृहः पुरुषः॥१३०३॥ गुणवन्तः क्रिश्यन्ते, प्रायेण भवन्ति निर्गुणाः सुखिनः । बन्धनमायान्ति शुका, यथेष्टसञ्चारिणः काकाः ॥ १३०४ ।। न पण्डिताः साहसिका भवन्ति,
श्रुत्वाऽपि ते सन्तुलयन्ति तत्त्वम् ।
मवान्त,
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( १८४ )
तत्त्वं समाधाय समाचरन्ति, स्वार्थ प्रकुर्वन्ति परस्य चार्थम् मुक्ताफलैः किं मृगपक्षिणां च, मिष्टान्नपानेन च किं खराणाम् । अन्धस्य दीपेन च कोऽस्ति हेतु -
afda aisa बधिरस्य चापि
दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या चिन्ता परब्रह्मविनिश्चयाय । परोपकाराय वचांसि यस्य वन्द्यखिलोकीतिलकः स एव
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।। १३०५ ।।
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॥ १३०६ ॥
।। १३०७ ।।
भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमै-र्नवाम्बवो भूरिविलम्बिनो घनाः । अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः, स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् कल्पद्रुमः कल्पितमेव सूते, गौः कामधुक् कामितमेव दोग्धि । चिन्तामणिश्चिन्तितमेव दत्ते,
सतां तु सङ्गः सकलं प्रसूते जाड्यं धियो रात सिञ्चति वाचि सत्यं मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति
सत्सङ्गतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥ १३१० ॥
।। १३०८ ॥
।। १३०६ ॥
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(१८५) चित्ते भ्रान्तिर्जायत मद्यपानाद्
भ्रान्ते चित्ते पापचर्यामुपैति । पापं कृत्वा दुर्गतिं याति मूढ__ स्तस्मान्मद्यं नैव पेयं न पेयम् ॥१३११ ॥ ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो । ज्ञानस्योपशमः कुलस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः॥ अक्रोधस्तपसः क्षमा बलवतां धर्मस्य निर्व्याजता । सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ॥१३१२ ॥ सन्ति स्वादुफला वनेषु तरवः स्वच्छं पयो नैझरं । वासो वल्कलमाश्रयो गिरिगुहा शय्या लतावल्लरी ॥ मालोकाय निशासु चन्द्रकिरणाः सख्यं कुरङ्गैः सह । स्वाधीने विभवेऽप्यहो धनपति सेवन्त इत्यद्भुतम् ॥१३१३।। केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला । न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कता मूर्धजाः ॥ वाएयेका समलङ्करोति पुरुष या संस्कृता धार्यते । क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।।१३१४॥ ब्रह्मचारी का कामदेव को उपालम्भकाम ! जानामि ते रूपं, सङ्कल्पात् किल जायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१३१५॥ नारकीयों को कैसा दुःख है ? श्रवणलवनं नेत्रोद्धारं करक्रमपाटनं, हृदयदहनं नासाच्छेदं प्रतिक्षणदारुणम् ।
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( १८६ )
॥१३१७॥
कविदहनं तीक्ष्णापात त्रिशूल विभेदनं, दहनवदनैः कङ्कुर्घेीरैः समन्तविभक्षणम् तीक्ष्णैरसिभिर्दीप्तैः कुन्तैर्विषमैः परश्वधैश्वः । परशु- त्रिशूल - मुद्गर- तोमर- वासी- मुषण्दीभिः संभिन्नतालुशिरस - विन्नभुजान्न कर्णनासौष्ठाः । भिन्नहृदयोदरान्त्रा, भिन्नाक्षिपुटाः सुदुःखार्त्ताः ॥ १३१८ ॥ निपतन्त उत्पतन्तो, विचेष्टमाना महीतले दीनाः । नेक्षन्ते त्रातारं, नैरयिकाः कर्मपटलान्धाः ॥१३१९॥ विद्यन्ते कृपणाः कृतान्तपरशोस्तीक्ष्णेन धारासिना, क्रन्दन्तो विषवृश्चिकैः परिवृताः संभचणव्यापृतैः । पाठ्यन्ते क्रकचेन दारुवदसिना प्रच्छिन्नबाहुद्वयाः, कुम्भीषु त्रपुपानदग्धतनवो मूषासु चान्तर्गताः ॥ १३२०॥ भृज्ज्यन्ते ज्वलदम्बरीषहुतभुग्ज्वालाभिराराविणो, दीप्ताङ्गारनिभेषु वज्रभवनेष्वङ्गार के पूत्थिताः । दह्यन्ते विकृतोर्ध्वबाहुवदनाः क्रन्दन्त आर्तस्वनाः, पश्यन्तः कृपणा दिशो विशरणास्त्राणाय को नो भवेत् । । १३२१ ॥ पीतनीरस्य किं नाम मंदिरादिकपृच्छया । कृतचौरस्य वा पुंसः किं नक्षत्रपरीक्षया
॥१३१६ ॥
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॥ १३२२॥
कौलमतावलम्बियों की कपटपटुता -
अन्तः शाक्ता बहिः शैवाः, सभामध्ये च वैष्णवाः । नानारूपधराः कौला, विचरन्ति महीतले
॥१३२३॥
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(१८७) पञ्चाशत्पश्चवर्षाणि, पञ्च मासा दिनत्रयम् । भोजराजेन भोक्तव्यं, सगौडं दक्षिणापथम् ॥१३२४॥ उभे मूत्रपुरीषे च दिवा कुर्याद् उदङ्मुखः । रात्रौ दक्षिणतश्चैव तथा चायुर्न हीयते ॥१३२॥ वीरिएणं तु जीवस्स समुच्छलिएण गोयमा । जम्मंतरकए पावे, पाणी मुहुत्तेण निद्दहे ॥१३२६॥ जीभीमें अमृत वसे, विष भी उसके पास । एक बोले कोडी गुण, एक बोले कोडी विनास ॥१३२७॥ तित्थभरा गणहारी, सुरवइणो चक्की केसवा रामा । संहरिया कालेणं, अवरमणुत्राण का वत्ता ॥१३२८॥ तिण्णि सल्ला महाराय ! अस्सि देहे पइट्ठिया । वायमुत्तपुरीसाणं पत्तवेगं न धारए
॥१३२९।। कार्येषु का वचनेषु कुत्ती, भोजेषु डंका सदा हि क्रोधी। दया रहिता च कलहकारी,षद्गुण भार्या कुल नाशयंति।१३३० एगा हिरण्णकोडी, अट्टेव य नुणगा सयसहस्सा। सूरोदयमाइ, दिज्जइ जा पाउरासाओ ॥१३३१॥ तिनेव य कोडिसया, अट्ठासीअं च हुंति कोडीमो । प्रसिधे च सयसहस्सा, एयं संवच्छरे दिनं । ॥१३३२।। निम्बो वातहरः कलौ सुरतरुः शाखाप्रशाखाकुलः, पित्तघ्नः कृमिनाशनः कफहरो दुर्गन्धनिर्नाशनः । कुष्ठव्याधिविषापहो व्रणहरो द्राक् पाचनः शोधना, बालानां हितकारको विजयते जिम्बाय तस्मै नमः।१३३३॥
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( १८८) यच्चिन्तितं तदिह दूरतरं प्रयाति,
यच्चेतसाऽपि न कृतं तदिहाऽभ्युपैति । प्रातर्भवामि भुवनेश्वरचक्रवर्ती
सोऽहं व्रजामि विपिने जटिले तपस्वी ॥१३३४॥ घर घर बाजा न बजे, कहत पुकार पुकार । प्रभु विसारे पसु भये, पडत चाम पर मार ॥१३३।। कृपण कोथली श्वान भग, दोनों एक समान । घालत ही सुख उपजे, नीकलत निकसे प्राण ॥१३३६॥ वसीकरण यह मंत्र है, तज दे वचन कठोर ।। तुलसी मीठे बोलसे, सुख उपजे चउ भोर ॥१३३७॥ ये गायन में बडे, तुं गायनमें परवीण । ये ग्राहक कडवीणके, तु ले बेठा कर वीण ॥१३३८॥ जबराईका पेंडा न्यारा, कोइ मत मानो रीस । सब देवता सीस पूजावे, लिंग पूजावे ईश ॥१३३९।। भंग वेची थी जा दीना, भूरखा वेचा था ता दिना । खबर पडेगी ता दीना, रंगरोट कटेगो जा दिना ॥१३४०॥ जिसका काम तिसको छाजे, ओर करे तो लाठी वाजे । कुकर ठोडे गद्धा पोकारे, लाठी लेइ करी धोबी मारे॥१३४१। माठो धोरी ठोठ गुरु, कूवे तो खारो नीर । गामको ठाकुर घरकी घरनी, पांचो दहे सरीर ॥१३४२।।
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(१८९)
अवगुण ढंके गुण लहे, न वदे निठुर वान । मानस रूपे देवता, निर्मल गुणनी खान ॥१३४३॥ घर नहि तो मठ बनाया, धंधा नहि तो फेरी । बेटा नहि तो चेला मुंडा, ऐसी माया गेरी ॥१३४४ ॥ ओछे नरके उदरमें, न रहे मोटी बात। आध सेर के पात्रमें, कैसे सेर समात ॥१३४५ ॥ समकित श्रद्धा अंक हे, और अंक सब शून्य । अंक जतन कर राखिये, शून्य शून्य दस गुण ॥ १३४६ ॥ हितकर मूढ रीझाइये, अति हित पंडित लोक । अर्ध दगध जड जीवको, विधव रिझावत जोग ।। १३४७॥ नयन श्रवण अरु नासिका, कर नहि करत करो। सुत वनिता परिवार को, अचरज कीसो रह्यो ॥ १३४८ ॥ जब तक तेरे पुन्यका, और पता नहि करार । तब लग गुणा माफ हे, अवगुण करो हजार ॥ १३४९ ॥ पापी दृष्टि जीवने, धर्म वचन न सुहाय । के ऊंचे के लडपडे के उठके घर जाय ॥१३५० ॥ नारी कपटकी कोथली नारी कपटकी खान । जे नारीके वस पड्या, ते न तयों संसार ॥१३५१ ॥ धर्म करत संसार सुख, धर्म करत नव निध। धर्म पंथ साधन विना, नर तिर्यच समान ॥१३५२ ॥
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( १९० )
फूट नाशका मूल हे, फुट मत करो कोय | फूट पडी नृप हिंदमें दीयो देशको खोय दमयंती नल नरवरे, राणी तजी निरधार | पांडव पांचाली तजी, ए जूवारी आचार जूवारी घर ऋघडी, माकड कंठे हार । घेली माथे बेडलो, रहे केटली बार राजा के घर रातिजो, भाभज विना न होय । जो सुवे साचे कहे, तो मेनाकी गत होय पंडित भये मसालची, बातां करे बनाई । औरन को उजलो करे, आप अंधेरे जाई रांड गुरु पैसा परमेश्वर, छोरा छोरी साध । तीरथ हमारे कोन करे, घरमें ही वैराग सासु तीरथ ससरा तीरथ, आधा तीरथ साली । माबाप को लात मारु, सब तीरथ घरवाली जे माणस जेणी परे, समजे धर्मनो सार । पंडित जन तेनी परे, समजावे निरधार
।। १३५३ ।।
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।। १३५४ ।।
॥ १३५५ ॥
॥ १३५६ ।।
।। १३५७ ।।
।। १३५८ ॥
।। १३५९ ।।
।। १३६० ।।
जिन प्रतिमा पूजी नाही, धर्मो जो मनमें द्वेष | सो नर मर कर कुता भया, झालर वेरा देख ॥ १३६१ ॥ कर मरोडे चुडीया तिडे, रे मूर्ख मणियार ।
अपने पियुके कर विना, कभी न करूं सीसकार ।। १३६२ ।।
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( १९१) सुभाषितसंग्रहान्तर्गतश्लोकानाम् अकाराद्यनुक्रमणिका.
४४
५
अद्य धारा
असकृदकरणाअन्यायोपार्जितं ११ अनागतं यः अणिमिसनयणा १२-१०६ अंहिमेको अर्हतो दक्षिणे
अज्ञानी निन्दति अयं निजः
अन्यस्थाने कृतं अपि वंशक्रमा
अन्यक्षेत्रे कृतं अपकारिष्वपि
अर्थलुब्धकृतअङ्गीकृतं कोटि
अष्टादशअजरामरवत्
अनेन तव अपुत्रस्य गृहं
___ अत्र द्रोणशतंअतिपरिचया
अंथ धर्म च अंबस्स य
अन्तको जन्तुअन्यथा चिन्तितं
अलसो मन्दअस्तं गते दिवा
अतिलोभो न भज्ञः सुखमा
अत्यन्तकोपः अष्टादशप्रकारं
अतिभुक्तअवश्यभव्ये
४३ अदितिः सुरअसंभवं हेम- ४३ शहं च पृथिवी
CC Ww
४२
Guru
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अनिलस्यागमो
अर्थनाशं
अनर्थाय भवे
अस्मान् साधु
श्रहिंसा सत्य
अनित्यानि
अपमानं पुर
अलसस्य
अनृतं साहसं
अध्वा जरा
अपराधशतं
असंतुष्ट द्विजा
अथ स विषय
अमेध्यपूर्णे
अद्यापि नोज्झ
अमन्त्रमक्षरं
अयं निजः परो
भई चक्री
अक्खाण सणी
अनागतं यः
अपठाः पण्डिताः
अहो खल
अनन्तज्ञान
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( १९२ )
७३
७४
७४
७५
७६
७७
७६
८१
८२
८४
८४
९०
९६
९८
९९
६९
१०६
१०८
१०८
११६
११७
११९
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अष्टाङ्गानि
अनुचितकर्मा
अपरीक्षितं
अभ्रच्छाया
अपसेत्व
अर्थानामर्जने
अनभ्यासे विषं
अर्धाङ्गे गिरि
अभक्ष्यभक्षणाद्
अलीला खलु
असासयं जीविय
अग्निर्विप्रो
अन्तर्विषमा
अङ्गं गलितं
असितगिरिसमं
११९
१२०
१२१
१२२
१२२
१२४
१२५
१२७
१२९
१३०
१३०
१३१
१३१
१३२–१६८
१३२
१३३
१३४
१३४
१३५
१३६
१३७
१३७
१३८
असद्भि: शपथे—
अन्या जगद्धित
हो किमपि
अनुकुरुत: खल
अजातमृत
अवश्यं भावि
अश्वं नैव
अधः पश्यसि
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अनन्तरत्न
अहं त्वं च
अपदो दूरगामी
अणोरणीयान्
कुबेरपुरी
अर्थागमो नित्य
अश्वः शस्त्रं
अर्थातुराणां न
अन्तर्विशति
भजायुद्धमृषि
अनर्घमपि
अनुकूले विधौ
अव्याकरणमधीतं
अन्यैः साकं
अरावप्यु
अलावं तिन्दुक
अस्माकं बदरी
श्रतिपरिचया
असारे खलु
अगस्ति तुल्या अद्यापि दुर्निवारं
१३
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( १९३ )
१३८
१४१
१४२ अमितगुणोऽपि
१४३
१४३
१४४
१४८
१४९
१४९
१५०
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१९१
१५२
१५२
१५३
१५३
१५४
१५४
१५५
१५५
१५५
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अयश्चणक
अलंकरोति हि
अभूत् प्राची
श्रस्य मूर्खस्य
अखिलेषु विह
अप्रतश्चतुरो
अर्थस्य पुरुषो
अकर्णमकरो
अतिदानाद्
अहो दुर्जन
अन्नदानं महा
अतिसमय
अर्थनाशं मन
अश्वमेधसहस्रं
अद्रोहः सर्व
अमृतं किरति
अर्थी करोति
अन्तः शाक्ता
अवगुण ढंके
श्रायुर्वृद्धिर्यशो
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१५८
१५८
१९८
१६०
१६१
१६१
१६२
१६२
१६३
१६५
१६६
१६६
१७१
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( १९४)
१११ १११ ११८
१२० १२६ १२९ १३३ १३६ १४० १५१
आयुष्कं यदि आरंभे नत्थि आशाम्बरत्वे थाहारनिद्रामादिचौरभाघ्रातं परिआलस्स मोहआदौ धर्मधुराआसन्ने व्यसने अामसूत्रव्यूतश्रायुः कर्म च आदौ नम्रः प्रासंसारं पासीदिदं श्रादरं लभते आपातमात्रभायुर्धन आतुरे व्यसने आदाय मांसभास्तन्यपानाभादो मज्जनआयुर्वर्षआसन्नमेव
१६ आवश्यकध्यान १७ शात्मायनरके २१ श्राद्येन हीनं
आद्यस्त्वं २९ श्राग्रही बत ३२ आवर्तः संशया३४ आभिग्गहिय३९ आपदो महता
आपद्गतं हससि
आदिमध्यान्त४७ आशा नाम
श्रादौ राम
शानन्दताण्डव६५ आत्मनो मुख६८ भारोग्यं विद्वत्ता ९३ मात्मार्थं जीव९३ पन्नाशाय
इन्द्रोऽपि कीटतां ९७ इह किल ९८ इतरपाप१०१ इह तुरगशतैः १०३ इयं सुन्दरी १०८ इच्छति शती
६४
१५९
१६१
~
~
~
१७२ १७३
१८१
१५४
१९७
१६८
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( १९५)
१६६
&
१६७ १६९ १६९ १७२
w
w
१७३
१६७
१५७
उत्तमपत्तं उद्यमे नास्ति उप्तो यः उन्मत्तप्रेम उपायेन प्रकउत्तमं स्वार्जित उद्यमेन विना उलूककाकउत्पादिता स्वयउत्सङ्गे सिन्धुउपचितेषु उपाध्यायादशाउद्यमः साहसं उत्तमाः स्वउदयति यदि उच्चावयाणि उपकारिषु यः उद्योगिनं पुरुषउपकारोऽपि उत्कन्धरो विततउष्ट्राणां च उत्तमा आत्मना उच्चैरध्ययन
२२ उद्योगः खलु २७ उद्यमेन हि ४१ उपदेशो हि
उपकारः परो उदारस्य तृणं उद्यमः साहसं उपकर्तुं यथा उदये सविता उभे मूत्रपुरीषे
ऊर्जा नैष ९३ ऋणकर्ता पिता १०५ ऋणशेषोऽग्नि११५ एकेन दिनेन १२० एकराव्युषित१२३ एकं दृष्ट्वा शतं १२४ एको ध्यान१२५ एकतटाके १२८ एकाक्षर१३५ एकः श्लोक१४७ एकेनापि १४७ एका भार्या १५० एकं ध्यान१६० एके सत्पुरुषाः
w rammsg a s o o ar
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( १९६ )
१७०
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१२५
१०६
एको हि दोषो एकेन राजएकस्तपो द्विएकेन तिष्ठता एकोऽपि गुणवान् एकेन शुकएकचक्रो रथो एकस्य कर्म एगा हिरणऐश्वर्यस्य ॐ नमो विश्वमोछे नरके मौदार्येण विना औषधं शकुनं कन्यागोपूर्णकल्लोलचपला कस्तूरी पृषतां कषाया देहकर्तव्यमेव कथं विधातर्मयि कर्मणो हि कद्रः सरीसृपाणां कश्चित् कानन
१३८ कण्टको दारु१४८ कर्णान्तायत१५३ कस्तूरीकृष्ण १५८ कर्तुः स्वयं १६६ कर्मणो हि
कपिलादुग्ध १७६ कटुतुम्बी १८० कस्त्वं शूली १८७ कन्दः कल्याण१८५ कलारत्नं
कन्याविनाये१८९ ___ कस्त्वं लोहिस१७ कन्याप्रसूतस्य
कन्या वरयते
कमला कमले ६ कवयः परि
कः को के २१ कवयः किं न
कल्पद्रुमः कल्पितकर मरोडे
काके शौचं ६६ काव्यं सुधारस७२ काकोऽप्याहूय
१२८ १२९ १३९ १४१
१३१
r
१५४ १५८ १६३
२६
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कान्तं वक्ति कार्येषु मन्त्री
कामोऽयं
कार्य सपौरुषे
कामलुब्धे कुत्तो काव्येषु नाटकं काकः पद्ममे
काव्यालापाच
काश्येत्प्र
कान्तावियोग:
कालेन पच्यते
कावा हंस
कालस्य कति
काचिद् बाला
कालो वा कारणं
काक आह्वयते
काच! काचनकाम ! जानामि
कार्येषु ऋक्ष
कियदत्र
किं चित्रं
किलात्र यो
किं तद्वर्ण
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४३
५५
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६१
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१४२
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किं च प्रत्यक्ष
किं तया क्रियते
किं गीतं
किं मौतिहारं
किं तया क्रियते
किमु कुवलय
किं कवस्तस्य
किं किं न
किं मो
किं पुनः स्मरा
किं जन्मना
किं केकीव
किं कुलेन
किं कुलेनोप
कि कुलेन
किमत्र चित्रं
कीटिका संचितं
कुङ्कुमकज्जल
कुरङ्गमातङ्ग
१८७
४१ कुसंसर्गात्
४८
४९
५६
कुचेलिनं
कुपुत्रेण कुलं
कुमामवासः
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६४
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११२
१२६
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कुलं च शीलं कुटिलगतिः कुटिला लक्ष्मीकुमुदवनकुस्थानस्य कुसुमानां यथा
१०२ १२९ १३०
कुसुमस्तबक
१४० १७५ १७८
कूतच्छायाकूहेन कूट कूपेषु ह्यधर्म कूटसाक्षी कृतो हि संग्रहो कृष्णमुखी न कृशः काण: कृतकर्मकृपणेन समो कृषण कोथळी केवलं गहरी केनादिष्टौ केचिनिद्राकेचिदज्ञानतो केयूरा न कैवर्तीगर्भ
(१९८) १०८ कैवर्तकर्कश१३१ कोऽयं नाथ १४८ कोकिलानां १६१ को निर्दग्ध१६९ कोहो पीई १८० कोटं च बूट १८२ कोहाभिभूया ५९ कोऽयं द्वारि ८२ कोऽतिभारः ८३ को न याति १०३ क्षीराब्धेरमृतं
क्षत्राणां हय४७ क्षणं तुष्टः ६६ क्रोधः कृपा१०८ क्रोधो मूल१७९ क्षौरं मज्जन१८८ क्षमा खड्गं
६६ क्षान्तं न क्षमया १३४ जवाई बुद्धि१४६ चीरिण्यः सन्तु १०८ क्षणे तुष्टाः क्षणे १८५ क्रोशन्तः शिशवः २८ क्षणशः करमश
१०६
moo w w o wo wo w or in
१९२
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क्वचिद् वीणा
क्वचिद् भूमौ
क्षते प्रहारा
क्षमा बल
क्षारं जलं वारि
क्षमापरं तपो
खल्वाटो
खलः सत्क्रिय-
―
खल: सर्षप
खलानां धनुषां
खद्योतो द्योतते
खल:
करोति
खादन्न गच्छामि
गवाशनानां
गतेऽपि वयसि
गते शोको न
गन्तव्यं नगर
गतेर्भङ्गः
गतानुगतिको
गर्गो हि पाद
गच्छ सूकर गवीशपत्रो
गगनं गगना
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( १९९ )
१५६
१५६
१६०
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६०
९९
गतास्ते दिवसा
गात्रं संकुचितं
गात्रं कण्टक
१६९
गिरिगह्वरेषु
१७७
गीतशास्त्र
१७९ गुणैरुमत्ततां
गुरुं विना
गुणागुणज्ञेषु गुणेषु यत्नः
गुरुणापि समं
गुरुवो यत्र
गुरुत्यागे
१३४
१४१
१६४
१६७
२७ गुर्वेकवाक्या
५ गुणग्रामा
गुरोर्यत्र परी
गुणो भूषयते
२६
४७
७८ गुणवज्जन૬૨ गुणाः सर्वत्र
१२१ गुणी गुणं वेत्ति
१३६
गुरुशुश्रूषया
गुणानामन्तरं गुणैर्गौरव
१३८
१४०
१५१ गुणेन स्पृहणीयः
For Private And Personal Use Only
१६२
९९
१४७
१४७
१७१
३१
३३
५३
६६
७३
८३
१२८
१३२
१३३
१५२
१६५
१७१
१७१
१७२
१७४
१७५
१७६
१८२
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(२००)
१७२ २९
१२४
१४५ १६२
१७३
१८२ १८५
गुणवन्तः क्लिश्यन्ते १८३ चाश्चल्यमुच्चैःगृहीत्वा तुलसी- १११ चाण्डालश्च दरिद्र- गृह्णात्येष रिपोः १३९ चित्तं रागादिमिः गौरवं प्राप्यते १७१ चिन्तातुराणां ग्रामो नास्ति
चित्तमन्तर्गतं ग्रासोद्गलित--
चिन्तया नश्यते घटं भिवा
११४
चिता चिन्ता समा घटं भिन्द्यात् १५२ चिकीर्षिते कर्मणि घर घर बाजा १८८ चिन्तनीया हि घर नहि तो १८९ चितां प्रज्वलितां घृष्टं घृष्टं
१३३ चित्ते भ्रान्तिघोरे कलियुगे
चौराणां वञ्चका चक्रे तीर्थकरैः
चौरश्चौराचतुर्दश्यष्टमी ५० च्युता दन्ताः चक्रवर्त्यप्य
५८ छटेणं भत्तेणं चत्वारो नरक- ७८ छ8 छटेणं चन्द्रे लान्छन- ८६ छिन्नोऽपि रोहति चतुरः सखि मे १३८ छिद्यन्ते कृपणाः चक्री त्रिशूली १४३ जन्मना ब्राह्मणो चन्दनं शीतलं १७९ जन्मना जायते चलत्येकेन
१८० जं चिय विहिणा चाद्यपि यदि ४४ जले विष्णुः चातकस्य मुख- १४६ जनकश्वोप
२० चारचार
१०३
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४९
.
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१८१ १८४
१००
१५२
१८८ १९०
११२
जणणी जम्मजले तैलं जम्मंलीए जन्मिनां प्रकृतिजगन्मातजनस्थाने भ्रान्तं जम्बूफलानि जटा नेयं जनिता चोपनेता जननी जन्मजबराईका पेंडा जब तक तेरे जातिर्यातु जानन्ति यद्यपि जाप्यं शतगुणं जाता लता हि जातापत्या जातेति शोको जामाता कृष्णजाता शुद्धकुलं जानामि नागेन्द्र जायते नस्का जानन्ति पशवो
( २०१ ) ९८ जानीयात् सङ्गरे १०२ जाड्यं धियो
जिनभवनबिम्ब१२९
जिणसासणस्स जिनभक्ति
जिहे प्रमाणं १४४ जिसका काम
जिनप्रतिमा जविन्तोऽपि जीवन्ति सुधियः
जीवोऽनादि१८८
जीभीमें अमृत १८९
जुमुप्सामयाजूए पसत्तजूवारी घर जे माणस जैनागारसहन
जैनो धर्मः १०९ जो गुणइ १२२ ज्वरोष्णदाह१४२ ज्ञानस्य ज्ञानि१५० ज्ञातिभिर्भज्यते १६. झटिति पराशय१७४ तवनियमेण
m
३१
س
१७०
م
२३
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तमाखु --भंग
तं तं नमति
तत् श्रुतं यातु तत्र वारिचराः
तत्र दायक
तस्मिन्नेका
तत्र तस्य
तस्मिन् पद्मे
तव निर्वाण
तन्नेत्रैस्त्रिभि
तरुणं सर्षप
तव प्रेष्योऽस्मि
तथापि चित्र
तरुमूलादिषु
तनुप्रासे स
तवं किमपि
तद्वै धनुस्त
तमाखुपत्रं
ताक्चन्द्र
तावद् गजः
वारुण्यं द्रुम
तिलसितेन
तित्थचरा गणहारी
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( २०२ )
३९
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१३४
१४१
१५९
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१६३
१६३
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१२३
६३
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तिण्णि सल्ला
तिन्नेव य
५६
५८
६०
६६ तुष्यन्ति भोजनै
६६
६६
७१
९२
९९
११९
१२७
तीर्थस्नानै
तीक्ष्णधारेण
तीक्ष्णैरसिमि
तुष्टो हि राजा
तृणं ब्रह्मविदः
तृष्णां विन्धि
तृतीयं लोचनं
तृणादपि लघु
तेजोमयोऽपि
ते केचिद
तैलमांस
तैलाद्रक्षेद् त्रिदशा अपि
त्यजन्त्यसू
त्रिशला सर्व
त्रैलोक्यवश
त्रिषु श्यामां
त्यजन्ति मित्राणि
त्वया हता
त्रयः स्थानं
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१८७
१८७
१२३
१७३
१८६
७४
१३७
३५
६५
८५
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५१
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३४
६०
७१
८८
६०
११५
११९
१२०
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त्यजन्ति शूर्प - त्वयि वर्षात
त्यजेदेकं
त्याग एको
दया दानं च
दर्शने हरते
दशम्यां यस्य
दरिद्राधिगमे
दत्तस्तेन
दयैव धर्मेषु
दग्धं खाण्डव
दंसणवय
दश धर्म न
दशशूना
दश व्याघ्रा
afraisi
दमयंती नल
दायादाः स्पृह
दानेन पाणि
दानं वित्ताद्
दानं भोगो
दातव्यं भोक्त
दारिद्र्यनाशनं
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( २०३ )
१३५
१४७
१८०
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१४
५६
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७९
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१३८
१६७
१६०
३
५
६
११
११
१५
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दानं सुपात्रे
दानक्षणे
दानं तपस्तथा
दानेन भूतानि
दानं सिद्धि
दारिद्र्याकुल
दानं पूजा
दानेन लक्ष्मी
दानेन प्राप्यते
दाने तपसि
दानं दरिस्स
दानार्थिनो मधु
दारेषु किंचित्
दारिद्रान् भर
दानोपभोग
दानाय लक्ष्मीः
दिवा काकरवा
दिधक्षन्मारुते
दिवा निरीक्ष्य
दिव्यज्ञानयुता
दिवा पश्यति
दिव्यं चूतरसं
दीर्घायुः स्वस्ति
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१६
१९
२१
२५
८७
१०३
११५
११५
१२०
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२९.
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१०५
दुर्भिक्षोदयदुग्धं देयादुर्बलानादुर्जन: परिदुर्गाचं हृदयं दुर्जयोऽयमदु:खं स्त्री दुष्टस्य दण्डः दुष्टानां दुर्जनदूषितदुष्टा भार्या दुर्बलस्य बलं दुर्मन्त्री राज्यदुर्जनेन समं दुर्जनो जीयते दूषणेभ्यो विनि-- दूरस्थाः पर्वता दृश्यं वस्तु
१२३
( २०४)
५ देवपूजा गुरू२१ देवपूजा दया २७ देवगुरुप्रसा
देवनिन्दा च ७२ देवानन्दोदरे ७७ देशाटनं १०३
देयं भोजदेवा देवी
देहीति वचनं १५५
दैत्येन दानवे
द्वौ हस्ता १६६ द्यूतकारस्तला१६९ द्यूतं सर्वापदां १७९ द्यूतं च मांसं १८१ द्यूताद् राज्य
द्यूतासक्तस्य १५८ द्वन्द्वो द्विगु४४ द्वाविमौ पुरुषो ८४ द्वाविमौ पुरुषो १५१ द्वाविमौ पुरुषो
९ धर्मः पर्वगतः १० धर्मारम्भे १४ धर्मों यस्य
or
११४ ११४
१२४
or
or
१४१
or
दृष्टानपि
दृष्ट्वा यतिर्यति देवा विसयदेहे द्रव्ये देवद्रव्येण
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( २०५)
धर्मभ्रष्टा हि धर्मार्थकामधर्महीनो द्विजधर्महीनाः कृमयः धर्मोपदेशेन धनाल्यता धर्मोऽयं धनधन्यानां गिरिधर्मार्थकामधनानि भूमौ धनुषि धनुधनिकः श्रोत्रियो धर्म करत धिगस्तु धीराणां भूषणं धूम्रपानरतं धूमः पयोधरध्येयस्त्वं ध्यानं दुःखन सा दीक्षा नमस्कारसमो नवकार इक्कनरयगइ
३९ न विद्यया ४५ म देवपूजा ५८ न ते नरा
न कयं दीणु६३ न चौरहार्य ७९ न जातु कामः ६४ न वेषां ब्राह्मणी १०५ नमस्तुभ्यं
न सा जाई १५७ नमस्यामो देवान् १६५ न चादौ मुग्ध१६८ न रणे निर्जिते १८६ न नर्मयुक्तं ११६ न मांसभक्षणे
नत्थि यसि कोइ ४. नराणां नापितो
न निर्मितं ११८ न कार्या १२९ न याचे गजा
२ न पश्यति १२ न स्वर्धनी १३ नरत्वं दुर्लभ १५ न स्नेहेन
AACGM mmD Moc WAmm 24
vis . ० ०
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( २०६)
१८३
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or
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११९
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न वासयोग्या न धर्मशास्त्रं नमस्तुभ्यं न विश्वसेत् न दातुं न स्वादु न सेवियव्वा नयास्तव नलिकागतमपि न देवाय न न तज्जलं नवनीतमयं न विप्रमादोन विषं विषनक्रः स्वस्थाननमस्कारसहस्रन स्थातव्यं न तेन स्थविरो न सन्ध्यां नरस्याभरणं नष्टं नैव मृतं न कश्चिदपि न यस्य चेष्टितं
११६ न मातरि न ११७ न पण्डिताः ११७ नयन श्रवण १२१ नाणं नियम१२२ नारी-नदी१२९ नाहं स्वर्गफलो१३० नानाशास्त्र१३० नाभ्यस्ता भुवि १३५ नात्यन्तसरलै१३५ नानुद्योग१४. नाभ्यर्थये १४४ नाणाविहाई १४५ नाहं जानामि १४५ नास्ति क्षुधासमं १४८
नास्ति विद्यासमं
नालिकेरसमाना १५४ नाऽसत्यवादिनः
नारी कपटकी १६४ निर्वीर्या पृथिवी १६६ निर्ममो नगर
निरन्तरं यथा १७४ निर्विवेका मरु१७५ निन्दन्तु नीति
१२४
१६१ १७०
9
V
१८२ - १८२
१८९
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निर्दन्त: करटी
निर्द्रव्यो धननिषिद्धमप्या
निरर्थकं जन्म निजदोषावृत
निर्वनो बध्यते
--
निर्वाणदीपे
निद्राप्रियो
निर्विषेणापि
निष्णातोऽपि हि
निःसारस्य
निपतन्त उत्प
निम्बो वातहरः नीरागोऽपि
नूनं हि ते
नेच्छन्ति प्राकृतं
नैकपुरुषं
नैवाकृतिः फलति
नैवाहुतिर्न
नो सत्येन
न्यस्तो हन्त
न्यक्कारो हाय
पश्य संगस्य
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(2019)
६५
१०४
१२६
१३९
१५०
१५४
१५७
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३७.
२४
४०
१५
४८
८२
२४
७०
१०७
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पदे पदे
पञ्चेन्द्रियाणि
पक्षपातो न मे
पत्यौ प्रव्रजिते
पञ्चविंशति
पण्डितोऽपि वरं
पङ्ग मूकं च
पञ्चमो लोक
पञ्चैतानि
पञ्चाश्रवाद्
पश्चाद्दत्तं
पश्य लक्ष्मण
पश्यन्नपि
पत्नी प्रेम
पञ्चैते पाण्डु
पञ्चाङ्गं दाडि
पदे पदे
परान्नं प्राप्य
परोपकारः
पञ्चापि मम
पत्रं नैव यदा
पविश्वशुरता
परिचरितव्याः
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१०
२९
३३
३७
४४
६७
७४
७९
८५
८६
८६
९३
९३
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(२०८)
१४८
१७१
१७७.
or
फ्ठतो नाति १५३ पिपासुता पङ्गो बन्ध
१५९ पिबन्ति नद्यः परिखते हि
पिण्डे पिण्डे पण्डिते चैव मूर्ख १७. पिपीलिकार्जितं परोपकाराय फलन्ति १७२ पिबन्ति मधु पञ्चमेऽहनि वा १७६ पीतोऽगस्त्येन परोक्षे हन्ति १७७ पीतनीरस्य परोपकारंशून्य- १७९ पुरुषस्य दर्शपरोऽपि हितवान् १८० पुरुषस्य जरा पञ्चाशत्पश्च- १८७ पुत्रश्च मूर्यो पंडित भये १९० पुष्पं दृष्ट्वा पात्रे धर्म
६ पुत्रमांसं पावकोच्छिष्ट
पुण्यं कीर्तिपातुं न प्रथम ७५ पुरा गर्भादिपाकं किं न
पुष्पेषु माता पा जे धन
पुरीषस्य च पासा वेश्या १०२ पुण्यस्य फलपानीयस्य रसः . १०५ पुष्पेषु चम्पा पादाहतः
पुस्तकं येन पानीयं पातु- १४२ पुस्तकस्था हि पादपानां भयं १६६ पूर्व न मन्त्रो पापाभिवारयति १७८ पूमा पञ्चपापी दृष्टि १८९ पूर्वोपार्जित
lililililililik
ord. 2
2
१५१ १६२ १७२ १८०
३
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(२०९)
१३७ १५४ १६५
१७३
१७६
२०
१९०
१४९
पूज्यते यदपूज्योपूर्वेषां यः पूगीफलानि पूर्वजन्मनि पृथुकार्तप्रभास्वं प्राणान्तेऽपि प्रशमरसप्रियवाक्यप्रथमं डम्बरं प्रकृतेर्महांप्रस्तावसदृशं प्राणा द्वि-त्रिग्रारभ्यते न प्रवर्धमानः प्राकृत एव प्राक् पादयोः प्राणसन्देहप्रदानं प्रच्छन्नं प्राशः प्राप्तप्राप्तुं पारमपाप्रातःर्वत
१४
२६ प्राप्तव्यमर्थ ५१ प्रथमे नार्जिता ९५ प्रदोषे दीपक - ११७ प्रियवाक्य ११७ प्रत्यहं प्रत्य१४ प्रभुभिः पूज्यते
फूट नाशका ३१ बद्धा येन ३४ बन्धनानि खलु ३४ बहूनामल्प
बालाण रवो ४५ बालादपि
बालोऽपि चौरः बिडालव्यालबिभेभि चिन्ता
बीजेनैव ९३ बुद्धेः फलं १०२ बुद्धिपूर्वक ११३ बोधितोऽपि १२४ ब्रह्मकुले च १२६ ब्राह्मणाः क्षत्रिया १२७ ब्रवते हि
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( २१०)
१८
३३ १२०
६१ भारं स वहते १२७ भिक्षाशनं
भिक्षुर्विलासी भिक्षो कन्था भीमं वनं भूरिभारभरा भृज्ज्यन्ते ज्वलभेदानां परि
९२
१३९
१८६
४४
१०१ ११३ भोगे राग१३९ भो भाद्रपक्ष
or
ब्राह्मणानां धनं ब्रह्मचारियतीभवणं जिणस्त भत्ती जिणेसु भवबीजाङ्कुरभङ्गोऽभूद् भक्तिं तीर्थभक्खणे देवभग्गो णट्ठो भवित्री रम्भोरुभकद्वषो जडभद्रं कृतं कृतं भकारो कुम्भभये महति भवन्ति नम्राभंग वेची थी भाग्याधिक भावना मोक्षदा भावण भावे भावेषु विद्यते भाविकार्यानुभाग्यं फलति भार्यावियोगः
१४५
or
भौमे मङ्गलनाम
मन एव १५६ मणमरणेंदिय १८१
मन्त्रे देवे १८४
मत्तंगा भिंगंगा मज्जं विसयमहाव्याधिमहात्मगुरुमर्मवाग् दास
महतोऽपि कुसं४२ ममैव शाकेन ५७ मनुष्याणां पशूनां १४५ मया परिजन
२१
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( २११)
१५८
:
१८८
११८
१३५
मद्यतूर्यमहाकुलमत्स्यः कर्मों मत्तेभकुम्भमद्यमांसामहानुभावमहाजनाचारमय्येव जीर्णता मत्तस्तु मर्कटस्य सुरामजन्ति मुनयः मद्यपस्य कुतः महाजनस्य मनसा चिन्तित मातापितमाता यदि विषं मातङ्गी प्रथमे मा मतिः परदारेषु मातृ-स्वसमातः शैलमालवे पञ्च रत्नानि मांसामृगमांसास्वादन
५० मान्धाता स ५८ मार्गे मार्गे
मातरं पितरं ६९ मातृवत् पर
मातेव रक्षति ७८ माठो धोरी ९१ मित्रद्रोही
मुण्डं शिरो १२२ मुक्तिसौख्यं १६१ मुक्त्वा नि:श्रीक१६५ मुखं पद्मदला१७० मुक्ताफलैः कि १७३ मूर्खस्तपस्वी १८० मूत्रयन्ति
मूर्खाणामप्र
मूर्मस्य पञ्च ४० मृगा मृगैः ४६ मृच्यालनी
मौने मौनी मौनं काल
मौखर्य लाघव७६ मेधां पिपीलिका १२१ मौने मौनी
१८४
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१३६
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१२४ १३४ १४९
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१३४
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( २१२)
१०८ १११
my
30
मौनं कालमौखर्य लाघवयत्कल्याणकरो यस्यास्ति वित्तं यत्नानुसारिणी यदेतत्पूर्णे यस्तमाखु यद् भग्नं यदि नामाऽस्य यत्राकृतिस्तत्र यद् दुर्गामटवीयत्र नास्ति मनः यत्र जीवः शिवयथामृतरसायस्याद्ययं शैवाः यस्य बुद्धियदि स्वभावायः संसारयम्य नास्ति यस्य दृष्टियः कौमारयस्यालीयत
१४९ यः प्राप्य १६४ यः सर्वमूलोत्तर
यत्वन्नेत्रयस्यास्ति
यः सुन्दर२४ यस्य षष्ठी ४० यदि रामा ४१ यत्र नास्ति ४१ यस्तु संचरते ४३ यः पठति ४८ यथा देशस्तथा ५४ यत्र विद्वज्जनो
यत्रात्मीयो यथा खरश्चन्दनययोरेव समं यदि नाम देवयदि वा याति यथाऽऽमिषं
यस्मिन् देशे न १०२ यथा गजपतिः १०६ यश्च संचरते १०७ यस्यास्तस्य १०७ यस्य मित्रेण
ococococc c ccc Na -
१५३
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१६४ १६७
९१
१७१
१७९
१७९
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यः पृष्ट्वा कुरुते
यथा चित्तं तथा
यथा परोपकारे
यस्य नास्ति
यः स्वभावो
यचिन्तितं
यानपात्रसमं
यावन्ति रोम
यास्याम्यायतनं
यात्येकतो
यास्यत्यद्य
या देवे देवता
यावत्स्वस्थ
By
यां चिन्तयामि
या मतिर्जायते
यास्यति जलधर
यावज्जीवं सुखं
यावत् स्वस्थो
याचना हि
युद्धं च प्रात
युध्यन्ते पक्षि
ये रात्रौ सदा ये पिबन्ति
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( २१३ )
१८१
१८१
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१२
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येषां न विद्या
ये रामरावणा
ये पाताल
ये गायनमें
यो लक्षं
यो दद्यात्काञ्चनं
योगेन योगी
यो यथा येन
यो रात्रिचर
यो न संचर
यो वर्त
यो नात्मजे
योजनानां सहस्रं
यौवनं जरया
यौवनं सफलं
यौवनं धन
रविचरियं
रजोजुषे जन्मनि
रथस्यैकं
रत्याप्तप्रिय
१००
१०४
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१४६
१५४
१७४
१७७
१५२
१७६
१६ रक्तः शब्देन
४०
रसातलं यातु
रत्नेन काचन
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६३
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rurur
१३७
११८ १३०
रविरपि न रत्नाकरः किं रक्तत्वं कमलारागो द्वेषराजंस्त्वं राजा राजानराज्यं यातु रामस्य ब्रजनं राजानः खेचरेन्द्राश्च राज्यं निःसचिराजा कुलवधूरात्रिर्गमिष्यति रागाद्यै रिपु-- राज्ञि धर्मिणि राजाभिषेके रामो राजमणिः राजंस्त्वत्कीर्तिराजपत्नी गुरोः राजाके घर रांड गुरु पैसा रिक्तपाणिन रुधिरमांसरे रे चातक
१३५ रे रे रासम १७७ लक्ष्मीस्तं १८३ लज्जा दया २९ लज्जायौवन
लकेशोऽपि
लक्ष्मीः कौस्तुभ६८ लइने ये गुणाः
लालने बहवो लिखिता चित्र
लुब्धो न ६५ लुद्धा नरा ११३ लोके कलङ्क११९ लोभश्वेदगुणेन १२१ लोकाचारानु१४३ लोकेभ्यो नृपति१६३ लोकः पृच्छति १६४ लोभमूलानि
लोभात् क्रोधः १९० लोभाविष्टो नरो १९० वरबालामुह९८ वनकुसुमं १३२ वर्ष मेघ १४५ वसुधाभरणं
१४४ १६९
१८१
cc
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१३१
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वह्निज्वालावश्चकत्वं वरं प्राणपरिवरं न राज्यं वरं वृन्दावने वयोवृद्धाबनेऽपि सिंहा वस्त्रं पात्रं वरं पर्वतवरं मौन वरं भिक्षाशिवरं वनं वश्यौषधं वरं गर्भस्रावो वस्त्रहीनमलबने रणे वरं रेणुवनेऽपि दोषाः वणिकपण्याजना वरमेको गुणी बनानि दहतो वसीकरण यह वाताहारतया
२५ वापी कापि ३६ वापी वप्र
वाली जोइड वामस्वरा शिवा वारिदस्तृप्तिवार्ता च कौतुकवाङमाधुर्या
वाहने ये गुणाः ७८ वासो वल्कल८३ वाणी रसवती
विना गुरुभ्यो ८३ विश्वामित्रपराशर
विद्वत्ता वसुधा ८ विदलयति
विणो सासणे विहाय जम्बूको
विरला जानन्ति १०८ विश्वसेन्नहि १३२ विधुकरपरि१५९
विवेकः संयमः विश्वासप्रतिविना कार्येण विद्या नाम
.
९४
१०४
१८८
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V
o
विजामूलं च विभूतिस्त्यागविलग्नश्च विद्युल्लता विजेतव्या विद्या नाम विलम्बो नैव विजयापत्रविद्यादम्भः विरोधो नैव विनयेन विद्या विषयव्याकुलविवेको न विषस्य विषयाविप्राऽस्मिन् विना गोरस विशाखान्तं गता विद्या मित्रं वित्ते त्यागः विद्या विनयोविदेशेषु धनं विवेकः सह विदुषां वदनाद्
६४ विहाय पौरुषं ७९ वीतरागं स्मरन् ८२ वीरिएणं तु
वृक्षच्छाया
वृथा चैकादशी १०१ वृक्षं क्षीणं१०९ वृक्षाप्रवासी १११ वृथा वृष्टिः ११६ वेश्या रागवती १२० वेश्यासौ मदन१२४ वेश्याका
वेश्यासक्तस्य वेपथुमलिनं
वैद्या वदन्ति १३९
वैद्यराज नमवैद्यो गुरुश्च
वैरवैश्वानर१६५
वैकल्यं धरणी१६७ व्यादीर्पण १६८ व्यर्थं दानं १६९ व्यापारे वाङ्१७१ व्याजे स्याद १७५ व्याघ्र च
११५
१२५ १२५ १२९
१७४
AM
M
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तेषु जायते
शशकी गर्भसंभूतः
शठं प्रति
शक्यो वारयितुं
शशिनि खलु
शक्रं वज्र
शत्रूणां तपनः
शरण्यस्त्वं
शत्रुंजयशिरो
शकटात् पञ्च
शम्भुस्वयंभूशत्रुंजय: शिव
शरदि न
शशिदिवाकर
शमीगर्भस्य
शतं विहाय
शनैः पन्थाः
शय्या वस्त्रं
शास्त्रे निष्प्रतिभ
शाठ्येन धर्मं
शास्त्रं बोधाय
शास्त्रे सुनिश्चित
शिष्ट संगः
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२२
२८
५४
७१
७३
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११७
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१३५
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शिशूनां जननी शिरसः स्फुर
५.
शिला बाला जाता
शिरसा धार्यते
शीलं नाम
शुचि भूमिगतं
शुक्लत्रयोदश्यां
शुश्रूषस्त्र गुरून् शुद्धान्तसंभोग
शुचित्वं त्यागिता
शूद्रोऽपि शील
शूरेषु विघ्नैक
शून्यं वासगृहं
शूली जात:
१३७
१४२ शृगालोऽपि
१५२
शोभते विद्यया श्रमणस्तुरगो
१५३
१५९ श्रीशांतिनाथादपरो
६
श्री तीर्थपान्थ
५१
श्रीमन्नेमि -
९९ श्वानचर्मगता
१२१
श्वपाकीगर्भ
श्रद्धालुतां
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५३
८६
१५९
१८३
१००
२०
७१
७६
१२७
१७०
२८
४९
१०७.
१४१
१५१
१६५
२
३
१०९६
१६
१८
२८
१७
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२१८
३ सवामित
श्रोत्रं श्रुतेनैव श्रीशत्रुजयभूषणंश्रीशत्रुजयशकवारण श्वेताम्बरधरा श्रुतिविभिन्ना श्लोको बै श्रवणलवनं षट्पदः पुष्पषष्टिमिनके षट्कर्णो मिद्यते षड् दोषाः संती कुंथूथ सत्रागारशतानि सत्यपूतं संग्रामसागरस वटा सत्यं शौचं संसाराम्भोधिसयं पमजणे स किं सखा सम्पदि यस्य संसाम्मि असारे सत्यं ब्रह्म
६० सर्वज्ञमीश्वर६२ संसारपाशो
सती सुरूपा
सपत्नीदर्शनं १५३ सत्कारयन्ति
सहजान्धदृशः १८५ सन्मार्गे ताव
सर्वाभिरपि
सतीव्रतेऽग्नौ १२६ सत्त्वेषु मैत्री
सहवासी हि सद्धर्मबीजसंपदि यस्य
सत्येनाग्नि१२
सन्तः सच्चरितो१४ सद्यः प्रीतिकरो
सतिका ढेकरा संवत्सरेण यत्
सत्येन धार्यते २४ संपील्याहि२६ समेषु शौर्य ३४ सच्छिद्रो ३८ सदा वक्रः सदा
0 To so oa w 9 9 vo s o o or an or
0
११४
११४
१८
२२
२२
१३१ १३१
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संग्रामे सुभटेसद्यः फलति
सहते शरशत
सत्सङ्गाद्
सत्यं
ब्रूयात्
समत्वाकाङ्क्षिणी
सरसो विपरीत
सहसा विदधीत
सर्पदुर्जन
सर्वनाशे
सत्येन धार्यते
सर्पाणां च
सर्पः क्रूरः सत्यं तपो
स जीवति
ܘ
सद्भिरेव
सद्भिः संबोध्य
सद्विद्या यदि
सज्जना एव
सन्ति स्वादुफला
संभिन्नतालु
समकित श्रद्धा साकारोsi
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१४९
१५०
१५०
१५०
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१७५
१७५
१७५
१८५
१८६
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११
सायरजलस्स
सारङ्गी सिंह
सावद्ययोग
साधुत्रीबाल
साधारणतरु
साधूनां दर्शनं
सा भार्या या
सा श्रीर्यान
सासु तीरथ
सिंहो बली
सिद्धार्थराजा
सीदन्ति सन्तो
सीह सउण न
सीताचिन्ताकुले
१६९
१७०
१७१
१७२
१७२ सुगुणं विगुणं
१७४
सुजनो न याति
सुखस्य दुःखस्य
सुराद्रिं सुर
सुतं पततं
सुलभाः पुरुषा सुभाषितेन गीतेन
सुखं हि
सुखार्थी च
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१३
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सुहृदो ज्ञातयः सूर्य भर्तार
सूचिमुखे दुराचारे
सेतुं गत्वा
सेवया धन
सौमित्रिर्वदति
सौवर्णानि सरो
स्त्रीणां श्रीणां
स्वर्गस्तस्य
स्वश्लाघा स्त्रीणां चरित्रं
श्रीणां द्विगुण
स्वामिद्रोडी
स्वकार्यपर
स्वपतिं या
खीजातो दाम्भि
स्त्रीणां गुह्यं
स्रष्टा यन्न
स्त्रीचरित्रं प्रेम
स्थितिं नो रे
स्वगृहे पूज्यते
स्थानभ्रष्टा
स्वस्त्यस्तु
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१७९
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स्त्रीणां स्पर्शात
स्थान एव
स्पृशन्नपि गजो
स्वभावं नैव
हन्ता पलस्य
हंसा दूरनिवासिन्
हसन्तो हेलया
हरिहरचउराणण
हसन्ती पृथिवी
हस्तादपि न
हरेः पदाहति: इस्तमुत्क्षिप्य
हस्ती स्थूलतनु:
हस्तस्य भूषणं
हर्तुर्न गोचरं
हास्यादिषट्कं
हावो मुख
हितकर मूढ
मधेनुधरा
हे दाहि
हे सद्रत्न
हेलान्दोलित
हेलया राज
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