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अनिवार्य नहीं । मानव अपने ही अनुभव एव सूझ-बूझ से जो ज्ञान प्राप्त करता है, वही ज्ञान स्वत होने वाला जान कहलाता है और उसमे उपादान की ही मुख्यता रहती है। निमित्त वही कहलाता है जो उपादान के अनुरूप हो। उदाहरण के रूप में जैसे नेत्रज्योति जितने अश मे होती है उसके अनुरूप ही यदि चश्मा (उपनेत्र) हो तो वह देखने में सहायक होता है । न्यून-अधिक नम्बरो वाला चश्मा देखने में सहायक नही बन सकता। गुरु और शास्त्र ये सव जान की वाह्य सामग्रिया है-निमित्त हैं। जो ज्ञान किसी गुरु से उपदेश सुन कर या शास्त्र पढ कर होता है वह ज्ञान नैमित्तिक कहलाता है, अर्थात् वह ज्ञान किसी बाह्य निमित्त से होता है, अत वह ज्ञान परोपदिष्ट माना जाता है। जब तक उपादान कारण तैयार नही हो जाता, तव तक सभी निमित्त अकिचित्कर रहते हैं।
अवधि-नान, मन.पर्यव-ज्ञान और केवल जान इनके उत्पन्न होने मे वाह्य निमित्त की आवश्यकता नही होती, अत ये तीन ज्ञान स्वते ही उत्पन्न होते हैं, ये निमित्त-जन्य नहीं होते। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान मे दोनो कारण विद्यमान रहते है, अत वे स्वत भी होते हैं और वाह्य निमित्त से भी हुआ करते है । इन्द्रियों द्वारा जो जान उत्पन्न होता है, वह प्राय निमित्तजन्य ही होता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अन्तर्भाव परोक्ष प्रमाण मे होता है।
प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद है सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । केवलज्ञान सक्ल प्रत्यक्ष है और अवधिज्ञान तथा मन पर्यवज्ञान ये दोनो ज्ञान विकल प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष प्रमाण में उपादान की मुख्यत्ता होती है, निमित्त की गौणता, जब कि परोक्ष प्रमाण मे निमित्त की प्रधानता रहती है और उपादान कारण गौण रहता है।
[ योग : एक चिन्तन