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(ज) बहुजण - एक ही दोप की आलोचना बहुत गुरुप्रो के पास करना पालोचना दोष है । जिस दोप की आलोचना एक बार की जा चुकी है। उसकी प्रालोचना पुन करने की आवश्यकता नही होती, यदि की जाती है तो अवश्य ही उसके पीछे कोई कपटव्यवहार होता है।
(झ) अव्वत्त - जो प्रायश्चित्त-विधि का वेत्ता नही है, उसके पास आलोचना करना भी आलोचना-दोष है, इससे भी उसका शुद्धीकरण नहीं होने पाता।
(अ) तस्सेवी-जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन करने वाले के पास आलोचना करना आलोचनादोप है । जो स्वय दोषी है, वह दूसरो को प्रायश्चित्त देकर दोषो से मुक्त कैसे कर सकता है ? |
___ सत्य और निष्कपट हृदय से जो आलोचना की जाती है, उसके माध्यम से पता लग जाता है कि यह साधक किस प्राय. श्चित्त से शुद्ध हो सकता है ? गुरु करुणा के समुद्र होते है. वे इस लोक मे तथा परलोक मे सभी स्थानो पर शिष्य का हित ही सोचते है, वे शिष्य की उन्नति मे सहायक होते है। ___ शिप्य तीन तरह के होते हैं-एक वे जिन्हे गुरु को कुछ कहना नही पडता, अपितु आत्म-प्रेरणा से गुरु-प्राज्ञा का पालन करते है, ऐसे शिष्य सुशिष्य कहल ते हैं । जो कहने पर ही कार्य करने वाले है, जिन मे अपनी सूझ-बूझ नही ह ती, वे शिष्य कहे जाते है और जो न अपनी सूझ-बूझ से काम लेते है और न गुरु आदि के कहने पर ही कार्य करते हैं, वे कुशिष्य माने जाते हैं। इन मे से सुशिष्य सर्वाराधक होते हैं, शिष्य कुछ आराधक भी होते हैं और कुछ विराधक भी होते हैं, किन्तु कुशिष्य सर्वथा विराधक ही हुमा करते हैं । योग एक चिन्तन ।
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