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है- 'हे मन | तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर।'
अप्रमाद गुणनिधि है, गुणो का अक्षय भडार है। इसके रहते हए जीवन के क्षेत्र से दोष-अवगुण सदा के लिए विदा हो जाते है । सुखो की परम्परा बीच मे कही भी विच्छिन्न नही होने पाती। दुर्गतियो से सदा के लिए सवध टूट जाता है। अप्रमाद अानन्द का अजस्र स्रोत है और धर्म-ध्यान एव शुक्लध्यान का सहायक है। अप्रमाद की विद्यमानता मे अशुभ ध्यान करने का कभी अवसर ही नहीं आ पाता।
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[ योग . एक चिन्तन