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योगएकचिन्तन
बत्तीस योगों की विस्तृत व्याख्या
स
लेखक पजाब-प्रवर्तक उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र
सम्पादक श्री तिलकधर शास्त्री साहित्य-रत्न, साहित्यालकार
प्रकाशक
चार्य श्री आत्मा राम जैन प्रकाशन समिति
जैन स्थानक,लुधियाना
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x पुस्तक
योग एक चिन्तन x लेखक .
उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र * सम्पादक
श्री निलकधर शास्त्री प्रकाशक आचार्य श्री प्रात्माराम जैन प्रकागन ममिति जैन स्थानक लुधियाना
आत्म जैन प्रिटिंग प्रेम ३५० इण्डस्ट्रियल एरिया-ए लुधियाना-३
* संस्करण ।
प्रयम ( २३ सितम्बर १९७७ ) .
एक हजार ४ मूल्य ।
पाच रुपए
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योग एक चिन्तन **%XXXXXXXXXXXXXXXXXXX 3 जैन-धर्म-दिवाकर जैनागम-रत्नाकर आचार्य-सम्राट
श्रद्धेय श्री आत्माराम जी महाराज के शिष्य-रत्न
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महामहिम शासन-प्रभावक तरुण तपस्वी श्री खजान चन्द जी महाराज
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सविनय
समर्पित
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जिनके कृपा-प्रसाद को पाकर मैं विरक्ति के विमल मार्ग पर पहुंचा, जिनकी ज्ञान-गरिमा से मैं - स्वाध्यायशीलता के ' सुखद सदन में आसीन हमा जिनकी शोनस्विनी प्रतिमा ने मुझे योग मार्ग में प्रवृत्त किया उन्हीं परम श्रद्धेय रवर्गीय गुरुदेव श्री खजानचन्द जी महारान्त को सादर समर्पित
फूलचन्द्र श्रमण
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श्रद्धा-वन्दन
हे श्रमण - श्रेष्ठ ! विद्वद्वरेण्य ! मुनिराज सयमाधीश विभो ! योगेश । प्रवर्तक - पद - मण्डित । श्री फूलचन्द्र जी । परम प्रभो ।
हे अमर मुनीश्वर ! जन - जन के, शुभ भाव-पुष्प स्वीकार करे । हे महामहिम ! मेरे वन्दनकर स्वीकृत जग उद्धार करे । 'यह 'तिलक' चरण-अनुरागी है। शुभ हार्दिक श्रद्धा जागी है, श्रद्धा - वन्दन स्वीकार करे ! जिन - सस्कृति का शृंगार करे।
'तिलक xxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
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प्रकाशकीय
'प्राचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति' अनेक वर्षों मे स्वर्गीय आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज की हार्दिक अभिलाषा की पूर्ति के लिये प्रागमो का, जैन सस्कृति के विविध पक्षो पर प्रकाश डालने वाले मौलिक साहित्य का एव विविध स्तोत्रो आदि का साहित्य-प्रेमी दानवीरो के सहयोग से प्रकाशन कर रही है। यह पकाशन अपना विशेष महत्त्व रखते है, क्योकि इनमे स्वर्गीय आचार्य श्री की सरल एव सरस भाषा मे जन-जीवन के उद्धार के लिये उपयोगी ज्ञान-निधि सुरक्षित है।
लुधियाना का यह परम सौभाग्य है कि यहाँ पण्डित-रत्न श्री हेमचन्द्र जी महाराज, पजाव-प्रवर्तक उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र जी महाराज, एव करुणा-मूर्ति विद्वद्रत्न श्री रतन मुनि जी महाराज विराजमान होकर स्वर्गीय आचार्य श्री की ज्ञाननिधि को प्रकाशित करने की सवल प्रेरणा तो देते ही रहते है, साथ ही अपने चिन्तन-पुष्पो से समाज को लाभान्वित भी कर रहे है।
उपाध्याय श्री जी की लेखनी एक ऐसी स्रोत-स्थली है जहा से ज्ञान-गगा का पीयूप-प्रवाह निरन्तर प्रवाहित होकर जन-जन को अक्षय शान्ति प्रदान करता रहता है। वे अपनी जानमयी अभिव्यक्ति के द्वारा जैन साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे है । ___ "योग एक चिन्तन" यह एक सर्वथा अभिनव रचना है। इसमे उपाध्याय जी महाराज ने योग-साधना की पूर्णता के लिये जिन आवश्यक साधनो की अनिवार्यता है उनका विशद साङ्गोपाङ्ग योग एक चिन्तन ]
[ सात
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विवेचन किया है।
जहा यह ग्रन्थ योग-साधना के पथिक जिज्ञासुग्रो के लिये उपयोगी है वहा जैन सस्कृति का विवाद परिचय प्राप्त करने वालो के लिये भी अत्यन्त सहायक है।
उपाध्याय श्री जी तो स्वय महान् योगी हैं, अत उनकी लेखनी ने उन अनुभूतियो को विशेप रूप से व्यक्त किया है जो उन्होने स्वय इस मार्ग पर चलते हुए प्राप्त की हैं, चत. यह ग्रन्य योग-साधना के अनुभूत सत्यो की अभिव्यक्ति करने वाला एक ऐसा प्रकाग-दीप है जिम मे प्रत्येक व्यक्ति अभीप्ट प्रकाग प्राप्त कर सकता है।
समिति को सौभाग्य से श्री तिलकधर शास्त्री साहित्य-रत्न साहित्यालकार जैसे विद्वान् मिल गए है, उनकी विद्वत्ता एव कलात्मक प्रतिभा समिति के प्रकाशनो को सुन्दर रस दे रही है, अंत ममिति उनके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करती है।
अन्त में हम लुधियाना निवासी श्री रतनचन्द ओसवाल के सुपुत्र श्रीयुत थोपाल जी ओसवाल की धर्मपत्नी श्रीमती गकुन (कन्ता देवी) का हार्दिक धन्यवाद करते है जिनके द्वारा दिये गए अर्थ-सहयोग से यह पुस्तक प्रकाशित हो सकी है। हम आना करते है कि श्री रतनचन्द जी अोमवाल के परिवार की ओर से भविष्य मे भी हमे ऐसी रचनात्रो के प्रकागन के लिये सहयोग प्राप्त होता रहेगा। हम इन्हो गब्दों के माथ यह ग्रन्य पाठको की सेवा मे प्रस्तुत करते है।
निवेदक टी. आर. जैन, प्रधान राजकुमार जैन, मन्त्री आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकागन समिति,
जनस्थानक, लुधियाना।
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स्वकथ्य
योग-साधना के प्रति मेरा रुझान साधक जीवन के प्रथम चरण मे ही उत्पन्न हो गया था, क्योकि चित्त वृत्तियो का निरोध करके मैं अन्तर्जगत् के रहस्यो को जानना चाहता था, साधना भी बढती गई और जिज्ञासाओं का विस्तार भी होता गया ।
जिज्ञासा अपूर्ण रहे यह असह्य सा होता है, ग्रत मै जिज्ञासापूर्ति के लिये स्वाध्याय करता रहा, पतञ्जलि के योग दर्शन का आद्योपान्त मनन करते हुए तदनुसार कुछ करने का प्रयास भी किया, श्रद्धेय आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के चरणो में बैठ कर ध्यान-सम्बन्धी ग्रनेक जिज्ञासाओ की पूर्ति भी की, परन्तु जिज्ञासा अव भी प्रश्न चिन्ह को पकड़ कर मेरे सामने खडी रहती है । मैं भी उसके नव-नव समाधानो के ग्रन्वेपणार्थ यत्नशील रहता हू और यत्नशील रहूंगा ।
ममवाबाग सूत्र का अध्ययन करते हुए मैंने जव वत्ती योगो का नामोल्लेख देखा तो मेरे हृदय ने चिन्तन - सागर की तल गहराइयों को छूते हुए पतजलि के योग मार्ग और बत्तीस योगो के समन्वयात्मक अध्ययन से कुछ परितोष का अनुभव किया, जैसे-जैसे समन्वय के पथ पर मेरे चिन्तन की धारा बढ़ती गई वेमे-वैसे विश्वास होता गया कि महपि पतजलि ने प्रकारान्तर - गैली में से इन्ही बत्तीस योगो की व्याख्या करते हुए सूत्रचित्तवृत्तियो को निरुद्ध कर शान्ति प्राप्त करने के पथ का ही
निर्देश किया है ।
योग एक चिन्तन ]
May
[ तो
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तभी से मेरी यह भावना प्रवल हो उठी थी कि इन वत्तीम योगो की विस्तृत व्याख्या करु, किन्तु कार्य की कठिनता, समय के प्रभाव और अनेक ग्रन्तरायो के कारण यह कार्य 'कुछ विलम्ब से ही हो पाया है, फिर भी मुझे सन्तोप है कि अपने कथ्य एव मन्तव्य को जन-जन तक पहुंचाने की अपनी भावना को मैने साकार कर दिया है ।
विपय अत्यन्त गहन एवं विस्तृत था, फिर भी मैंने यथाशक्य यह प्रयास किया है कि विषय कही भी दुम्ह न रह जाए, साकेतिक भी न रह जाय और अस्पष्ट भी न रहे। इसी बात को लक्ष्य मे रख कर मैंने अपने कर्तव्य की पूर्ति कर दी है, पाठको ने यदि इस प्रयास से जानद्रुम का एक पुप्प भी प्राप्त कर लिया तो मैं अपने प्रयास को सफल समझू गा ।
- प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन कार्य में मुझे विद्वदुख्न श्री रतन मुनि जी महाराज द्वारा जो उचित सहयोग प्राप्त हुआ है उम के लिए मैं उनका हार्दिक धन्यवादी हूं ।
इस पुस्तक के सम्पादन मे 'आत्म- रश्मि के सम्पादक श्री तिलकधर शास्त्री का सहयोग प्रशस्त रहा है, उन्ही के श्रम से पुस्तक की साज-सज्जा भी मनोहारी वन पाई है । उनके लिये जो कहना चाहिये वह मेरा अन्तःकरण कर रहा है ।
फूलचन्द्र श्रमण
उपाध्याय
लुधियाना
२३ सितम्बर १६७७ भाद्रपद शुक्ला द्वादशी सं २०३४
Pech
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• श्री तिलकधर शास्त्री
योग एक चिन्तन : मेरी अनुभूति
"योग एक चिन्तन" जब यह गीर्षक मैंने पढा तो मैंने अपनी पूर्व धारणा के अनुसार यही समझा कि प्रस्तुत पुस्तक मे 'योगसाधना' कैसे की जाय ? इसका ही विशद विवेचन होगा, परन्तु जैसे ही "वत्तीसं जोग संगहा पण्णत्ता" पढ कर बत्तीस योगो के नाम पढे तो तुरन्त मेरो धारणा बदल गई और मै एक अन्य दृष्टिकोण लेकर पुस्तक का स्वाध्याय करने लगा। पढ़ते-पढते जहां पहुचा हू वह अत्यन्त अद्भुत है-अानन्दकारी है और जो अन्यत्र संक्षेप मे है यहां उसे विस्तार मे पाया और साथ ही सर्वत्र जो अनेय और अबूझ रहा वह यहा प्राकर नेय और स्पष्ट हो गया। ` 'योग' शब्द ने कव कहा से अर्थबोध की यात्रा प्रारम्भ की है ? और इस शब्द से किसने क्या समझा है ? यह कहना अत्यन्त कठिन है, क्यो.क व्यान-योग, कर्म-योग, हठ योग, अध्यात्म-योग साख्य योग, ज्ञान-योग आदि शब्दो मे योग शब्द अलग-अलग अर्थों का बोध करा रहा है। - - , “ योग शब्द के अर्थ जानने से पहले इसका इतिहास जानना आवश्यक होगा, किन्तु योग शब्द के अर्थ-ज्ञान के विना इतिहास का जानना असम्भव होगा, अत सर्वप्रथम योग शब्द के अर्थ पर थोडा विचार कर लेना चाहिये, जिससे पुस्तक का समग्र विषय वोध-गम्य हो सके। योग एक चिन्तन ]
[ग्यारह
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योग मन्द प्राय ध्यान-योग के अर्थ मे ही अधिकतर प्रयुन हुआ है। महपि पतञ्जलि का योग-दर्गन ध्यान-योग की ही आद्योपान्त व्याख्या है। पतञ्जलि ने योग शब्द का अर्थ करते हुए लिखा है-"योगश्चित्तवृत्ति-निरोध." अर्थात चिन की विचारघारायो को निरुद्ध कर देना ही योग है। योग की यह व्यास्या ईसा से दो सौ वर्ष पहले की गई थी, किन्तु ध्यानावस्थित माधको की अनेक मूर्तिया हडप्पा औरं-मोहनजोदडो से उपलब्ध हुई है, अत: जात होता है कि व्यान-योग की प्रक्रिया से उस काल का मानव भी परिचित हो चुका था जिसे आज के ऐतिहानिक एवं पुरातन्त्रवेत्ता प्रागैतिहासिक काल कहते है।
श्री कृष्ण का कान ईसा से ३००० वर्ष पूर्व माना गया है, कुछ ऐसे विद्वान् भी है जो श्रीकृष्ण को २२००० वर्ष पूर्व का महापुरुष स्वीकार करते है। उन्होंने गीता मे साक्ष्य योग कर्म-योग भक्ति-योग अदि शब्दो का उल्लेख किया है। मालूम होता है श्री कृष्ण के समय तक योग शब्द पर्याप्त प्रसिद्धि पा चुका था। श्री कृष्ण ने योग शब्द के मुन्यत दो अर्थ किए है-"योग. कर्मसु कौरालम्"-कर्म करने मे कुगलता ही योग है और "समत्व योग उच्यते'-समता की साधना ही योग है। . . - - श्री कृष्ण पर भगवान् नेमिनाथ का प्रमाव चाहे सर्वमान्य न हो, परन्तु जैन सस्कृति को अवश्य मान्य है, क्योकि समवायांग सूत्र मे प्रतिपादित "समदिट्ठी" शब्द उस समत्व का ही प्रतिपादक है जिसे श्री कृष्ण ने योग कहा है। - योग गब्द का कम-कौशल अर्थ भी जैन सस्कृति को मान्य प्रतीत होता है, क्यो क यहा मन, वचन और शरीर के कार्यव्यापारी को योग माना गया है। मन के कार्यव्यापार को, वचन वारह]
[ योग । एक चिन्त
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के कार्य-व्यापार को और काया के व्यापार को इस प्रकार अप्रमत्त होकर करना चाहिये जिससे कि उनके द्वारा पापकर्म मे प्रवृत्ति न हो सके। यही तो कर्म की कुशलता है। अत "कर्म कौशल" योग के इस अर्थ पर भी जैनत्व की छाप स्पष्ट है। पतंजलि के योगदर्शन पर जैनत्व की छाप
पतञ्जलि का चित्तवृत्तिनिरोध भी अन्तत. समाधिरूप ही तो है, क्योकि चित्तवृत्तियो के निरुद्ध होने पर. अन्तत चित्त देश विगेप मे वध जाता है, यही तो पतञ्जलि की धारणा है (देशबन्धश्चित्तस्य धारणा-३११) उस देश विशेप मे जब चित्त ध्येयमात्र पर स्थिर हो जाता है, तब उसे ध्यान कहा जाता है (तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् ३।२) और जब ध्यान ही ध्येय के रूप मे भासित होने लगता है उसे समाधि कहा जाता है (तदेवार्थमात्रनिर्भास समाधि ३१३) यह समाधि भी जैन दर्शन मे योग सजा प्राप्त करती है, अत समाधि को भी बत्तीस योगो मे स्थान दिया गया है।
योग शब्द का अर्थ "जोड" सर्व मान्य है। इस अर्थ की दृष्टि से यदि योग को जाना जाय तो हम कह सकते है कि योग के लिये दो का होना आवश्यक है, एक मे योग नही हो सकता, योग दो की ही अपेक्षा करता है। योग वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा चिन वृनियो को 'मन के व्यापारो को और शारीरिक चेष्टायो को बाहर से तोड कर आत्मा के साथ जोडा जाता है, इधर से तोडना और उधर जोडना योग का प्रधानतम लक्ष्य है। योग नीचे को छोड़ कर ऊपर से जोडता है, उस अवस्था मे पहुचा देता है जहा केवल ज्ञान मात्र गेप रह जाता है और कुछ योग 1 एक चिन्तन ]
[ तेरह
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चचता ही नहीं, न य और न ज्ञाता, केवल जान ही रह जाता है।
इस अवस्था में चित्तवृत्तिया तो रहती ही नहीं है, वे निन्द्र हो जाती है, अत केवल प्रात्मानुभूति ही शेष रह जाती है, इसीलिये अनेक विचारक योग को विचार न कह कर अनुभूति कहते हैं।
योग उस आध्यात्मिक प्रक्रिया को भी कहा जा सकता है जो योग को तोड देती है। केवल एक को रहने देती है। जैसे यदि कोई व्यक्ति धन को पाना चाहता है तो उसे लोभ कहा जाता है, लोभी का ध्यान सदा धन पर रहता है।
यदि कोई त्यागी वन को त्यागना चाहता है तो उसका ध्यान भी धन पर ही केन्द्रित रहता है, वह सदा अप्रमत्त भाव से धन से बचने की कोशिश करता रहता है । लोभी और त्यागी दोनो का ध्येय धन ही है। युद्ध-भूमि में योद्धा का ध्यान गत्र पर ही रहता है, त्यागी धन को शत्रु समझता है, अत उमसे बचने के लिये वह उस पर ही सावधानी से निगाह रखता है। योग के लिये निर्लोभता और त्याग (अलोभ और सवेग) शब्दो के प्रयोग का यही तात्पर्य है। योग लोभी के मन और धन के योग को समाप्त कर देता है। सच्चा योगी संचय और त्याग दोनो से मुक्त होकर स्व-स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। इसी को योगदर्शन मे सयम. कहा गया है । सयम मे ध्याता व्यान और व्येय की त्रिपुटी एक हो जाता है, धारणा ध्यान और समाधि मे एक रूपता हो जाती है (त्रयमेकत्र सयम. ३।४),
वस्तृत पतञ्जलि का योग-दर्शन जैन सस्कृति में प्रतिपादित
चौदह ]
[ योग एक चिन्तन
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वत्तीस यौगो की व्याख्या मात्र है। योग-दर्शन का विषय-प्रतिपादन इसका साक्षी है। योगावस्था मे क्या होता है ? पतंजलि उत्तर देते है-"तदा द्रष्टु स्वरूपेऽवस्थानम्-तव द्रष्टा अर्थात् प्रात्मा अपने स्वरूप मे अवस्थित हो जाता है । स्वरूपावस्थान ही तो जैन सस्कृति का प्रमुख स्वर है।
चित्त-वृत्ति यो के निरोध का उपाय क्या है ? पतजलि के शब्दो मे "अभ्यासवैराग्याभ्या तन्निरोध..(१।१२) । अभ्यास और वैराग्य से चित्तवृत्तियो का निरोध होता है। यह अभ्यास क्या है (तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास १ । १३)-यतना ही अभ्यास है, यह यतना शब्द और यतना की साधना की प्रमुखता जैन सस्कृति का ही उद्घोष है । 'वैराग्य' तो जिन-सस्कृति का आधार भूत तत्त्व है।
योग-दर्शन उस असम्प्रज्ञात समाधि को प्रमुखता देता है जिसमें आत्म-अवस्थिति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस असम्प्रजात समाधि की ओर यात्रा सवेग से प्रारम्भ होती है। सवेग जैन संस्कृति का अपना शब्द है । पताल भी कहते है तीव्रसवेगानामासन्न (११ २१) तीन सवेगवालो को असम्प्रज्ञात समाधि सुलभ, हो जाती है। ।
__ योग-दर्शन ने असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति के लिये 'ईश्वरप्रणिधानाद्वा' कह कर 'ईश्वर के ध्यान को कारण माना है, परन्तु कोई ईश्वर को ब्रह्मा, विष्णु यो शिव जैसा देवता न मान ले, यह सोचकर अंगले ही सूत्र में स्पष्टीकरण करते हुए पतञ्जलि कहते हैं-"क्लेश-कर्म-विपाकाशयरपरामृष्ट पुरुप- विशेप ईश्वर."-जो भी विशेष पुरुप-महापुरुप क्लेशो से दूर हो चुका है, कर्म और कर्म के सस्कारो से मुक्त हो चुका है वही ईश्वर है-यह-ईश्वर योग एक चिन्तन ]
[पन्द्रह
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जैन सस्कृति के 'सिहो' की अोर स्पष्ट संकेत कर रहा है।
इसी विपय को और स्पष्ट करते हुए योग-दगंन बहता है "तत्र निरतिशय सर्वनबीजम् (१२) ईश्वर मे निरतिशय ज्ञान है, जितना ज्ञान हो सकता है वह सब उसमे होता है, अत उमे सर्वन कहते है । क्या 'सर्वन' अरिहन्त का-तीर्थ हर का परिचायक प्रसिद्ध शब्द नही है।
'अन्तराय' यह जैन सम्कृति का जाना-पहचाना गई है । समाधि मे अन्तराय क्या है ? यह बताते हुए पतजलि ने .०वें सूत्र मे व्याधि, स्त्यान (कर्म-असामर्थ्य), सशय, प्रमाद, प्रालस्य अविरति, भ्रान्ति-दर्जन, अलब्ध भूमिकत्व (चिन की अस्थिरता) अनवस्थितत्त्व इन नी को अन्तराय अर्थात् विघ्न-कारक बताया है। 'योग एक चिन्तन का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि जैन सस्कृति ने इसी प्रकार के अनेक अवगुणो को साधना में विघ्न करने वाले कहा है।
'वीतराग-विपय वा चित्तम्"-इस सूत्र का 'वीतराग' शब्द जैन संस्कृति की ही तो देन है, क्योकि तीर्थङ्कर न राग मे रहते हैं, न विराग मे रहते है, वे दोनो से मुक्त होते हैं, अत उन्हे वीतराग कहा जाता है। वीतराग का ध्यान चित्त का प्रसादन करता है-उसमे साधना का उत्साह जागृत करता है, क्या यह जैन सस्कृति ही नही बोल रही है।
साधन-पाद में पतजलि ने योग की सिद्रि के लिये जो साधन वताए हैं वे हैं-'तप, स्वाध्याय, ईश्वर अर्थात् सिद्धो का ध्यान ।
द्वितीय पाद के तीसवे सूत्र में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन्हे यम कहा गया है और इकत्तीसवे सूत्र मे इन्हेसोलह]
[ योग : एक चिन्तन
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'एते जाति-देश-काल-समयानवच्छिन्ना सार्वभौमा महानतम" कह कर अहिंसा प्रादि को सार्वभौम महाव्रत कहा गया है और उन्हे सभी देशो सभी जातियो और सभी कालो के लिये पाराधनोय कहा है।
नियम के अन्तर्गत शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान को लिया गया है । ३३ वे सूत्र में हिंसा के कृत, कारित, अनुमोदित रूप की चर्चा की गई है । इत्यादि 'समस्त वर्णन इस बात को प्रमाणित करता है कि पतजलि योग के क्षेत्र मे भगवान महावीर से तीन सौ वर्ष बाद उनकी शब्दावली और उनको ध्यानप्रक्रिया से प्रभावित हुए और उन्होने उन्ही की साधना-पद्धति का आश्रय लेकर योग-दर्शन की रचना की।
प्रस्तुत पुस्तक मे उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र जी महाराज ने बत्तीस योगो की जो क्रमबद्ध व्याख्या की है वह व्याख्या योगदर्शन की गैली मे दृष्टिगोचर होती है, अत जो साधक योगी वनना चाहता है, उसके लिये प्रस्तुत पुस्तक का क्रमबद्ध स्वाध्याय उपयोगी होगा यह निश्चित है । ध्यान-योग
पतञ्जलि का योग-दर्शन ध्यानयोग का समग्र रूप है। ध्यान साधना के क्षेत्र का प्राण है। कोई भी साधक इसके विना साधना मार्ग पर सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। विश्व में जितने भी अध्यात्म का आधार लेकर चलने वाले सम्प्रदाय है, उनमे अनेक सैद्धान्तिक मत-भेद हैं, किन्तु ध्यान मे कही किसी का कोई मतभेद नही है। सभी धर्म-सम्प्रदायो को ध्यान मान्य है।
, यह विकासशील' मानव जैसे-जैसे वाह्य ससार मे बढता योग एक चिन्तन]
[सत्रह
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गया वैसे वैसे वह अन्तर से दूर हटता गया है। यह आत्मा को पीछे छोड कर वहत आगे बढ गया है। अब वह वापिस लौटना चाहता है-प्रतिक्रमण चाहता है, परन्तु प्रतिक्रमण उमे कोन सिखाए ? प्रतिक्रमण तो जन सस्कृति के सिवा अन्यत्र कही है ही नही । प्रतिक्रमण की पूर्णता ध्यान के विना नही हो सकती, क्योकि ध्यान अन्दर की गहराइयो मे ले जाने की सफल प्रक्रिया है। जो वृक्ष बहुत ऊचा उठना चाहता है उसे अपनी जडे पृथ्वी के भीतर -बहुत गहरे ले जानी होती हैं, जिम वृक्ष की जड़े जितनी गहरे मे जाएगी वह उतना ही अधिक आकाश मे ऊचा उठ सकेगा।
मनुष्य भी यदि ऊपर उठना चाहेगा तो उसे ध्यान के द्वारा अन्तर की गहराइयों से सम्बन्ध जोडना होगा, तभी वह सिद्धत्व की-उचाइयो तक पहुंचने का अधिकारी बन सकता है। यही कारण है कि ध्यानयोग को यहा प्रमुखता दी गई है।
वस्तुत ध्यान मानव का स्व-भाव है, इससे मनुप्य को 'होने' का . अपने अस्तित्व को जानने का सुख प्राप्त होता है, किन्तु व्यान ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसे करके ही जाना जा सकता है, इसे जानकर किया नहीं जा सकता।
विश्व के सभी सम्प्रदायो ने जो ध्यान की विधिया बताई है उनकी सख्या ११२ वताई गई है। एक सौ बारह ध्यान के विशेष प्रकार हैं। देश कोल एव पात्र की योग्यता को देखकर वे शिष्यो को सिखाए जाते हैं।
भगवान बुद्ध ने योग के स्थान पर समाधि शब्द का प्रयोग किया है और उनकी दृष्टि मे हृदय का सशय-रहित होना और मन, वचन एव काया का सन्तुलन ही योग अथवा ध्यान है। मन, वचन और काया का सन्तुलन होने पर ही चित्त-स्थैर्य प्राप्त होता अठारह ।
[योग - एक चिन्तन
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है और चित्त की स्थिरता मे ही समाधि है - आत्म-स्वरूपअवस्थिति है ।
योग-दर्शन जिसे चिंति - शक्ति कहता है जैन संस्कृति मे वही श्रात्मा है, योग-दर्शन उसे अप्रतिसक्रमा अर्थात् परिणाम-रहित कहता है। जैन दर्शन-भी ग्रात्मा को अपरिणामी मानता है, अत ध्यानावस्था मे आत्म चिन्तन की ही प्रधानता रहती है ।
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जैन दर्शन का वैशिष्ट्य -
योग-दर्शन मे कही भी ध्यान के भेदो का वर्णन नहीं किया गया । जैन दर्शन ने ही उसे चार भागो मे विभक्त किया है । जैसे कि श्राव्यान, रौद्र ध्यान, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान । ये शब्द इतने मनोवैज्ञानिक एव अध्यात्म-पथ प्रदर्शक है कि इनके अपनाए विना पतजलि भी नही रह सके । उन्होने इन्ही शब्दो को कुछ परिवर्तन के साथ अपनाया है। आर्तध्यान और रौद्र व्यान, अशुभ ध्यान हैं, प्रत इन्हे योगदर्शन कृष्ण कहता है और धर्म- ध्यान और शुक्ल ध्यान शुभ है इन्हे शुक्ल कहा गया है और आत्मा को प्रशुक्ल कृष्ण कहा गया है । (योग ० ४।७)
योगदर्शन मे ध्यान की विस्तृत परिभाषाएं है, उसके क्रमिक विकास पर अच्छा प्रकाश डाला गया है, किन्तु ध्येयस्थिरता के लिये ध्येय का विवेचन नगण्य सा रहा है। योगी
ध्यान की 'एकतानता तक पहुचने के लिये क्या करे ? इसका विवेचन वहां सामान्य सा ही है - जैसे प्रणव अर्थात् ॐकार के ध्यान के साथ "तज्जुपस्तदर्थ - मावनम् ” ( योग० ११२८) कह कर 'ॐ के जप और अर्थ की भावना भाने के लिये कहा गया है, किन्तु इतने मात्र से ध्यान की एकतानता असम्भव है ।
"
हेमचन्द्राचार्य जी ने भी अपने योगशास्त्र मे इस विषय पर
योग : एक चिन्तन ]
[ उन्नीस
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विशेष प्रकाश नही अला, नन्होंने भी ध्यान ना पहनने के साधना-मार्ग का विस्तृत विवेचन किया है किन्तु ध्यान की एकतानता के लिये कुछ प्रदगित नहीं दिया।
प्रस्तुत पुस्तक मे उपाध्याय श्री श्रमण जी महाराज ने ध्यान की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन करते हा ध्येय की भी विस्तन व्याख्या की है। पिण्डाय धर्म ध्यान, पदम्य धर्म-ध्यान, पस्थधर्म-ध्यान और रूपातीत-चम-ध्यान की व्यारया के माध्यम ने ध्यान की विधि का जो वर्णन किया है उसको जानकर कोई भी साधक ध्यान का पूर्ण अभ्यास कर सकता है। शुक्ल धान की व्याख्या में योगदर्शन के कैवल्यपाद का समस्त विपय क्षेत्र मे बुद्धिगम्य हो जाता है। योगदर्शन की सविता-समाधि और अवितर्क-समाधि चाहे समझ मे न पाए, किन्तु प्रस्तुत पुस्तक के के द्वारा शुक्लध्यान के अन्तर्गत पृथक्त्व-सविचारी, पृथक्त्वअविचारी, सूक्ष्म-क्रिया-अनिवर्ती, समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपातीइन चार पदो की व्याख्या समाधि को महज गम्य बना देती है।
तन्त्रशास्त्र मे ध्यान के चार भेदो का वणन किया गया हैवैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा।
वैखरी-अन्तर के आनन्द को वाणी द्वारा प्रकट करना । मध्यमा-अन्तर के प्रानन्द को कुछ वाणी द्वारा व्यक्त
करना और कुछ भीतर ही रहने देना। पश्यन्ती - यही ध्यान की अवस्था है इममे योगी उसे देखता
है जो उसका अपना स्वरूप है, जिस स्वरूप से भ्रष्ट होकर वह बाह्य ससार मे उलझ गया है, यही से चेतना की प्रकाशमयी धारा फूटकर आत्मा
को सर्वज्ञता की ओर उन्मुख करती है ।बीस]
[ योग : एक चिन्तन
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- पररा- यह वही अवस्था है जो सबसे परे है, जिसके
आगे कुछ नही, सब पोछे ही छूट जाता है, कषायमुक्त, अयोगी केवली अवस्था ही ध्यान की परा
अवस्था है। मैं समझता ह तन्त्र भी जैन दर्शन से प्रभावित हा होगा। उसमे नौवे गुणस्थान से लेकर तेरहवे गुण स्थान तक की स्थितियो को ही वैखरी आदि नाम देकर ध्यान का विवेचन किया गया है। - वस्तुत. 'योग' अनेक साधनायो का जोड है। इसमे उन अनेक साधनामो का ही बत्तीस योगो के विवेचन के रूप मे ऋमिक विकास प्रदर्शित किया गया है। योगासन- यद्यपि नाथ योगियो ने हठयोग को अपनाते हुए चौरासी आसनो का वर्णन किया है, जैसे पद्मासन, भद्रासन, शवासन, हलासन, उत्तानपाद आसन, वीरासन, स्वस्तिकासन, गोदुहासन, कुक्कुटासन, हस्तिनिपन्दन आदि । नाथो ने आत्मतत्त्व की अपेक्षा शरीर साधना को विशेष महत्त्व दिया है, किन्तु यह स्मरणीय है कि आत्मतत्त्व-शरीर से सर्वथा भिन्न है, शरीर निवास हैं।
और प्रात्मा निवासी है। निवासी निवास चाहता है, वह झोपड़ी मे, कच्चे मकान मे, हवेली मे, कोठी मे, महल मे जहा भी उसे सुख मिले वही रह सकता है । वस्तुत. मन.विपरीतता से ही प्रसन्न होता है, झोपडी वाला महल मे जाकर प्रसन्न होता है, किन्तु महलो वाले राजा-महाराजा झोपडियो मे जाकर साधना करते देखे जाते हैं। वनवासी नगरो मे आकर और नगरवासी वनो मे जाकर सुख की अनुभूति करते है । वस्तुत सुख न महल मे है, न योग एक चिन्तन ]
[ इक्कीस
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झोपडी में है, न नगर मे है, न वन मे है। सुख की प्रतीति तो बदलाव मे होती है।
शरीर से सम्बन्ध तोडकर आत्मा से सम्बन्ध जोडने मे योग की पूर्णता है, जव योग शरीर से सम्बन्ध ही तोड़ देता है तो उसे शरीर की अपेक्षा ही नहीं रह जातो, फिर शारीरिक मुद्रायो की-यासनो की वह अपेक्षा क्यो रखेगा ? जान की प्राप्ति आसनो पर ही निर्भर होती तो वह सरकसवालो को शीघ्र प्राप्त हो जाता, क्योकि वहा एक ही कलाकार अनेक असाध्य पासनो का प्रदर्शन करता है।
तीर्थड्रो और महा साधको ने विभिन्न आसनो में बैठकर ज्ञानोपलब्धि की है। भगवान महावीर गोबुहासन मे बैठ कर ज्ञान प्राप्त करते हैं । गजसुकुमाल कायोत्सर्ग मुद्रा मे जान प्राप्त करते हैं । वस्तुत 'पासन' का कोई महत्व नही है। इसीलिये पतञ्जलि ने कहा "तत्र स्थिर सुखमासनम्' -जिसमे शरीर सुखपूर्वक अवस्थिति प्राप्त करे वही आसन है।
यही कारण है पतञ्जलि ने योगासनो की व्याख्या नहीं की। योगनिष्ठ श्री श्रमण जी महाराज ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ मे आसनो को महत्व नहीं दिया, उसका वर्णन आवश्यक नही समझा।
__ उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र जी स्वय योगी है, योगनिष्ठ महापुरुप है, योग-साधना उनकी अन्त -अनुभूति है, उसी अनुभूति को उन्होने शब्दात्मक रूप देकर साधको और जैन सस्कृति के जिज्ञासुमो पर महान् उपकार किया है। उनका यह उपकार सर्व-जन-मगलकारी हो यही मेरी भावना है।
बाईस]
[ योग . एक चिन्तन
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(क) बत्तीस योग (ख) योग-प्रवेश १ आलोचना २ निरवलावे निरपलाप ३. दृढधर्मता ४ अनिश्रितोपंधान ५ शिक्षा ६. निष्प्रतिकर्मता ७ अज्ञातता ८ अलोभ ह तितिक्षा
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योग एक चिन्तन ]
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सर १.
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१० पाव ११ गुचि १२ सम्यरष्टि १३ ममाधि १४ प्राचार १५ विनयोपेत १६ वृतिमति १७ सवेग १८ प्रणिधि १६ मुविधि २० सवर २१ आत्म-दोपोपसहार २२ सर्व-काम विरक्तता २३ मूलगुण-प्रत्याख्यान २४ उत्तरगुण-प्रत्याख्यान
१३५ २५ व्युत्सर्ग
१५० २६ अप्रमाद २७ लबालव २८ व्यान-सवर-योग
१६७ २९. उदय मारणान्तिक १६५ ३० सग-परित्याग ३१ प्रायश्चित्त-करण
२०० ३२ मारणान्तिक वाराधना । २०८ (क) परिशिष्ट (मानव-धर्म) (ख) दैवी सम्पत्ति
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चौबीस
योग एक चिन्तन
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जैन-धर्म-दिवाकर पंजाब प्रवर्तक उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र जी महाराज
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नमोऽन्य णं समणम्स भगवमो महावीरस्स
योग : एक चिन्तन
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बत्तीस जोग-संगहा पण्णत्ता, तं जहा :आलोयण निरवलावे, आवईस डढधम्मया । अणिस्सिओवहाणे य, सिक्खा निप्पडिकम्मया ।।१।। अण्णायया अलोभे य, तितिक्खा अज्जवे सुई। सम्मदिट्टी समाही य, आयारे विणओवेए ।।२।। घिइमई य सवेगे, पणिही सुविहि-सवरे । अत्तदोसोव - सहारे, सव्वकाम-विरत्तया ॥३॥ पच्चक्खाणे विउसग्गे, अप्पमादे लवालवे । झाण-सवर-जोगे य, उदय मरणतिए ॥४॥ सगाण च परिणाया, पायच्छित्त करणे वि य। आराहणाए मरणते, बत्तीस जोग - सगहा ॥५॥
(समवायाङ्ग सूत्र, बत्तीसवां समवाय) योग - एक चिन्तन ]
[१
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4486 +0000 बत्तीस योग 1600.0040406
उपर्युक्त पाच गाथाम्रो का सक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है जैसे कि :१ शिप्य द्वारा गुरु के समक्ष अपने दोपो को निवेदन करना। २ शिष्य द्वारा आलोचित दोषों को किसी के समक्ष प्रकट न
करना। ३ आपत्ति के समय धर्म मे दृढता रखना। ४ बिना किसी सहायक के तप करना या केवल निर्जरा के उद्देश्य
से तप करना। ५ आगमो का अध्ययन और अध्यापन या सयम-पालन को रीति
सीखना। ६ शरीर की सार-संभाल नही करना । ७. अपनी तप. साधना को गुप्त रखना। ८. किसी के द्वारा दिये गए प्रलोभन मे न आना। ६ परीषह-कष्ट आदि सहन करने का अभ्यास करना। १० मन, वाणी और काया के व्यापारो मे एकरूपता रखना। ११ नुचि अर्थात् सत्य और सयम को अपनाना। १२. सम्यग्दर्शन की विद्धि के लिये प्रयास करना।
[,योग - एक चिन्तन
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१३ शरीर को स्वस्थ, वाणी को पवित्र और मन को एकाग्र
रखना । १४ नि गल्य होकर पांच प्राचारो का पालन करना । १५ विनीत बनना-मान रहित होना। १६ सब तरह की दीनता से रहित होकर धैर्य-सम्पन्न होना ही
वृति-मति है। १७ कर्म-बन्धन से मुक्त होने की अभिलाषा रखना। १८ सयम और तप मे कपट न करना। १६. विधि-पूर्वक सद्-अनुष्ठान करना। २०. सवर अर्थात् सभी पाश्रवो का निरोध करना। २१ आत्मगत दोपो को दूर करने का प्रयास करना। २२ इन्द्रियो के सभी विपयो से विमुख होना, अर्थात् सर्व-काम
विरक्तता को जीवन मे उतारना। . २३ मूलगुण-प्रत्यास्यान अर्थात् जिस त्याग से मूलगुण विकसित
हो ऐसा माचरण करना।
२४. उत्तरगुण प्रत्याख्यान, अर्थात् उत्तरगुण के वधिक दोपो का
त्याग करना।
२५ व्युत्सर्ग अर्थात् कायोत्सर्ग का अभ्यास करना । २६. प्राच्यात्मिक साधना मे क्षण मात्र भी प्रमाद न करना । २७ जीवन के प्रत्येक क्षण मे समाचारी का पालन करना। २८. धर्म-ध्यान द्वारा योगो का निरोध करना, ध्यान सवर-योग है। योग . एक चिन्तन
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२६ मृत्यु के निकट पाने पर भी मृत्यु-भय से क्षुब्ध न होना।। ३० सग-त्याग, अर्थात् जिन कारणों से रागद्वेप उत्पन्न हो उन ____ कारणो का त्याग करना। ३१ किसी भी छोटे-बड़े दोप की निवृत्ति के लिए प्रायश्चित्त
करना। ३२ शरीर और कषायो को क्षीण करने के लिये सलेखना एव
सथारा करना।
समवायाङ्ग-सूत्र मे उपयुक्त वत्तीस योगो का निर्देश किया गया है। हम आगामी अध्यायो मे इन बत्तीस योगो की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।
[ योग एक चिन्तन
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योग-प्रवेश
4666666 जैन दर्शन वह नन्दन-वन है जिसमे विहरण और विचरण करने से मानव की सभो भ्रान्तिया दूर हो कर जान-पिपासा शान्त हो जाती है। जैसे सूर्य के उदित होने पर अन्धकार स्वत ही नष्ट हो जाता है, वैसे ही इस नन्दन-वन मे पहुचकर सभी शकाए अनायास ही निर्मूल हो जाती हैं।
__ आत्मा मे अनन्त ज्ञान है, उसे जानावरणीय कर्म-प्रकृतियो ने ढाक रखा है। ज्ञानावरणीय कर्म का जितने-जितने अंश मे क्षयोपशम होता जाता है, उतना-उतना ज्ञान विकसित होता जाता है । जो ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है एव निश्चयात्मक है, वही ज्ञान प्रामाणिक माना जाता है। जैसे दीपक या सूर्य को देखने के लिये किसी अन्य दीपक या सूर्य की प्रावश्यकता नहीं रहती, दीपक और सूर्य स्वय प्रकाशमान तो है ही, साथ ही वे दूसरे पदार्थों को भी प्रकाशित करते हैं। वैसे ही ज्ञानी प्रात्मतत्त्व को तो जान ही लेता है साथ ही वह अन्य लोगो को भी ज्ञानालोक से आलोकित कर देता है। ___मानव को दो प्रकार से ज्ञान की प्राप्ति होती है, स्वत , और सन्तो-एव गुरुजनो के उपदेश से । ज्ञान-प्राप्ति के उपादान और निमित्त ये दो कारण सहायक माने गए है। इनमे ज्ञान-प्राप्ति के ' लिये उपादान कारण का होना अनिवार्य है, किन्तु निमित्त का होना योग एक चिन्तन ]
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अनिवार्य नहीं । मानव अपने ही अनुभव एव सूझ-बूझ से जो ज्ञान प्राप्त करता है, वही ज्ञान स्वत होने वाला जान कहलाता है और उसमे उपादान की ही मुख्यता रहती है। निमित्त वही कहलाता है जो उपादान के अनुरूप हो। उदाहरण के रूप में जैसे नेत्रज्योति जितने अश मे होती है उसके अनुरूप ही यदि चश्मा (उपनेत्र) हो तो वह देखने में सहायक होता है । न्यून-अधिक नम्बरो वाला चश्मा देखने में सहायक नही बन सकता। गुरु और शास्त्र ये सव जान की वाह्य सामग्रिया है-निमित्त हैं। जो ज्ञान किसी गुरु से उपदेश सुन कर या शास्त्र पढ कर होता है वह ज्ञान नैमित्तिक कहलाता है, अर्थात् वह ज्ञान किसी बाह्य निमित्त से होता है, अत वह ज्ञान परोपदिष्ट माना जाता है। जब तक उपादान कारण तैयार नही हो जाता, तव तक सभी निमित्त अकिचित्कर रहते हैं।
अवधि-नान, मन.पर्यव-ज्ञान और केवल जान इनके उत्पन्न होने मे वाह्य निमित्त की आवश्यकता नही होती, अत ये तीन ज्ञान स्वते ही उत्पन्न होते हैं, ये निमित्त-जन्य नहीं होते। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान मे दोनो कारण विद्यमान रहते है, अत वे स्वत भी होते हैं और वाह्य निमित्त से भी हुआ करते है । इन्द्रियों द्वारा जो जान उत्पन्न होता है, वह प्राय निमित्तजन्य ही होता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अन्तर्भाव परोक्ष प्रमाण मे होता है।
प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद है सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष । केवलज्ञान सक्ल प्रत्यक्ष है और अवधिज्ञान तथा मन पर्यवज्ञान ये दोनो ज्ञान विकल प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष प्रमाण में उपादान की मुख्यत्ता होती है, निमित्त की गौणता, जब कि परोक्ष प्रमाण मे निमित्त की प्रधानता रहती है और उपादान कारण गौण रहता है।
[ योग : एक चिन्तन
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__ सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान हुया करता है, सम्यग्ज्ञान वही है जो यथार्थ एव स्थ-पर के लिए हितकर एव श्रेयस्कर होता है, वह ज्ञान ज्ञानी को ससार और ससार मे आवागमन के सभी कारणों से बचाता है, मोक्ष और मोक्ष के साधनो मे प्रवृत्ति करोता है। इसी कारण उस ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा जाता है।
सम्यग्ज्ञान होने पर ही सम्यक चारित्र की आराधना की जाती है, इस सम्यक् चारित्र का अंतर्भाव योग मे ही हो जाता है।
यद्यपि योग शब्द अनेक अर्थो का बोधक है जैसे कि गणित मे दो से अधिक राशियो के जोड को योग कहा जाता है, ज्योतिष-शास्त्र मे नक्षत्र एव राशि आदि की विशेष फलदायिनी युति ही योग है । तिथि-वार और नक्षत्र के मेल से प्रानन्द आदि योगो का होना योग माना जाता है। किसी शुभ काल के लिए भी योग शब्द का प्रयोग होता है। अनेक औषधियो के समिश्रण की विधि को भी योग कहते हैं। मन, वचन और काया की शुभ या अशुभ प्रवृत्ति को भी जैन परिभापा मे योग कहा जाता है, परन्तु यहा योग शब्द का इष्ट अर्थ सम्यक् चारित्र ही है।
यात्म-कल्याण के जितने भी सफल साधन है वे सब योग हैं । जिस ध्यान द्वारा ध्याता का सवन्ध ध्येय के साथ जुड़ जाए वह योग है, अर्थात् चित्त को एकाग्र करने के सभी विधि विधान योग हैं, अर्थात् कर्म-वध से मुक्त होने के जितने भी विधि-विधान है उन सबका अन्तर्भाव योग मे ही हो जाता है। ऐसे विधि-विधानो की सख्या वत्तीस निर्धारित की गई है । इसी कारण उन्हे द्वात्रिंशत्योग-सग्रह कहा गया है। साधना जीवन की वह मस्ती है जिस मे भौतिक सुख-दु ख का भान ही नही रहता । मन जब योग के केन्द्र मे पहुच जाता है तब मन मे उत्पन्न होने वाले सभी योग एक चिन्तन
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विकार और विचार स्वत ही लुप्त होने लगते है । मन और इन्द्रियां स्वयमेव श्रात्मा के वशीभूत हो जाती हैं । ज्ञान का प्रखण्ड प्रकाश पुज सदा के लिए जगमगा उठता है, श्रात्मा सव तरह से कृतकृत्य होकर परमात्म-पद को प्राप्त कर लेता है, फिर उस के लिये कुछ प्राप्त करना शेष नही रह जाता। वह अपूर्ण से पूर्ण वन जाता है, उसकी चेतना और ग्रानन्द ये दोनो ससीम से असीम वन जाते हैं । इतना ही नही आत्मा के सभी गुण असीम हो उठते है ।
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[ योग : एक चिन्तन
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१. श्रालोचना
१ पालोचना- उपर्युक्त बत्तीस योगों मे सब से पहला योग है-आलोयणा-आलोचना। आलोचना गब्द का शाब्दिक अर्थ है चारो ओर अच्छी प्रकार देखना, अर्थात् किसी वस्तु के गुण-दोषो पर विचार करना या उनका निरूपण करना। इसका अर्थ बतलाना' भी है, अतएव प्रायश्चित्त के लिए अपने द्वारा किए हुए दोषो को निष्कपट भाव से गुरु के समक्ष बतलाना आलोचना कहलाती है। माया से सभी दोप छिपाये जाते हैं और निष्कपटता से उन्हे प्रकट किया जाता है। जब कोई भी वस्तु किसी दोष से दूषित हो जाती है, तब उसका मूल्य गिर जाता है, वैसे ही जब किसी साधक की साधना दोपो से दूषित हो जाती है तब उसकी साधना का स्तर भी गिर जाता है।
दोष को शास्त्रीय भाषा मे प्रतिसेवना भी कहते है। दोष कृत भी होते है और अकृत भी । हीरे, जवाहरात, मणि-मोती आदि पदार्थो मे जो दोष पाया जाता है वह अकृत दोष है । साधको मे कुछ जन्मजात दोप होते हैं और कुछ कृत दोष भी होते हैं, किन्तु . प्रतिसेवना त की ही होती है अकृत की नहीं, क्योकि प्रतिसेवना का अर्थ है-निषिद्ध वस्तु का सेवन या प्राज्ञा-विरुद्ध कार्य करना । कोई भी साधक अपनी साधना को दूषित करने के लिए तैयार नहीं होता, प्रत्येक दृष्टि से वह अपनी साधना को शुद्ध रखने के योग , एक चिन्तन ]
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लिए प्रयास करता है, किन्तु कभी-कभी उसके सामने कुछ ऐसी विवशताए एव परिस्थितिया आ जाती है जिनसे साधक की साधना प्रतिसेवना के सामने घुटने टेक देती है। प्रतिसेवना के मूल कारण दस है जैसे कि
(क) दर्प-अभिमान के वशीभूत होकर अपने साधना-पथ के नियम-उपनियमो की उपेक्षा करना एव निपिद्ध कार्य करना, दर्पप्रतिसेवना है। इससे झूठ भी वोला जा सकता है, किसी को पीडित भी किया जा सकता है तथा किसी पूज्य की अाशातना भी की जा सकती है।
(ख) प्रमाद-नशीली वस्तुओं का उपयोग करना, विलासता से, विकथा करने से, कपाय भाव से, अतिनिद्रा से, वर्म-निरपेक्ष जीवन से, असावधानी से, अयतना प्रादि से जो दोप लगते हैं उनका समावेश प्रमाद मे हो ही जाता है। प्रमाद में कोई भी महाव्रत सुरक्षित नहीं रह पाता । प्रमाद सयम को तो दूपित करता ही है, साथ ही ज्ञान एव दर्शन को भी दूपित कर देता है। इसी को प्रमाद-प्रतिसेवना कहा गया है ।
(ग) अनाभोग-अनजाने मे, विना उपयोग के जिस दोप का सेवन किया जाय वह अनाभोग प्रतिसेवना है। जिस दोप का जान साधक को न हो पर वह हो जाय तो वह दोप इसी कोटि मे समाविष्ट होता है।
(घ) प्रातर-जब कोई साधक किसी पीड़ा एव विषम परिस्थिति से अधीर हो जाता है, तव उसे अातुर कहा जाता है। प्रत्येक पातुर की स्थिति भिन्न हुआ करती है। जैसे कि कामातुर व्यक्ति मे न किसी का भय होता है और न लज्जा ही, चिन्तातुर
१. निद्द च न वहुमण्णेज्जा। १०]
[योग एक चिन्तन -
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को न सुख है न निद्रा है, जो अर्थातुर है वह न बन्चु की परवाह करता है और न मित्र की, जो क्षुधातुर है उसका गरीर शिथिल और विवेक लुप्त हो जाता है और उसकी शक्ति क्षीण पड जाती है। अभिप्राय यह कि किसी भी तरह की प्राधि-व्याधि से व्यथित व्यक्ति आतुर कहलाता है ।
(ड) आपत्ति-प्रापत्ति चार प्रकार की होती है-द्रव्यापत्ति, क्षेत्रापत्ति, कालापत्ति और भावापत्ति ।
प्रासुक एपणीय एव जीवनोपयोगी पात्र, वस्त्र, एव प्रावास आदि का न मिलना द्रव्यापत्ति है । निर्धन व्यक्ति द्रव्य के अभाव में तरह-तरह के दोपो का सेवन करते हुए देखे जाते हैं। ___ जो भूमि-भाग परीपह एव उपसर्गों से घिरा हो, जगली जानवरो से तथा डाकू-चोरो से व्याप्त हो, ऐसे भयकर स्थानो मे गतिस्थिति दोनो ही क्षेत्रापत्ति हैं । देवाधिष्ठित स्थानविशेष भी इसी मे समाविष्ट है।
मन का अस्थिर एव आकुल रहना, कि कर्तव्य-विमूढता की स्थिति उत्पन्न हो जाना एव आर्तध्यान तथा रौद्र-ध्यान करते हुए आकुल होना भावापत्ति है।
इन आपत्तियो के उपस्थित होने पर साधक अपनी साधना से फिसल जाता है, नियम-उपनियमो की विराधना करने लग जाता है।
(च) संकीर्ण-प्रतिसेवना-जिस क्षेत्र मे चार पाच साधुओ का भली-भान्ति निर्वाह हो सकता हो, उसमे वीस-तीस साधुओ का आगमन हो जाए तो सकीर्ण दोष उत्पन्न हो जाता है । वहां आहारपानी के वियालीस दोष टालने अति कठिन हो जाते है । प्राधाकर्म एव औद्देशिक आदि अनेक दोषो के होने की सम्भावना हो जाती योग एक चिन्तन
[ ११
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है, ऐसी पवित्र दृष्टि रखने वाला साधक ही दर्गन-सम्पन्न कहलाता है। __ (च) चारित्र-सम्पन्न-उत्तम चारित्र वाला साधक अपने चारित्र को शुद्ध रखने के लिए दोषो की आलोचना करने हेतु स्वत ही प्रस्तुत रहता है। वह सर्वदा ऐसा आचरण करता है जिससे उसकी साधना सर्वथा शुद्ध एव पवित्र रहे।
(छ) क्षान्त-इसका अर्थ है क्षमावान् या शान्तिमान् ।। किसी दोष के अभिव्यक्त होने पर जब गुरुजन उपालम्भ या भर्त्सना देते है तव कोत्र को न उभरने देना-शात चित्त रहना, पालोचना के द्वारा शुद्धीकरण कर लेना, वह अपना कर्तव्य मानता है। शान्त साधक ही साधना-मार्ग पर प्रगति कर सकता है।
(ज) दान्त-दान्त का अर्थ है जितेन्द्रिय । जितेन्द्रिय व्यक्ति ही मालोचना कर सकता है।
(झ) अमायो-निष्कपट व्यक्ति अनजाने मे किए हए अपने पाप कृत्य को बिना छिपाए प्रकट करते और सरल हृदय से आलोचना करके शुद्ध हो जाता है।
(अ) अपश्चात्तापी-आलोचना करने पर जो साधक पालोचना-जन्य पीडा से व्याकुल होकर कभी पश्चाताप नहीं करता, वही अपने सयम की शुद्धि कर सकता है।
आलोचना किसके पास करनी चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिये शास्त्र कारो ने अलोचना सुनने योग्य महापुरुष की परख के लिये उसमे दस गुणो का होना अनिवार्य माना है। वे विशेष दस गुण इस प्रकार हैं१४]
[ योग : एक चिन्तन
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(क) आचारवान्-लोक-कल्याण-कारी एवं आत्मोत्थान मे सहायक उस आचरण को प्राचार कहा जाता है, जो महापुरुपो द्वारा सेवित हो और गास्त्र-मर्यादा के अनुकूल हो । आचार का पालन समग्र रूप से होना चाहिये आशिक रूप से नहीं।
चार पाच प्रकार का होता है ज्ञानाचार-ज्ञान की पारावना, दर्शनाचार-सम्यग्दर्शन को आराधना, चारित्राचारचारित्र की आराधना, तपाचार-जप की आराधना, वीर्याचारसयम-रक्षा के लिए शक्ति या वल का प्रयोग । इन पाचो आचारो का पालन करने वाले महासाधक को आचारवान् कहा जाता है ।
(ख) आधारवान्-आलोचना करने वाले व्यक्ति द्वारा कहे गए अतिचारो को जो मन मे धारण करता है वही प्रत्येक दोष की निवृत्ति करवा सकता है, जो सुनी हुई पालोचना को भूल जाता है वह दूसरे की शुद्धि नही करवा सकता।
(ग) अपनीडक-द्रीडा का अर्थ है लज्जा । जो शिष्य लज्जा के कारण अच्छी तरह आलोचना नहीं करता, उसकी लज्जा या सकोच को मीठे वचनो द्वारा दूर करके अच्छी तरह आलोचना कराने वाला हो।
(घ) प्रकुर्वक -यालोचित अतिचारो का प्रायश्चित्त देकर दोपो की निवृत्ति कराने में समर्थ हो।
(s) व्यवहारवान्गास्त्रीय दृष्टि से व्यवहार पाच प्रकार का होता है-मागम-व्यवहार, सूत्र-व्यवहार, धारणा-व्यवहार, आज्ञा-व्यवहार और जीत-व्यवहार ।
प्रायश्चित्त कराने वाले महा पुरुष का इन पाचो व्यवहारो के विधि-विधान का ज्ञाता होना आवश्यक है। योग एक चिन्तन ]
[१५
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है। भक्ति भाव वाले व्यक्तियो द्वारा छ, काय की विराधना भी होनी स्वाभाविक है।
(छ) सहसाकार-विना सोचे समझे अकस्मात् किसी जीव पर पांव आ जाने से विराधना हो जानी, असत्य बोला जाना और सघट्टा लग जाना सहसाकार-प्रतिसेवना है।
(ज) भय- भयाक्रान्त साधक असत्य भी बोल सकता है, कायोत्सर्ग भी तोड सकता है, जीव-पाकीर्ण मार्ग पर भी विना देखे विना प्रमार्जन किये जा सकता है, वृक्ष पर भी चढ सकता है, और दुराचार का सेवन भी कर सकता है । इस तरह की क्रिया भयप्रतिसेवना है।'
(झ) प्रद्वेष-दुपवश साधक असत्यभापी हो जाता है, ईर्ष्यालु हो जाता है, किसी को अपमानित एव तिरस्कृत भी कर सकता है। इस दोप से ग्रस्त साधक जिस ओर भी देखता है उसे अवगुणो के अतिरिक्त यौर कुछ दीखता ही नही । गुणो पर उसकी दृष्टि जाती ही नहीं । प्रद्वप जड़ और चेतन किसी पर भी हो सकता है।
यहां प्रदूप से चारो कपाय लिये जाते है। इस दोप के कारण भागातना, अविनय और सयम-विराधना का होना निश्चित
(अ) विमर्श-जब साधक परीक्षण के निमित्त कोई कार्य करता है तव यह दोप लगता है। जैसे हाथ वाहर करके जानना कि वूदे पड रही हैं या कि नही ? रायते मे पड़ा हुआ मिर्च का वीज अचित्त हो जाता है या नहीं, यह जानने के लिये उसे उगाने की चेष्टा करना, जल सचित्त है या अचित्त परीक्षण करना, किसी की परीक्षा के लिये सयम की विराधना करना आदि विमर्शप्रतिसेवना के ही अनेक रूप हैं।
१२]
[ योग एक चिन्तन
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जब कभी साधक के ज्ञान, दर्शन, सयम और तप दूपित हो जाते हैं तब उक्त दस कारणो से ही हुआ करते है, इन दोषो की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करना श्रावश्यक होता है । श्रालोचना करना भी एक प्रकार का प्रायश्चित्त है ही । जिस साधक मे दस गुण हो वही आलोचना करने का अधिकारी माना जाता है । वे दस गुण निम्नलिखित है, जैसे कि -
(क) जाति-संपन्न - उत्तम जातिवाला व्यक्ति प्रथम तो बुरा काम करता ही नही, यदि कभी उसके द्वारा भूल से हो भी जाए तो वह शुद्ध हृदय से आलोचना कर लेता है ।
(ख) कुल सपन्न - उत्तम कुल में पैदा हुआ व्यक्ति श्रद्धापूर्वक एव 'भविष्य मे ऐसा काय नही करूगा' इस भावना से प्रायवित्त करता है । जिस व्यक्ति का मातृपक्ष शुद्ध है वह जाति सपन्न कहलाता है और जिसका पितृपक्ष शुद्ध है वह कुल - सपन्न माना जाता है ।
(ग) विनय-सम्पन्न - विनीत व्यक्ति वडो की श्राज्ञा मानकर निष्कपट भाव से आलोचना कर लेता है ।
(घ) ज्ञान सम्पन्न - ज्ञानी जानता है कि ग्रालोचना करने पर ही मैं रत्नत्रय का आराधक वन सकूंगा, नही तो मुझे विराधक बनकर दुर्गतियो मे ही भटकना पडेगा, इस दृष्टि से ज्ञानी निष्कपट भाव से आलोचना कर लेता है ।
(ड) दर्शन सम्पन्न - जिस के हृदय मे यह दृढ श्रद्धा है कि निष्कपट हृदय से की हुई आलोचना श्रात्म-शुद्धि एव सयमशुद्धि का मूल कारण है, जीव के लिये परित्त ससारी, सुलभ बोधि और आराधक बनने का सबसे आसान तरीका आलोचना
योग एक चिन्तन ]
(१३
-
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जब केवल ज्ञानी, मन पर्यव-ज्ञानी, अवधि जानी एव पूर्वो के वेत्ता मुनिवर विद्यमान हो, उस समय सूत्र-व्यवहार मुख्य नहीं होता, तत्र आगम-व्यवहार की मुख्यता होती है। प्रागम-व्यवहारियो के अभाव में सूत्र-व्यवहार की मुख्यता मानी जाती है।
जिस दोष या प्रायश्चित का उल्लेख सूत्र मे नही होता उस समय यदि किसी के पास यह पुरानी धारणा हो कि "अमुक प्राचार्य के पास ऐसा कारण बना था और उन्होने उसका प्रायश्चित्त यह दिया था" तो उस समय उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देते हुए धारणा-व्यवहार से काम लिया जाना चाहिये।
कुछ ऐसे दोप भी होते है जिनका युगानुकूल प्रायश्चित्त गुरु या प्राचार्य दिया करते हैं और उसे दोपी साधक सहर्ष स्वीकृत कर लेता है, यही आजा-व्यवहार कहलाता है।
कुछ प्रायश्चित्त जीताचार व्यवहार से दिया या लिया जाता है। जैसे कि पाक्षिक प्रतिक्रमण के बाद एक उपवास, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण के बाद एक वेला और सावत्सरिक प्रतिक्रमण करने के अनन्तर एक तेला प्रायश्चित्त दिया जाता है, यह जीत-व्यवहार है।
(च) अपरित्रावी-अर्थात् गम्भीर स्वभाव वाला । पालोचना करने वाले के दोपो को दूसरे के समक्ष प्रकट न करने वाला महापुरुप ही आलोचना सुनने का अधिकारी हो सकता है । - (छ) निर्यापक-जो दोपी साधक किसी कारणवश एक साथ प्रायश्चित्त वहन करने में समर्थ न हो उसे थोडा-थोड़ा प्रायश्चित देकर निर्वाह कराने वाला निर्यापक कहलाता है। सव को एक डण्डे से नहीं हाका जा सकता, समर्थ और असमर्थ को देखना भी अत्यावश्यक होता है। १६].
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(ज) अपायदर्शी-यदि कोई साधक आलोचना ठीक तरह से नही कर रहा है तो उसको परलोक का भय दिखाकर तथा प्रायश्चित्त न करने पर उससे होने वाली हानियो को युक्ति-सहित प्रदर्शित करके प्रायश्चित्त मे रुचि जागृत करने वाला अपाय-दर्शी कहलाता है।
(झ) प्रियधर्मा-सुखदशा मे जिसको धर्म अत्यन्त प्रिय हो। (अ) दृढधर्मा-दुख की दशा में भी जो धर्म मे दृढ रहता हो।
इन दस गुणो से सपन्न मुनिवर के समक्ष आलोचना सुनानी चाहिए, परन्तु प्रत्येक साधक इन गुणो से सम्पन्न नहीं होता। भला जिसको प्रायश्चित्त-विधि का जान ही नहीं है, वह पालोचना कैसे करवा सकता है ? उसके सामने पालोचना करने से लाभ की अपेक्षा हानि होने की सभावना अधिक रहती है।
' आलोचना करनेवाला अनेक कारणो से अपने दोपो को छिपाने का प्रयत्न करता है जैसे दड के भय से, अपयश के भय से, लज्जा के वश होकर, स्ववचना या पर-वचना करके । अतः प्रायश्चित्त देनेवाले आचार्य प्रादि को सर्व प्रथम ऐसे कारणो के भय से सावक को मुक्त कर देना चाहिये । यदि कोई साधक मिथ्या या सदोप आलोचना करता है तो वह पाराधक बनने के योग्य नहीं होता। सदोष आलोचना के दस रूप है, जैसे कि
(क) प्राकम्पयित्ता-कापते-कापते आलोचना करना या प्राचार्य को विनय-भक्ति से प्रसन्न करके फिर उन के पास सालोचना करना, जिसमे कि वे बहुत वडा प्रायश्चित न देकर कोई छोटा-सा प्रायश्चित्त दे दें अथवा क्षमा ही कर दे । जैसे अतिमलिन वस्त्र को अति स्वल्प जल से शुद्ध नही किया जा सकता, योग एक चिन्तन ]
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वैसे ही सामान्य प्रायश्चित्त से भारी दोपो से मुक्ति मिलनी सर्वथा असम्भव है, अत दोप के अनुरूप ही प्रायश्चित्त होना चाहिये ।
(ख) श्रणुमाणइत्ता - जिस जिस अपराध का प्रायश्चित्त थोडा आए, उस-उस अपराध की आलोचना करना या अपने कुतर्क के श्राधार से अपराध को बहुत छोटा करके बताना भी आलोचनाविषयक महान् दोष है ।
(ग) ज दिट्टू - जिस अपराध को प्राचार्य ने देख लिया या जान लिया है, उसी की ग्रालोचना करना, गेप को छिपा लेना भी आलोचना-दोप है ।
(घ) वायरं - बड़े-बड़े अपराधो की श्रालोचना कर लेना श्रीर छोटे-छोटे अपराधो की आलोचना न करना भी आलोचनादोप है ।
(ड) सुहुमं - छोटे-छोटे अपराधो की आलोचना करना । ऐसा केवल इस दृष्टि से किया जाता है कि लोग यह समझे - 'जो व्यक्ति छोटे-छोटे अपराधो की आलोचना कर लेता है, वह बडे अपराधो को कैसे छिपा सकता है ? इस प्रकार की कपटपूर्ण आलोचना करनेवाला व्यक्ति ग्रालोचना का अधिकारी ही नही रह जाता ।
(च) छिन्नं - ग्रधिक लज्जा के कारण अस्पष्ट शब्दो मे ग्रालोचना करना, जिससे सुनने वाले को सुनने और समझने मे दिक्कत आए, यह भी आलोचना दोष है ।
(छ) सद्दालु - श्रालोचना करते समय ज़ोर-ज़ोर से बोलना, जिस से कि आचार्य के अतिरिक्त दूसरे लोग भी सुन सकें, यह भी आलोचना-दोप के अन्तर्गत है ।
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(ज) बहुजण - एक ही दोप की आलोचना बहुत गुरुप्रो के पास करना पालोचना दोष है । जिस दोप की आलोचना एक बार की जा चुकी है। उसकी प्रालोचना पुन करने की आवश्यकता नही होती, यदि की जाती है तो अवश्य ही उसके पीछे कोई कपटव्यवहार होता है।
(झ) अव्वत्त - जो प्रायश्चित्त-विधि का वेत्ता नही है, उसके पास आलोचना करना भी आलोचना-दोष है, इससे भी उसका शुद्धीकरण नहीं होने पाता।
(अ) तस्सेवी-जिस दोष की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन करने वाले के पास आलोचना करना आलोचनादोप है । जो स्वय दोषी है, वह दूसरो को प्रायश्चित्त देकर दोषो से मुक्त कैसे कर सकता है ? |
___ सत्य और निष्कपट हृदय से जो आलोचना की जाती है, उसके माध्यम से पता लग जाता है कि यह साधक किस प्राय. श्चित्त से शुद्ध हो सकता है ? गुरु करुणा के समुद्र होते है. वे इस लोक मे तथा परलोक मे सभी स्थानो पर शिष्य का हित ही सोचते है, वे शिष्य की उन्नति मे सहायक होते है। ___ शिप्य तीन तरह के होते हैं-एक वे जिन्हे गुरु को कुछ कहना नही पडता, अपितु आत्म-प्रेरणा से गुरु-प्राज्ञा का पालन करते है, ऐसे शिष्य सुशिष्य कहल ते हैं । जो कहने पर ही कार्य करने वाले है, जिन मे अपनी सूझ-बूझ नही ह ती, वे शिष्य कहे जाते है और जो न अपनी सूझ-बूझ से काम लेते है और न गुरु आदि के कहने पर ही कार्य करते हैं, वे कुशिष्य माने जाते हैं। इन मे से सुशिष्य सर्वाराधक होते हैं, शिष्य कुछ आराधक भी होते हैं और कुछ विराधक भी होते हैं, किन्तु कुशिष्य सर्वथा विराधक ही हुमा करते हैं । योग एक चिन्तन ।
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जैसे क्रिया के विपरीत होने से कार्य भी विपरीत ही हो जाता है, वैसे ही क्रिया सम्यक होने से कार्य भी सम्यक् होता है। मुशिष्य नित्यप्रति आलोचना वोलकर या लिखकर करता है । जैसे शरीर मे पित्त बढ जाने से जब तक उल्टी के द्वारा वह पित्त बाहर नही निकल जाता, तब तक शरीर मे घवराहट रहती है, उसके निकल जाने पर वेचनी भी दूर हो जाती है, वैसे ही ग्रालोचना करने से सभी दोष विलुप्त हो जाते हैं, मन सत्र तरह से समाहित हो जाता है, अत सदोप साधक के लिए आलोचना करना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा परलोक सुखकर नही होता है। योगी बनने के लिये यही प्रथम सीढी है, इस पर साधक को सावधान होकर चढने का प्रयास करना चाहिये ।
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२. निरवलावे : निरपलाप
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किसी की आलोचना सुनकर उसे अन्य के सामने प्रकाशित न करना, अपितु उसे अपने गहरे हृदय-स्थित गुणसिन्धु मे डालकर उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर देना चाहिये, उस विष को अमृत बना देना चाहिये । यही प्रायश्चित्त-दाता की गम्भीरता एव महत्ता है, अतः निरपलापता माधक का महत्त्वपूर्ण गुण है ।
अपलाप का दूसरा अर्थ है मिथ्यावाद-बकवाद या किसी तरह की गलत वाते बनाना । यह एक अवगुण है, इससे रहित होना निरपलापता है । प्रायश्चित्त-दाता महा साधक जितना कुछ देखता है और जितना कुछ सुनता है, वह सब कहने योग्य नही होता है। उसे तो केवल वही बातें कहनी चाहिये जो सत्य हो एव शास्त्र की दृष्टि से पवित्र हो। शेप सब बाते अपलाप मात्र ही होती है, उनसे निवृत्ति पाना ही निरपलापता है।
अपलाप का तीसरा अर्थ है--सत् की नास्ति करना, अर्थात् उसके अस्तित्व को स्वीकार न करना,अथवा उसका निषेध करना। जैसे कि नव तत्त्व शाश्वत हैं उनके अस्तित्व को नकारा नही जा सकता, यदि कोई विद्वान् अपने तर्क-वल के द्वारा नवतत्त्वो मे से जीव तत्त्व का अपलाप कर दे तो पुण्य, पाप प्रास्रव, सवर, बन्ध, निर्जरा, मोक्ष इन सवका अपलाप हो जाना निश्चित है। पुण्य-पाप का यदि अपलाप हो जाएगा तो ससार की लीला ही समाप्त हो
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जाएगी। प्राधव और वध का यदि अपलाप हो जाए तो जीव का जन्म-मरण अकारण ही मानना पडेगा। संवर और निर्जरा ये साधना के मूल मत्र हैं, इनका यदि अपलाप हो जाए तो प्राथवनिरोध और वध को क्षीण कैसे किया जा सकेगा ? मोक्ष तत्त्व का अपलाप करने से साधना का चरम एव परम लक्ष्य ही समाप्त हो जाएगा। अन सम्यग् जानो प्रायश्चित्त-दाता मे इस दृष्टि भी निरपलाप गुण का होना आवश्यक है। वीतराग भगवान ने जिन तत्त्वो का निरूपण किया है, द्रव्य और द्रव्य-पर्याय, गुण और गुण-पर्याय जो जैसा है उसे उसके यथार्थ रूप में अनेकान्तवाद द्वारा समझना, फिर इस निर्णय तक पहुचना कि जो त्याज्य एव हेय है उससे निवृत्त होना चाहिये और जो ग्राह्य एव उपादेय है उसमे प्रवृत्ति करनी चाहिये, तथा जो साधक जीवन के लिये उपयोगी एव ज्ञातव्य है, उन्हे ध्यान का विषय बनाना चाहिये । इस प्रकार उन तत्त्वो का विभागीकरण करना सम्यग्ज्ञान है। वस्तु मे जो धर्म या गुण अस्तित्व से विभूपित है उसे नास्तित्व के पक से कलकित करना और जो नास्तित्व धर्म से युक्त है उसे अस्तित्व धर्म से युक्त करना मिथ्यावाद एव अपलाप है।
. मिथ्यावाद का विरोधी दृष्टिकोण सम्यग्वाद है। सम्यग्वाद ही निरपलाप है । निरपलाप जैन दर्शन का प्रमुखतम आधार है। अपलाप कर्म-बंध का कारण है और निरपलापता मोक्ष सवर एव निर्जरा का प्रधान अग है। इसी को दूसरे शब्दों मे आस्तिकवाद भी कहते हैं। अशुद्ध प्ररूपणा न करना ही निरपलाप है और कथनी एव करनी मे लुकाव-छिपाव न किया जाए उसी को शुद्ध प्ररूपणा कहते हैं।
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३. दृढ़-धर्मता
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दृढधर्मता का अभिप्राय है आपत्तिकाल मे भी धर्म मे दृढ रहना। कुछ लोग कहा करते हैं "आपत् काले मर्यादा नास्ति"--आपत्तिकाल मे धर्म-मर्यादा आवश्यक नही, उस समय सभी प्रतिज्ञाए भंग की जा सकती हैं। यह नीति-वाक्य सामान्य लोगो के लिये है, महामानवो पर यह उक्ति चरितार्थ नहीं होती। महामानव बनने का अधिकारी वही हो सकता है जिसे सुख मे भी धर्म प्रिय है और आपत्ति-काल मे भी जो धर्म पर दृढ रहता है। ऐसा व्यक्ति ही विश्व-विजयी एव आत्म-विजयी बन सकता है । लौकिक या प्राध्यात्मिक कोई भी सफलता हो वह अनेक प्रकार के झझटो एव दुखो के साथ जूझकर समता एव सहनशीलता से ही प्राप्त की जा सकती है। धर्म भी साधक को तभी सफलता देता है जब कि वह आपत्ति एव विपत्ति को वरदान समझकर सहर्ष सह लेता है और तभी वह आध्यात्मिक सपत्ति को प्राप्त करने का अधिकारी बन सकता है।
जैसे विष और अमृत ये दोनो परस्पर विरोधी तत्व हैं। अमृत के अभाव मे विष अपने आप मे पूर्ण समर्थ है, किन्तु शरीरव्यापी विष को अमृत का एक विन्दु भी नष्ट कर देता है । धर्म में निश्चल रहने से कर्म-रोग, भवरोग, और कपाय-भाव ये सव स्वत ही नष्ट हो जाते है। कर्म-रोग एव भवरोग से पीडित व्यक्ति द्वारा
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किए गए प्रार्त्तव्यान और रोद्रध्यान मन मे, बुद्धि मे और शरीर मे स्थिरता नही रहने देते और मानसिक एवं वैचारिक अस्थिरता योग की शत्रु है।
प्रार्तध्यान और रोद्रध्यान का मूल है आपत्ति । आपत्ति का अर्थ है-दुख, क्लेग, विघ्न, प्राफत, वेरोजगारी-पाजीविका का अभाव, दोषारोपण और विपदा । आपत्ति में प्रत्येक प्राणी भयभीत होता है। जब किसी व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि आपत्ति को झेलने से मेरा भविष्य उज्ज्वल हो जाएगा तो वह आनेवाली आपत्ति का भी स्वागत करने लगता है । जो आपत्ति का स्वागत करता है, वही महामानव है।
, तितिक्षु महामानव को अन्तरात्मा भी कह सकते है, वहिरात्मा महामानवता की परिधि मे प्रवेश नहीं कर सकता, जब तक कि वह तितिक्षागील वनकर कण्टो का स्वागत नहीं करता।
आपत्ति चार प्रकार की होतो है-द्रव्यापत्ति, क्षेत्रापत्ति, कालापत्ति और भावापत्ति । इन का विश्लेषण, पहले अध्याय मे किया जा चुका है।
जितनी भी आपत्तिया प्राणी मात्र पर आक्रमण कर सकती है, उनकी गणना - यदि सक्षेप में की जाए तो उपर्युक्त चार की सख्या का उत्लघन नही होता। आपत्तियो का सामना केवल समता द्वारा ही किया सकता है, क्योकि जब कोई अन्तरात्मा समता के भीतर प्रवेश कर जाता है-तब उस पर होने वाले प्रापत्तियो के प्रहार भले ही हजारो-लाखो हो, वे उसकी प्रगति मे वाधक नही बन सकते । जब किसी कछुए पर शिकारियो का प्रहार, होता है, तब वह अपने अगो-उपाङ्गो को सकोच कर खोपड़ी में २४ ]
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प्रविष्ट कर लेता है, तब उस पर किसी बाहरी प्रहार का कोई प्रभाव नही पड़ता, वह सब तरह सुरक्षित रहता है । इसी प्रकार जो साधक किसी भी प्रापत्ति के आने पर सयम, तप और अहिंसा रूप धर्म का अवलम्व लेकर श्रात्म ग्रवस्थित हो जाता है, निश्चय ही सफलता उसके चरण चूमती है। जीवन का चरम लक्ष्य है - खो मे अनुद्विग्न रहना और सुखों मे निस्पृह रहना । इस लक्ष्य को प्राप्त करना ही साधना मार्ग की सबसे बड़ी सफलता है ।
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४. अनिश्रितोपधान
'अनिश्रित' और 'उपधान' इन दो शब्दो के योग से 'प्रनिश्रितोपत्रान' शब्द की निष्पत्ति होती है । उपधान जैनागमो का पारिभाषिक शब्द है । इस का अर्थ है शरीर को कष्ट देनेवाले तथा कपायो एव भ्रष्ट विध कर्मों को भस्म करने वाले वे धार्मिक व्रत नियम ग्रनुष्ठान प्रादि जो चित्त को भोग विलास से हटाने के लिये किये जाए । इन्द्रियो को वश में रखना, शरीर की प्रत्येक किया मे विवेक रखना और शास्त्रोक्त विधि से तपश्चर्या करना उपधान है ।
उपधान दो प्रकार का होता है - निश्रितोपधान श्रौर अनिश्रितोपधान | प्रासक्तिपूर्वक तपञ्चर्या करना निश्रितोपधान है और अनासक्ति से प्रेरित होकर तपश्चर्या करना अनिश्रितोपधान है । वैदिक संस्कृति प्राय तप के पहले रूप को स्वीकारती है श्री श्रमण संस्कृति की तप के दूसरे रूप पर विशेष निष्ठा है । जो तप किसी भौतिक सुख की कामना रख कर किया जाता है ऐसे तप के प्राचरण के लिये भगवान महावीर ने किसी को भी प्रेरणा नही दी । उन्होने स्पष्ट शब्दो मे साधको को उद्बोधन देते हुए कहा है
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नो इह लोगट्टयाए तवम हिट्टिज्जा,
नो पर लोगट्टयाए तव महिद्विज्जा,
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नो कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्टयाए तवमहिद्विजा, अर्थात्-इह लौकिक सुखो के लिये तप न करे।
स्वर्गादि के सुखो की प्राप्ति के लिये भी तप न करे। यश, कीति, वर्ण शब्द और श्लोक के लिये भी तप न करे।
अब प्रश्न होता है कि यदि साधक उपर्युक्त कारणो से तप न करे तो फिर किस उद्देश्य से तप करे ? अन्ततोगत्वा कोई न कोई उद्देश्य तो साधक के सामने होता ही है। बिना उद्देश्य के कोई भी किसी कार्य मे प्रवृत्ति नहीं करता। अरिहन्त भगवान तप के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं -- ।
नन्नत्य निरट्ठयाए तवमहिद्विजा केवल कर्मो की निरा के लिये ही तप करना चाहिये। इसी से वास्तविक मोक्ष-सुख एव आध्यात्मिक सुख की उपलब्धि होती है । जो लोग सासारिक सुखो की आगा से तप करते है, उनकी सुख-पाशा यथासम्भव पूर्ण हो ही जाती है, किन्तु वे निर्वाणसुख प्राप्त न करके ससार-चक्र मे ही परिभ्रमण करते रहते हैं । 'तप से राज और राज से नरक' की उक्ति को ऐसे लोग ही चरितार्थ करते है।
भगवान महावीर ने न स्वय मिथ्या तप की साधना की और न दूसरो को मिथ्या तप का मार्ग बताया है। उन्होने राजसी और तामसी तप का मुमुक्षुप्रो के लिये निषेध किया है। केवल सात्त्विक तप करने के लिये ही प्रेरणा दी है। इसी को दूसरे शब्दो मे अनिधितोपधान तप कहा गया है। अनिश्रितोपधान शब्द का "किसी दूसरे की सहायता के विना तप करना" यह अर्थ भी सुसगत है । यही तप समाधि-जनक तथा सब तरह के विकारो को नष्ट करने वाला है। इसी तप से साधक परमात्म-पद की प्राप्ति कर सकता है। योग . एक चिन्तन ]
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५. शिक्षा
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कुछ
मनुष्य के जितने भी विचार है वे सब के सब उसके अपने नही होते, कुछ घर के सदस्यों से मिलते है, कुछ साथियो से, तत्कालीन समाज से, कुछ सत्सग से, कुछ साहित्य से, कुछ पत्रपत्रिकाओ से कुछ शास्त्रो से कुछ जीव-जन्तुयो से, कुछ जडपदार्थो से प्राप्त होते है और कुछ अपने ही अनुभव के आधार पर चित्त मे समुदित होते है । कुछ विचार सपक्षरूप मे उदित होते है और कुछ विपक्षरूप मे । कुछ विचारो को मन व्यर्थ समझ कर छोड़ देता है और कुछ को भूल जाता है। जो विचार आज उसे सत्य प्रतीत होते है, कालान्तर मे वे ही विचार असत्य प्रतीत होने लगते हैं और जो विचार आज ग्रसत्य लगते हैं वे ही विचार कालान्तर मे सत्य सिद्ध होते हैं । प्रत विचारो मे सत्य-असत्य का निर्णय चिन्तन मनन से ही होता है ।
विचार प्राय भाषा के माध्यम से प्राप्त होते है । यही कारण है कि मानव सव से पहले भाषा सीखता है, तत्पश्चात् भाषाविज्ञान | शब्द शुद्ध है या ग्रशुद्ध इसका निर्णय वह व्याकरण के नियमो से करता है । छन्द, रस, रीति, काव्य, अलकार गुण, दोष एव शुब्द निप्पत्ति प्रादि का सामान्य एव विशेष ज्ञान ही भाषा विज्ञान है ।
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भाषा-विज्ञान श्रुतज्ञान का अभिन्न अग है
। श्रुत ज्ञान
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सीखा जाता है और सिखाया भी जाता है । मतिज्ञान, अवधिज्ञान मन पर्यव-ज्ञान और केवलज्ञान ये चार ज्ञान सीखने-सिखाने से उपलब्ध नही होते, क्योकि ये ज्ञान अक्षर रूप नही है । जो कुछ भी सीखा जाता है या सिखाया जाता है, वह श्रुतज्ञान है ।
अनुशासन में रहने की रीति नीति के ज्ञान को शिक्षा कहते है । शिक्षा दो प्रकार की होती है, ग्रहण - शिक्षा और ग्रासेवनशिक्षा | इन्ही को दूसरे शब्दो मे विद्या पढने की और कला सीखने की क्रिया भी कहते हैं। विश्व में विज्ञान और कला का ही बोल वाला है । लोक व्यव्हार मे मनुष्य अक्षर ज्ञान प्राप्त करके शब्द-वोध र अर्थ-बोध के द्वारा जो शिक्षा ग्रहण करता है वह ग्रहण - शिक्षा है और जो वह जीवन कला या धर्म कला का नित्य प्रति ग्रभ्यास करता है वह ग्रासेवन- शिक्षा है ।
श्रागम श्रद्धागम्य भी है और ज्ञानगम्य भी । जब शिष्य गुरु से सूत्रगत मूल पाठ का उच्चारण सीखता है पद और पदो के अर्थ का ज्ञान करता है, ग्राजा और धारणा से अर्थ के वास्तविक अभिप्राय को जानता है, तब यह क्रम ग्रहण शिक्षा का माना जाता है ।
श्रुतज्ञान सीखने पर जो जीवन मे प्रभाव पडता है, उसके दो रूप - हैं निवृत्ति और प्रवृत्ति । ये चारित्र के अतरंग और वहिरग कारण हे । क्षायो एव राग-द्वेष आदि के विचारो से निवृत्त होना चारित्र का अंतरग कारण है । निवृत्ति का ही दूसरा नाम विवेक है ।
शरीर को प्रत्येक क्रिया मे सयम पूर्वक प्रवृत्ति करना यतना है, अत खान-पान मे, गमनागमन मे, उठने-बैठने मे, शरीर के योग : एक चिन्तन ]
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सकोचन-प्रसारण मे, वस्त्र-पात्र प्रादि उपकरणो के प्रतिलेखनप्रमार्जन मे, वस्तु के उठाने-रखने मे, मल-मूत्र आदि के त्याग मे यतन करना तथा वाणी बोलने मे सयम से काम लेना इस प्रकार की सुप्रवृत्ति चारित्र का वाह्य अग है। दुष्प्रवृनियो से निवृति और सत्कायो मे प्रवृत्ति ही चारित्र है। चारित्र जीवन की सर्वोच्च कला है । कला का अभ्यास विना सीखे नहीं हो सकता, जब तक चारित्र की उपयोगिता पूर्ण न हो जाए, तब तक क्षण-क्षण मे प्रासेवन-शिक्षा का अभ्यास करते ही रहना चाहिये। ग्रहण-शिक्षा से ही प्रासेवन-शिक्षा पल्लवित, पुष्पित एव फलित होती है। ग्रहण शिक्षा के विना प्रासेवन-शिक्षा अकिचित्कर है, अत कहा भी है 'पढम नाण तयो दया" पहले ज्ञान होगा तभो जीवो पर दया की जा सकती है। छ काय का ज्ञान होने पर ही अहिंसा महाव्रत पल सकता है। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये सब अहिंसा के पोषक एव परिवर्धक तत्त्व हे । अत पहले ग्रहण-शिक्षा का अभ्यास करना चाहिए, फिर प्रासेवन-शिक्षा का। शिक्षा योग-साधना की पाचवी सीढी है।
३० ।
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६. निष्प्रतिकर्मता
शरीर की साज-सज्जा को प्रतिकर्मता या परिकर्मता कहते हैं। उससे निवृत्त होने की साधना ही निप्प्रतिकर्मता या निष्परि कर्मता है |
मार्ग मूलत दो ही हैं एक ससार मार्ग. दूसरा मोक्षमार्ग । दोनो मार्ग परस्पर विरोधी है । जो जिस पथ का पथिक बना हुआ है, वह उसी को अच्छा समझता है । दूसरे पथ के पथिक को अच्छा नही समझता । ससारी जीव देह की दासता से वधा हुआ है, जब कि मुमुक्षु साधक देह का पुजारी नही होता वह अपने जीवन के स्वर्णिम क्षण धर्म-साधना मे ही लगाता है शरीर की साज-सज्जा मे नही ।
मोक्षार्थी की दृष्टि मे शरीर सर्वथा अशुद्ध है, क्योकि यह रज और वीर्य जैसे घृणित पदार्थो के योग से बना हुआ है। माता के गर्भ मे शुचि पदार्थो के ग्राहार से इसकी वृद्धि हुई है । उत्तम रसीले एव स्वादिष्ट पदार्थों का आहार भी इस शरीर मे जाकर अशुचि रूप में परिणत हो जाता है । आख, कान, नाक, मुह आदि नव द्वारा से घृणित मल हो भरता रहता है । जैसे पानी और सावुन प्रादि से अच्छी तरह मल-मल कर धोने पर भी कोयला अपना राग नही बदलता, वैसे ही इस अपवित्र शरीर को पवित्र एव निर्मल बनाने के लिए कितने ही साधनो का प्रयोग क्यो न
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किया जाए, वह अपने अनुचि स्वभाव का परित्याग नहीं करता, क्योकि इसमे नित्य मल-मूत्र आदि उत्पन्न होते रहते हैं। यदि शान्त एव स्थिर होकर सोचा जाय तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि शरीर का कोई भी अवयव घृणा-जनक पदार्थों से गून्य नहीं है।
यह शरीर प्राधि-व्याधि आदि प्रनेक रोगो का घर है। इसे कोई गगाजल या समुद्र के जल से भा शुद्ध करना चाहे तो भी यह शुद्ध नही हो सकता। इसी उदेश्य को लेकर ज्ञानी जन शीत जल से या गर्म जल से स्नान नही करते, क्योकि स्नान वनाव का मुख्य अग है, बनाव काम-वासना को अभिवृद्धि करता है। इतना ही नहीं, वे न केगालकार करते है, न वस्त्राल कार, न आभरणालकार और न माल्यालकार करते हैं, ये सब विभूपा के साधन हैं और इनका उद्देश्य विपरीत लिंगी का आकर्षणं ही होता है। ।
आत्महित का इच्छुक साधक विभूपा, काम-वासना को उत्तेजित करने वाला सग और पौष्टिक पदार्थो का आहार इन सबको तालपुट विप के समान समझता है । अत वह शरीर के किसी भी बनाव-श्रृंगार की ओर कभी भी ध्यान नहीं देता। वह जगत् के स्वभाव को और शरीर के स्वभाव को भली भान्ति जानता है। उसके लिए जगत और शरीर दोनो तरह का स्वभाव ससार मे फमाने के लिए नहीं, अपितु सवेग और वैराग्य की जागृति के लिये है। कहा भी है 'जगत्काय स्वभावी सवेग-वैराग्यार्थ म्" ।,
(तत्वार्थ मूत्र अ० ७वा)
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७. अज्ञातता
इस का अर्थ है छिपाव, अर्थात् अपने प्रत्येक शुभ अनुष्ठान को -पाठ, जप, ध्यान एव तप आदि को इस प्रकार करना चाहिये जिससे उसे सांसारिक लोग न जान पाए, तप आत्म-शुद्धि के लिये हो, प्रदर्शन के लिये नही । साधक को अपना तप किसी के सामने प्रकाशित नही करना चाहिये, यश और पूजा की कामना किये विना इस प्रकार तप करना चाहिए कि किसी को पता ही न लगे । अज्ञात तप मन को शान्त बनाता है तथा अधिक से अधिक कर्मों की निर्जरा और शुभानुवन्धी शुभ फल देनेवाला होता है ।
*
इस तप की आराधना वही कर सकता है जिसको मानप्रतिष्ठा की भूख न हो, प्रसिद्धि की कामना न हो, सासारिक सुख-समृद्धि की आशा न हो, इहलोक और परलोक की इच्छा से जो निस्पृह हो, दृष्ट एवं प्रदृष्ट वैषयिक सुखो की तृष्णा से रहित हो, जिसमे तप करने की सहज भावना हो, जो तप करने की विधि का ज्ञाता हो, तप की साधना मे श्रद्धा रखनेवाला हो, भगवान की वाणी पर दृढ निष्ठा रखता हो, आत्मा पर और कर्म सिद्धात पर जिसका दृढ़ विश्वास हो, जो चारित्रवान हो, इतना ही नही जितेन्द्रिय भी हो तथा मन्द- कपायी हो, विनीतता एव श्रार्जव आदि गुणो से युक्त हो, आगमो का पारगामी हो, वही इस अज्ञात तप का आराधक बन सकता है ।
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कोई भी धनाढ्य व्यक्ति जैसे किसी के सामने अपनी सपत्ति या आमदनी को वास्तविक रूप में नहीं बताता, उसे गुप्त रखता है, वैसे ही तप भी साधु का महान् धन है, उसे गुप्त रखने मे ही उसका कल्याण है । सेठों के खुले वन को देखकर जैसे उनके आस-पास अर्थाथियो की टोली मडराने लग जाती है वैसे ही प्रसिद्धि प्राप्त तपस्वी को स्वार्थ-परायण, गृहस्थ समय-समय घेरे रहते हैं, जिससे उसकी साधना मे शैथिल्य आना स्वाभाविक हो जाता है, क्योकि अधिक जन-ससर्ग साधना-मार्ग का बाधक होता है। -
तपस्वी को चाहिये कि वह "गिहसं यवं न कुज्जा, कुज्जी साहहि संय"--गृहस्थो के साथ परिचय न करे साधुप्रो के साय ही परिचय करे, क्योकि "संसर्गजा दोष-गुणा भवन्ति" जो जैसो ससर्ग करेगा वह वैसा होकर ही रहेगा। अत. साधक को अज्ञाततप ही करना चाहिए, उसे जलसे और जलूसो के चक्कर में नहीं पडना चाहिए।
_हम देखते हैं कि आज के तपस्वी को वृत्ति विपिनमयी हो गई है, वह तप करता है शोहरत के लिये, चेले-चेलियां बढाने के लिये एवं मान-प्रतिष्ठा की वृद्धि के लिये 1 ऐसे तप की तप नहीं कहा जा सकता, उसे यदि केवल कायक्लेश कहे तो ठीक रहेगा तप के लिये काया को क्लेश देना बुरा नही, प्रदर्शन के लिये कायों को क्लेश देना हिसा है। प्रदर्शन के लिये काया को क्लेश तो सरकस वाले भी देते हैं, उसे न तो तप कहा जा सकता है और न ही उससे देवलोको की अथवा मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, अंत एकान्त स्थान मे आत्मोत्थान के लिये ही अज्ञाततप करना चाहिये। ३४]
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८. अलोभ
- यहा लोभ शब्द के विपरीतार्थक शब्द 'सन्तोप' का प्रयोग न करके निपेध सूचक 'अलोभ' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिससे सभी तरह से लोभ के परित्याग की भावना ध्वनित की गई है।
इन्द्रियो के द्वारा जड या चेतन का प्रत्यक्ष होते ही मन में उसे प्राप्त करने को जो पाकुलता जागत हो जाती है वही लोभ हैं। जव लोभ मन मे पैदा होता है, तब मन उचित-अनुचित का विवेक खो देती है। लोम के वशीभूत होकर मानव हिंसा भी करता है, झूठ और चोरी मे भी प्रवृत्त होता है, दूसरे की वस्तु को हथियाने की कोशिश भी करता है ।
लाभ से लोभ वढता है, कपट उसका साथी है, लोभ और कपट का सयोग सभी पापो को जन्म देता है। लोभ से सभी तरह के मधुर सम्बन्ध खटाई में पड़ जाते हैं। मन को शान्ति भग हो जाती है।
जब साधक त्यागवत्ति में पहच जाता है तब उसके लिये भगवान निर्देश करते है कि अब अपने जीवन मे लोभ का उद्भव न होने दो, जब चित्त पर लोभ की छाया भी न रह जाय वही अलोभ की दशा है। जव साधक प्रात्मस्वरूप में रमण करता है, सन्तुष्ट रहता है, तब उसमे लोभ की सूक्ष्म वृत्ति भी नही रह योग . एक चिन्तन
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जाती है । एक लोभ के छोड़ने से उसके सहयोगी सभी दुष्कृत स्वत छूट जाते हैं ।
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प्रलोभ आत्मा का उत्थान करनेवाला है और लोभ श्राव्यात्मिकता के शिखरो से पतन कराने वाला है। हजारो गुणो मे प्रमुख गुण है प्रलोभ, जब कि हजारो अवगुणों मे मुख्य अवगुण है लोभ । अलोभ आत्मा का निज धर्म है और लोभ परधर्म | लोभ से आत्मा ससार की ओर आकृष्ट होता है और लोभ परमात्मा की परिधि मे पहुचाने वाला है । प्रलोभ सयम है और लोभ वासना है । प्रलोभ आत्मा का स्वाभाविक गुण है और लोभ वैभाविक एव श्रपचारिक गुण है । श्रलोभ अखण्ड शान्ति एव श्रानन्द का असीम हृद है और लोभ दुख- परम्परा को महाज्वाला है। लोभ का उन्मूलन उसके त्याग से होता है । लोभ के निवृत्त हो जाने पर अलोभ स्वत. उत्पन्न हो जाता है । लोभ असत्य का अनुरागी है और अलोभ सत्य का सहचर है । अत अलोभ उच्चसाधक का 'भूषण है । सभी सांसारिक प्रवृत्तियो का तन्तु लोभ से जुडा रहता है । चाह, इच्छा, अभिलापा, कामना, वासना ये सब लोभ के ही अनेक रूप है । एक विचारक के शब्दो मे
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चाह मिटी चिन्ता गई, मनुग्रा बेपरवाह । . जिसको कछु न चाहिये सोई शहनशाह ॥ प्रलोभ साधक को शहनशाह - इच्छा-मुक्त महान् सन्त बना
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देता है ।
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६. तितिक्षा
साधक के लिये सहनशील होना भी अनिवार्य है । तितिक्षा का अर्थ है - किसी के द्वारा किए गए दुर्व्यवहार को शान्त भाव से एक वार नही अनेक बार सहन करना । जब कोई गाली के रूप मे श्रमगल शब्द बोल रहा हो, या मार-पीट कर रहा हो, तव प्राय क्रोध ग्रा ही जाता है, उस समय मन की शान्ति को भग न होने देना, किसी के द्वारा परीपहो या उपसर्गों के निरत दिये जाने पर भी मन मे उसके प्रति रोष न आने देना, मन से भी
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1
ऐसे व्यक्ति का श्रमगल न सोचना, न श्रमगलवाणी बोलना और उसके लिए श्रमगल कार्य करना न तितिक्षा है | निर्वात स्थान मे रखे हुए दीपक की लो जैसे स्थिर रह कर प्रखण्ड प्रकाश देती है वैसे ही गहरी शान्ति मे प्रवेश करके बाहर से होने वाले प्रहारो को, गाली या निन्दनीय शब्दो को सुनकर स्थिर रहते हुए शत्रु और मित्र दोनो को समान प्रकाश देता हुआ धर्म ध्यान मे अवस्थित रहे यही साधक का परम कर्त्तव्य है । सहनशीलता धर्म का प्रमुख ग है, क्योकि धर्म-भाव मानव को कष्ट सहन करने की शक्ति देता है ।
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तितिक्षा चार प्रकार की होती है
(क) कुछ साधक बाहर से तो सहनशील बने रहते है,
योग एक चिन्तन ]
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किन्तु उनका मन क्रु द्ध होता रहता है, परन्तु वे क्रोध के भाव को वाहर प्रकट नहीं होने देते।
(ख) कुछ साधक आन्तरिक रूप से तो सर्वथा सहनशील रहते हैं, किन्तु बाहर से क्रोध करते हुए से प्रतीत होते है।
(ग) कुछ ऐसे साधक भी होते है जो आन्तरिक एवं वाह्य दोनो दृष्टियो से सहनशील होते हैं।
(घ) कुछ ऐसे हीन साधक भी होते हैं जो न शारीरिक । दृष्टि से सहनशील होते हैं और न मानसिक दृष्टि से। .
इनमे तीसरा रूप सर्वाधिक का है और चौथा रूप सर्वविरोधक का है। इसी प्रकार :
(क) कुछ साधक जिनमे अपनत्व होता है उनकी बात तो सहते हैं दूसरो की नहीं।
(ख) कुछ साधक दूसरो को बीत ‘या प्रहार को सह लेते है, किन्तु अपनो द्वारा किए गए व्यवहार को सहन नहीं करते हैं।
(ग) कुछ साधक न अपनों की सहते है और न दूसरो की सहते है।
(घ) कुछ साधक अपनों द्वारा किए गए प्रतिकूल व्यवहार ' को भी सहन करते हैं और दूसरो के दुर्व्यवहार को भी शान्त भाव से सहन कर लेते है।
इनमे पहला श्रेष्ठ, दूसरा कुछ श्रीप्ठ, तीसरा अत्यन्त निकृष्ट और चौथा श्रेप्ठतर माना जाता है । तितिक्षा के विना साधनाशील व्यक्ति का न तो समाज पर कोई प्रभाव होता है और न ही उसका जीवन आत्मोत्थान में सहायक हो पाता है। सहन शील व्यक्ति का मन आकुलता एव अशान्ति से रहित होने के कारण एकान रहता है, अत वह अपने साधना-मार्ग पर सहज स्वभाव से प्रगति करने में समर्थ होता है।
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+etterstoo १०. माजेव
- ससार मे आने वाले,प्रत्येक प्राणी के समक्ष दो मार्ग हैऋजु और वक्र । -मोक्ष-मार्ग को ऋजु मार्ग और नाना विध घुमाओ से भरे सासारिकता के मार्ग को वक्र मार्ग कहा जाता है.। मोक्ष मार्ग पर निष्कपटता.से. ही प्रगति हो सकती है, जिनके मन में पाप की घुडी विद्यमान है.वे इस मार्ग पर बढ नही सकते। ससार-मार्ग पर चलने वाले प्राय कपट का आश्रय लेकर ही चलते हैं, क्योकि सासारिक लोगो की यह धारणा है कि निष्कपट व्यक्ति का ससार-पथ पर चलना अति कठिन है।
निष्कपटता ही आर्जव है, प्रार्जव का सीधा सम्पर्क सत्य से है। सत्य और आर्जव इन का परस्पर अनादि सम्बन्ध है। जहा आजव है वही सत्य है, जहां सत्य है वही आर्जव है। ये दोनो गुण ज्ञान की तरह प्रकाशमान हैं, इनके होते हुए अज्ञान या दोप मन के किसी कोने मे छिपे नहीं रह सकते। अज्ञान, असत्य और कपट इनकी विद्यमानता मे सभी बुराइया और सभी दोप पनपते है तथा खूब लहलहाते हैं और मन-मोहक ऐसे विपैले फल देते है जिनके सेवन करने से साधक विराधक बनकर दुर्गतियो एव दुखो से घिर जाता है।
आर्जव गुण के आगे पाप टिक नही सकते। जिस समय योग एक चिन्तन.]
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यह गुण जीवन में उतर श्राता है तभी ग्रालोचना के द्वारा सभी दोष या पाप निकल कर बाहर हो जाते हैं। प्रायश्चित्त के द्वारा सभी छिद्र वन्द हो जाते हैं, ग्राश्रवो का निरोध हो जाता है, सवर एवं सयम अपूर्ण से पूर्ण की ओर बढते हैं । ग्रर्जव गुण जैनत्व से प्रोतप्रोत है । श्रार्जवगुण से साधक श्राराधक बनता है
र मायाचारिता से विराधक । श्रपनी साधना मे उत्तीर्ण होना ही श्राराधकता है, उसमे श्रनुत्तीर्ण होना ही विराधकता है। श्रार्जव गुण से युक्त जीव ही मोक्ष- पथ का पथिक बन सकता है । इस गुण की निर्मलता के साथ-साथ सभी गुण स्वयं निर्मल हो जाते हैं, मोह की सभी प्रकृतिया मन्द मन्दतर एव मन्दतम पड जाती हैं, उनका वल क्षीण हो जाता है और ग्रात्मा का बल वढ जाता है । अपना बल बढ जाने से कर्मो की पराजय निश्चित ही है । यदि हम गभीरता से विचार करें तो ऐसा कहना अनुचित न होगा कि शान्ति, नम्रता आदि गुणों मे भी ग्रार्जव गुण ग्रधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योकि इसकी देखरेख मे रहते हुए साधक के हृदय मे कोई भी दोप प्रवेश नही कर सकता ।
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आर्जव का अर्थ सीधा पन या भोला पन भी हो सकता है । बचपन तक मानव मे भोला पन रहता है, ग्रायु- वृद्धि के साथ-साथ भोलेपन का ह्रास होता जाता है। जो साधक अपने इस गुण का ह्रास नही होने देता वह सदैव सुखी रहता है | भोले - पन मे निष्कपटता का उदय स्वाभाविक है, श्रुत श्रार्जव गुण से युक्त साधक अपने भोलेपन के कारण बच्चे की तरह तीव्र रागद्व ेष से मुक्त रहता है, प्रत वह सरलता से मोक्ष पथ पर बढने मे सफल हो जाता है ।
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११. शुचि
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शुचि का अर्थ है पवित्रता । दूसरे शब्दो मे इसको उत्तम गौच भी कहते है । जैसे कोई भी मनुष्य अपने शरीर को और अपने वस्त्रादि उपकरणो को अपवित्र नही होने देता, यदि कारण वा अपवित्र हो भी जाए तो उन्हे अपवित्र नही रहने देता, बल्कि उन्हे शीघ्र ही शुद्ध करने का प्रयास करता है इसी प्रकार हमे मन को भी कभी अपवित्र नही होने देना चाहिये । यदि किसी कारण से मन पवित्र हो जाए - उसमे बुरे भाव प्रा जाए तो उन्हे हटाकर शीघ्र ही मन को पवित्र कर लेने का प्रयास करना चाहिये । द्रव्य को द्रश्य से शुद्ध किया जा सकता है, भावो को नही, अशुद्ध भावो की शुद्धि तो शुद्ध भावो से ही हो सक्ती है ।
"आचार और विचार मे पवित्रता का होना ही शुचि है, श्रान्तरिक मैल को धोना ही वास्तविक पवित्रता है । शरीर बाह्य रूप से चाहे पवित्र हो जाय - साफ हो जाय, किन्तु प्रान्तरिक रूप से इसकी शुद्धि सेवथा असम्भव है, क्योंकि यह अशुचि पदार्थो का स्रोत है । गंगा की धारा मे महीनो तक डुवाए रहने पर भी इस की पवित्रता संभव नही । विष्ठा से भरे हुए घड़े को ऊपर से घो देने पर भी क्या वह पवित्र हो सकता है ? कभी नही । पानी से इस शरीर की शुद्धि भी औपचारिक होती है, वास्तविक नही । योग एक चिन्तन ]
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प्रश्न हो सकता है यदि शरीर दुर्गन्ध पूर्ण एवं अपवित्र ही है तो आचार-विचार की पवित्रता इस मे कैसे हो सकती है ? इसके उत्तर मे यही कहा जा सकता है कि जैसे दुर्गन्ध - पूर्ण कीचड मे उत्पन्न कमल सुन्दर एव सुरभि से परिपूर्ण होता है वैसे ही इस अपवित्र प्रदारिक शरीर मे आचार-विचार भी पवित्र हो सकते हैं और उनके योग से शरीर की महत्ता भी बढ जाती है । विचारो की पवित्रता से मन, हितकर एव प्रिय सत्य से वाणी और आचार की पवित्रता से शरीर पंवित्र हो जाता है ।
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शुचि के दो रूप हैं - आचार की पवित्रता और विचारो की पवित्रता साधक को कभी भी अपने आचार-विचार को अपवित्र नही होने देना चाहिये । यदि कारण वशं विषयो एव कषायों के योग से कलुषित हो जाए तो उन्हें तुरन्त पवित्र करने का प्रयास किया जाना चाहिये । शुद्ध विचारो से प्रचार पवित्र होता है और शुद्ध ग्राचार से विचार पवित्र होते है । ग्राचार और विचार की पवित्रता ही ग्रात्मा की पवित्रता है । श्राचार-विचार की पावनता बनाए रखने में ही मानव-जीवन की सफलता है ।
- महाभारत के युद्ध मे विजय प्राप्त होने के बाद पाण्डवो ने सबसे पहले बड़े समारोह पूर्वक एक राजसूय यज्ञ - सपन्न किया, उसके बाद वे नरसहार के महा पाप मल से मुक्त होने के लिये - तीर्थ स्नान को चल पड़े। कोई भी तीर्थ ऐसा नही रह गया जहा पर उन्होने स्नान न किया हो । वे ग्रठसठ तीर्थो मे स्नान करके वापसी पर द्वारका नगरी मे श्री कृष्ण जी के पास पहुचे । उनका मन पाप भार से अव भी श्राकुल था। मानसिक शुद्धि एव शाति का कोई भी लक्षण वे अपने जीवन मे नही देख पा रहे थे । अन्त
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मे उन्होने श्री कृष्ण जी से कहा कि क्या कोई ऐसी भी नदी है, जिस मे स्नान करके हमारी अन्तरात्मा शुद्ध एव पवित्र हो जाए ?" __ श्री कृष्ण जी ने कहा 'युधिष्ठिर | एक ऐसी नदी रहती है जिसमे तुमने अभी तक स्नान किया ही नहीं। उसमे स्नान किए बिना तुम्हारा मनोरथ फलित होना 'असभव है । उस नदी का नाम शान्ति नदी है, जोकि सयम जल से परिपूर्ण है । उसमे सत्य का प्रवाह है, शील और मर्यादा ही उसके तट हैं, उसमे दया की ऊची-ऊची तरगे उठती रहती हैं, उस नदी में स्नान करो। पानी से अन्तरात्मा की विद्धि नहीं होती।
इस निर्देश से यह प्रमाणित होता है कि सयम, सत्य, शील और दया की पावन भूमि पर ही मानसिक शान्ति का उदय होता है और मानसिक शान्ति के विना आन्तरिक शुद्धि सर्वथा असम्भव है। उक्त सभी साधन कर्म-मल-को दूर करने वाले हैं, अत शान्ति एव समता की नदी मे स्नान करने से ही प्रात्मा की शुद्धि होती है। विशेषता यह है कि इस नदी मे जो एक वार स्नान कर लेता है वह फिर सदैव पाप-कलुष से दूर रहता है, उसका मन बुरे विचारो से सर्वदा वचा रहता है, उसकी वृत्तिया अन्तर्मुखी हो जाती हैं, उसकी अन्तरात्मा से शुचिता का स्रोत फूट पडता है, फिर उसे वाह्य शुद्धि की आवश्यकता का अनुभव ही नहीं होता। वह तो क्या उसके शरीर का स्पर्श करने वाले का मन भी शुद्ध हो जाता है। यही तो शुचि-धर्म की विगेपता है। इसी सयम-स्नान को 'योग-संग्रह मे 'शुचि-धर्म' कहा गया है। १. शान्ति-नदी-सयम-तोयपूर्णा, सत्यवहा शीलतटा दयोमि. ! तनाभिषेक कुरु पाण्टुपुत्र । न वारिणा-शुद्धयति चान्तरात्मा ॥
महाभारत शान्तिपर्व योग : एक चिन्तन ]
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१२. सम्यग्दृष्टि
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जो जीव सम्यग्दर्शन से संपन्न है वह सम्यग्दप्टि कहलाता है । पदार्थों एव तत्त्वो का यथार्थ निश्चय करने की रुचि ही सम्यगदर्शन है। तत्त्व-निश्रय की रुचि भी यात्म-परितोप एव आत्मोस्थान के लिए या आध्यात्मिक विकास के लिए होनी चाहिये। आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न एक विशेष प्रकार की ज्ञान-वत्ति जो नेयमात्र को तात्त्विक रूप में जानने की हेय को त्यागने की और उपादेय को ग्रहण करने की रुचि के रूप में उदित होती है वही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन के उदय की सूचना देने वाले पाच लक्षण हैं प्रशम, सवेग, निर्वेद अनुकम्पा और आस्तिक्य ।
१ प्रशम - तत्वो के अमत् पक्ष की ओर आवर्पण करने वाली वृति का शान्त होना ही प्रगम है।
२. सवेग-समार और सासारिक वधनो के भय भी सदा के लिये मुक्त होने की भावना ही सवेग है ।
३. निवेद-ऐन्द्रियिक विषयो मे आसक्ति का न रह जाना · ही निर्वेद है, अर्थात् वैराग्य-भाव ही निर्वेद है ।
। ४. अनुकम्पा-दुखी प्राणियो के दुख दूर करने की भावना ही अनुकम्पा है। ४४]
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५ प्रास्तिक्य-जीवादि नव पदार्थों को, द्रव्यो को, स्वर्ग, नरक आदि की सत्ता को स्वीकार करना ही आस्तिक्य है।
इन पाचो गुणो से सम्पन्न महासाधक सम्यग्दृष्टि बन जाता है, उसके हृदय से राग द्वष की तीव्रता मिट जाती है, उसकी आत्मा सत्य के लिए जागरूक बन जातो है, यह आध्यात्मिक जागरण ही सम्यग्दर्शन है।
अनादि कालीन ससार-प्रवाह मे भिन्न-भिन्न प्रकार के दु खो का अनुभव करते-करते जब सब कर्मों की स्थिति अन्त -कोटाकोटी सागरोपम की किसी योग्य प्रात्मा में यथा-प्रवृत्ति-करण के द्वारा शेप रह जाती है, तब पहले से भी अधिक परिणामो की शुद्धि हो जाती है जो कि उसके लिये अपूर्व होती है। अपूर्वकरण से राग-द्वेष की वह तीनता मिट जाती है जो तत्त्व-ज्ञान और सत्य-निष्ठा मे बाधक है, अपूर्वकरण से जव कर्म-ग्रन्थि या मिथ्यात्वग्रन्थि नष्ट हो जाती है, तब इस अवस्था की वृत्ति को अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इसी वृत्ति के उदित होने पर सम्यग्दृष्टि जीव क्षायिक सम्यग्दर्शन के अभिमुख होता है।
यहा तत्त्व शब्द का अभिप्राय-अनादि, अनत स्वतन्त्र सत्तात्मक तत्त्व नही, बल्कि मोक्ष-प्राप्ति मे उपयोगी ज्ञेय भाव है। मोक्षार्थियो एव जिज्ञासुमो के लिए जिन वस्तुओं का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है वे ही पदार्थ यहा तत्त्व-रूप से कहे गए है । मोक्ष मुख्य साध्य है, अत मोक्ष और उसके साधनो को जाने बिना मोक्ष-मार्ग मे प्रवृत्ति नहीं हो सकती। ____मोक्ष के विरोधी तत्त्वो का और उन विरोधी तत्त्वो के कारणो के स्वरूप का ज्ञान हुए बिना भी मुमुक्षु अपने पथ में योग : एक चिन्तन ]
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दृढता से प्रवृत्ति नही कर सकता, व्रत तत्त्वविषयक पक्ष और विपक्ष दोनो कावास्तविक ज्ञान होना हो सम्यग्ज्ञान है ।
श्रात्मा का निश्चय होना सम्यग्द है और ग्रात्म-ज्ञान होना हो सम्यग्ज्ञान है। मिश्री मे जैसे उज्ज्वलना और माधुर्य एक साथ रहते हैं, वैसे ही ग्रात्मा में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दोनो एक साथ रहते हैं । जब जीव में सम्यग्दर्शन का उद्भव होता है, तब उसकी चेतना ज्ञान रूप में परिणत हो जाती है । जीव का वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्ज्ञानी हे और हेय के कारणो को विष समझकर सर्वदा के लिए छोड़ देता है और उपादेय के कारणों को अमृत समझकर सदा-सदा के लिए ग्रहण कर लेता है |
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ग्रज्ञान का स्वरूप इससे विपरीत है । प्रज्ञान ससार का कारण है और ज्ञान मोक्ष का, प्रज्ञान का सहचारी मिथ्यात्व है और ज्ञान का सम्यग्दर्शन | सम्यग्दर्शन उत्पन्न होते ही जीव का दृष्टिकोण बदल जाता है, आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का उदय हो जाता है । सम्यग्दर्शन सम्बन्धी विरोधी कारणों के उपस्थित होने पर भी स्थिर रहने वाला साधक स्थितप्रज्ञ कहलाता है । सम्यग्दर्शन के विरोधी कारणों को जानना और उनसे सावधान रहना सम्यग्दृष्टि के लिये अत्यावश्यक है । वे विरोधी कारण ही सम्यग्दर्शन के दूषण अथवा उसके प्रतिचार कहलाते हैं, जो सख्या मे पाच है
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:
१. शंका-शका का अर्थ सदेह और भय है । जिन भाषित तत्त्वो के प्रति सदेह का होना शंका है और जिसका मन सात प्रकार के भयो से व्यथित है वह शकालु है । पहले भय के कारण
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शका उत्पन्न होती है और शक्ति पदार्थ का प्रत्यक्ष होने पर मन भय से व्याकुल हो जाता है ।
२ कांक्षा धर्माचरण के द्वारा सुख-समृद्धि पाने की इच्छा काक्षा है और एकान्तवादियों के दर्शन द्वारा स्वीकृत इच्छा भी काक्षा है ।
३ विचिकित्सा - इसके दो रूप हैं-धर्म के फल मे सदेह और चारित्रवान् से घृणा करना | निन्दनीय व्यवहार करना या कुदृष्टियों से घृणा करना या मलमूत्र आदि अपावन पदार्थों से घृणा करना भी विचिकित्सा है ।
४. पर-पाषण्ड - प्रशंसा – मिथ्यादृष्टियो की प्रशंसां और स्तुति
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करना ।
५ पर-पाषण्ड- परिचय - मिथ्यादृष्टियों के अधिक परिचय मे रहना या उनकी सेवा करना ।
इन पाँच प्रतिचारो से सम्यग्दर्शन दूपित हो जाता है । दूपित सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व के प्रभिमुख हो जाता है । मिथ्यात्व सब विपत्तियो का मूल कारण है ।
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सम्यग्दर्शन के ग्राठ भूपण हैं, जिन से संम्यग्दर्शन विशुद्ध, विशुद्धतर और विशुद्धतम होजाता है । इन्हे ही दूसरे शब्दो में दर्शनाचार भी कहते हैं, जैसे कि -
१. नि शक्ति - सम्यग्दृष्टि को सदैव असंदिग्व और प्रभय ही रहना चाहिए ।
२. नि कांक्षित - जिन-धर्म मे श्रटल विश्वास रखते
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धर्माचरण के फलरूप मे भौतिक सुख-समृद्धि की कामना भी नहीं करनी चाहिये।
३ निविचिकित्सा-सम्यग्दृष्टि कभी भी धर्मफल के प्रति सदेह नहीं करता और न ही किसी जड चेतन की अवहेलना करता है और न ही उनसे घृणा करता है तथा उनकी निन्दा भी नहीं करता।
४ अप्टि -विभिन्न धर्मावलम्बियो की विभूति देखकर जो मोह उत्पन्न होता है उसे मूढता कहा जाता है । मिथ्यादृष्टियो की प्रगमा एव स्तुति करना उन्हे पुरस्कार देना ये सब मूढता के ही परिणाम है । सम्यग्दृष्टि अपने जीवन में कभी भी. मूढता नही श्राने देता। • मूढता तीन प्रकार की होती है लोक-मूढता, देव-मूढता
और पापण्ड-मूढता । नदी स्नानादि में धार्मिक विश्वास करना लोक-मूढता है । राग-हेप के वशीभूत हुए देवो की उपासना करना
देव-मूढता है और हिंसा आदि पाप-कार्यो मे प्रवृत्त साधुनो की । सेवा-सुश्रूषा करना पापण्ड मूढता है।
५ उपहण-सम्यग्दर्शन की पुष्टि करना, धर्मात्मानो का या श्री-सघ-सेवियो का उत्साह बढाना उपवृ हण है। कहीं-कही उपबृहण के स्थान पर उपगूहन शब्द भी उपलब्ध होता है, जिसका भाव है अपने गुणो का गोपन करना या प्रमादवश हुए किसी के दोपो का प्रचार करना।
६. स्थिरीकरण-धर्म-मार्ग से या न्याय-मार्ग से फिसलते हुए को पुन: धर्म-मार्ग मे स्थिर करना। ४८]
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७ वात्सल्य-मोक्ष के कारणीभूत धर्म मे और अहिंसा मे श्रद्धा रखना तथा. सहमियो मे वात्सल्य-भाव रखना, पाहारपानी, वस्त्र एव औषध आदि से उनकी सेवा करना, विनय करना भक्ति और प्रीति के भाव रखना वात्सल्य है।
२. प्रभावना-जैसे भी हो जिन-शासन की महिमा बढाना, तीर्थ की उन्नति हो वैसे कार्य करना, अपनी आत्मा को ज्ञान, दर्शन और'चारित्र से प्रभावित करना प्रभावना है। ये सम्यग्दर्शन के आठ प्राचार है। साधक को इनकी आराधना नित्यप्रति करनी चाहिए। सम्यग्दृष्टि के रूप
आत्म-शुद्धि, दृष्टि-गुद्धि, उपाय-गुद्धि और ध्येय-शुद्धि इन चारो का समावेश सम्यग्दृष्टि मे होता है ।
कषायो की मन्दता के कारण प्रात्मा की अन्तर्मुखी वृत्तिका होना प्रात्म-गुद्धि है।
सत्य के परीक्षण के लिए द्वष तथा पक्षपात से दूर रहकर प्रत्येक वस्तु को अथवा प्रत्येक विचार को तटस्थ वृत्ति से देखने और समझने की क्षमता ही दृष्टि-शुद्धि है। ... वस्तु के जानने के जितने भी उपाय हैं उनके निर्दोष तथा वैज्ञानिक परीक्षण ही उपाय-शुद्धि कहा जाता है । ___ - साधक के सामने किसी महान लक्ष्य का रहना ध्येय-शुद्धि है।
- इनमे से पिछली तीन गुद्धिया तभी जीवन मे आ सकती हैं, जबकि पहली अर्थात् प्रात्मगद्धि प्राप्त हो जाय, उसके विना अन्य शुद्धियो की प्राप्ति असम्भव ही होती है।
' सम्यग्दृष्टि साधक की साधना निर्दोप होनी चाहिये। साधना योग एक चिन्तन ]
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के त्यागने योग्य चार दोप बतलाए गए है। जैसे कि दग्ध, शून्य, अविधि और अतिप्रवृत्ति ।
दग्ध-एक क्रिया को समाप्त किए बिना दूसरी क्रिया प्रारम्भ करने से पहली क्रिया भस्म हो जाती है।
शून्य-जिस साधना मे उपयोग नही है, मन की स्थिरता एव सलग्नता नही है, वह द्रव्य साधना है भाव-साधना नहीं।
प्रविधि-प्रत्येक क्रिया विधि-पूर्वक ही करनी चाहिए प्रविधि से की गई कोई भी क्रिया सफल नही होती।
अतिप्रवृत्ति-अपनी शक्ति से भी अधिक साधना करना अतिप्रवृत्ति है। सम्यग्दर्शन के भेद
सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का होता है-औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक । सम्यग्दर्शन के प्रावरणभूत दर्शन-मोहनीय कर्म के उपशम,क्षयोपशम, और क्षय से इसका उद्भव होता है। । इन भावो से सम्यग्दर्शन की शुद्धि का तारतम्य जाना जा सकता
है । औपशमिक को अपेक्षा क्षायोपशमिक और क्षायोपमिक की अपेक्षा क्षायिक भाव वाला सम्यग्दर्शन उत्तरोत्तर विशुद्ध एव विशुद्धतर होता है । चौथे से लेकर ग्यारहवे गुणस्थान तक प्रोपशमिक, चौथे से लेकर सातवे गुण स्थान तक क्षायोपशमिक और भवस्थ की अपेक्षा चौथे से लेकर चौदहवे गुण स्थान तक क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। सिद्धो की अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दर्शन-सादि अनन्त है । औपशमिक सम्यग्दर्शन को स्थिति अन्तर्महर्त प्रमाण मानी गई है। क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की स्थिति कम से कम अन्तमहर्त और उत्कृष्ट छयासठ सागरोपम से कुछ अधिक तथा क्षायिक सम्पदर्शन की स्थिति सादि अनन्त है। जिस जीव मे जो
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भी सम्यग्दर्शन है उसी से वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है। सम्यग्दृष्टि वनते हो अनेक प्राध्यात्मिक गुणो को प्राप्त कर साधक सफलता के मार्ग पर अग्रसर होने लगता है। . . अभय और निर्भय
जो साधक स्वय भय से मुक्त है और दूसरो को भी भय से मुक्त करने की क्षमता रखता है वह अभय है और जो साधक भयानक वातावरण और भय के अनेक कारण उपस्थित होने पर भी भयभीत नही होता वह निर्भय है। सम्यग्दृष्टि मे किसी भी प्रकार का भय होता ही नहीं, वह किसी से डरना जानता ही नही। अधिकाश मानसिक व्याधिया भय से उत्पन्न होकर फिर वे स्वय भय-उत्पादक हो जाती है, जैसे किसी मा को लडकी कालान्तर मे स्वय मा बन जाती है। भय उत्पन्न होने के तेरह कारण है जैसे कि१ अज्ञान जो व्यक्ति जिस काम से अनभिज्ञ होता है उसे वह
काम करते समय भय लगता है तथा जिस स्थान के
सम्बन्ध मे जानकारी नही होती है वहा जाते हुए - मनुष्य भयभीत होता है। २ संशय-मानव जव काशील होता है तब उसकी सगया
त्मिका वृत्ति भय-उत्पादिका बन जाती है। ३ उदासीनता-मध्यस्थ भाव को उदासीनता कहते हैं, किन्तु
यहा यह अर्थ अभीष्ट नही है। यहां इसका अर्थ है उत्साह-हीन अवस्था। उत्साहहीन व्यक्ति सर्वदा त्रस्त
रहता है। ४. अनिश्चितता-मानसिक अस्थिरता से भय उत्पन्न होता है। योग . एक चिन्तन
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५ अनैतिकता-चारित्र की निर्वलता से भय पैदा होता है। ६. अशक्तता-शारीरिक एव मानसिक दुर्वलता और असमर्थता
भय की मां है। ७. अयोग्यता-जो व्यक्ति जिस कार्य के योग्य नहीं है उसे वह
कार्य करते हुए भय की अनुभूति अनायास ही होने लग
जाती है। ८. अकर्मण्यता-जहा आलस्य है वहा भय मुह खोल कर - आता है। ६. दीनता-पारिवारिक दृष्टि से, स्वभाव की दृष्टि से, उत्साह
की अपेक्षा से, धन की अपेक्षा से जव मानव को अपने दीन-हीन होने का आभास हो जाता है, तब वह भय के
मुह मे जा गिरता है। १०. पर-वशता-जो मानव अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व को खो देता
है वह पराधीन हो जाता है और पराधीन व्यक्ति सर्वदा
भयभीत रहता है। ११ असहनशीलता-जिस मे सहनशीलता नही होती उसे भी
भय डराता ही रहता है। १२ व्यसन- व्यसनी व्यक्ति सदैव भयभीत ही रहता है। १३ अविश्वास-जिस को किसी पर विश्वास है ही नही,वह सदैव
भयभीत रहता है। सम्यग्दृष्टि साधक मे भय के इन कारणो का अभाव रहता है। वह किसी से डरना जानता ही नहीं, क्योकि जब कारण का ही प्रभाव है तो कार्य का अभाव होना स्वत -सिद्ध है। '
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सम्यग्दृष्टि का इष्ट सदाचार होता है। सद्+प्राचार इन दो शब्दो से सदाचार गब्द बनता है। क्षमा, सहिष्णुता, विनय, शील, सेवा और समर्पण इनके सामूहिक रूप का नाम सदाचार है। विवेकशीलता, न्याय प्रियता, वीरता और सच्चरित्रता इन विशेष गुणो के मध्य मे सम्यग्दृष्टि सन्तुलित रूप मे रहता है। जैसे अग्नि मे से मणि-मन्त्र एव औषधि के द्वारा उष्णता दूर की जा सकती है, वैसे ही राग-द्वेष भी मन के धर्म है, उन्हे योगक्रिया द्वारा दूर किया जा सकता है। राग और द्वेष मे भय छिपा हुआ है, जब शरीर पर राग होता है, तब रोग एव मृत्यु का भय उपस्थित हो जाता है, यदि धन पर राग है तव धन-नाश का भय, यदि कामगुणो मे राग है तो वियोग का भय, यश पर राग है तो अपयश का भय, यदि भौतिक सुख पर राग है तो दुख का भय उपस्थित हो जाता है। इसी भय-मुक्तता को लक्ष्य मे रखकर सम्यग्दृष्टि वीतरागता एव द्वषमुक्तता की ओर बढ़ता है।
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१३. समाधि
आत्मा मे या परमात्मा मे तल्लीन हो जाना समाधि है। ध्याता, ध्यान और ध्येय की भिन्नता को भूलकर स्वय ध्येयमय हो जाने की अवस्था ही समाधि है। इस अवस्था मे, मानसिक आनन्द असीम हो उठता है। चेतना की बाह्य वृत्तिया नष्ट जैसी हो जाती है, बाह्य पदार्थो की प्रतीति ही नही रह जाती, साधक सब क्लेशो से मुक्त होकर अनेक प्रकार की सिद्धिया प्राप्त कर लेता है।
सम् पूर्वक आधि शब्द मे इस की निष्पत्ति हुई है। जव मानसिक रोगो अर्थात् सुख, दुख, काम, क्रोध, लोभ मोह, राग, द्वेष, चिन्ता, भय, शोक और भ्रान्ति आदि रोग-समूह से मन मुक्त हो जाता है तब वह पूर्णतया स्वस्थ हो जाता है, मन की उस स्वस्थ अवस्था को भी समाधि कहा जाता है।
समाधि परमानन्द पाने की एक चाबी है, दुर्गतियो से निकलने का महामार्ग है, मन की वृत्तियो को अन्तर्मुखी बनाने का अमोघ उपाय है, अत्यधिक श्रम, अपथ्य आहार और अनुचित व्यवहार, दूपित निवासस्थान, अकर्मण्यता, व्याधि, सशय, प्रमाद, विषयाभिलाषा, भ्रान्ति-दर्शन, अस्थिरचित्तता मन की असमर्थता आदि सब समाधि के वाधक तत्त्व हैं । वस्तुत देखा जाए तो चित्त की ५४]
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प्रसन्नता ही समाधि का फलितार्थ है। तपस्या तथा धर्म-चिन्तन करते हुए कर्मों का विशिष्ट क्षयोपशम या क्षय हो जाने से जो चित्त मे विशुद्ध आनन्द की अनुभूति होती है वही समाधि है। चित्त-समाधि के कारणो को स्थान कहते हैं, वे कारण या स्थान इस प्रकार हैंचित्तसमाधि-स्थान
१. धर्मलाभ-जिसके मन मे पहले धर्म की भावना नहीं उसके चित्त मे पहली वार धर्म-भावना पा जाने पर चित्त मे हर्षोल्लास भर जाता है।
२ शुभ स्वप्न - जिस सर्वोत्तम स्वप्न की कभी मनुष्य ने कल्पना भी नही की-उस उत्तम महास्वप्न के देखने पर उसके मन मे विशेप प्रानन्द की अनुभूति होने लगती है।
३ जाति-स्मरण-अपने पूर्व भवों को देख लेना जातिस्मरण जान-कहलाता है। अनकूल निमित्त मिलने पर जव यह ज्ञान उत्पन्न होता है तब चित्त मे अानन्द की अनुभूति होती है।
४. देव दर्शन जिसने पहले कभी देव-दर्शन नहीं किया, यदि उस व्यक्ति को अपने पूर्ण वैभव के साथ पहली वार दसो दिशामो को प्रकाशित करते हुए किसी देव के दर्शन हो जाएं तो वह भी चित्तसमाधि का एक कारण बन जाता है।
५ अवधि-ज्ञान-पहली बार अवधिज्ञान के द्वारा लोक के स्वरूप को जान लेने पर चित्त मे अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है।
६. अवधि-दर्शन-पहली बार उत्पन्न हुए अवधिदर्शन से योग एक चिन्तन ]
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समस्त लोक को जान लेने पर चित्त मे समाधि अर्थात् असीम अानन्द की अनुभूति होती है।
७. मन पर्यव-ज्ञान-ढाई द्वीप मे रहे हए संजी जीवो के । मनोगत भावो को जब ज्ञानी मन पर्यव-ज्ञान द्वारा पहली बार जान लेता है, तब ज्ञान और ज्ञेय की सफलता से उसका चित्त अपूर्व आनन्द को उपलब्धि करता है।
८. केवलज्ञान-जब किसी महान् साधक को केवलज्ञान उत्पन्न होता है, उस ज्ञान से वह सम्पूर्ण लोक-अलोक का साक्षात्कार करता है, तब सर्वतोमहान् ज्ञान और सम्पूर्ण जेय पदार्थ ये दोनो उस ज्ञानी के चित्त के लिये आनन्दवर्षक बन जाते हैं।
केवल-दर्शन-जव किसी योगी को साधना के क्षेत्र में अग्रसर होते हुए केवलदर्शन उत्पन्न हो जाता है, तत्क्षण सम्पूर्ण लोक और अलोक को प्रत्यक्ष कर लेने पर वह ज्ञानी अतीव प्रानन्द की अनुभूति करता है। - १० निर्वाण-काल-जब केवली जन्म और मरण को तथा उनके मध्यवर्ती सभी प्रकार के दुखो को और क्रियमाण, सचित तथा प्रारब्ध इन कर्मो को सर्वथा क्षय कर देता है, तब सादिअनन्त अवस्था को प्राप्त करते समय जो सच्चिदानन्द की प्राप्ति होती है, वह भी एक सर्वोत्तम समाधि है ।'
प्रश्न हो सकता है कि जब 'जानावरणीय कर्म और दर्शना. वरणीय कर्म एक साथ क्षय होते है और एक साथ ही केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होते है तो इनको अलग-अलग चित्तसमाधि - १. दशाश्रुतस्कन्ध, दशा पाचवी तथा समवायाग सूत्र, समवाय १०
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वताने का क्या कारण हो सकता है ? इस के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि जीव का उपयोग दोनों में से जिस अोर होगा वही चित्तसमाधि का कारण बन जाएगा। उत्पन्न होते ही यदि उपयोग केवलज्ञान मे है तो केवलजान समाधि का कारण बन जाएगा। यदि केवलदर्शन में उपयोग होगा तो केवलदर्शन समाधि का कारण बनेगा। केवलजान साकारोपयोग और केवलदर्शन निराकारोपयोग है। ब्रह्मचर्य-समाधि
ब्रह्म शब्द आत्मा, परमात्मा, तप और वेद के लिये प्रचलित है, चर्य गव्द विचरण, आसेवन, अध्ययन एव निरोध अर्थ मे रूढ है। प्रात्मा जब अपने स्वरूप मे या परमात्मा के गुणो मे विचरण करता है, तप का आचरण करता है या शास्त्रो का अव्ययन करता है, तब मन स्वय ही समाधिस्थ हो जाता है, क्योकि तत्त्व-चिन्तन, मनन, श्रवण, निदिध्यासन, अनुप्रेक्षा आदि द्वारा नएनए ज्ञान में मन को लगाने से ब्रह्मचर्य के बाधक तत्त्वो का निरोध स्वय हो जाता है। ब्रह्मचर्य की प्राराधना के दो हो मार्ग है - ज्ञानमार्ग और क्रियामार्ग। ज्ञानमार्ग से जिस ब्रह्मचर्य की सिद्धि की जाती है वह समाधिजनक होता है, किन्तु क्रियामार्ग से भी ब्रह्मचर्य की रक्षा हो सकती है । जब कोई व्यक्ति किसी ऐसे कार्य मे व्यस्त रहता है जिससे काम-वासना के उदय का कभी अवसर ही नही मिलता, तब किया-समाधि की अवस्था होती है। इन दो मार्गों मे से जानमार्ग ब्रह्मचर्य की सिद्धि के लिये. सर्वश्रेष्ठ एव समाधिजनक है । क्रियामार्ग समाधि-जनक होने में वैकल्पिक है। गुप्ति और वृत्ति___ गुप्ति का अर्थ रक्षा है और वृत्ति का अर्थ है वाड । जैसे वाड योग : एक चिन्तन ]
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से खेती की रक्षा होती है वैसे ही ब्रह्मचर्य की रक्षा भी बाड से होती है। खेती की रक्षा के लिये चारो ओर बाड लगाई जाती है, इसी प्रकार जव ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए दस प्रकार की वृत्तिया रूपी बाडे लगाई जाती है तभी गुप्ति हो सकती है। एक भी वाड दुर्वल होने से समाधि भग हो जाती है । समाधि भग होने से ब्रह्मचर्य समाप्त हो जाता है । ब्रह्मचर्य स्वय भगवान है-(तं वर्भ भगवत)।
जैसे भगवत् सिद्धि किसी विशेष साधना से ही हो सकती है, वैसे ही ब्रह्मचर्य की सिद्धि भी ज्ञानमार्ग और तपोमार्ग से हो सकती है । 'तवेमु वा उत्तमं बमचेर-सभी तपो मे ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ तप है।' ब्रह्मचर्य के शिखर पर तपोवल और ज्ञानबल से ही पहुचा जा सकता है। इनके बिना जीवन में ब्रह्मचर्य भगवान का अवतरण और अवस्थान नहीं हो सकता है। ब्रह्मचर्य की माधना करने का अधिकार स्त्री और पुरुष दोनो को है। स्त्री के लिए स्त्री सजातीय, है और पुरुप विजातीय है। पुरुप के लिए पुरुष सजातीय है। ब्रह्मचर्य की दस बाडे हैं। सभी की सभी वाडे सुदृढ होनी चाहिये तभी ब्रह्मचर्य भगवान की आराधना सफल हो सकती है। ब्रह्मचर्य की दस बाड़ें:
१ पहली बाड़-जिस स्थान मे या मकान मे पशु-नपु सक या विजातीय प्राणी रहते हो वहा ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी का ठहरना उसके ब्रह्मचर्य-व्रत के लिए हानिकारक होता है । यह सभी जानते हैं कि जहा विल्ली रहती है वहां सूपक के लिये ठहरना हानिकारक है।
२. दूसरी बाड़-ब्रह्मचारी विजातीयो की जाति, कूल, रूप, ५८ ]
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आदि का वर्णन न करे, क्योकि उनकी कथायो, विकथाओ मे रुचि लेने पर ब्रह्मचर्य का भग होना स्वाभाविक है। यह सर्व-प्रसिद्ध है कि नीबू अादि खट्टी वस्तु की बात करने मात्र से मुह मे पानी आए विना नहीं रहता।
३ तोमरी वाड-विजातीयो के साथ एक आसन पर न वैठे। जिस आसन या स्थान पर पहले से ही विजातीय आसीन हो उसके उठ जाने पर भी दो घडी तक वहा वैठने का प्रयास न करे। जैसे सतप्त भूमि पर रखे हुए घी के घडे मे घी पिघले बिना नहीं रह सकता, वैसे ही ब्रह्मचर्य भी वहा पिघल जाता है ।
४ चौथी बाड़-विजातीयो के आकर्षक मनोहर अग-उपाङ्गो को आसक्ति पूर्वक न देखे और दृष्टि के साथ दृष्टि भी न मिलाए । क्योकि ऐसा करने पर ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाता है। कच्ची आखो से सूर्य को देखने पर श्राखो को नुकसान पहुंचता ही है।
५ पांचवीं वाई-दीवार से, पर्दे से, झरोखे से, खिडकी से अन्दर होने वाले विजातीयो के अश्लील गीत, रोने के शब्द, हसी मजाक, विलाप, वासनोत्तेजक शब्द आदि आसक्ति पूर्वक न सुने न देखे । क्योकि वादल की गर्जना सुनकर जैसे मोर नाचने लगता है वैसे ही मन भी अश्लील बातें सुनकर अश्लीलता की ओर अग्रसर होने लग जाता है।
६ छटी बाड़-गृहस्थ अवस्था मे जो काम-चेष्टाए देखी सुनी या की हैं, उनको पुन' स्मरण न करे, क्योकि भुक्त भोगो की स्मृति वासना को उत्तेजित कर ब्रह्मचर्य को भग कर देती है, जैसे अभीष्ट जन-धन के नष्ट होने पर जब-जब उनकी याद आती है तव-तब मन मे शोक उमडे बिना नहीं रहता। जिसका स्मरण योग एक चिन्तन ]
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ही मानसिक शान्ति को भग कर देता हो उसका स्मरण न करना ही श्रेयस्कर होता है।
७ सातवीं बाड़-प्रणीत अर्थात् पौष्टिक भोजन न करे, क्योकि सरस पौष्टिक वासनोत्तेजक पदार्थो का पाहार करना भी ब्रह्मचारी के लिए हानिकारक होता है । जैसे सन्निपात के रोगी के लिए दूध और मिश्री का भोजन प्राणनाशक बन जाता है वैसे ही प्रणीत पाहार ब्रह्मचर्य का नाशक बन जाता है।
__पाठवीं बाड़-ब्रह्मचारी नीरस एव शुष्क भोजन भी ठूस-म कर न खाए, प्रमाणोपेत आहार-पानी का ही उपयोग करे। श्रीकृष्ण कहते हैं. . "युक्ताहार-विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नाववोधस्य योगो भवति दु खहा।" समुचित आहार, समुचित विहार, समुचित क्रिया, समुचित निद्रा होने पर ही साधक के लिये योग दुख विनाशक वन पाता है।
' अधिक खान-पान करने से पेट मे वह शुष्क भोजन फूल कर शारीरिक विकृतियो को उत्पन्न करता है । जैसे जीर्ण-शीर्ण थैली मे रखा हुआ रत्न निकल जाता है वैसे ही ब्रह्मचर्य-रत्न भी विकृत शरीर से निकल जाता है।
। नौवीं बाड़-साधक स्नान, मजन, अलकार, विभूषा आदि से शरीर विभूपित न करे । अलकृत शरीर वाला व्यक्ति विजातीयो के लिए प्रार्थनीय होता है, क्योकि विभूषा का प्रयोजन विपरीत लिंगी का आकर्षण ही होता है । यदि कोई पथिक चमकीले वस्त्र मे लपेट कर रत्न को अपने पास रखे तो चोर ठग आदि उसे ६०]
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हथियाने की कोशिश किये बिना नही रहते, गूदड़ियो मे ही लाल आदि रत्न सुरक्षित रह सकते हैं।
१०. दसवीं बाड़-ब्रह्मचारी काम-वासना के अनुकूल शब्द, रूप, रस, गध और स्पर्श का अनुभव करने की कभी भी कोशिश न करे, क्योंकि ये काम-गुण हैं । काम-गुण मानव को अपनी ओर नही खीचते, वल्कि मानव काम-गुणो को प्रासक्ति के साथ अपनी ओर खीचता है।
एक वाड के उल्लघन करने से भी अनेक विपत्तिया और अनेक तरह की हानिया हो सकती है, यदि अनेको का उल्लघन किया नाय तो शान्ति और समाधि कहा स्थिर रह सकती है ? तीन लोक की सपत्ति भी जिस की कीमत नही पा सकती, उसकी रक्षा की जवाबदारी साधक पर कितनी है ? यह निश्चय और ज्ञान का ही विषय है।' दशविध समाधि___ सम्यग् निवृत्ति और सम्यक् प्रवृत्ति ये दोनो समाधि के मुख्य अग है । अपूर्व आनन्द, परमशान्ति और सात्विक अवस्था मे मन का प्रवेश रूप जो समाधि है उसके दस कारण माने गए है, जैसे
१. प्राणातिपात-विरमण-जब मानव छोटी-बडी सभी प्रकार की हिंसा से निवृत्ति पाकर अनिमेय दृष्टि से अहिंसा भगवती के दर्शन करता है, तब मन समाधि का अनुभव करता है। हिंसा से निवृत्त होकर अहिंसा की ओर बढना भी समाधि है।
१ उत्तरा०प्र० १६॥ योग : एक चिन्तन]
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। २ मषावाद-विरमण-असत्य के सभी भेदो मे पूर्णतया निवृत्त होना और निर्दोप सत्य की ओर प्रवृत्ति करना, सत्य भगवान के दर्शन करना, ये सब समाधि-मन्दिर में प्रवेश करने के मार्ग है।
३ अदत्तादान-विरमण-बिना अाज्ञा के किमी की वस्तु को ग्रहण करना, अदतादान है। किसो भी जड-चेतन प्रादि छोटीबड़ी वस्तु को उसके स्वामी को पाना लिए बिना न उठाना अदत्तादान-विरमण है । इससे भी मन समाधिस्थ होता है।
४ मैथुन-विरमण-काम-वासना के छोटे-बडे सभी पहलुयो से निवृत्त होना और ब्रह्मविद्या मे सलीन होना समाधि का चौथा कारण है।
५ परिग्रह-विरमण-कनक और कामिनी, से, चल और अचल सपत्ति से, सोने-चादी से, धन-धान्य से, पशु-पक्षी से, यानवाहन से अर्थात् ममत्व के सभी साधनो से निवृत्त होकर उत्तम संतोप मे प्रवृत्ति करने पर मन की विपमता समाप्त हो जाती है और साधक का समता के क्षेत्र मे प्रवेश हो जाता है। समता के असीम क्षेत्र मे प्रवेश करने से समाधि स्वय हो जाती है।
६ ईर्या-समिति-सयम, विवेक एव यतना से काय की । प्रवृत्ति करना।
७. भाषा-समिति-सयम, विवेक एव यतना से भापा वोलना।
८. एषणा-समिति-ग्राहार-पानी, वस्त्र, पात्र, मकान, चौकी, पट्टा आदि निर्दोप एव कल्पनीय वस्तुओ का सयमी जीवन के अनूकूल यतना से ग्रहण करना। ६२]
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६. आदान-भाण्ड-मात्र निक्षेप-समिति-अपने अधिकार में रही हुई किसी वस्तु को उठाते और रखते हुए यतना से प्रवृत्ति करना।
१० उच्चार - प्रवण - खेल • जल्ल - मल्ल-परिष्ठापनिका समिति-जहा न कोई प्राता हो और न देखता हो, अचित्त भूमि देखकर शरीर की सब तरह की मैल को यतना से यदि त्यागा जाए तो सभी समितिया समाधि-जनक हो जाती हैं।' चतुर्विध समाधि
विनय-आराधना, श्रुत-अध्ययन, निर्दोप तप और निरतिचार प्राचार इन चार भेदो मे से यदि किसी एक भेद मे कोई सलग्न है तो उसे जिस क्षण की आराधना करते हुए अपूर्व आनन्द को अनुभूति होती है उसके लिये वही क्षण समाधि रूप हो जाता है। जिसको जिस कारण से समाधि प्राप्त हुई है उसी कारण के अनुरूप ही उस समाधि का नाम पड़ जाता है। जैसे कि विनय-समाधि श्रुत-समाधि, तप -समाधि और आचार-समाधि। समाधि कोई भी हो उससे मानसिक शान्ति एव असीम आनन्द की उपलब्धि अवश्य ही होती है। समाधि शारीरिक भान से ऊपर उठकर मन की स्थिरता है और इस मानसिक स्थिरता से आनन्द के दिव्य स्रोत अनायास ही उमडने लगते हैं, अत साधक को समाधिस्थ होकर योग-मार्ग पर अग्रसर होते रहने का प्रयास करते रहना चाहिये ।
१ स्थानाग दसवा स्थान । २. दशवकालिक सूत्र अ० ९ वा उ०४ । योग । एक चिन्तन
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१४. आचार
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जिसका पालन चारो प्रोर को मर्यादाग्रो को ध्यान में रख कर किया जाए वही प्राचार है दूसरे शब्दों में उत्तम जनो द्वारा श्राचरित कार्यों का आचरण करना ही ग्राचार है ।
ग्राचार पाच प्रकार का होता है । जानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप-प्राचार और वोर्याचार । लोक व्यवहार मे जैसे प्रत्येक क्षेत्र के कार्य विभाग मे विशेष जानकारी की ग्रावश्यकता रहती है वैसे ही धर्म - क्षेत्र मे भी विशेष तात्त्विक जानकारी के बिना कोई भी साधक प्रागे नही बढ़ सकता । साधक अध्ययन के द्वारा जो श्रुतज्ञान की अभिवृद्धि करता है वही जानाचार है, अथवा नए-नए ज्ञान की प्राप्ति और प्राप्त ज्ञान की रक्षा के लिये सद् प्रयत्न को ही ज्ञानाचार कहा गया है ।
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सम्यग्दर्शन हठवाद और रूढ़िवाद का विरोधी तत्त्व है । सत्य और असत्य की परख में निश्चय लाने वाला और साधनाके क्षेत्र मे दृढता लाने वाला यदि कोई तत्त्व है तो वह सम्यग्दर्शन ही है । इसकी उपस्थिति मे जीव सम्यक्प्रवृत्ति और सम्यग्निवृत्ति स्वत. ही करने लगता है । जीवादि नवतत्त्वो का ठीक-ठीक ज्ञान तथा तत्त्ववेत्ता की विनय भक्ति एवं सेवा करना ये दोनो सम्यक् - प्रवृत्तिया है । इन्ही सत् - प्रवृत्तियो को
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सम्यक् चारित्र कहा '
जाता है ।
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सम्यग्दर्शन साधक को चारित्र-भ्रष्टता और एकान्त मिथ्यावादियो की सगति से दूर रखता है। सम्यग्दृष्टि मोक्ष के उपायो मे, जिनवाणी मे एव अखण्ड सत्य मे नि शकित रहता है । मिथ्यात्व या मिथ्यावादो और सासारिक सुख-साधनो से वह निस्पह रहता है। वह भयकर विपतियो से घिर जाने पर भी धर्म फल के प्रति सन्देह नहीं करता। मिथ्यादृष्टियो के चमत्कार को देख कर भी उसकी चेतना मूढता से दूर रहती है। वह तीर्थङ्करो के द्वारा वताए हुए मार्ग पर चलने वालो को प्रशसा करता है । जो व्यक्ति सन्मार्ग से फिसल रहा हो उसे पुन. धर्म मे स्थिर करता है, सहधर्मी लोगो पर वात्सल्य एत्र प्रोति रखता है, मार्गानुसारी जीवो को प्रभावना के द्वारा जिन-मार्ग पर लाता है । इस प्रकार के सभी कार्य दर्शनाचार कहलाते है।
मर्व देश और सर्व काल मे विना किसी आगार या अपवाद के जिन व्रतो की ग्राराधना की जातो है, उन्हे सार्वभौम महात कहते हैं। महाव्रतो मे साधक को किसी प्रकार को छूट नही दी जाती। जिन मे छूट दी जा सकती है, वे महाव्रत नहीं, बल्कि अणुव्रत कहलाते है। महाव्रत ग्रहण करते समय साधक कोई छूट नही रखता, वह तीन योग और तीन करण से हिसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह का त्याग कर देता है, इन से पूर्णतया निवृत्त होने की प्रतिज्ञा लेता है। इतना ही नही पृथ्वी काय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय की हिंसा का तीन योगो और तीन करणो से जीवन भर के लिये त्याग कर देता है ।..
महानत एक ही नहीं प्रत्युत पाच है। कोई भी महावत न बडा है और न छोटा, सभी अपने-अपने महत्त्व और उपयोगिता
योग एक चिन्तन ]
[६५
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__ की दृष्टि से श्रेष्ठ एव महत्त्वपूर्ण है। इनका अस्तित्व सभी चारित्रो मे पाया जाता है।
रात्रि-भोजन-विरमणबत नित्य तपस्या का परिचायक है। इस तप की साधना के लिये रात्रि में जीवन भर के लिये सभी तरह के खान-पान का परित्याग, इतना ही नही रात्रि को खाने-पीने की वस्तुप्रो के पग्रह का भो त्याग, यहां तक कि रात्रि को औषधिसेवन का भी त्याग कर देना होता है। अन्य सभी महाव्रतो और रात्रिभोजन-विरमगवत मे साधक किसी प्रकार की छुट या ग्रागार नही रखता और न प्रागार रखने वाले को महावतो का पालक कहा जाता है।
मार्वभौम महाव्रतो की रक्षा समिति और गुप्ति से की जाती है। ईर्या-समिति, भाषा-समिति, एपणा-समिति, आदान-भण्डमात्रनिक्षेपणा-समिति और उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-मल-परिठावणिया-समिति- इन पांचो समितियो का सम्यक्तया पालन करने को ही समिति या सम्यक्प्रवृत्ति भी कह सकते है। जब साधक अशुभ सकल्पो से मन को, अशुभ एव अमगल वाणी से वचन को और अशुभ प्रवृत्ति से काया को नियन्त्रित करता है तब उसी को गुप्ति या सम्यनिवृत्ति कहते हैं। चारित्राचार के सभी भेद समिति एव गुप्ति मे निहित हो जाते हैं।
जिस तप से विषय, कपाय और अन्तर्मल भस्म हो जाएं, अहिंसा भगवती की सफल एव पूर्ण पाराधना हो जाए, जीवन सन्तोष से परिपूर्ण हो जाए गरीर पर मम-व भी न रहने पाए, अध्ययन और ध्यान में मन सलीन हो जाए, पूज्य जनो के प्रति विनयभक्ति, प्रीति एव सेवा की भावना जाग जाए, राग, द्वेप, मोह विल्कुल मन्द पड जाए, मान . एव प्रतिष्ठा की भूख शान्त
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हो जाए, खान-पान के पदार्थो मे अासक्ति न रहे, परीषह और उपसर्ग उपस्थित होने पर उन्हे समभाव से सहन करने लगे, स्वर्गीय सुख-साम्राज्य से विरक्त रहे, निदान न करे, नित्यप्रति कष्ट सहने का अभ्यास करता रहे, केशलोच करना, वस्त्र न रखना या जरूरत से कम रखना, सर्दी के दिनो मे शीत सहना, गर्मियो के दिनो मे धूप को प्रातापना लेना, वीरासनादि लगाना, पैदल विहार करना, पैरो मे जूता न डालना, सिर से नगे रहना, निर्दोष गोचरी करके आहार करना, रसीले पदार्थो एव विगयो का त्याग करना, जितेन्द्रिय बनना, मन को जीतना, मौन रखना इत्यादि सव तप के ही अनेक रूप है।
जैन आगमो मे तपस्या बारह प्रकार को बतलाई गई है। ज्ञानाचार के आठ रूप, दर्शनाचार के आठ रूप, चारित्राचार के पाठ रूप और बारह प्रकार के तप-इन छत्तीस आचारो का यथाशक्य यथासम्भव निरन्तर पालन करना और इनके पालनार्थ अपनी शक्ति का प्रयोग करना वीर्याचार है, अत पाच प्रकार के प्राचारो का जीवन के अन्तिम श्वास तक गलन करना ही प्राचार है। .
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१५. विनयोपेत
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दिपूर्वक णीञ प्रापणे धातु से विनय शब्द की निष्पत्ति होती है । विनय शब्द अनेकार्थक है । अभ्युत्थान, प्रणाम, भक्ति, प्रीति, शिष्टता, नम्रता, सयम, शिक्षा, ग्रपनयन, लध्यविन्दु मे पहुचाने वानी साधना, इन सब का विनय शब्द से ग्रहण हो जाता है, परन्तु विनय का मुख्य अर्थ है आाचार |
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विनय ही धर्म का मूल है, इसी सदर्भ मे एक शास्त्रीय वार्ता प्रस्तुत करना उचित रहेगा ।
एक वार सुदर्शन सेठ ने थावच्चा पुत्र से प्रश्न कियाभते । श्रापकी दृष्टि मे धर्म का मूल क्या है ?"
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उत्तर मे थावच्चापुत्र ने कहा- 'सुदर्शन । मेरा यह विश्वास है कि धर्म का मूल विनय है विनय के दो भेद है, अगार - विनय और अनगार-विनय | श्रावक की ग्यारह उपासक प्रतिमाओ और बारह व्रतो का समावेश अगार-विनय मे हो जाता है । अठारह पापो से निवृत्ति, पाच महाव्रत, छटा रात्रि भोजन-विरमण, दशविध भ्रमणधर्म, दशविध उत्तर- गुण - प्रत्याख्यान इस प्रकार के सभी साधन अनगार-विनय के हो ग्रग हैं। गृहस्थ और साधु दोनो का प्रथम कर्तव्य विनय है । जबकि विनय को धम का मूल बताया गया है, तव जीवन की भूमि पर बिना मूल के धर्मवृक्ष का
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विकास असम्भव ही है ।
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विनय का स्वरूप और उसके भेद-
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धर्म की ओर झुकाव का होना या अपने आप को धर्मसाधना एव गुरुजनो के लिये अर्पित कर देना विनय है, अथवा जिसके द्वारा सम्पूर्ण दुखो के कारणीभूत आठ कर्मो का उन्मूलन एव क्षय हो वह विनय है, अथवा अपने से बडे तथा गुरुजनो का देश और काल के अनुसार सत्कार सन्मान करना विनय है । इसके सात भेद हैं १ ज्ञान-विनय २ दर्शन- विनय, ३ चारित्रविनय, ४ मनो- विनय, ५ वचन-विनय, ६ काय-विनय और
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७ लोकोपचार - विनय ।
१. ज्ञान-विनय
ज्ञान और ज्ञान के ग्राधार भूत ज्ञानी पर श्रद्धा रखना, उनके प्रति भक्ति एवं बहुमान दिखाना, उनके द्वारा बताए हुए तत्त्वो पर भली- भान्ति विचार एव मनन करना, निरन्तर ज्ञान का अभ्यास करना और विधिपूर्वक ज्ञान को ग्रहण करना, ज्ञान-विनय है | इसके पाच भेद हैं, यथा - मतिज्ञान- विनय, श्रुतज्ञान-विनय, अवधिज्ञान- विनय, मन पर्यवज्ञान- विनय और केवल - ज्ञान - विनय ।
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२ दर्शन - विनय
देव - अरिहन्त ( वीतराग) गुरु-निर्ग्रन्थ, केवलि-भाषित धर्म श्रीर जिनवाणी इन सब पर श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है । जिनको भक्ति और श्रद्धा से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो चुकी है, जिनका ज्ञान स्वच्छ एव निर्मल हो गया है, उनके प्रति विनय का होना दर्शनविनय है | इसके मुख्यतया दो भेद है, सुश्रूपाविनय और अनाशातना - विनय । इनमे सुश्रूषा विनय के दस भेद हैं । जैसे कि
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(क) प्रम्युत्थान -- गुरु एव बडे सन्तों को सामने में प्रति देखकर खड़े हो जाना ।
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(ख) ग्रासनाभिग्रह - " पधारिये कीजिए, इत्यादि विनीत वचन कहना ।
इस आसन को अलकृत
(ग) आसन प्रदान – बैठने के लिए उन्हें ग्रासन देना । (घ) सत्कार - उनका ग्रादर सत्कार करना । (ङ) सम्मान - उन्हें बहुत सन्मान देना ।
(च) की तिकर्म - उनकी स्तुति एवं गुणगान करना, सविधि वंदना करना ।
(छ) अजलि प्रग्रह — उनके सामने हाथ जोडना ।
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(ज) अनुगमनता - वापिस जाते समय कुछ दूर तक पहुचाने
जाना ।
वैसे तो शुश्रूषा का अर्थ है सुनने की इच्छा | आज्ञा और प्रवचन सुनने की इच्छा को शुश्रूषा कहते है । शुश्रूपा के स्थान पर सुश्रूषा शब्द का प्रयोग भी होता है, जिसका अर्थ है गुरुजनों की सेवा - भक्ति । जिस विनय का सम्बन्ध सेवा-भाव से हो वह सुश्रूपा विनय है और जिसमे सुनने की इच्छा होती है वह शुश्रूषा करने वाला साधक अपने सेव्य से कभी भी दूर नही रहता । जहा तक उसे सेव्य के दर्शन होते रहे या जहा तक उनकी प्राज्ञा परिचायक शब्द सुविधा पूर्वक सुनने को मिल सके, वहा तक वह उनके
[ योग एक चिन्तन
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(झ) पर्युपासनता - बैठे हो तो उनकी उपासना करना । (ञ) प्रतिसंसाधनता - उनके वचनों को श्रद्धा से स्वीकार
करना ।
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सान्निध्य का परित्याग नही करता। अभिप्राय यह कि जिस विनय के पीछे सेवा-भाव छिपा हो वही शुश्रूषा विनय है।
दर्शन विनय का दूसरा भेद अनाशातना-विनय है। विपरीत वर्तन, असद्व्यवहार, अपमान, तिरस्कार, अवहेलना, अश्रद्धा पाशातना के ही पर्यायवाची शब्द हैं। आशातना न करना ही अनाशातना-विनय है। अरिहन्त भगवान, केवलि-भाषित धर्म, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, सघ, सार्मिक, क्रियावान्, मतिज्ञानी, अवधिज्ञानी मन पर्याय-ज्ञानी और केवलज्ञानी इन पन्द्रह की आशातना न करना, इनकी भक्ति और वर्णवाद करना अनाशातना-विनय है। इन तीन कार्यो के करने से इसके पन्द्रह भेद हो जाते हैं । हाथ जोडना आदि विनय के वाह्य प्राचार को भक्ति कहते हैं और हृदय मे श्रद्धा और प्रीति रखना बहुमान है तथा वाणी से दूसरो के सामने गुणानुवाद करना प्रशसा करना वर्णवाद है। ३. चारित विनय
चारित्र का अर्थ है सयम, नियम, विरति या व्रत । चारित्रप्राप्ति के लिए विनय करना या चारित्रवान की विनय करना चारित्र-विनय है। ज्ञान दर्शन-पूर्वक होता है और ज्ञान-पूर्वक चारित्र की आराधना होती है। ज्ञान-पूर्वक ग्रहण किया हुआ चारित्र ही सम्यक् चारित्र हुआ करता है। अज्ञान पूर्वक ग्रहण किया हुआ आचरण चारित्र नही, वह तो चारित्राभास है।
चारित्र-विनय के पाच भेद हैं-सामायिक-चारित्र-विनय, छेदोपस्थापनीय-चारित्र-विनय, परिहार-विशुद्धि-चारित्र-विनय, सूक्ष्म-सपराय-चारित्र-विनय और यथाख्यात-चारित्र-विनय । योग : एक चिन्तन ]
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पहले और दूसरे चारित्र की गति छटे से नौवें गुणस्थान तक है, तीसरे चारित्र की गति छटे और सातवें गुण-स्थान तक है, चौथे चारित्र की गति केवल दसवे मे ही है और पाचवा चारित्र ग्यारवे, बारहवे तेरहवे तथा चौदहवे गुणस्थान मे पाया जाता है ।
पहले और चौबीसवें तीर्थंकर के युग मे पाच चारित्रो का श्रस्तित्व पाया जाता है, महाविदेह मे और मध्य के वाईस तीर्थङ्करो के युग मे छेदोपस्थापनीय और परिहार- विशुद्धि चारित्र का अस्तित्व नही होता । पाच चारित्रों में से किसी भी चारित्र का पालन करना चारित्र - विनय है ।
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४. मनोदिनय
मनोविनय शब्द के तीन प्रर्थं होते है - मन की विनय, मन से की जाने वाली विनय, विनय से श्रोत-प्रोत मन की प्रवृत्ति । इनमे से पहले अर्थ को छोड़कर शेष सभी अर्थ यहां अभीष्ट हैं ।
इसके दो भेद है प्रशस्त मनो-विनय और ग्रप्रशस्त मनोविनय । पाप-रहित मन की प्रवृति, क्रोधादि दोषो से रहित मन प्रवृत्ति, कायिक प्रादि क्रियाश्रो मे ग्रासक्ति-रहित मन की प्रवृत्ति, शोकादि रहित मन की प्रवृत्ति, आश्रव रहित मन की प्रवृत्ति, अपने या दूसरे प्राणियो को दण्डित न करने की प्रवृत्ति श्रीर जीवों को भय न उपजाने की प्रवृत्ति मनो-विनय है । सवर, निर्जरा श्रीर पुण्यानुवधो पुण्य का वध प्रशस्त मनो विनय से ही होता है ।
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५ वचन - विनय
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भाषा के सभी दोपो से अपने को बचाना प्रशस्त वचन
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विनय है ।
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६ काय-विनय
काय से प्राचार्य आदि का विनय करना, काय की अशुभ प्रवृत्तियो को रोकना, सावधानी से गमना-गमन करना, सावधानी से खडे होना, सावधानी से वैठना, सावधानी से लेटना, सावधानी से देहली आदि को लाघना और सभी इन्द्रिय और योगो को यतना से वर्ताना ये सव प्रशस्त काय-विनय के रूप है। अशुभ सकल्पो से मन को, अशुभ वाणी से वचन को और अशुभ प्रवृत्ति से काय को लौटाना, बचाना और शुभ प्रवृत्तियो मे लगाना सच्ची एव प्रशस्त विनय कहलाती है।
विनय, भक्ति, प्रेम एव प्रीतिवंश किसी देवी-देवता की धाराधनों के लिये या असयमियो के प्रेमवश होकर द्रव्य-पूजा करना धर्म के नाम पर छ काय की हिसा करना, पशु-बलि देना, चोरी करना, भक्ति वश मन, वचन और काय की असयमपूर्वक प्रवृत्ति करना, क्रमश अप्रशस्त मन-विनय, वचन-विनय और काय-विनय है। यह पाप-वध का भी कारण हो सकती हैं और पापानुबन्धी पुण्य का कारण भी हो सकती है, अत यह सवर-निर्जरा और शुभानुवन्धी शुभ का बन्ध नही होने देती, इसीलिये ये तीनो अप्रशस्त विनय साधक के लिये सर्वथा त्याज्य हैं। ७ लोकोपचार-विनय ' जो बाह्य क्रियाए केवल दूसरो की दुख निवृत्ति के लिए या सुख पहुचाने के उद्देश्य से की जाती हैं, वे लोकोपचार विनय के अन्तर्गत पाती हैं। लोकप्रिय बनने के जो साधन है उनको उपयोग मे लाते समय जो कुछ करना होता है वह लोकोपचार विनय है। मुनिवरो ने इसके सात भेद प्रस्तुत किये हैयोग , एक चिन्तन ]
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(क) प्रभासवत्तिय-गुणी जनो के पास रहना, सुमगति मे रहना या शास्त्र अभ्यास मे दत्तचित्त रहना।
(ख) परच्छन्दाणवत्तियं-बड़ो की इच्छानुसार कार्य करना।
(ग) कज्जहेउ - अपने ज्ञानादि कार्यो के लिए उन्हे पाहा. रादि ला कर देना एव साता पहुंचाना।
(घ) कयपडिकिरिया-अपने ऊपर किए हुए उपकारो का बदला चुकाना अथवा आहारादि के द्वारा गुरु की सेवा करने से गुरु प्रसन्न होगे और उसके बदले मे वे मुझे ज्ञान सिखाएगे ऐसा सोचकर उनकी विनय करना।
(ड) अत्तगवेसणया-ग्लान, रोगी, असमर्थ एव दीन-हीन की सार, सम्भाल करना।
(च) देसकालण्णया-देश और काल के अनुसार कार्य करना।
(छ) सवत्थेसु-अपडिलोमया-छोटे-बड़े सभी कार्यो मे वड़ो को आज्ञा के अनुकूल प्रवृत्ति करना, इन्कार मे नही, इकरार मे उत्तर देना, उनकी इच्छा के प्रतिकूल कभी कोई कार्य न करना लोकोपचार विनय है। इसकी आराधना साधु एवं श्रावक सभी को करनी चाहिए।'
ज्ञान विनय से लेकर लोकोपचार विनय तक विनय के इन सात भेदो में सभी धर्मानुष्ठानो का अन्तर्भाव हो जाता है। धर्म का सर्वस्व ही विनय है। इसीलिये कहा जाता है "विणयमूलो धम्मो"-विनयरूप मूल पर ही धर्म रूप वृक्ष विकसित होता है।
विनयवाद भी भारतीय सम्प्रदायविशेप का एक सिद्धान्त है। १ भगवतीसूत्र, २५वा शतक । स्यानाङ्ग सून ७वा स्थान, प्रोपपातिक सून्न । ७४]
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उसकी मान्यता है कि देव, दानव, राजा-रक, हाथी, घोडा, कौमा, गरुड, गाय शृगाल कुत्ता, और तापस आदि को नमस्कार करने से क्लेशो का नाश होता है, क्योकि विश्व के सभी प्राणी ब्रह्म के ही रूप है, अत इनकी विनयभक्ति करने से मोक्ष-प्राप्ति भी हो सकती है । जैन दर्शन इस विनयवाद को बिल्कुल नही स्वीकार करता, क्योकि असयमियो की विनय धर्म का अग नहीं बन सकती।
विनय-सम्पन्न व्यक्ति को विनीत और जो विनीतो मे भी श्रेष्ठ है उसे सुविनीत कहते है । सुविनीत मे ही पन्द्रह गुण होते है । सुविनीत मे विनय के सभी गुण पाए जाते हैं । सुविनीत का जीवनस्तर लोगो के जीवन-स्तर से बहुत ऊचा होता है। यदि उसे छद्मस्थो मे सर्वगुणसम्पन्न कहा जाए तो अनुचित न होगा। वे पन्द्रह गुण निम्नलिखित है।
१ नीयावत्ती-जो सब के साथ नम्र व्यवहार करता है वह सुविनीत है । जो शिष्य न तो गुरु से ऊची शय्या पर बैठता है, न गुरु के आगे चलता है, न समकक्ष चलता है,पीछे भी न अति दूर न अति निकट चलता है, नीचे बैठता है, मस्तक झुका कर प्रणाम करता है, बडी नम्रता से सशय-निवृत्ति के हेतु गुरु से पूछता है, यदि कभी असावधानी से गुरु के शरीर या उपकरणो के साथ सघट्टा लग भी जाए तो तत्काल क्षमा-याचना करता है और अपनी भूल स्वीकार करता है, भविष्य मे ऐसी भूल कभी नही होगी यह विश्वास दिलाता है, वही शिष्य सुविनीत है।
२ अचवले-सुविनीत चपल नहीं होता। गति, स्थान, भापा और भाव की अपेक्षा से चपल व्यक्ति चार प्रकार के होते हैयोग एक चिन्तन ]
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जो दौडता हुया चलता है वह गति-चपल है। जो वैठा-बैठा हाथ पैर मारता रहता है वह स्थान-चपल है ।
जो अमत् बोलता है, कडा या खा बोलता है, विना सोचेविचारे बोलता है, अवसर निकल जाने के बाद यह कार्य अमुक देश मे और अमुक काल मे यदि किया जाता तो अच्छा होता ऐसा कहने वाला भापा-चपल कहलाता है।
जिसके भाव दूध के उफान की तरह कभी बढते हैं और कभी उतर जाते हैं, प्रारम्भ किए हुए सूत्र और अर्थ को बीच मे ही छोडकर दूसरे सूत्र और अर्थ का अध्ययन करने लगता है वह भाव-चपल है। साधक को चपल नही स्थित-प्रज्ञ होना चाहिए।
३. अमाई - सुविनीत मायावी नही होता। वह गुरु से या अपने साथियो से कभी भी छल-कपट नहीं करता, वह सदैव सब से निष्कपट व्यवहार करता है। निष्कपट व्यक्ति सब को अच्छा लगता है । जो दूसरो के द्वारा किए जाने वाले कपट को समझता है, किन्तु स्वय कपट नहीं करता वही अमायी कहलाता है, अनजान या मदमति को अमायी नहीं कहा जा सकता।
४. अकुऊहले-खेल, तमाशा, इन्द्रजाल, नट-नाटक आदि इन्द्रियो के विपय और चमत्कारिणी विद्याए पाप-सवर्धनी होती है। सुविनीत मे कभी कुतूहल अवगुण नहीं होता, वह उन्हे देखने के लिए कभी उत्सुक नही होता । अमर्यादित उत्सुकता साधक को धर्म मे स्थिर नही रहने देती।
५ अप्प चाहि क्खिवई-सुविनीत किसी का तिरस्कार नही करता । अल्प शब्द थोडे और प्रभाव का वाचक है । अयोग्य को धर्म मे प्रेरित करने की दृष्टि से थोडा सा उसका तिरस्कार भी हो
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जाता है, किन्तु किसी का भी तिरस्कार करना श्रेयस्कर नही, होता।
६ पवध च न कुबह-सुविनीत क्रोध को मन मे स्थिर नही रहने देता, अधिक समय तक क्रोध करते रहना अविनीतता है। जैसे पानी मे खीची हुई लकीर अधिक देर तक नही रहती वैसे ही क्रोध आये और तत्काल शान्त हो जाए यही विनीतता के पथिक के लिए प्रशस्त मार्ग है।।
७ मेतिज्जमाणो भयई-सुविनीत मित्रता रखने वाले के प्रति कृतज्ञ रहता है । कृतज्ञता नही रखने से साधक की उन्नति एव गुणवृद्धि क्षण-क्षण मे हीन होती जाती है।
८ सुयं लळून मज्जई - सुविनीत श्रुतज्ञान प्राप्त करने पर भी मद नही करता। धर्म-साधना मे माया करना और विद्वत्ता प्राप्त करके अहकार करना अजीर्ण है। श्रुतमान अहकार की पुष्टि के लिए नही, नम्रता के विकास के लिये होता है ।
६ न य पाव परिक्खेवी जो भूल या स्खलना होने पर किसी का अपमान नहीं करता, अथवा किसी पर झूठा कलक नहीं चढाता वह सुविनीत है।
१० न य मित्तेसु कुप्पइ-सुविनीत कभी भी मित्रो पर क्रोध नहीं करता। हितशिक्षक, ज्ञानदाता, गुरु, प्राचार्य आदि सव मित्र हैं, वह उनके प्रति कभी भी रोप प्रकट नही करता ।
११. अप्पियस्सा वि मित्तस्स रहे कल्लाण भासई-सुविनीत एकान्त मे भी अप्रिय मित्र की प्रशसा ही करता है, निन्दा नहीं करता। बुराई करने वाले व्यक्ति द्वारा पहले किए गए किसी उपकार का स्मरण करके उसके परोक्ष मे भी उसकी प्रशसा ही करता है।
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१२. कलह-डमर वज्जिए-~विनीत शिष्य किसी के साथ न वचन से कलह एव झगडा करता है और न हाथापाई करता है ।
१३ बुद्ध अभिजाइए-सुविनीत शिष्य तत्त्व को जानने वाला एव लिए हुए सयम भार का निर्वाह करने वाला होता है। अभिजाति का अर्थ है कुलीनता। कुलीन वही है जो धारण को हुई मर्यादाओ का जीवन भर पालन करता है।
१४. हिरिम-सुविनीत गिष्य लज्जावान होता है। लज्जा एक तरह का मानसिक सकोच है, जो अनुचित कार्य करने मे लजाता हो वह लज्जावान् कहलाता है । लज्जा भी सयम का एक मुख्य अग है। वह भी कभी-कभी मनुष्य का उद्धार कर देता है, अत साधक का लज्जावान् होना भी आवश्यक है।
१५ पडिसलोणे --जो इन्द्रियो और मन का सगोपन करने वाला होता है । किसी भी सभ्य व्यक्ति को निष्प्रयोजन दिन भर इधर-उधर नही फिरते रहना चाहिए। प्रतिमलोन शब्द के द्वारा इमी पाचरण की शिक्षा दी गई है । सुविनीत व्यक्ति हो गुणो से समृद्व होता है । जो इन पद्रह गुणो से मपन्न है वही बुद्धिमान व्यक्ति सुविनीत कहलाता है।
जिसमे विनय और सुविनीत के सभी लक्षण एव गुण पाए जाते है वह निश्चय ही सम्यग्दृष्टि एव रत्नत्रय का पाराधक है, वही श्रुतज्ञान का बहुमुखी विकास करता हुआ वहुश्रुत की कोटि मे पहुच जाता है।
तीर्थकर महावीर ने बहुश्रुत को सर्वोत्तम सोलह उपमानो से उपमित किया है। बहुश्रुत मुनि अपना और दूसरो का कल्याण करता हुया यथाशीघ्र कर्मों के वधन से मुक्त हो जाता है। अत ७८ ]
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विनय, बहुश्रुत, सयम एव विवेक का परस्पर घनिष्ठ सवध है। विनय से ही मानव गुणो का भण्डार बनता है "विनयाद् याति पात्रताम् " अभिमान की कमी से विनय की पात्रता वढती है | अभिमान जीवन मे कठोरता पैदा करता है, उसके निकल जाने से श्रात्मा मे उस विनय का विकास होता है जिससे साधक सुगति के पथ पर प्रगति करता हुआ महान् योगी बन कर आत्मोद्धार कर सकता है ।
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तो मन से भी धैर्य
धृति शब्द अनेक अर्थो की अभिव्यक्ति के लिये प्रयुक्त होता है जैसे कि धारण करने को या पकडने की क्रिया या उतावलापन न करने का भाव ज्ञात विषय का अविस्मरण । प्रमगानुसार इस शब्द के ये सब अर्थ ग्रहण किये जाते है । धैर्य मन मे, शरीर मे तथा बुद्धि मे भी होता है । बुद्धि मे धैर्य है तो शरीर मे भी है, यदि शरीर मे है का होना निश्चित है । इस प्रसग मे धृति विषय का अविस्मरण' ही इष्ट है । मति का नर नाम धृतिमति भी है, क्योकि वृति का सम्बन्ध मति के साथ जुड़ा हुग्रा है । उपयोग अर्थात् चित्त वृत्तियो का एक विपय पर निरन्तर स्थिर रहना ही धृतिमनि है । इसका सीधा सम्बन्ध ग्रनुप्रेक्षा से है । गहन विचार, स्वाध्याय या ग्रनुसन्धान वृति-मति के विना असम्भव ही है ।
शव्द का अर्थ 'ज्ञात
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१६ धृतिमति
जिस व्यक्ति की वृद्धि धैर्य-प्रधान होती है उसके जीवन में दीनता की अभिव्यक्ति कभी नही हो सकती, क्योकि धैर्य का निवास शरीर, मन और बुद्धि मे ही होता है । जिसको बुद्धि मे धैर्य होता है वह मिथ्यादृप्रियो एव एकान्तवादियों की भ्रान्त धारणाओ के जाल - जजाल में कभी नहीं फस सक्ता, वह कुमार्गो की पगडडियो मे कभी नही भटकता । राजा की ओर से बना हुआ
जैसे
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राजमार्ग सबके लिए हित कर एव श्रेयस्कर होता है, वैसे ही तीर्थंकर भगवान का बताया हुमा साधना - मार्ग राजमार्ग है । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनो का समन्वित पथ ही मोक्षमार्ग है । इस राज मार्ग को छोड़कर जो भूलकर भी अन्य मार्ग की चाहना नही करता, वही धृतिमति का उपयोग कर सकता है, धृतिमति की स्थिति को हो दूसरे शब्दो मे स्थितप्रज्ञता कहा जाता है । स्थितप्रज्ञ साधक ग्राचार विचार मे सयमतप मे सवर- निर्जरा मे सदैव ग्रडिग रहता है । भयकर उपसर्गो के उपस्थित होने पर भी ध्यान और समाधि मे स्थिर रहता है । उसकी धीरता के सामने दिव्य शक्तिया भी पराजित होकर नत मस्तक हो जाती हैं ।
बुद्धि मे धैर्य का होना यह प्रमाणित करता है कि उसके विचारो का स्रोत सम्यग्दर्शन से विशुद्ध है मिथ्यात्व की मलिनता से रहित है । मन मे धैर्य का होना यह सिद्ध करता है कि साधक की श्रद्धा एव विश्वास दृढ है । शरीर मे रहा हुआ धैर्य साधक को किसी प्रकार के भय और प्रलोभनो द्वारा मर्यादा से विचलित नही होने देता । यदि तीनो में धैर्य है तो वह साधक उच्चकोटि का महात्मा है ।
हठ और धैर्य मे अन्तर
अपनी अनुचित एव गलत बात पर ग्रडे रहने की प्रवृत्ति को हठ कहा जाता है । सत्यग्राही होना या सत्य पर आग्रह करना धैर्य है । जिस कार्य या विचार से अपना और दूसरो का भला हो, उस कार्य या विचार पर दृढ रहना धैर्य है, जिससे सबका हित एव सुख नष्ट हो रहा हो ऐसे विचार या कार्य पर मोह-वश प्रटल रहना हठ है । धैर्य होना चाहिए, हठ नही । कहा भी है
"धैर्य धर्म मित्र अरु नारी, श्रापत-काल परखिए चारी ।" योग एक चिन्तन ]
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१७. संवेग
संवेग शब्द जैन आगमों का पारिभाषिक शब्द है। प्रत्येक शब्द मे कोई न कोई अपनी विशेषता होती है और अपना विशेष अर्थवोध भी। स पूर्वक 'प्रोविजी भयचलनयो' धातु से सवेग शब्द की निष्पति होती है। लोक-व्यवहार में मन प्रादि कारणो से होनेवाली घबराहट तथा शीघ्र गति को सवेग कहते है, किन्तु जैन आगमो मे मंवेग शब्द का अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह धर्मसाधन का एक मुख्य अंग है। इसके बिना साधक की साधना अपूर्ण ही रहती है।
सम्यग्दृष्टि के पांच लक्षण हैं. जिन लक्षणो से सम्यग्दृष्टि की पहचान की जाती है.उनमे दूसरा लक्षण सवेग है। उतराध्ययन सूत्र के उनत्नीसवे अध्ययन मे तिहत्तर प्रश्न है और तिहत्तर ही उत्तर हैं। उनमे सब से पहला प्रश्न सवेग सम्बन्धी है और वहां सवेग का जो फल बताया गया है, उसे जान लेने पर सवेग का मूल्याकन जानियो को दृष्टि मे बढ जाता है। ..
लक्ष्य-प्राप्ति मे बाधक तत्वो से भय और लक्ष्य बिन्दु की ओर तीब्र एव सतुलित वेग को ही सवेग कहा जाता है। कर्मों के वधनो से मुक्त होने की अभिलापा ही सवेग है। जो मनोभाव सर्वोत्तम शक्तिशाली आत्मा को वेग के साथ साधना,के लक्ष्य की ओर अभिमुख करता है वह सवेग़ है। जव मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न होती है तब धर्म में रुचि उत्पन्न हो जाती है । जव धर्म मे रुचि उत्पन्न हो जाती है तब मोक्ष की अभिलाषा तीव्रतम हो उठती है। इस प्रकार सवेग, और धर्म-श्रद्धा मे परस्पर कार्य-कारण ८२.]
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भाव की अभिव्यक्ति होती है। जब सवेग मोक्ष की ओर तीव्रतम हो जाता है तब अनन्तानुवधी क्रोध, मान, माया और लोभ सभी क्षीण हो जाते हैं । सम्यग्दर्शन सदा-सदा के लिए विशुद्ध हो जाता है । जिसका सम्यग्दर्शन निरावरण एव विशुद्ध हो जाता है, वह पाप-कर्म नहीं करता, परिणाम स्वरूप वह उसी भव मे या तीसरे भव मे अवश्य हो मुक्त हो जाता है।
सवेग से साधक परमात्म-पद की ओर तीव्रतम गति से दीड लगाता है, वे-रोकटोके आगे बढ़ता रहता है। वह सवेग केवलि-भाषित धर्म के प्रति श्रद्धा की विशुद्धि करता है । गुणो की परम्परा सवेग से प्रारम्भ होती है। परम एव चरम लक्ष्य में उसकी पूर्णता हो जाती है।
सवेग का सहचारी गुण निर्वेद है. निर्वेद का अर्थ है वैराग्य । वैराग्य तीन प्रकार का होता है-ससार-वैराग्य, शरीरवैराग्य और भोग-वैराग्य । जव माक्ष की अभिलाषा होती है तब निश्चय ही वैराग्य का होना भो अवश्यभावो होता है। वैराग्य के कारण जव ससार, शरीर एवं भोगो से जीव विमुग्व हो जाता है तब दूसरी ओर सवेग बढ जाता है। अत. सवेग से निर्वेद का विकास होता है और निर्वेद से सवेग का । जिसने केवल एक मोक्ष को ही लक्ष्य बनाया हुया है, वह इधर-उधर के मिथ्यामार्गों में नहीं भटकता।
ससोर के अनेक मार्ग हैं, जबकि मोक्ष मार्गे एक है । वध और बंध-हेतुप्रो से पूर्णतया, निवृत्ति ही मोक्ष हैं। सवेग मोक्ष मार्ग का उद्घाटन करता है, अत. चित्तवृत्तियो को निरुद्व कर मोक्ष-पथ पर बढने के लिये साधक सवेग का सहारा लेकर लक्ष्य प्राप्ति मे सफल होता है। योग एक चिन्तन
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१८. प्रणिधि
जिन धर्म ने विद्या और धर्म-साधना मे जाति, वर्ण,
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श्रौर काल का कोई बचन स्वीकार नही किया । अहिंसा, सयम और तप इनकी सामूहिक प्राराधना को ही जिन धर्म कहा जाता है । जिस मानव का हृदय विशाल है, निरीक्षण सूक्ष्म है, निश्चय दृढ है, मानव के उत्थान मे जिसका विश्वास है तथा मानवसमाज को ऊंचा उठाने की तीव्र भावना है, वही जैन है । प्रणिधि भी जैन संस्कृति का पारिभाषिक शब्द है चित्त की एकाग्रता धर्मध्यान, समाधि, शुद्धभक्ति, समर्पण किसी कर्म के फल का त्याग, इन सब का ग्रन्तर्भाव प्रणिधि शब्द मे हो जाता है । सात्विक मन, सुबुद्धि, विवेक और श्रद्धा ये सब मिलकर अन्तर्ज्योति के रूप है । अन्तर्ज्योति की विद्यमानता मे ही प्रणिधि की साधना हो सकती है ।
प्रणिधि के दो रूप है- बहिरंग और अन्तरग । बहिरग प्रणिधि आनन्द को और अन्तरंग प्रणिधि शान्ति को जन्म देती है । श्रानन्द बहा ले जाता है और शान्ति किनारे पर लगा देती है | ग्रानन्द मे रस व मद है और शान्ति मे समाधान व प्राध्यात्मिक सुख है । ग्रानन्द चचल है और शान्ति अचल है । श्रानन्द इन्द्रियो को उत्तेजित करता है और शान्ति उन्हे अपने उदर मे समा लेती है | श्रानन्द श्रात्मा को असयम की ओर भी ले जासकता है, परन्तु
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शान्ति सयम की ओर ही ले जाती है। असयम से प्रात्मा पर इन्द्रियो की विजय होती है, जबकि सयम से प्रात्मा की इन्द्रियो पर पकड हो जाती है । अत. प्रणिधि का जो अन्तरग रूप है वही साधक के लिए ग्राह्य है।
हर्ष और शोक से मुक्त अवस्था मे ही प्रणिधि का भाव जीवन मे उतरता है, क्योकि हर्ष और शोक ये एक ही सिक्के के दो पहलू है । जिसमे हम हानि या प्रभाव अनुभव करते हैं वह है शोक, जिसमे लाभ या प्राप्ति का अनुभव करते है वह है हर्ष, दोनो मे सम रहना हो शान्ति, समता एव चित्त की एकाग्रता है । प्रणिधि-साधना का साधक सदैव विपत्ति मे धैर्य व दृढता की परीक्षा और सपत्ति मे क्षमा व उदारता की परीक्षा देता ही रहता है। उसकी प्रत्येक घड़ी परीक्षा की उत्तीर्णता के साथ वीतती है। उसकी बुद्धि हस के समान गुण-ग्राहिणी होती है, उसका हृदय स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ, वाणी मे माधुर्ग एव प्रिय सत्य, दृष्टि मे मध्यस्थता, तन मे सहनशीलता हुआ करती है।
प्रणिधि बहुत बडी निधि को.भी कहते हैं। जिस साधना की आराधना करने पर गुणो की अक्षीण महानिधि प्राप्त हो जाए वह भी प्रणिधि है। चेतना के स्वच्छ एव निर्मल प्रवाह को भी प्रणिधि कहा जाता है। निष्कपट आचार-विचार की साधना भी इसी नाम से पुकारी जातो है । जो स्वकर्तव्य के पालन मे अप्रमत्त है और फल के प्रति निष्काम है, वही इसकी आराधना कर सकता है।
योग ! एक चिन्तन ]
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१६.सुविधि
सविधि यह शब्द अनेकार्थक है। चौबीस तीर्थंकरों मे नोवे तीर्थकर का नाम सुविधि था । सुन्दर अनुष्ठान एव पावन क्रियाकलाप अर्थात धर्मानुष्ठान का श्रपर नाम भी सुविधि है। जिस साधना की धारावना बहुत अच्छी विधि से की जाए उसे भी सुविधि कहते हैं।
किसी शुभ कार्य को करने की महत्ता इसी मे है कि वह वैज्ञानिक एव कलापूर्ण विधि से किया हुआ होना चाहिए । विश्व मे सव से मुश्किल काम अपना सुधार है और सब से आसान कार्य दूसरो की नुक्ताचीनी है । जो गुभ कार्य के लिए प्रगसा के भूखे रहते है उनके हृदय मे पुण्य-कार्य के प्रति वास्तविक प्रीति नही होती, क्योकि उनके हृदय मे झूठी प्रशसा का आकर्पण समाया रहता है।
जो अपनी छलकती हुई पाखो से, पवित्र विचारो से मधुर वाणी से और शुभ कार्यों से प्रानन्द बरसाता है, हमेशा उसी को लोग प्रसन्न रखते हैं। सबसे प्रिय है करना और न कहना तथा सबसे अप्रिय है-कहना और न करना।
जव मानव के अन्त करण मे धर्म के प्रति श्रद्धा और प्रेम का उद्रेक बढ़ जाता है तब उससे जो भी कार्य होता है वह भलाई का ही होता है, क्योकि धर्म का प्रेम परिश्रम को हल्का ५६]
[ योग एक चिन्तन
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और दुख को मधुर बना देता है । भूलो से प्रेम और बुरो को क्षमा करना ये दोनो तत्त्व चरित्र-निर्माण मे परम सहायक हैं ।
सुपात्रदान, परोपकार, सेवा, सहयोग, मन- संयम, वचन
संयम और काय सयम इत्यादि सभी शुभ क्रियाए पावन अनुष्ठान
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हैं । विवेक- पूर्वक कषायो से निवृत्त होकर शुभ, अनुष्ठानो मे प्रवृत्ति और सभी अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति हो सुविधि है । जैसे
श्रग्नि, पानी और विद्युत इन मे किसी को सुखी या दुखी करने
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की इच्छा नही है, तो भी उनमे यह शक्ति है कि सुविधि से काम लेनेवाले को सुखी और प्रविधि से कार्म लेने वाले को दुखी होना
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ही पडता है | वैसे ही भगवान वीतरागी है, उनकी आज्ञा का
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सेवन सुविधि से किया जाए तो सुख और अविधि से सेवन करने वाले को दुख प्राप्त होता है । यह भगवान का या धर्म का ..नही अपितु व्यक्ति के अपने ही गुण-दोष का परिणाम है । काम, क्रोध, मान, लोभ, मोह और अज्ञान आदि विकार आत्मा के भीतरी शत्रु हैं, जिस उपाय से इन शत्रुम्रो को जीता जा सकता है, उस उपाय को ही जिन धर्म कहते है । उस उपाय को ही दूसरे
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शब्दो मे सुविधि कहा जाता है । उस उपाय को जिस ज्ञान के द्वारा जाना जाता है वहीं सम्यग्ज्ञान है । विशाल आपत्तियों को, भयकर सकटो को, सभी तरह के भयो को, प्रतिकूल बधो को तथा पराधीनता जैसी अपमानता को केवल ज्ञानाग्नि ही भस्म कर कर सकती है ।
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सुविधि पूर्वक भगवान की भक्ति करने से जैसे कल्याण होता है वैसे ही पुण्य अनुष्ठान करने से भी आत्मा का कल्याण होता है । यह भी कर्मों से निलिप्त रहने की एक रीति है । सुविधि भी अन्तर्बल है । इसी मे अनासक्ति भाव का अन्तर्भाव हो जाता
योग : एक चिन्तन ]
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है। भाव एक स्फूरणा है, विचार एक योजना है। भाव में प्रेरणा, गुण मे आकर्पण और वल मे दव-दवा होता है। बल मे रागद्वप गुण मे स्नेह और भाव मे अानन्द एवं गान्ति है।
भाव जव साकार एव क्रियात्मक बन जाता है, तब वह गुण कहलाता है । गुण जव दूसरो को प्रभावित करता है, तब वह वल कहलाता है। भाव हृदय को स्पर्श करता है, गुण बुद्धि को प्रमुदित करता है। वल शरीर को वशीभूत करता है, भाव अपने आप बढता है। गुण साधना से प्राप्त होता है और वल प्रायोजन एव अभ्यास से प्राप्त होता है। गुण तप से, कषायो की मदता से, शास्त्रो के स्वाध्याय से, अनेकान्तवाद के प्राश्रयण से और सतत साधना से विकसित होता है। सुविधि भी अपने आप मे महत्त्व पूर्ण गुण है। जब वह ससीम से असीम बन जाता है, तब वह प्रात्मा को निश्चय ही परमात्मा बना देता है। परमात्म पद को प्राप्त करना ही प्रात्मा का लक्ष्य-बिन्दु है ।
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- २०. संवर
शब्दो का प्रवाह पक्ष और विपक्ष को लेकर द्वन्द्वात्मक रूप धारण करके चलता है, जैसे जीव और अजीव, पुण्य और पाप, आश्रव और सवर , बन्ध और मोक्ष, आत्मा और परमात्मा, ज्ञान और अज्ञान इत्यादि । आश्रव और सवर का भी अपना द्वन्द्वात्मक रूप है। कर्म-बन्ध के हेतुप्रो मे प्रवृत्ति करना प्राश्रव है और आश्रवो का निरोध सवर है।
सवर पाच प्रकार का होता है। सम्यग्दर्शन-सवर, व्रतसवर, अप्रमाद-सवर, अकषाय-सवर और प्रशस्त-योग या योगनिरोध सवर । संवर के इन पाच भेदो मे सवर के सभी भेदो का समावेश हो जाता है।
__ सबर को समझने से पहले आश्रव को समझना ज़रूरी है, क्योकि जब तक आश्रव को न समझा जाएगा, तब तक निरोध किसका किया जाएगा ? 'जैसे अमृत को समझने से पहले विष के स्वरूप को समझना अनिवार्य हो जाता है, तत्पश्चात् ही अमृत के महत्व को यथातथ्य ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है। आश्रवो का विवेचन निम्नलिखित है
१ मिथ्यात्द-तत्त्व से विपरीत श्रद्धा ही ,मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन है। जैसे जीव को अजीव समझना, बकरी, गाय, योग . एक चिन्तन ]
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मुर्गी अण्डा आदि एव जलचर, स्थलचर पक्षी आदि जीवो मे आत्मा नहीं है, केवल प्राण ही हैं, इसलिए इनके खाने में कोई दोष एव पाप नही, ऐसा समझना मिथ्यात्व है। अजीव को जीव समझना, जैसे शरीर, इन्द्रिय और मन ये अपने अस्तित्व की दृष्टि से जड है, इनको हो प्रात्मा समझना मिथ्यात्व है। धर्म को अधर्म समझना, जैसे सत्य अहिंमा त्याग तप, गान्ति ब्रह्मचर्य क्षमा, आर्जव आदि धर्मो को अधर्म मानना मिथ्यात्व है। अधर्म को धर्म मानना हिंसा, झूठ, चोरी, आदि पापो मे प्रासक्त रहना, मद्य-पान करना जुना खेलना, मांस खाना भोगविलास को धर्म समझना मिथ्यात्व है। जिनको कनक और कामिनी अपनी ओर खीच नहीं सकते, सासारिक लोगो की प्रगसाए प्रसन्न नहीं कर सक्ती, जो ज़र-जोरू और जमीन के त्यागी हैं. ऐसे साधुनो को भी साधु न समझना मिथ्यात्व है । जो कनक-कामिनी के दास बने हए है, जिनको सासारिक लोगो से प्रशसा एव प्रतिष्ठा पाने की दिन रात इच्छा बनी रहती है, ऐसे साधु वेषधारियो को साधु समझना मिथ्यात्व है । ससार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग समझनामिथ्यात्व है । मोक्षमार्ग को ससार का मार्ग समझना मिथ्यात्व है। कर्मरहित को कर्मसहित समझना, जैसे परमात्मा राग द्वेष आदि विकारो से रहित है, फिर भी यह समझना कि भगवान अपने भक्तो की रक्षा के लिए दैत्यो का नाश करते हैं, अमुक स्त्री की तपस्या से प्रसन्न होकर उसके पति वनते हैं, यह मिथ्यात्व है। कर्म-सहित को कर्म-रहित मानना, भक्तो की रक्षा और शत्रुओ का नाश, यह राग-द्वेप के बिना हो नहीं सकता और रागद्वेप कर्म सम्बन्ध के विना हो नहीं सकते, फिर भी उन्हे कर्म-रहित मानना, यह समझना कि वे सब कुछ करते हुए भी अलिप्त है । इस प्रकार ९०]
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की धारणाए मिथ्यात्व के अन्तर्गत हो जाती है।
अथवा मिथ्यात्व पाच प्रकार का होता है, जैसे कि तत्त्व की परीक्षा किए बिना ही किसी एक सिद्धान्त का पक्ष करके पक्ष का खण्डन करना आभिग्रहिक मिथ्यात्व है । किसी तत्व की गुणदोष की परीक्षा किए बिना ही सर्व पक्षो को बराबर समझना, सत्य और असत्य को बरावर समझना, अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है । अपने पक्ष को असत्य जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिए प्राग्रह करना- पाभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। वीतराग देव, जिनवाणी, गुरु निर्ग्रन्थ और केवलि-भाषित धर्म इनमे तथा नव तत्त्वो के प्रति सदेहशील बने रहना साशयिक मिथ्यात्व है। मोह की प्रगाढतम अवस्था मे रहना, सुविचार, या विशेषज्ञान के अभाव में रहना अनाभोग मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व अभव्यो की अपेक्षा अनादि अनन्त है, भव्यो की अपेक्षा अनादि सान्त है और प्रतिपाती की अपेक्षा सादि सान्त है। मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन सबसे बडा आश्रव है.।
सम्यग्दर्शन-सवर वह कहलाता है, जिसके उत्पन्न होते ही मिथ्यादर्शन रूप प्राश्रव स्वयं रुक जए। ' सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का होता है श्रीपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ।
मिथ्यात्व और उसकी सहचारिणी सभी प्रकृतियो का जव पूर्णतया उपशमन हो जाता है, तब उनमे से किसी का विपाकोदय तो क्या, प्रदेशोदय भी नही होता-। श्रात्मा की वह शुद्ध अवस्था ही औपशमिक सम्यग्दर्शन है । जब मिथ्यात्व और उसकी सहचारिणी प्रकृतियो मे से किन्ही का उपशंम एव योग . एक चिन्तन ]
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किन्ही का क्षय कर देने पर सम्यक्त्व मोहनीय का वेदन किया जा रहा हो तव आत्मा को उस शुद्ध अवस्था को ही क्षायोपमिक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। जब सम्यग्दर्शन विरोधिनी सभी प्रकृतियो को क्षय कर दिया जाता है, तब प्रात्मा मे जो शुद्धतर अवस्था होती है वह क्षायिक सम्यग्दर्शन है। प्रीपशमिक की स्थिति अतर्मुहूर्त है। क्षायोपशमिक की ६६ सागरोपम से कुछ अधिक और क्षायिक की स्थिति सादि अनन्त है। जव आत्मा सम्यग्दर्शन के प्रकाश मे पहच जाता है,तब उस पर मिथ्यात्वरूप अन्धकार का अाक्रमण नहीं होता। जैसे प्रकाश-पु ज अधकार का निरोध करता है वैसे ही सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व का निवेव या निरोध स्वत: हो जाता है, प्रत सम्यग्दर्शन भी सवर है।
२. अव्रत-अणुनत और महावत के अभाव का नाम अवत है। प्रसयत एव अमयादित जीवन में ही इस आश्रव का अस्तित्व पाया जाता है। पहले गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान तक सभी जीव अवती है और अव्रती का जीवन बहुधा मर्यादाहीन होता है। उसके लिये हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, परिग्रह आदि पापो के सभी द्वार खुले रहते हैं। उसका मुख्य उद्देश्य ऐन्द्रियिक सुख है, उसकी उत्तरोत्तर प्राप्ति के लिए वह सब तरह के पापाचरण या अपराध करने के लिए भी उद्यत रहता है। यदि राज-भय से समाज-भय से या किसी असमर्थता के कारण कोई पापाचरण नही करता तो वह व्रती या सयमी नहीं है। जो किसी भी व्रत का पालन नहीं करते उन्हे अविरत भी कहते हैं । अविरत जीव सात प्रकार के होते हैं जैसे कि
१. जो व्रतो के स्वरूप को नही जानते उनकी निष्ठा त्याग मे नही हो सकती, अत वे किसी के कहने से व्रतो को अंगीकार भी ९२ 1
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नही करते और न उनका पालन ही करते है । इस प्रकार के लोग बिल्कुल साधारण होते हैं ।
२ उन्हे भी ग्रव्रती कहा जाता है जो व्रतो को न तो जानते है और न गीकार ही करते हैं, किन्तु अज्ञानता से पालते है, ऐसे तापस एव वालतप करने वाले मिथ्यादृष्टि माने जाते है ।
३ वे भी अविरतो की कोटि मे माने जाते है जो व्रतो के स्वरूप को जानते भी नही, और स्वीकार करके पालते भी नही । ऐसे लोग पार्श्वस्थ साधु वेपधारी होते हैं, वे लौकिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए साधुत्रेष मे रहते है |
४ उन्हे भी पूर्णतया विरत नही कहा जा सकता है - जिन्हें व्रतो का ज्ञान नही, किन्तु उन्हे धारण करते हैं और वरावर पालन भी करते हैं, ऐसे व्यक्ति प्रगीतार्थ मुनि कहे जाते हैं । जो साधुता से बिल्कुल अपरिचित हैं वे अगीतार्थ माने जाते है ।
फिर भी न तो व्रतो को अविरत - सम्यग्दृष्टि है |
मानव हुए है ।
५ जिन को व्रतो का ज्ञान तो है, धारण करते है और न पालते ही है, वे राजा श्रेणिक और श्री कृष्ण इसी कोटि के ६. जो व्रतो के स्वरूप को जानते हुए भी न स्वीकार कर सकते है और न पालन ही कर सकते है । एकान्त सम्यग्दृष्टि अनुत्तरवैमानिक देव इसी कोटि मे आते है ।
७ जो व्रतो के स्वरूप को जानते भी हैं स्वीकार भी करते हैं, पालन नही कर सकते, वे मरीचि की तरह सविग्न पाक्षिक होते है ।
सम्यग्ज्ञान, सम्यग् ग्रहण और सम्यक् पालन से ही व्रत सफल होते हैं। जिनको न व्रतों का ज्ञान है, न उनका विधिपूर्वक ग्रहण ही करते हैं और न व्रतो का यथार्थ पालन ही करते हैं, यदि कभी योग एक चिन्तन )
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घुणाक्षर न्याय से वे व्रतो को पाल भी ले तो उससे वे व्रती नही बन सकते हैं । अविरतो के उपर्युक्त सात भेदो मे से पहले चार भेद मिथ्यादृष्टि अविरतो मे पाए जाते है, क्योकि उन्हे व्रतो का यथार्थ ज्ञान होता ही नहीं, अत उनका व्रत-ग्रहण एव व्रत-पालन अकिचित्कर माना जाता है । शेष तीन भेद सम्यग-दृष्टि अविरतों मे पाए जाते है। यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टि यथाविधि व्रतो का ग्रहण तथा पालन नही कर सकता, तथापि-वे ब्रतो के स्वरूप को यथार्थत जानते है। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव व्रत-नियमो को यथावत् जानते हए भी व्रतो को स्वीकार एव पालन नहीं कर सकते, क्योकि उनके प्रप्रत्याख्यान कपाय-चतुष्क का उदय होता है। वह उदय काल देशव्रत एव सर्ववतो के धारण व. पालन का प्रतिवन्धक है।
देशवत और सर्वत्रतो के स्वरूप को भली-भाति जानकरही सम्यग्दृष्टि जीव विधिपूर्वक उन्हे धारण करते है तथा उनका पालन करते है, तभी वे क्रमश अणुव्रतो या महानती कहलाते है। अव्रत पाश्रव है और व्रतसवर है। सुव्रती बनने से ही अवतो होने या.अविरति होने का कलक उतर सकता है। व्रत सवर से प्रत्रतआश्रव का निरोध हो जाता है । पाचवे गुणस्थान से लेकर सभी गुण-स्थान उत्तरोत्तर बत-सवर के है।
३ प्रमाद-आदि के छ गुणस्थान प्रमाद से. लिप्त हैं। प्रमाद भी अबत की तरह पाश्रव है । प्रमाद का अर्थ है अन्त करण को दुर्वलता, धर्मविमुखता, अकर्तव्य मे प्रवृत्ति और कत्तव्य की विस्मृति । अथवा.जिस कारण से जीव का मोक्ष मार्ग मे उत्साह एव प्रीति न होने पाए, वह प्रमाद है। प्रमाद के आठ भेद है।'
१ प्रवचनसारोद्धार, द्वार-२०७ । ९४]
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जैसे कि
(क) अज्ञान-प्रमाद-मोक्षमार्ग से विल्कुल अनभिज्ञ रहना. अजान-प्रमाद है।
(ख) संशय-प्रमाद -मोक्षमार्ग के प्रति सशयशील रहना, क्या पता मोक्ष मार्ग कोई है या नही ? क्या पता नव तत्व सत्य है या मिथ्या ? इस तरह का संशय होना सगय-प्रमाद है।
(ग) मिथ्याज्ञान-प्रमाद-तथ्य से विपरीत ज्ञान मिथ्याज्ञानप्रमाद है।
(घ) राग-प्रमाद-दृष्टिराग, स्नेहराग और काम-राग ये राग के तीन भेद है। मोह- के दलदल मे फसाने वाला यदि कोई विकार है तो वह राग ही है। वह किसी मानव मे तीव्र होता है
और किसी. मे मद. 1. हजारो अवगुणो के होते हुए भी उन को छोड़ने के लिए मनोभूमिका तैयार न होने से. वह राग है।
(ड) द्वेष-प्रमाद-जिस कारण से अप्रीति पैदा हो जाए वह द्वप है, इसका स्वभाव है दूसरे मे, नफरत करना। जिस पर-इसकी क्रूर दृष्टि हो जाती है वह, भले ही हजारो गुणो-से सपन्न-क्यो न हो, उसे अपनाने के लिये वह इन्कार ही करता है।
(च) स्मति-भ्रश-प्रमाद-अपने कर्तव्य को भूल जाना - स्मृति-भ्र श-प्रमाद है।
(छ) धर्म:अनादर-प्रमाद-केवलि-भापित -धर्म का अनादर करना-एव उसकी प्राप्ति के लिये यत्न न करना ।
(ज) योग-दुष्प्रणिधान-प्रमाद-मन, वचन और काय को अशुभ क्रियानो मे लगाना प्रमाद है । ... - कुछ आचार्यों ने प्रमाद के पाच रूप बतलाए हैं जैसे कियोग , एक चिन्तन
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१. मद्य प्रमाद - मद्य यादि नशीले पदार्थों का सेवन करना, नशे मे चूर रहना प्रमाद है ।
२ विषय प्रमाद इन्द्रियो के विषयो में आसक्ति रखना विषय-प्रमाद है ।
३ कषाय- प्रमाद - राग-द्वेष के वशीभूत होना कषाय प्रमाद है ।
४ निद्राप्रमाद - निद्रा के अधीन रहना, ज़रूरत से ज्यादा सोना प्रमाद है ।
५ विकथा - प्रमाद - घर्मकथा को छोड़कर शेष सभी कथाओ का समावेश विकथा मे हो जाता है। काम वासना उद्दीपक बाते करना और खाद्य पदार्थो के खाने की लालसा प्रकट करना । खानेपीने की बाते करने से अकल्पनीय, अनेषणीय ग्राहार की इच्छाए जाग उठती हैं । अखबारी दुनियां मे अमूल्य समय नष्ट करना, राजा की निन्दा-स्तुति मे या इधर-उधर की व्यथ की बातो मे समय नष्ट करना विकथा है । विक्था से सम्यग्दर्शन, सम्यग्गज्ञान और सम्यक्चारित्र इनमे से कोई भी अतिक्रम आदि दोप से दूपित हो सक्ता है, अत विवयां भी प्रमाद ही है । प्रमाद के वशीभूत होकर जीव कुछ का कुछ करता है, कुछ भी बोल देता है और कुछ का कुछ सोचता है । प्रमाद से बचने का उपाय अप्रमाद है ।
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अप्रमाद सवर है, इसकी विद्यमानता मे जीवन के किसी भी क्षण मे प्रमाद का प्रवेश नही हो सकता ।' सातवे गुणस्थान से लेकर श्रागे के सभी गुणस्थानो मे साधक प्रमादी कहलाता है । अप्रमाद अवस्था मे ही धर्मध्यान की पूर्णता होती है। मानव का सबसे बडा हित श्रप्रमाद मे रहने से ही है ।' आध्यात्मिकं गुणयोग एक चिन्तन
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निधान यदि मिल सकता है तो वह अप्रमत्तता से ही मिल सकता है। जिस पावर हाउस मे वैज्ञानिको द्वारा स्थान-स्थान मे "खतराखतरा" लिखा हुआ होता है. जब कोई मानव दर्गक वनकर उसमे प्रवेश करता है तो वह सब तरह से सावधान रहता है, क्योकि अपने को खतरे से बचाने मे ही उसकी बुद्धिमत्ता है। जहा चोर-उचक्के जेवकतरे चारो ओर घूम रहे हो, वहा पर यदि कोई व्यक्ति अपनी वस्तुओ की रक्षा सावधानी से करता है तो इसी मे उसका चातुर्य माना जाता है । जिस साधक के पास विश्व मे सर्वोत्तम एव सुदुर्लभ रत्नत्रय हो उन सबकी रक्षा वह अप्रमाद से करता है. इसी मे उसका चातुर्य है । अप्रमाद सवर है और सवर धर्म है । साधक को भारण्डपक्षी की तरह सदव अप्रमत्त रहना उचित है । प्रमाद के किसी भी रूप का कभी भूल कर भी प्राचरण न करना ही अप्रमाद सवर है ।
४ कषाय-यह जैन सस्कृति का एक पारिभाषिक शब्द है। जिससे ससार की वृद्धि हो, जन्म-मरण की परम्परा अविच्छिन्न बनी रहे और जिससे पाठ प्रकार के कर्मों का वध हो, वही कषाय है। जैसे हरड, बहेडा, पावला इनके समुदाय की त्रिफला सजा है, अन्य किन्ही तीन फलो का समूह त्रिफला नहीं हो सकता, वैसे ही क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार विकारो के समूह का नाम कपाय है। पाय के चार रूप हैं-अनन्तानुवधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और सज्वलन ।।
जिस कपाय के प्रभाव से जीव अनन्त काल तक ससार मे भ्रमण करता है, उस कषाय को अनन्तानुबंधी कपाय कहते है। यह कषाय अत्यन्त निकृष्ट स्तर का है और जीवन भर के लिए बना रहता है। इसमे वतमान जीव नरकगति के योग्य कर्मो का वध करता है तथा सम्यग्दशन का घात करता है ।। योग : एक चिन्तन]
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'इम कपाय के चार भेद है-अनन्तानुबधी 'क्रोध, अनन्तानवंबी मान, अनन्तानवधी माया और अनन्तानबंधी लोभ । इनका पृथक्-पृथक स्वरूप इस प्रकार है
क्रोध का स्वभाव है प्रीति और प्रेम मे दरारे पैदा कर देना। इनमे से कुछ दरारे कालान्तर मे स्वय मिल जाती हैं और कुछ उपायो द्वारा मिलाकर एक करनी पड़ती है। कुछ दरारे ऐसी भी होती है जो विल्कुल भी नही मिट सकती। किसी ज्वालामुखी पर्वत के फट जाने से जो पर्वत मे दरारे पड़ जाती है, उन दरारो का मिलाना जैसे अशक्य है, वैसे ही जीवन भर अनेक उपाय करने पर भी जिसका क्रोध पून. शान्त होता हो नही, वह प्रेम की भूमि में दरारे ही दरारे डालता जाता है। जिससे उत्पन्न. दुप मानव को अशान्त कर देता है। ऐसे क्रोध का शमन करना अशक्य ही होता है। ' मान को स्वभाव है अकड-कठोरता। मन मे, गरीर मे तथा वाणी मे कठोरता का होना यह प्रमाणित करता है कि वह व्यक्ति दूसरे को मान सन्मान करना जानता ही नहीं है ।।
मान के प्रवेश होते ही दूसरो के प्रति कठोर व्यवहार स्वभावत होने लग जाता है। जिसका मान किसी भी उपाय से नही नमता, वह कठोर पत्थर के खभे के समान होता है, उसे कोई भी यत्र या उपाय मोड नहीं दे सकता। - माया मे वक्रता एवं कुटिलता होती है। आन्तरिक छल-बल मित्रता का नाश कर देता है । जैसे कठिन बास को जड का टेढापन किसी भी उपाय से दूर नही किया जा सकता, वैसे ही माया की वक्रता को समाप्त नहीं किया जा सकता। वक्रता उसका अभिन्न अङ्ग है।
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. लोभ व्यक्ति को विविध प्रकार से भौतिक पदार्थो के ऐसे आकर्पणो मे बाध देता है जिनका मिटना अशक्य हो जाता है । जैसे हडताल का रंग वस्त्र या तन्तु पर से कभी नहीं उतरता, वैसे ही अनन्तानुवधी लोभ का रग अमिट होता है।
इस प्रकार के क्रोध मान, माया और लोभ रूप कषाय अनन्तानुवधी होते है । इस प्रकार का कपाय डाकू, कसाई, शिकारी और अधर्म-रत राजाप्रो मे पाया ज ता है। इस कषाय का अस्तित्व आदि के तीन गुणस्थानो में पाया जाता है । इस अनन्तानुबधी कपाय पर विजय पाकर उसकी निवृत्ति करना संवर है। ..
जिस कपाय का उदय होने पर साधक सम्यग्दृष्टि तो रह सकता है, किन्नु धावक-धर्म की उपलब्धि नहीं कर सकता, उसे अप्रत्याख्यान कषाय कहते हैं। जिस जीव मे.इस स्तर का कषाय उदित हो जाता है वह अधिक से अधिक एक वर्ष तक ठहर सकता है। इसके उदय होने पर तिर्यञ्चगति के योग्य कर्मो का वध
और थावकवृत्ति का घात किया जाता है। इसका स्वरूप इस प्रकार है- ", , , ..
जिसका क्रोध उस दरार के समान है जो सूखे तालाब आदि मे मिट्टी के फट जाने से पड़ जाती है और वर्षा हो जाने पर वह दरार फिर स्वत हो मिल जाती है। इस स्तर का क्रोध कुछ उपायो से शान्त हो सकता है । वह इतनी जल्दी शान्त नही होता फिर भी उसके अस्तित्व की अवधि वर्ष भर मानी जाती है।
'जिसका मान हड्डी के स्तम्भ के समान होता है उसे बड़े परिश्रम से नमाया जा सकता है आसानी से नहीं। किसी वज्ञानिक विधि से ही उस स्तम्भ' मे कुछ नम्रता लाई जा सकती है साधारण तरीके से नही । इसी प्रकार कुछ साधको मे मान इस योग एक चिन्तन ]
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प्रकार का होता है जिसे तप द्वारा शास्त्र-वचनो द्वारा एव सन्तो के उपदेश द्वारा झुकाया जा सकता है ।
जैसे मेढे के सीग का टेढापन विशेष विधियो से सीधा हो जाता है, अर्थात् कुछ उपायो से उसे सीधा किया जा सकता है,वैसे ही कुछ साधको की माया बड़े परिश्रम से ही दूर हो सकती है। इस माया की स्थिति भी उत्कृष्ट साल भर रह सकती है।
गन्दे नाले का कीचड यदि वस्त्र आदि मे लग जाए तो वह अतिकष्ट से छूटता है। अप्रत्याख्यान लोभ का स्वभाव भी इसी प्रकार का होता है । यह कषाय चौथे गुण स्थान तक रहे हुए जीवो मे पाया जाता है । इस कषाय के क्षय या उपशम करने को भी संवर कहा जाता है। अविरत-सम्यग्दृष्टि मानव सवत्सरीपर्व पर क्षमापना द्वारा इसे छोड़ देते हैं, इस अपेक्षा से इस 'कषाय की स्थिति साल भर की बताई गई है।
प्रत्याख्यानावरणीय कषाय वह कहलाता है जिसकी उपस्थिति मे सर्वविरतित्व के भाव उदित नही हो पाते और वह देशविरतित्व (श्रावक धर्म) मे बाधक नहीं बनता। इस कषाय की स्थिति उत्कृष्ट चार महीने की मानी गई है। इस कषाय के उदय भाव मे जीव मनुष्यगति-योग्य कर्मों का उपार्जन करता है। इस कपाय के अतर्गत जब भी क्रोध उत्पन्न होता है तो उसका स्वभाव रेत मे खीची हुई लकोर के समान होता है । रेत मे लकीर खीचने पर कुछ ही समय मे वायुवेग से वह लकीर रेत से भर जाती है, वैसे ही यह क्रोध, क्षमा आदि सुविचारो से शान्त हो जाता है। ___. जो मान काठ के खभे के समान है जैसे काठ को तेल मसलने से या अग्नि का सेक देने से वह नम जाता है, वैसे ही जो मान १०]
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किन्ही विशेष उपायो से हट जाता है, वह मान इसी कोटि का होता है।
जैसे चलता हुआ बैल जव मूत्र करता है, तब धरती पर टेढीमेढी लकीर पड़ जाती है। उसके सूख जाने पर या उस लकीर पर वायुवेग से धूल गिर जाने पर जैसे उसका टेढापन मिट जाता है, वैसे ही जिस माया या वक्रता को कुछ परिश्रम से दूर क्यिा जा सकता है, वह माया इस कपाय की कोटि मे मानी जाती है।
काजल का रग या खजन (गाडी के पहिए का काला तेल) का रग जिस शरीर पर या वस्त्र पर चढ जाता है, वह रग फिर कठिनाई मे ही हटता है। वैसे ही लोभ भी जाव को जव अपने रग मे रग देता है, तब वह लोभ का रग जल्दी तो नही, अनेक उपायो से अवश्य उतर जाता है। जब इस लोभ कषाय का क्षय या उपशम होता है, तब प्रत्याख्यानावरण कपाय का प्राश्रव निरुद्ध हो जाता है। यह भी पाशिक कषाय-सवर माना जाता है।
सज्वलन कषाय की उत्कृष्ट स्थिति क्रमश दो मास, एक मास, एक पक्ष और अंतर्मुहुर्त की है। इसके उदय से जीव देवगति के योग्य-कर्मों का वध करता है। इस कषाय की उपस्थिति में वीतरागता की अनुभूति नहीं होने पाती । सज्वलन कषाय का स्वरूप इस प्रकार है
सज्वलन कपाय वाले साधक का क्रोध पानी मे खीची हुई लकीर के समान होता है जोकि सुविचारो से शीघ्र ही शान्त हो जाता है। उसका मान वेत की छटी के समान होता है, जिसको आसानी से नमाया जा सकता है। जीवन मे अनेकान्तवाद के अवतरण से सब तरह की अकड, हठीलापन एव दुराग्रहो से उत्पन्न हुई अहता क्षण भर मे विशीर्ण हो जाती है। जिसमे ऊन के धागे के योग : एक चिन्तन ]
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समान रहा हुआ माया काटेढापन यथाशीघ्र दूर हो जाता है। जिसका लोभ हल्दी के रंग के समान सहज हो उतर जाता है इस तरह के कषाय को सज्वलन कषाय कहते हैं। इस कपाय का अस्तित्व छटे से- दसवे-गुण-स्थान-तक पाया जाता है। ग्यारहवे, बाहरवे, तेहरवे और चौदहवे गुणस्थान मे कपाय प्राश्रव का पूर्ण निरोध हो जाता है। सबसे पहले अनन्तानुबन्धी कपाय का क्षय होता है, उसके बाद अप्रत्याख्यान कपाय का, फिर प्रत्याख्यानावरण का और अन्त मे सज्वलन कपाय-का क्षय होता है। इसी को अकपायसवर कहते है। , , . , . . . . . . . . - ५ योग-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति व्यापार को अागमो की भाषा मे योग कहते हैं। इनकी प्रवृत्ति शुभ भी होती है और अशुभ भी। अगुभ-प्रवृत्ति को पाप और शुभ प्रवृत्ति को पुण्य' कहा जाता है, परन्तु जैन दृष्टि से दोनोही आश्रव है। योगो की प्रवृत्ति पहले से लेकर तेहरवे गुणस्थान तक जीवो मे रहती है। प्रमत्त गुणस्थानो तक दोनो तरह की प्रवृत्तिया रहती है, किन्तु अप्रमत्त गुण स्थान से लेकर तेहरवे सयोगी केवलिगुणस्थान तक शुभ प्रवृत्ति ही होती है, अशुभ नही। चौदहवे-गुणस्थान मे पहुच कर साधक अयोगो केवली बन जाता है, तव तीनो योगो की पूर्णतया निवृत्ति हो जाती है । योग-की पूर्ण-निवृत्ति ही सवर है.। सव से पहले अशुभ, योगो से, निवृत्ति पाई जाती है। उसके बाद उत्तरोत्तर गुण-स्थानो मे शुभ योगो से भी निवृत्ति होती जाती है। योग-निवृत्ति ही सवर है। यह सवर ही ध्यान की एकग्रता का साधक है।, . . .
१ पच आसवदारा पण्णत्ता, त जहा-मिच्छत्त, माविरई, पमानो, ' कसाया, जोगा। - - , ठाणाङ्गसूत्र-ठाणा-५, १०२]
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. . . thentimentation
२१. आत्म-दोषोपसंहार ..
अलौकिक शक्तियो की रचना मनुष्य अपने वास्तविक अनुभव के आधार पर अपने मन से करता है, वह स्वय ही अपने मन मे भीति और प्रीति का आरोप कर लिया करता है। इस सदर्भ मे साधक के दो प्रयत्न होते है--एक उन्हे-मना लेने का और दूसरा उन्हे आधीन करने का। मनाने की क्रिया को माराधना 'और वश मे करने की क्रिया की साधना कहते हैं। मानव-जीवन 'मे कर्म-जन्य जितने भी दोप हैं, प्राधिना या साधना द्वारा उनका उपसंहार या सकोच करना'ही 'यात्म-दोष उपसहार" है। जैसे अग्नि में ईधन न डालने से उसका विस्तार स्वत ही रुक जाता है, वैसे ही अपने मे रहे हुए अवगुणो भूलो या दोषो का उपसहार करने का अभ्यास नित्यति करते रहने पर नवीन कर्मबन्ध स्वत ही रुक जाता है। एक बार नवीन कर्म-बन्धन के 'रुक जाने पर, वह पुन, प्रारम्भ न हो जाए, इसके लिये साधक को निरन्तर यत्नशील रहना अनिवार्य है।
-- - जीवन मे यदि कोई अवगुण या. दोष प्रतीत हो तो उसको निकालने का शीघ्र ही कोई न कोई उपक्रम करना चाहिए। यदि किसी यान, का एक पहिया-पचर हो जाए और तीन पहिए सर्वथा ठीक भी हो तो वह न्यान आगे नहीं बढ़ सकता । इसी प्रकार योग • एक चिन्तन ]
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जीवन मे यदि एक भी दोप प्रविष्ट हो जाता है तो जीवन-यान का साधना-पथ पर अग्रसर होना कठिन हो जाता है।
दोप अनेक तरह के होते हैं, किन्तु उनमे दो तरह के दोष मुख्य हैं जैसे कि व्यावहारिक और नैश्चयिक । व्यावहारिक दोप भी सैकडो ही नही, हजारो तरह के होते हैं, उनमे से भी कोई दोष सामान्य और कोई विशेष होता है। व्यावहारिक दोष व्यावहारिक क्षेत्र मे समुन्नति एव सफलता नही प्राप्त करने देते और नैश्चयिक दोप आध्यात्मिक साधना मे साधक को अग्रसर नही होने देते।।
अपने मे रहे हुए दोषो का जान मनुष्य को स्वत भी होता है, किसी अनुभवी एव साधना-सम्पन्न महापुरुषो द्वारा भी दोषो का ज्ञान कराया जाता है और शास्त्रो के अध्ययन से भी अपनी अज्ञता एव दोषो का ज्ञान हो जाता है । जैसे मकान मे घुसे हुए एव इधरउधर छिपे हुए चोरो को कोई समर्थ व्यक्ति एक-एक को खोज-खोज कर पकड़ता है और बाहिर निकाल देता है। इसी प्रकार साधक भी अपने जीवन मे छिपे हुए दोपो को भीतर नही रहने देता । जैसे दान्तो के अन्तराल मे फसे हुए तिनके आदि को जिह्वा निकाल कर ही दम लेती है। जब तक वह न निकल जाए, तब तक उसे चैन नही पड़ता, वह बार-बार उसी स्थान का स्पर्श करती है। वैसे ही अपने द्वारा कृत दोपो को निकाल कर ही साधक शान्ति का अनुभव कर सकता है । साधक को यह ध्यान रखना आवश्यक है कि दोष देखना हो तो अपना देखो, जिससे दोप दूर करने की प्रवृत्ति पैदा हो और' अहकार मिट कर जीवन मे नम्रता का उदय हो और यदि गुण देखने हो तो दूसरो के देखो, जिस से गुणग्राहकता की वृत्ति जागृत हो सके। दोषो के ह्रास से गुणो का विकास “१०४]
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होता है। रगड के विना जैसे रत्नो पर पालिश नही होतो, इसी प्रकार कठिनाइयो के बिना मानव पूर्ण नही हो पाता और दृढ साधना के विना जीवन मे से दोप नहीं निकलने पाते।
दुनिया मे सव से कठिन काम अपना सुधार है और सबसे आसान काम दूसरो की पालोचना एव नुक्ताचीनी है । पाप एव दोपो की पहचान ही मुक्ति-मार्ग का प्रथम कदम है। मानव-रोगो के भय से खाना तो वन्द कर देता है किन्तु दण्ड और मरण के भय से वह पाप एव बुराई बन्द नहीं करता । मानव की यही बड़ी कमजोरी है । जो साधक सच्ची निवृत्ति चाहता है, उसे चाहिए कि वह तमाम पापो, दोपो और उल्टी समझ को झोड दे। कोई भी दोष छोटा नहीं है, घड़ी की मशीन में कोई भी पुर्जा छोटा नही होता। एक दोप दूसरे दोप के प्रवेश के लिये इन्द्रिय रूपी द्वार खोल देता है। मनुष्य से दोप या भूल हो जाना स्वाभाविक है। जो दोष-सेवन हो जाने से दुखी होता है, वह साधु है और जो उस पर अभिमान करता है वह शैतान है । यदि कोई व्यक्ति किसी दोष को दो-चार वार कर लेता है तो फिर उसे वह अपराध नही प्रतीत होता । वह मानसिक भाव जो मिथ्याजान से उत्पन्न होता है और जिसकी प्रेरणा से मनुष्य बुरे कामो में प्रवृत्त होता है वह दोप है। दोष एक ही नहीं अनेको हैं। चाहे दोप कैसा भी हो, उससे प्रात्मा का पतन होता है साधक विराधक बन जाता है । दोषो का उपसहार जीवन के उत्थान का एव आराधक बनने का मार्ग है। ज्यो-ज्यो रागद्वेप की प्रवृत्ति कम होती जाएगी और निवृत्ति बढती 'जाएगी, त्यो त्यो समत्वयोग के साथ-साथ सभी गुणो का विकास स्वय वृद्धि को प्राप्त होता जाएगा। अत साधक को आत्म-दोपो का उपसंहार करने के लिये सर्वदा यत्नशील रहना चाहिये। . योग - एक चिन्तन ]
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२२. सर्व-काम-विरक्तता
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प्रत्येक शब्द श्रनेकार्थक है, इसमे दो मत नही हो सकते । काम शब्द भी अनेकार्थक है, और यह प्रसगानुसार दो अर्थो मे रूढ है - इच्छा और कामवासना । प्रशसा, धागा, तृष्णा, वाळा, काम, ये सब इच्छा के ही अपर नाम हैं । इच्छाओ का सम्बन्ध प्राय जड चेतन पदार्थों से है । इच्छाए आकाश के समान अनत -हैं, उनकी कोई सीमा नही है ।
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इच्छा और मूर्छा दोनो परिग्रह के अग है । परिग्रह की अपेक्षा, इच्छा महती है । इच्छा को शास्त्रकारो ने दस भागो मे विभक्त कर दिया है । प्रत्येक भाग मे भी इच्छा के अनेक रूप हो सकते हैं जैसे कि -
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१ इहलोकाशसा प्रयोग — इस लोक से जिस इच्छा का सम्बन्ध है, वह इहलोक - प्रागसा है। जब यह प्राशसा बलवती हो जाती है, तब उस आगसा के साथ 'प्रयोग' शब्द का निवेश कर ' दिया जाता है । इच्छा करनेवाला जीव जिस भव में है, उसी से ' मिलता-जुलता भव मृत्यु के बाद भी प्राप्त हो तथा शरीर बल, 'रूप, सुख, सत्ता समृद्धि इत्यादि लौकिक वैभव से समृद्ध भव की कामना करना 'इह लोक प्राशसा प्रयोग है ।
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२. परलोकाशंसा - प्रयोग - जिस इच्छा का सम्बन्ध परलोक
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से है, अर्थात् देव आदि भवो से है, उसे परलोक-प्राशसा-प्रयोग कहा जाता है । इस लोक मे तपस्या आदि शुभाचरणो के बदले मे मुझे इन्द्र आदि का पद मिले, अथवा नौ.प्रकार का निदान करना 'परलोकाशसा-प्रयोग है ।' जिस साधक की बहुत सी कामनाए इस लोक मे अपूर्ण रह गई है, वह मानव अगामी भव मे सब तरह से सपन्न होने के लिए "परलोकाशसा-प्रयोग" करता है। " ३ उभयलोकांशसा-प्रयोग-जिस बलवती इच्छा का सबध दोनो लोकों से हो वह उभयलोकाशसा-प्रयोग है । यह इच्छा दोनो लोको को स्पर्श करने वाली होती है। इस लोक मे सब तरह समुन्नत बनूं और परलोक मे भी समुन्नत ही वना रहू, अथवा इस लोक में की गई तपस्या आदि के फल स्वरूप में परलोक मे सर्वोच्च देव बनू और वहा से आयुपूर्ण कर इस लोक मे चक्रवर्ती एव राष्ट्रपति आदि बनकर सुख भोगू, यह कामना ही 'उभयलोकाशंसा-प्रयोग है।
सामान्य इच्छाए तीन तरह की होती हैं, किन्तु विशेप विवक्षा से इनके सात भेद इस प्रकार किए गए है।
(क) जीविताशमा प्रयोग जिस इच्छा को सम्बन्ध दीर्घकालिक जीवन से हो, वह इस कोटि मे गभित है। सुख, समृद्धि राजसत्ता, मान-प्रतिष्ठा, शुभ परिवार को प्राप्त कर जीने की 'इच्छा करना या अपने ही स्त्री-पुत्र आदि के जीने की इच्छा करना जीविताशसा प्रयोग है।
(ख) मरणाशसा-प्रयोग-दु-खो एव रोगो से तग आकर मरने की इच्छा करना, मेरा मरण शीघ्र हो जाए ताकि मेरा इस दुख से छुटकारा हो जाए, अथवा लज्जा एव अपमान के वशीभूत होकर मरने की इच्छा या मरने की तैयारी करना योग : एक चिन्तन ]
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'मरणाशसा प्रयोग' है ।
(ग) कामाशसा प्रयोग - जिम इच्छा का संबंध मन पसन्द शव्द और रूप से हो, जैसे कि मुझे ग्रभोष्ट शब्द सुनने को मिलें और अभीष्ट रूप देखने को मिले, ऐसी कामना करना "कामाशसाप्रयोग" है ।
(घ) भोगाशंसा प्रयोग - ग्रभीप्ट गध, रस और स्पर्श की अनुभूति को भोग कहते है, ग्रमुक तरह के सुगंधित पदार्थ, खानेपीने के स्वादिष्ट पदार्थ और अनुकूल स्पर्गवाले पदार्थ मुझे मिलें, ऐसी चाहना करना 'भोगागंसाप्रयोग' है ।
(ड) लाभाशसा प्रयोग - लाभ भी अनेक तरह का होता है - विजय - लाभ, सपत्ति-लाभ, सत्ता-लाभ, शुभ परिवार का लाभ, सुख एवं ऐश्वर्य का लाभ, स्वास्थ्य लाभ, और समुन्नतिलाभ आदि । इस प्रकार की लौकिक एव भौतिक इच्छाश्रो की पूर्ति के लिए कामना करना तथा योगजन्य, एव तपोजन्य लब्धियो को प्राप्त करने की कामना करना या मेरे अमुक साथी को उक्त लाभ हो, ऐसी कामना को "लाभाशसा प्रयोग" कहते है ।
(च) पूजाशसा प्रयोग - मैं देवो की तरह पूजा जाऊ या पूज्यजनो की तरह ससार मे मेरी पूजा हो, मेराही सव ओर बोल-बाला हो, ऐसी तीव्र इच्छा को 'पूजागसा प्रयोग' कहते है ।
-
(छ) सत्काराशसा प्रयोग - मेरा सब लोग आदर-सत्कार करे, इनाम मिले, भरी सभा मे अभिनंदन हो, स्वागत एव विदाई समारोह हो, मुझे थैली भेट की जाए एव अमूल्य पदार्थों के उपहार मिले, लोगो से इस तरह के सत्कार की कामना करना 'सत्काराशसा प्रयोग' है । इन सभी तरह की इच्छानो से विरक्त होना
१. स्थानाङ्गसून, स्थान दसवा
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सर्वकाम विरक्तता है। ___काम शब्द का अर्थ काम-वासना भी है। वेद-मोहनीय कर्म-प्रकृति के उदय से मन, वाणी और काय मे जो विकृतिया
आती हैं, यह उन विकृतियो का ही परिणाम है। जैसे भौतिकसिद्धिया साधक को भटका देती हैं, वैसे ही भौतिक एव वासनाजन्य प्रानन्द भी आध्यात्मिक आनन्द से साधक को भटका देता है। वेद का अर्थ है-वासना की पूर्ति के लिए विपरीत लिंगी की चाहना। उस वेद-मोहनीय-कर्म प्रकृति की सत्ता को सयमपूर्वक तप द्वारा बलहीन किया जाता है। सत्ता के वलहीन होने से उसका उदय भी मद, मंदतर एव मदतम हो जाना स्वाभाविक है । जव संचित कर्म-प्रकृति की स्थिति और उसके फल देने की शक्ति नही जैसी हो जाती है, तब उस प्रकृति का उदय साधक के जीवन को प्रभावित नहीं कर पाता। तभी उसमे सर्व-कामविरक्तता की साधना जागृत होती है । कामाग्नि को योग से शान्त किया जाता है। सबसे पहले कपायाग्नि को शान्त किया जाता है, उस से मन शान्त हो जाता है। मनके शान्त होने पर इन्द्रिया भी अपने-अपने विषय को ग्रहण करने के लिए उत्सुक नही रह जाती। इन सबके शान्त हो जाने पर वासना स्वय शान्त हो जाती है । इस क्रम से सर्व-काम-विरक्तता नामक योग-संग्रह की आराधना सहज हो जाती है। साधक को सदैव सर्वकाम विरक्तता की साधना का अभ्यास करते रहना चाहिए।
पश्चिमी वैज्ञानिको ने इच्छा के आठ भेद किए है। मैं समझता हू कि उनके द्वारा प्रस्तुत भेदो की अपेक्षा जैनागमो द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त इच्छा-विभाग अधिक उपयुक्त एव मनो
वैज्ञानिक है। योग • एक चिन्तन]
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२३. मूलगुण-प्रत्याख्यान
प्रत्याख्यान का अर्थ है परित्याग करने की दृढ प्रतिज्ञा अर्थात् निन्दनीय एव सर्व सावध कर्मो एवं मोहजनक पदार्थों से, निवृत्ति। ज्ञान पूर्वक दृढ-प्रतिज्ञ- होकर किया हुआ प्रत्याख्यान ही महत्त्व पूर्ण होता है । चित्र तैयार करने से पहले जैसे चित्रकार को उसके स्वरूप का, उसके साधनो का उन साधनो के उपयोग का विशिष्ट ज्ञान होता है और इसी जान, के अनुसार-जब-वह क्रिया भी करता है, तभी वह चित्र तैयार कर पाता है। वैसे ही प्राध्यात्मिक क्षेत्र में भी मुमुक्षु के लिए-आत्मा, वध, और मोक्ष के उपायो का तथा उनके परिहार एव उपादेयता का ज्ञान होना श्रावश्यक है। शास्त्रकार कहते है "ज्ञानक्रियाभ्या मोक्ष ' ज्ञान
और क्रिया का सतुलित प्रयोग ही मोक्षमार्ग है। जिन पापो के त्याग से प्रात्म-गुणों का विकास हो, जीवन अलौकिक एवं पादर्ग वन जाए जिन साधनो से मोह-कर्म पर विजय प्राप्त हो जाए, आत्मसमाधि जाग उठे, परमानन्द की प्राप्ति हो सके,उसे "मूलगुण प्रत्याख्यान" कहते है ।
. . . चारित्रं-मोहनोय · कर्म के उपशम, क्षयोपशम अथवा सर्वथा क्षय होने से इस गुण की उपलब्धि होती है। चारित्र एव सयम को, "मूलगुण-प्रत्याख्यान" कहा जाता है । यात्म स्वरूप में ११०]
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तल्लीन करनेवाली आत्मा की विशुद्ध परिणति या सम्यक् क्रिया ही चारित्र है । साधक ज्यो-ज्यो योगों अर्थात् प्रवृत्तियो का निरोध करता है, त्यो-त्यो उसकी स्व-स्वरूप में तल्लीनता वढती जाती है । योगो का पूर्णतया निरोध ही चारित्र की उपयोगिता है। ज्ञान-दर्शन की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति ही चारित्र है। कपायो और लेश्याओ से योग चचल हो उठते हैं, इन दोनो से निवृत्त होते ही योग-निरोध स्वत ही हो जाता है।
' यद्यपि भावो की विशुद्धि को ही बारित्र कहते हैं, तथापि । उसके आन्तरिक एव वाह्य भेदो से वह पाच प्रकार का है, जैसे किसामायिक-चारित्र," छेदोपस्थापनीय-चारित्र, परिहार-विशुद्धिचारित्र, सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र और यथाख्यात-चारित्र । इनका परिचयात्मक विवरण इस प्रकार है - , १ सामायिक-जिससे समत्व-योग का या रत्नत्रय का लाभ हो वह सामायिक है। सर्व सावध योगो का त्याग और निरवद्य प्रवृत्ति एव निवृत्ति का सेवन अथवा रोग-द्वेप से रहित
आत्मा द्वारा प्रतिक्षण अपूर्व कर्म-निर्जरा से होने वाली प्रात्मविशुद्धि सामायिक है।
यो तो चारित्र के सभी भेद सावध योग विरतिरूप हैं, इस अपेक्षा से सभी भेद सामायिक मे गभित हो जाते है, क्योकि छेदोपस्थापनीय आदि सभी भेदो का आधार सामायिक चारित्र ही है । इसके विना अन्य चारित्रो का जीवन मे अवतरण नहीं हो सकता। तीर्थकर भी सर्व प्रथम सामायिक चारित्र ही ग्रहण करते हैं, अत इसका अस्तित्व सभी तीर्थडुरो के शासनकाल में पाया जाता है। इसे धारण किए बिना कोई भी साधक किसी अन्य चारित्र का अधिकारी नही बन सकता। योग एक चिन्तन ]
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इसके भी मुख्यत. दो भेद हैं-देश-सामायिक और सर्वसामायिक । जो दो घडी प्रादि के रूप मे समय की सीमा बाधकर दो करण एव तीन योग से सामायिक की जाती है वह देश-सामायिक है । इसका अधिकारी प्रादर्श गृहस्थ होता है।
जो तीन योग और तीन करण से धारण किया जाता है तथा जिसमे समय और देश का सीमा नही बाधी जाती, जो ग्रहण-काल से लेकर जावन भर के लिए धारण किया जाता है. वह सर्व-सामायिक है । जो नर-नारी सर्व सामायिक को धारण करते है वे साधु एव साध्वी कहे जाते है।
छेदोपस्थापनीय-जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद एव महाव्रतो का उपस्थापन (प्रारोपण) होता है, अर्थात् पूर्व पर्याय का छेद करके जो महाव्रत दिए जाते है, उसे 'छेदोपस्थापनीय" कहते है। सार्वभौम पाच महाव्रतो का पालन साधुत्व की अनिवार्य शर्त है, इनका पालन किए बिना कोई भी साधक साधु नही कहला सकता। पांचो महाव्रतो का परस्पर एक दूसरे से सम्बन्ध है। एक महाव्रत के भग होने से सभी महाव्रत भग हो जाते है और एक के दूपिन होने से सभी महाव्रत दूपित हो जाते है। प्रसगानुसार महाव्रतो का मक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करना भी आवश्यक होगा।
१. प्राणातिपात-विरमण-महाव्रत
प्राणो का अतिपात, विनाग अर्थात् अपहरण करना ही प्राणातिपात है। विरमण का अर्थ है उस प्राणातिपात से निवृति, अर्थात् हिंसा से सर्वथा विरक्त होना ही पहला महाव्रत है । अहिंसा दो प्रकार की होती है-विधिरूपा और निषेधरूपा। यदि दोनो मे परस्पर तुलना की जाए तो निपेधरूपा अहिंसा का क्षत्र विशाल ११२]
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है। किसी को मारना तो दूर रहा पीडा, पहुचाना भी हिसा ही है। दोनो क्रियायो से दूर रहना यह निषेध-प्रधान अहिंसा है।
किसी की सेवा करना, रक्षा करना एव उसे सकटो से बचाना विधि-प्रधान अहिंसा है। निषेध-प्रधान अहिंसा, ही महावत है। विधि-प्रधान अहिंसा तो कुछ मर्यादामो मे बंध कर चलना मात्र है।
वस्तुत देखा जाए तो अहिंसा कायदे-कानूनो का धर्म नही - है, अहिंसा दुर्बलो का मार्ग नहीं है, अहिंसा कायरो का पत्थ नही है, अहिंसा कोई बातो की सिद्धि नही है और अहिंसा किसी सम्प्रदायविशेष की अपनी निधि भी नही है। अहिंसा को समझने और उसका पालन करने के लिये उदार चरित्र और ज्ञान की आवश्यकता होती है। प्राचार और विचार मे, चारित्र और बल में, कर्तव्य और मनोभावना मे, साधक को अहिंसा का सर्वतोभावेन पालन करना होता है। अपने भीतर निरीक्षण करने पर ही अहिंसा का पालन दृढ मन से हो सकता है । अहिंसा को आराधना के लिये मन में मैत्री, प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, सहिष्णुता का होना अनिवार्य है। इनके विना अहिंसा का पालन नहीं हो सकता, क्योकि जो अपने प्रति कठोर होता है वही दूसरे के प्रति उदार हो सकता है। जब तक अहिंसक के मन मे दूसरे की फजीहत से गुदगुदी होती है, अ तक यही समझा जाता है कि उसमे अभी दुष्टता बाकी है। अंहिसा भगवती की आराधना करनेवा साधक के लिये सब से - पहले कपायो की उपशांन्ति आवश्यक है, क्योकि कषायवृत्ति का और अहिंसावृत्ति का परस्पर विरोध है।
जीवन पर्यन्त त्रस और स्थावर सभी जीवो की हिसा से सर्वथा निवृत्त होना, न स्वय मन से हिंसा करना, न वाणी से योग एक चिन्तन
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हिंसा करना, न काय से किसी की हिंसा करना, दूसरो से भी मन, वाणी और काय से हिसा न-कराना, हिंसा करनेवाले का मनवाणी-काय से समर्थन भी न करना ही अहिंसा की पूर्ण पाराधना है । इस महाबत की पाच भावनाए हैं, जैसे कि
१. ईर्यासमिति-भावना-साधू या साध्वी को चाहिए कि चलते समय, वैठते समय, सदैव ईर्यासमिति के पालन का ध्यान रले ईर्यासमिति के बिना जीव-हिंसा से बचना असम्भव है।
२. मनोगुप्ति-मयम-गील अप्रमत्त साधु अपने मन को शुभे प्रवृत्तियों में हो लगाए। जो साधु मनोगुप्ति पर ध्यान नहीं देंता वह निश्चय ही प्राणियों की हिंसा करता है। काय-गुप्ति होते हुए भी मन की दुष्टं प्रवृनि म-बध का कारण बन जाती है। "मन एवं मनुष्याणां कारणं बंध-मोक्षयो-निश्चय ही वध और मोने का कारण मन ही है, अत मन पर नियंत्रण रखना ग्रावश्यक है।
३. वचन-गुप्ति-अहिंसा को पापो में प्रवृत्त करनेवाली एव दूसरों को कष्ट देनेवाली ऐसी भापा कभी नहीं बोलनी चाहिये। जिससे किसी प्राणी की हिंसा हो, उसे कष्ट हो, क्योंकि सावध भाषा मे प्रवृत्ति करने वाले से प्राणियो की हिंसा का होना अनिवार्य है।
४. पादान भण्डमान-निक्षेपणा-समिति-वस्त्र पात्र आदि-: किसी भी उपकरण को अयतना से लेने और रखने से प्राणियो की हिंसा का होना सभव है, अत. किसी भी वस्तु को देखकर, झाड़ कर, साफ कर यतनापूर्वक उसे ग्रहण करे और रखे, तभी इस महाव्रत की रक्षा हो सकती है। .
. ५. पालोकित-पान-भोज़त-साधु, खुले मुह वाले पात्र११४.]
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मे आहार पानी ग्रहण करे, प्रकाश वाले स्थान में देखकर भोजन करे, विना देखे आहारादि ग्रहण करने वाला या उसका सेवन करनेवाला साधक प्राणियो की हिसा से बच नहीं सकता है।
जो साधक इन पाच भावनामो से भावित है वही इस महाव्रत का रक्षक एव पालक हैं। २. मृषावाद-विरमण महाव्रत___-अपने लिये, पर के लिये या दोनो के लिये किसी भी स्थिति मे क्रोध-से, लोभ से, भय एव हंसी-मजाक मे मन-वाणी और काय से स्वय न झूठ बोलना, न दूसरो से झूठ वुलवाना और, झूठ बोलने वाले का समर्थन भी न करना, मन से सत्य सोचना, वाणी से सत्य बोलना और काय से सव के साथ सद् व्यवहार करना यह है उच्च साधक का दूसरा महाव्रत। मौन रखना, विकथाओ से बचना भी इस महाव्रत के अग हैं। यदि साधक को झूठ से बचना है तो पहले उसे अत्युक्ति से वचना आवश्यक है। शास्त्र, कला और आध्यात्मिक सौदर्य ये सब सत्य की ओर ले जाने वाली सीढिया हैं। सत्य उसी के हृदय मे उदित होता है, जिसका जीवन परम सात्विक हो, जो रागद्वेप से रहित हो। ज्यो-ज्यो साँधकं सत्य की ओर बढ़ता है, त्यो-त्यो दूर की बातें उसे प्रा यक्ष दीखने लगती है। सत्य स्वयं भगवान है, यदि किसी ने भगवान के दर्शन करते हो तो वह सत्य के दर्शन करले; उसे भगवान के दर्शन स्वत ही हो जाएगे।
असत्य नंगेटिव है, जब कि सत्य पाजिटिव है। सत्य और असत्यं दोनो ही अनन्त हैं। असत्य से जव साधक पूर्णतया निवृत्त हो जाता है त निश्चय ही 'उसे अखण्ड सत्य के दर्शन होने योग . एक चिन्तन]
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लगते हैं। दूसरे महाव्रत की पाच भावनाए है उनके सम्यक् पालन करने से ही सत्य के दर्शन हो सकते हैं। जैसे कि
(क) अनुविचिन्त्य भाषणता-सत्यवादी को सम्यग-ज्ञान पूर्वक विचार करके बोलना चाहिए, क्योकि विना विचारे बोलने वाला कभी असत्य से बच नहीं सकता।
(ख) क्रोध-विवेक-सत्यवादी को क्रोध के दुष्परिणामो को.. जानकर उसे छोड देना चाहिए। क्रोधान्ध व्यक्ति सत्य की मर्यादा का उलघन कर जाता है स्व-पर का भान उसमे नही रहता, वह सत्य-असत्य का विवेक खो बैठता है। अत जव भी क्रोध आने लगे तभी उसका नियन्त्रण करना क्रोध-विवेक है।
(ग) लोभ-विवेक-मानव लोभ के वशीभूत होकर झूठ वोल जाता है, क्योकि धन-प्राप्ति की इच्छा असत्य की सबसे प्रिय सखी है, अत सत्यवादी को सत्य की रक्षा के हेतु लोभ से भी निवृत्त होना चाहिये। साधक के लिये सन्तोष से लोभ का नियत्रण करना आवश्यक ही नही अनिवार्य है।
(घ) भय-विवेक--सत्य की रक्षा के लिये और झूठ से बचने के लिए सत्यवादी को निर्भीक रहना चाहिए। अपने प्राणो को बचाने की इच्छा सत्यव्रत को दूषित कर देती है, प्राण-भीरु साधक महाबतो की रक्षा नहीं कर सकता है। - (ड) हास्य-विवेक-जिसे सत्यवादिता की रक्षा करनी है
और सत्य भगवान की प्राराधना करनी है, उमे हसी-मज़ाक छोडना ही पड़ेगा, क्योकि हास्य-वश मानव बहुधा झूठ बोल जाता है। जव तक बात मे झूठ की पुट न दी जाए तब तक हंसी-मज़ाकका रूप ही नही बनता है, अत इन पाच भावनामो से ही सत्य
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की सम्यक् आराधना हो सकती है। ३. अदत्तादान विरमण-महावत
किसो की बिना दी हुई वस्तु को भूलकर भी न उठाना या वरतु के स्वामी की आजा लिये विना किसी वस्तु पर एव स्थान पर अपना अधिकार न जमाना, चोरी की सभी विधियो से विरक्त होना तीसरा महाव्रत है। यद्यपि चोरी के छोटे-बड़े अनेक भेद हैं, जैसे कि किसी की जेब कतरना, किसी का ताला खोलकर वस्तु उठाना, रिश्वत खाना, अमानत मे खयानत करना, कालाधन कमाना, किसी की दीवार मे सेध लगाना, ठग-विद्या से धन कमाना, किसी की भूमि पर पड़ी हुई वस्तु को हडप कर लेने की वुद्धि से उठाना, यात्रियो के धन-माल को लूटना, थोडा काम करके अधिक लेने की इच्छा रखना, मज़दूर से काम अधिक लेना और मजदूरी थोडी देना, किसी के लाभ मे विघ्न डालना, बिना याचना किए वस्तु का उपयोग करना, शुभ काम किया किसो और ने दूसरो को यह कहना कि 'अमुक काम ने किया है, बटवारा ठीक न करना, समय पर काम न करना, किसी वस्तु की आज्ञा ली है किसी और काम के लिए, उसका उपयोग अन्य काम मे कर लेना, ये सब चोरी के ही नाना रूप हैं। चोरी की सभी विधियो एव भेदो से पूर्णतया निवृत्ति पाकर जीवन भर के लिए मन, वचन, काया से न स्वय चोरी करना, न दूसरे से चोरी कराना और न चोरी करने वाले का समर्थन ही करना "अदत्तादान-विरमण महाव्रत" है। . ___ यद्यपि छोटी-बड़ी चोरियो के अनगिनत भेद हैं, तथापि शास्त्रकारो ने उन सब को चार भागो में विभक्त कर दिया है, जैसे कि-द्रव्य-चोरी, क्षेत्र चोरी, काल-चोरी, और भाव-चोरी। योग एक चिन्तन]
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वस्तु के स्वामी की आज्ञा लिये विना या उससे याचना किए विना किसी की वस्तु का ग्रहण करना द्रव्य चोरी है।
किसी स्थान या मकान आदि पर बिना आजा के बलपूर्वक आधिपत्य जमाना क्षेत्र-चोरी है।
द्रव्य और क्षेत्र को जितने समय के लिए ग्रहण किया हो उतना समय पूर्ण होने पर भी वापिस न करना, अपने काम पर ठीक समय से न पहुचना काल-चोरी है।। ___ लौकिक दृष्टि से जिस को चोरी कहते है, वे प्राय द्रव्य-चोरी और क्षेत्र चोरी के ही रूप हैं । काल-चोरी भी अपेक्षा-कृतं मान ली जाती है। समय पर काम न करना, समय पर कार्यालय मे न पहुंचना और समय पर पारिश्रमिक न देना, समय पर कर्जा लेकर न लौटाना चोरी है।
• तप-चोर, वच-चोर, रूप-चोर, प्राचार-चोर और भाव-चोर, . इनका भी आगमो मे उल्लेख, प्राप्त होता है। महाव्रती को इन । की ओर भी ध्यान देन-चाहिए। १.
बहुत बार नाम सेंमान होने से जनता भ्रम मे पड़ जाती है। भ्रान्त व्यक्ति की भ्रांति को न निकालकर उसे और अधिक भ्रांति मे डाल देना, दूसरे की प्रतिष्ठा को नष्ट करने का प्रयत्न करना यह भी चोरी है।
एक व्यक्ति तपस्वी होने के कारण दुर्वल है और दूसरा व्यक्ति रोगी एव दुराचारी होने के कारण दुर्वल है। दुर्बल दोनो हैं। ऐसी दशा मे अपनी रोग-जन्य एव वासना-जन्य दुर्वलता को - १ देखो दशवकालिक सूत्र का ५,१०, २ उ०, गा० ४८-४९।- .. ११८
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'तपस्वी' परायणता-जन्य दुईलता बताना तप-चोरी एक साधु शरीर से दुर्वल है और दूसरा तपस्वी साधु तप-परायणता के कारण दुर्बल है, ऐसी दशा में किसी ने भ्रम से दुर्वल साधु से “पूछा क्या महातपस्वी श्राप ही हैं ? तवं माया की भाषा में उत्तर
देना, या मीन रहना, जिस से कि दूसरे की मिथ्याधारणा बढे, यह -भी. चोरी का ही एक रूप है। ___एक ही नाम के दो व्यक्ति है, एक प्रसिद्ध वक्ता है दूसरा साधारण है । पूछने वाले ने पूछा "क्या प्रसिद्ध वक्ता या व्याख्यान वाचस्पति आप ही है ?" यदि साधारण “सत इसके उत्तर मे कपट की भापा-मे-बोलता है, या मौन से उत्तर देता है। तो यह भी वचन-चोरी का ही एक रूप है। इससे माया-चारिता बढती हैं।
इसी तरह एक साधु, साधु बनने से पहले राजकुमार था दूसरा साधारण कुल मे जन्मा था। नाम दोनो साधुओ का एक समान है। किसी ने दूसरे से पूछा, "अमुक राजकुमार ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी तो क्या वे आप ही है ? इस का उत्तर यदि वह माया की भाषा मे देता है तो वह भी चोर है। -- दो सन्तो का नाम समान है, उनमे एक का प्राचार विशुद्ध है, दूसरा साधारण औचार वाला है। किसी ने साधारण आचार वाले से पूछा "जो महात्मा उच्च संयमी हैं, क्या वे आप ही है ?" वह यदि माया की भाषा में जवाब देता है 'यी चुप रहता है तो वह आचार-चोर है।'
किसी ने किसी बहुश्रुत से पूछा-'"भते-1 इस पाठ-की-आप ने क्या धारणा की है ?" ज्ञानी ने पही उत्तर दिया। पूछने वाला कहता है मेरी भी यही धारणा है, मैंने तो श्राप से केवल परीक्षा योग . एक चिन्तन
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के लिए पूछा था, वस्तुत. उस अर्थ को वह विल्कुल नहीं जानता था। इसको भाव-चोरी कहते है। इस तरह दूसरे की मान प्रतिष्ठा को लूटना भी चोरी है। ऐसी चोरी का जन्मान्तर में दुर्गतिरूप फल भोगना पडता है और साधक दुर्लभबोधि बन जाता है।
इस महानत की आराधना तभी हो सकती है जबकि पांच भावनात्रो का सम्यक् पालन किया जाय। वे पांच भावनाए निम्नलिखित है.
(क) अवग्रहानुज्ञापना-साधु या साध्वी को चाहिए कि किसी दूसरे के द्वारा नहीं, बल्कि स्वय अधिकार प्राप्त स्वामी को भली-भाति जानकर उससे रहने के लिये स्थान को याचना करनी चाहिए, अन्यथा अदत्तादान का दोष लगना समव है। .
(ख) सीमा-परिज्ञान, अधिकारी वर्ग से उपाश्रय की सीमा को खोलकर उसका सेवन करना चाहिए। एक बार अधिकारियोद्वारा उपाय की आजा प्राप्त होने पर भी, उनसे वार-बार सीमा-परिमाण खोलकर अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, क्योकि रोग एव वुढ़ापे आदि के कारण साधु को परठनेपरठाने के स्थान आदि की वार-बार आवश्यकता होती है। अदत्ता-दान दोप से बचाव के लिये अधिकारी वर्ग एवं किसी दाता को कष्ट न हो, इस भावना.की रक्षा के लिये स्थान को विधिवत् खोलकर पाना प्राप्त करना साधु का कर्तव्य है ।अनुमति के विना यदि भय पूर्वक, स्थान का उपयोग किया जाएगा,
तो उसे चोरी ही कहना उपयुक्त होगा। ... (ग) अवग्रहानुग्रहणता-स्थान विशेष की आज्ञा लेने के ___ १२० ],
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अनन्तर वहा पर रखे हुए चौकी, पट्टा, तृणादि के ग्रहण के लिए भी प्राज्ञा प्राप्त करनी चाहिए, नही तो बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण और सेवन मे चोरी का दोष टल नही सकता ।
(घ) श्राज्ञा प्राप्त सार्धामिकावग्रह सेवन - उपश्रिय मे निवास कर रहे एक समाचारी वाले साधुत्रो से नियत क्षेत्र और काल के लिए स्थान या मकान की आज्ञा लेकर ही वहा : रहना चाहिए तथा भोजन प्रादि करना चाहिए, नही तो चोरी के दोष से साधु अछूता नही रह सकता ।
(ड) श्राज्ञा प्राप्त भक्त-पान का सेवन --- युथाकल्प यथासूत्र प्रासुक एषणीय आहार मिल जाने पर उस ग्राहार को उपाश्रय मे लाकर गुरु के समक्ष दिखाए बिना, ग्रालोचना किए विना उसका सेवन नहीं करना चाहिये । साधुग्रो की मडली मे बैठकर सेवन करे, धर्म-साधना रूप अन्य उपकरणों का सेवन भी गुरु की ग्रांज्ञा से ही करना चाहिए । बुडो को दिखाए बिना और उनकी प्राज्ञा लिए विना किसी भी वस्तु का सेवन करना चोरी है ।
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४ मैथुन - विरमण - महाव्रत - -
देव मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी दिव्य एव प्रदारिक काम सेवन का तीन योग और तीन करण से सर्वथा त्याग करना "मैथुन- विरमण महाव्रत" है । दुराचार से पूर्णतया निवृत्ति पाना ही ब्रह्मचर्य है । वासना की तृप्ति के लिये शारीरिक मिलन को मैथुन कहते हैं । मैथुन से निवृत्त होकर श्रात्मावस्थित होना ही ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है - कायिक, वाचिक श्रीर मानसिक ।
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विकृत मन से किसी का स्पर्ग नहीं करना, विपरीत लिंगी योग - एक चिन्तन ]
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के साथ एक प्रासन पर न बैठना, क्सिी को वासना-लोलुप दृष्टि से न देखना और विकारी वातावरण से दूर रहना कायिक ब्रह्मचर्य है। - - -विकारोत्पादक गीत एव वार्तालाप आदि न सुनना, वासना वर्धक बातचीत न करना, अश्लील भार्पण न करना, कामोत्तेजक पदार्थ न खाना, खाने में संयम रखना, वाचिक ब्रह्मचर्य है। क्योकि जिसने रसना को नहीं जीता, वह विषयों को नहीं जीत सकता। इमको अस्वाद व्रत भी कहते है। एक रेसनेन्द्रियं को वश कर लेने से शेप सभी इन्द्रिया स्वय वश मे हो जाती हैं।
सदैव विचारों को पवित्र रखना, पूर्वकृत भोगो का स्मरण न करना, स्वाध्याय, ध्यान एव चितन में मन को लगाना 'आदि मानसिक ब्रह्मचर्य के रूप हैं।
__ काम के समान कोई व्याधि नही, मोहं के समान कोई शत्रु नहीं, क्रोध के समान कोई आग नही, जान के समान कोई सुख नही।
___ काम-वासना दूसरे सब पापों के लिए और दुखो के लिए दरवाजा खोल देती है और ब्रह्मचर्य से सभी दरवाजे बंद हो जाते हैं-पापो के भी और दुखो के भी प्रश्न-व्याकरण सूत्र के चौथे सवर द्वार मे ब्रह्मचर्य को सर्वोत्तम वत्तीस उपमानों से उपमित किया गया है। ब्रह्मचर्य भगवान है और ब्रह्मचर्य रूप भगवान की पाराधना पांच भावनाओ से हो सकती है। वे पांच भावनाएं निम्नलिखित है .
१. विविक्त - शयनासन • सेवन-सयम-परायण साधु या सीध्वी को ऐसे स्थान मे विल्कुल नहीं ठहरना चाहिए, जो स्थान १२२]
[ योग 'एक चिन्तन
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कामोद्दीपक चित्रो से नज्जित हो, जहां गाय, भैंस, भेड, वकरी आदि पशु रहते हो और जहा नपुंसक का निवास हो, अर्थात् जहां विपरीत लिंगी व्यक्ति रहते हो, वहा साधु को नही ठहरना चाहिये, जहा इन्द्रियो की प्रवृत्तिया एव मन की वृत्तिया उत्तेजित हो, वहा न ठहरे। वृत्तियो को अन्तर्मुखी होने में सहयोग दे वही स्थान "विविक्त शयनासन" कहलाता है ।
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२. विजातीय कथा -विवर्जन- स्त्री के लिए पुरुप विजातीय है और पुरुष के लिए स्त्री विजातीय है । केवल विजातीयो मे कथा नही करनी, एकाकी विजातीयो की संगति कभी न करे, उनके साथ बातचीत भी अधिक न करे, यह दूसरी भावना है ।
३. विजातीय- इन्द्रियावलोकन - वर्जन - विजातीयो के मुख
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नेत्र आदि गो को काम - राग की स्थिर दृष्टि से नही देखना चाहिये, क्योकि उन्हे देखने से सयम को हानि पहुचती है- 1 -
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४. पूर्व कोड़ित अननुस्मरण- गृहस्थ अवस्था मे भोगे हुए काम-भोगो का स्मरण नहीं करना चाहिये । स्नान विलेपन, केश विन्यास श्रादि रूपों में शरीर की सजावट एव बनाव मे दत्तचित्त व्यक्ति का चित्त चचल हो जाता है उसमें विकारोत्पत्ति हो जाती है । विभूपा से भी दूर रह कर ही साधु अपने शील की रक्षा कर सकता है |
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५ प्रणीताहार - विवर्जन- शीलवान साधक को चाहिए कि वह थोडा खाए और थोड़ा ही पीए । "प्पपिण्डासी पाणासी"" सरस, स्निग्ध एव पौष्टिक आहार का उपयोग न करे और प्रमाण से अधिक रूक्ष श्राहार भी न करे। इन पांच भावनाओ मे से यदि कोई भी एक भावना निर्वल हो जाए तो ब्रह्मचर्य जीवन से निकल जाता है |
योग
• एक चिन्तन ]
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हट जाने पर परिग्रह, परिग्रह नहीं रह जाता या परिग्रहरूप जड. चेतन से अलग होने पर राग-द्रोप मोह रूप ईवन के प्रभाव मे लालसा की आग स्वत ही शान्त होने लगती है ।
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परिग्रह महाव्रत की भी पांच भावनाए हैं - उनमें से किसी एक में भी ढील ग्राने पर परिग्रह की भावना स्वत. ही उभर ग्राती है । पाचो भावनाए सुदृढ हो तो ग्रपरिग्रह महात्रत सुरक्षित रहता है । वे भावनाए निम्न लिखित
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१. भोलेन्द्रिय-रागोपरति- कानों के तीन विपय हैं— जीवशब्द, अजीव शब्द और मिश्र शब्द । इन्द्रियो और मन के अनुकूल शब्दो पर या शब्दो के साधनो पर राग न रखना और प्रतिकुल शब्द और शब्द के साधनों पर द्वेष न करना, अपरिग्रह को पहली भावना है ।
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२ चक्षुरिन्द्रिय-रागोपरति- आखो का विषय है रूप । काला, पीला, नीला लाल और सफेद, इन्ही के मेल-जोल से हज़ारो तरह के रंग बन जाते हैं । उनमे कोई इष्ट है और कोई अनिष्ट | इप्ट रूप पर राग और अनिरूप पर द्वेोपन करना अपरिग्रह की दूसरी भावना है ।"
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३. प्राणेन्द्रिय - रागोपरति — सू घने वाली इन्द्रिय को घ्राणेन्द्रिय कहते हैं, इसका विषय है सुगध और दुर्गन्ध । सुगन्ध वाले पदार्थों पर आसक्ति न रखना और दुर्गन्ध वाले पदार्थों पर द्वेष न करता अपरिग्रह की तीसरी भावना है ।
४. रसनेन्द्रिय-रागोपति - रसना वह इन्द्रिय है जिससे तीखे कड़वे कसैले खट्टे मीठे आदि रसो का प्रास्वादन होता है । रस दो तरह का होता है अनुकूल और प्रतिकूले । अनुकूल
,
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[ योग एक चिन्तन
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रसो. पर आसक्त न होना और प्रतिकूल रसो पर दोष न करना अपरिग्रह की चौथी भावना है।
- ५ स्पशनेन्द्रिय-रागोपरति-जिस इन्द्रिय से कर्कश, सुकोमल, हल्का, भारी, शीत, उष्ण, रूक्ष स्निग्ध प्रादि, का ज्ञान हो, वह स्पशनेन्द्रिय है। हृदयानुकुल स्पर्श से राग की निवृत्ति और हृदयप्रतिकूल स्पर्श से द्वेष की निवृत्ति का होना अपरिग्रहे है।
इन्द्रियो के इष्ट पाचो विपयो और उनके साधनो मे सभी प्रकार के परिग्रह का समावेश हो जाता है। उन पर. राग-द्वेष. न करना ही अपरिग्रह है । किसी इन्द्रिय-पोषक-पदार्थ से ममत्व , का त्याग न करना राग है, राग से निवृत्ति पाना ही अपरिग्रह. है। उप राग का ही सहचारी है। जहा राग है, वहा द्वप भीहै, राग की निवृत्ति होने से द्वष. भी स्वयः निवृत्त हो. जाता है। राग और द्वेप दोनो मोह की प्रकृतिया है। दोनो का साहचर्य अनादि काल से चला आ रहा है। होप नौवे गुणस्थान मे क्षय हो जाता है, जबकि राम दसर्वे गुण स्थान तक रहता है। इससे प्रमाणित होता है कि जो वीतराग हो गया है, वह निश्चय ही वीत-द्वेष भी है । राग से उपराम या निवर्तन ही द्वेपोपराम है।' ६. रात्रि-भोजन-विरमण-व्रत-- . - रात्रि मे-सूर्य उदय होने से पहले या सूर्य अस्त होने के बाद 'असणं पारण खाइम साइम' चार प्रकार का पाहार- जोवन भर के लिए ग्रहण न करना, सेवनान करना, रात्रि भोजन करने का किसी को आदेश न देना और न रात्रि-भोजन करने वाले का समर्थन करना, न ही रात्रि भोजन का उपदेश देना, साधु का कर्तव्य है । रात्रि भोजन परित्याग भी तीन योग और तीन करण योग : एक चिन्तन ]
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५ परिग्रह - विरमण महाव्रत
परिग्रह दो प्रकार का है - द्रव्य परिग्रह और भाव-परिग्रह | ममत्व का कारण होने से सभी वाह्य पदार्थों का संग्रह द्रव्यपरिग्रह है । पदार्थों पर ममत्व का होना भाव -परिग्रह है । द्रव्यपरिग्रह और भाव - परिग्रह दोनो के त्याग से साधक, अपरिग्रही बन सकता है । इन दोनो मे भाव परिग्रह की मुख्यता है. उसके निवृत्त होने पर साधक शरीर एव धर्मोपकरण` रखता हुग्रा उन्हे धारण करता हुआ भी अपरिग्रही माना जाता है।
1
नौ प्रकार का बाह्य परिग्रह और चौदह प्रकार का ग्राभ्यन्तर परिग्रह होता है । जैसे कि खेत, मकान, दुकान आदि वस्तु सोना, चादी, मणि-रत्न, नौकर-चाकर, पशुधन, धन-धान्य, पीतल, ताम्बा, लोहा आदि धातुम्रो का सचय बाह्य परिग्रह है । ये सव पदार्थ ममत्व के कारण हैं, इनके लिए मानव इधर-उधर दौड धूप करता है । साधना-शील व्यक्ति इनको जीवन के लिये साधन मानता है और परिग्रह- प्रिय व्यक्ति उनके लिये जीवन मानता है । दोनो मे यही अन्तर है । जड श्रौर चेतन, कनक और कामिनी, स्वजन और परिजन, यान वाहन, दास-दासी, गाय, भैस आदि सब परिग्रह के अग है । इन्हें पाने की इच्छा रखना, इनके संग्रह के लिये यत्नशील रहना, सगृहीत पदार्थों पर ममत्व रखना, इस प्रकार सासारिक पदार्थों सम्बन्धी इच्छा, सग्रह और मूर्छा - ममता ये सब परिग्रह के ही रूप हैं । ममत्व के हट जाने पर इच्छा और सग्रह की निवृत्ति स्वत ही हो जाती है ।
4.
आभ्यन्तर परिग्रह के चौदह रूप हैं - क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मिथ्यात्व, वेद, अरति, रति, हास्य, शोक, भय और जुगुप्सा अर्थात् घृणा ये सब आभ्यन्तर परिग्रह के रूप हैं ।
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[ योग. एक चिन्तन
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वस्तु बाढ सख्या मे स्वल्प है या बहुत, कीमत मे या परिमाण में वह अणु हो या स्थूल, सचित्त हो या अचित्त, उस पर से ममत्व को हटाना विचारो मे भी ममत्व को न आने देना, आभ्यन्तरिक अपरिग्रह है। मन, वचन और काया से किसी भी प्रकार का परिग्रह न रवय रखना न दूसरो से रखवाना और परिग्रह रखने वाले का समर्थन भी न करना अपरिग्रह-व्रती का कर्तव्य बताया गया है।
__ जैसे प्रोस की बूदो से कुप्रा नही भरता, वैसे ही लोभी और लालची का मन दुनिया की चीज़ो से नही भरता । गृहस्थो के लिए परिग्रह चाहे भूपण रूप हो, किन्तु साधुप्रो के लिए वह दूषण है। अनासक्ति की सच्ची परीक्षा-हानि, कष्ट, त्याग, अपमान के समय • या अपनो के वियोग के समय ही होती है। ममत्व और अनासक्ति के झगडे मे ससारी जोवो का ममत्व ही जीतता है । इससे दुनियादारी और अभिमान खुश हो जाते है, किन्तु मोहान्ध व्यक्ति अपने को गड्ढे में गिरा हुआ पाता है, और जब साधक की अनासक्ति विजयी होती है, तव आत्मा को प्रफुल्लता, एव आध्यात्मिक मस्ती बढती है। भारतीय सस्कृति मे,सदा त्याग, आत्म-विजय, प्रात्मानुशासन और प्रेम की अविच्छिन्न धाराए वही है, इस सस्कृति के उपासको. ने जब भोग मे सुख नहीं देखा, तब त्याग के मार्ग को अपनाया, जव दूसरे जोते नही गए तव अपनी ओर ध्यान खीचा, उनमे प्रात्म-विजय की सूझ-बूझ जागो, जव हकूमत बुराइयां नहीं मिटा सकी, तव आत्मानुशासन का ध्यान अाया, जब आग से प्राग अर्थात् दुप से द्वेष शात नही हुआ, तब प्रम: से द्वेष की आग बुझाने की रीति अपनाई।
परिग्रह राग-द्वेष का मूल कारण है । राग-द्वेष और मोह के योग एक चिन्तन
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हट जाने पर परिग्रह, परिग्रह नही रह जाता या परिग्रहरूप जड. चेतन से Âलग होने पर राग-द्रेप मोह रूप ईवन के प्रभाव मे लालसा की ग्राम स्वत ही शान्त होने लगती है ।
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परिग्रह महाव्रत की भी पाच भावना है— उनमे से किसी एक में भी ढोल आने पर परिग्रह की भावना स्वत. ही उभर आती है । पाचो भावनाएं सुदृढ हो तो ग्रपरिग्रह महाव्रत सुरक्षित रहता है । वे भावनाए निम्न लिखित है
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१. श्रोत्रेन्द्रिय-रागोपति - कानो के तीन विषय है— जीव शब्द, अजीव शब्द और मिश्र शब्द । इन्द्रियो और मन के अनुकूल शब्दो पर या शब्दो के साधनों पर राग न रखना और प्रतिकूल, शब्द और शब्द के साधनों पर द्वेष न करना, अपरिग्रह की पहली भावना है ।
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२ चक्षुरिन्द्रिय- गोपरति प्राखो का विषय है रूप | काला, पीला, नीला, लाल और सफेद, इन्ही के मेल-जोल से हज़ारो तरह के रंग बन जाते हैं । उनमे कोई इण्ट है और कोई अनिष्ट । इष्ट रूप पर राग और अनिरूप पर द्वेष न करना अपरिग्रह की दूसरी भावना है
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३. घ्राणेन्द्रिय-- रागोपरति - सूघने वाली इन्द्रिय को घ्राणेन्द्रिय कहते हैं, इसका विषय है सुगध श्रौर दुर्गन्ध । सुगन्ध' वाले पदार्थो पर आसक्ति न रखना और दुर्गन्ध वाले पदार्थों पर द्वेष न करना अपरिग्रह की तीसरी भावना है।
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४ रसनेन्द्रिय-रागोपरति- रसना वह इन्द्रिय है जिससे तीखे, कड़वे कसैले खट्टे मीठे प्रादि रसो का प्रास्वादन होता है । रसं दो तरह का होता है अनुकूल और प्रतिकूल । अनुकूल
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रसो- पर ग्रासक्त न होना और प्रतिकूल रसो पर द्वेष न करना अपरिग्रह की चौथी भावना है।
५ स्पशनेन्द्रिय-रागोपरति - जिस इन्द्रिय से कर्कश, सुकोमल, हल्का, भारी, शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध आदि का ज्ञान हो, वह स्पशनेन्द्रिय है | हृदयानुकूल स्पर्श से राग की निवृत्ति और हृदयप्रतिकूल स्पर्श से द्वेष की निवृत्ति का होना अपरिग्रह है ।
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इन्द्रियो के इ-पाचो विपयो और उनके साधनो मे सभी प्रकार के परिग्रह का समावेश हो जाता है । उन पर राग-द्वेप न करना ही अपरिग्रह है । किसी इन्द्रिय- पोषक पदार्थ से ममत्व - का त्याग न करना राग है, राग से निवृत्ति पाना ही अपरिग्रह, है । द्वेष राग का ही सहचारी है। जहा राग है, वहां द्वेप भीहै, राग की निवृत्ति होने से द्वेप भी स्वयं निवृत्त हो जाता है । राग और द्वेप दोनो मोह की प्रकृतिया है। दोनो का साहचर्य अनादि काल से चला यो रहा है । द्वप नौवे गुणस्थान में क्षय हो जाता है, जबकि रोग- दसवे गुण स्थान तक रहता है। इससे ' प्रमाणित होता है कि जो वीतराग हो गया है, वह निश्चय ही वीत-द्वेष भी है । राग से उपराम या निवर्तन हो द्व ेपोपराम है | 5
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६. रात्रि भोजन- विरमण व्रत
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रात्रि मे - सूर्य उदय होने से पहले या सूर्य अस्त होने के बाद असण पाणखाइम साइम" चार प्रकार का ग्राहार जीवन
भर के लिए ग्रहण न करना, सेवन न करना रात्रि भोजन करते का किसी को प्रदेश न देना और न रात्रि भोजन करने वाले का समर्थन करना, न ही रात्रि भोजन का उपदेश देना, साधु का ' कर्तव्य है । रात्रि भोजन परित्याग भी तीन योग और तीन करण
योग । एक चिन्तन ]
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से होता है। यह व्रत मूलगुण रूप पाच महाव्रतो और तपस्या आदि उत्तरगुण दोनो का स्पर्श करता है। यह व्रतं अहिंसा श्रादि सभी महाव्रतो का पूरक एव पोपक है।
रात्रि-भोजन-परित्याग से होने वाले लाभ
कोई भी व्यक्ति किसी न किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही. प्रवृत्ति और निवृत्ति करता है । रात्रि भोजन से निवृत्ति होने पर साधक को किन-किन गुणो की प्राप्ति होती है ? यह विचारणीय प्रश्न है। विचारशील मुनीश्वरो का कथन है कि रात को यदि पाहार न किया जाए तो अनन्त जीवो को अभयदान मिलता है। जो सूक्ष्म जन्तु रात को नजर नही आते, उनकी रक्षा रात्रि मे भोजन एवं पान के त्याग से स्वय ही हो जाती है । रात्रि-भोजन के त्याग का सभी तीर्थड्रो ने एक स्वर से समर्थन किया है ।।
रात्रि भोजन के त्याग से. नित्य ही तप का लाभ होता है, क्योकि इससे तीस अहोरात्र में से पन्द्रह दिदासप हो जाता है . और कहा भी जाता है कि जो बुद्धिमान व्यक्ति रात्रि-भोजन कभी नही करते; उनका एक पक्ष का उपवास भी मासोपवास का फल देता है । अहिंसा महाव्रत की रक्षा भी हो जाती है । खाने-पीने की कोई भी वस्तु रात को अपने पास नही रखना, इससे भी व्रत भी निर्दोष रहता है और अहिंसा भी । जैनेतर सस्कृतियों में भी रात्रि-भोजन का निपेध किया गया है-रात्रि में हवन करना स्नान करना, श्राद्ध करना, देव-पूजन करना और दान देना ता--
१ ये रानी सर्वदाऽऽहार, वर्जयन्ति सुमेधस ।
तेपा पक्षोश्वासस्य, फलमासे न जायते ।। १२८ ]
। योग एक चिन्तन
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निषिद्ध है ही, भोजन तो विशेषकर वजित है।' रात्रि-भोजन से हानियां- . . .
रात को भोजन करते समय यदि कोटी खाने मे श्री जाए तो बुद्धि का नाश होता है, जू खाए जाने पर जलोदर रोग हो जाता है, मक्खी खाने पर उल्टी आ जाती है, मकडी खाने पर कोर्ट पैदा हो जाता है, काटा या डका खाने मे आ जाए तो गले मे पीडा हो जाती है, मच्छर खाने में आ जाए तो सन्निपात का रोग हो जाता है, विच्छू का भक्षण तालु मे घाव कर देता है और यदि वाल गले में फंस जाए तो कठ का माधुर्य समाप्त हो जाता है; क्योकि रात्रि मे ऐसे जीवो की हिंसा बहतायत से होती है और रात्रि के समय भोजन मे ऐसे जीवो के पड जाने की सम्भावना भी अंधिक रहती है, - अत. रात्रि-भोजन शरीर के लिए अत्यन्त हानिकारक है।
रात्रि-भोजन अनेक दृष्टियो से हानिप्रद है। रात्रि-भोजन अधा खाना है। इसकी निवृत्ति से मूलगुण और उत्तरगुण -दोनो... की पुष्टि होती है । अंत. यह व्रत भी चारित्र का ही अग है। .
जब तेईसवे तीर्थङ्कर के साधु-साध्वी चौबीसवे तीर्थङ्कर के शासन मे प्रवेश करते हैं, तब.. निरतिचार छेदोपस्थापनीय १ नवाहुतिनं च स्नान, न श्राद्ध देवतार्चनम्। “ । । दान न दिहित रात्री, भोजन तु विशेषत ॥ २. मेधा पिपीलिकाहन्ति, यूका कुर्याज्जलोदरं । । ।
कुरुते मक्षिका वाति कुष्ठ रोग'च लूतिका ।। । . . . , कटको दारुखण्ड च, विर्तनोति गले व्यथा ।। . । मशकः सन्निपात,च, ताल विध्यति वृश्चिकः ।। (योगशास्त्र). ., योग : एक चिन्तन
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चारित्र दिया जाता है। इससे विपरीत मूलगुणों को दूपित करने बाले सर्वविरति साधक को सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र दिया जाता है।....
। । परिहार-विशुद्धि चारित्र-परिहार का अर्थ है। विशिष्ट तप, जिस तपोमयी अवस्था मे रहकर साधक विशिष्ट तप द्वारा चारित्र की विशुद्धि करता है, अथवा जिसमे अनेषणीय आहार प्रादि का विशेष रूप से त्याग किया जाता है, वह 'परिहार-विशुद्धि चारित्र' है। इसका अस्तित्व पहले और चौबीसवे तीर्थङ्करी के शासन-काल मे ही पाया जाता है। जिसने पहले कभी परिहारविशुद्धि-चारित्र अगीकार किया हो, उस साधु के सानिध्य मे इस चारित्र को धारण किया जाता है । नव साधुओ का एक गण. बनना है, वह गण-परिहार-तप अगीकार करता है । वे तपस्वी-साधु तीन भागो मे बट जाते हैं, जैसे कि पारिहारिक, प्रानुपारिहारिक और कल्पस्थित गुरु । जो चार साधु पहले छ• महोने तप करते है, वे पारिहारिक, उनकी सेवा मे रहने वाले चार साधु पानुपारिहारिक कहलाते है, जिसकी आज्ञा एवं साक्षी से, आलोचना वन्दना पच्चक्खाण, स्वाध्याय आदि अनुष्ठान किए जाते है, वह कल्पस्थित गुरु कहलाता है । ' .
. - -- पारिहारिक साधु ग्रीष्म ऋतु मे जघन्य एक उपवास, मध्यम वेला, उत्कृष्ट तेला तप करते हैं। शीतकाल मे 'जघन्य वेला, मध्यम तेला और उत्कृष्टं चौला तप करते है। , वर्षा काल में जघन्य तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पचौला तप करते। है। छ मास पूर्ण होने के अनन्तर ही पारिहारिक आनुपारिहारिक बन जाते है और आनुपारिहारिक पारिहारिक बन जाते हैं। बारह मास बीत जाने पर कल्पस्थित गुरु पारिहारिक बन जाता १३०] ;
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है, गेप पाठ मे से एक कल्पस्थित गुरु' और 'सात साधु प्रानुपारिहारिक बन जाते हैं। इस क्रम से परिहार-विशुद्धि-चारित्र की आराधना मे कुल अठारह मास लगते है। परिहार-तप पूर्ण होने पर उनकी तीन गतिया होती हैं, उसी तप को वे पुन भी धारण कर लेते है, जिन-कल्पी भी बन जाते है, और पुन. वापिम उस गच्छ मे भी सम्मिलित हो जाते हैं, जिस गण से वह निकला होता है। ___ 'सक्षम-संपराय सम्पराय का अर्थ है कपाय। जिस चारित्र मे सज्वलन लोभ का उदय सूक्ष्म रूप से होता है, वह सूक्ष्म सम्पराय-चारित्र कहलाता है। इस चारित्र का सद्भाव दसवे. गुणस्थान मे होता है। इसके दो रूप है-विशुध्यमान-सूक्ष्म-संपराय
और संक्लिश्यमान-सूक्ष्म-सपराय । क्षपक श्रेणि या उपशम श्रेणि में आरोहण करने वाले साधु के भाव उत्तरोत्तर विशुध्यमान होते जाते हैं, अत. उसका चारित्र विशुध्यमान-सूक्ष्म-सम्पराय होता है। जब कोई साधर्क किसी श्रेणि से नीचे अवतरण करता है तवं दसवे गुणस्थान मे उसका चारित्र' सक्लिश्यमान सूक्ष्म सपराय होता है । इसमे वर्धमान या हीयमान परिणाम होते है, अवस्थित नही । दोनों अवस्थाओ में साकारोपयोग होता है।
. यथास्यात-चारित्र-जिस साधु के परिणाम अतिविशद्ध हो अथवा जिसमे मोह की सभी प्रकृतिया उपशम हो गई हो या सर्वथा प्रक्षीण हो गई हो, उसका चारित्र यथाख्यात-चारित्र होता है । इस चारित्र मे शुक्लध्यान एव वीतरागता की अभिव्यक्ति होती है। इसके भी दो रूप है-छाद्मस्थिक वीतरागता और और केवली वीतर गता। ग्यारहवे और बारहव गुण स्थान में छानस्थिक वीतरागंता होती है। तेरहवे और चौदहवे गुणस्थान मे केवली वीतरागता होती है। इस तरह यथास्यात-चारित्र योग एक चिन्तन ]
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निम के चार गुणस्थानों में पाया जाता है। स्थान तक 'सराग-सयम' होता है, 'वीतराग-संयम' नहीं |
सगुण
सामायिक चारित्र सभी चारित्रो की ग्राधार भूमि है। इसके बिना छेदोपस्थानीय चारित्र नहीं, छेदीपस्यापनीय के विना परिहार - विद्धि चारित्र नहीं । सामायिक चारित्र के बिना सूक्ष्म-संरराय - चारित्रं नहीं, सूक्ष्म संपराय चारित्र के विना ययात्यात चारित्र नहीं । श्रादि के दो चारित्रों के द्वारा साधक के वृद्ध परिणाम-भाव नौवे गुणस्थान तक का स्पर्श कर सकते हैं । तीसरे चारित्र के माध्यम से साधक के विशुद्ध परिणाम अधिक से अविक सातवें गूणस्थान तक गति कर सकते है । क्षपक श्रेण उपगम श्रेणि की रचना परिहार- विशुद्धि चारित्र मे नही होती। पहले के दो चारित्रों में रहते हुए साधक श्रेणी की. रचना कर सकता है। चौया चारित्र दो केवल दसवे गुणस्थान मे ही गाया जाता है, अन्य गुणस्थानों में नहीं। जहां कथनी और करणी एक समान हो, वह व्याख्यात चारित्र है । इसमें वर्तमान : साधक जैसे कहता है, वैसे ही करता है। जब उसकी अन्तर्मुखी वृनियां अपने आप में पूर्ण हो जाती हैं, तब उस निष्प्रकंप अवस्था का नाम ही यथास्यात चारित्र है। इसका अस्तित्व वीतरागता में पाया जाता है । श्रात्मा की पूर्णतया निष्प्रकंप अवस्था इस प्रयोगिकेवलि - गुणस्थान मे होती है, जहां से सिद्धत्व की प्राप्ति होती है ।. मूलगुण- प्रत्याख्यान सभी चारित्रों में अनुस्यूत रहता है।
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अणुव्रत -
महाव्रतों की तरह अणुव्रत भी महात्रतों की अपेक्षा जो व्रत छोटे हो उन्हें
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मूलगुण प्रत्याख्यान है । - व्रत कहते हैं जिन
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से जीवन लोक व्यवहार में प्रामाणिक वन जाए, हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार एव तृष्णा का अस्तित्व जिसमें न हो, जिसमें सूक्ष्म पापों से तो नही, मोटे पापो से बचाव हो, उसे भी 'मूलगुण पच्चेक्खान कहा जाता है ।
१. स्थूल - प्राणातिपात का पच्चक्खाण -- संकल्प पूर्वक किसी निरपराधी को मारना, उसे तंग करना और विपत्ति मे डालना 'मोटी हिंसा है । उसका त्याग करना, "स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत" है |
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२. स्थूल - मृषावाद का पच्चवखाण - किसी की धरोहर न दवाना, झूठी गवाही न देना, किसी कन्या या पशु के निमित्त कभी झूठ न बोलना, दूसरा अणुव्रत है ।
३. स्थूल- प्रदत्तादान का पच्चक्खाण - किसी की निधि को खोद कर निकालना, गाठ खोलकर वस्तु निकाल लेना, जेब काटना, बिना आज्ञा के चाबी लगाकर ताला खोलना, मागं मे चलते हुए को लूटना, स्वामी का पती होते हुए भी पड़ी हुई किसी वस्तु को उठा लेना, स्थूल चोरी है । उसका त्याग करना "मूलगुणपच्चक्खाण" है |
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४. स्वदार - संतोषित व्रत - जिसके साथ विवाह हुआ है । उसी स्त्री पर सन्तोष करना, परस्त्री गमन, वेश्या-गमन आदि दुराचारो का त्याग करना एव अल्प सन्तान की कामना रख कर पुण्यदिवसो को छोडकर उदित - वेद- शमन में प्रवृत्त होना - आदि इस व्रत के ही अनेक रूप है ।
५. इच्छा-परिमाण व्रत- अनावश्यक जड़-चेतन पदार्थों का, धन-धान्य का, सोना-चादी का, नौकर-चाकर रखने का और
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योग एक चिन्तन ]
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गाय-भैस, घोडा-ऊट आदि पश-रखने का. खेत, मकान, दुकान आदि रखने की सीमा का बन्धन करना- इच्छा-परिमाण व्रत, है । गृहस्थ आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए ही उक्त पदार्थो की मर्यादा करता है, इच्छाप्रो को सीमित करता है, अन्याय-अनीति-अत्याचार से द्रव्य का उपार्जन नहीं करता, धर्म से आजीविका कमाता है, रिश्वत नही लेता, काला धन नही कमाता, यही उसका इच्छापरिमाण व्रत है। अहिंसक, जबान का सच्चा, हाथ का सुच्चा, और लंगोट को पक्का होता है । उपर्युक्त गुणो को धारण कर और सतोष तथा उदारता से धर्म-दान देना जीवन-उत्थान का मूल मन्त्र है। भूलगुणो से मानव सर्व-पूज्य बन जाता है।
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२४. उत्तरगुराण-प्रत्याख्यान
- जिस त्याग से उत्तर गुणो की वृद्धि हो, जो त्याग मूल-गुणो का पोषक, रक्षक एवं सवर्धक हो, वह उत्तरगुण-पच्चक्खाण कहलाता है । जैसे खेती के बिना बाड़ की सार्थकता नही होती, उसकी सार्थकता' खेती के होने पर ही है। जैसे धन के बिना तिजौरी निरर्थक .है, जब वह धन की रक्षा करती है तभी उसकी सार्थकता है । जैसे अन्दर-बाहर दृढ पलस्तर लगाने से मकान की रक्षा भी होती है और उस की सुन्दरता भी बढ़ जाती है, जैसे ग्रीष्म काल मे जल-घट को ठण्डे वातावरण मे रखने से कुछ देर के बाद जल-स्वय ही,ठण्डा हो जाता है, वैसे ही मूलगुणो का पोषण, रक्षण- एव. सवर्धन उत्तरगुणो से होता है। उत्तरगुण-तपविशेष है, सयम की शोभा तप से है और तप की शोभा सयम से है। सयम के बिना,तप वाल-तप है । तप. के विना सयम सुरक्षित नहीं रह सकता। सयम - साधु-जीवन का अभिन्न अङ्ग है, उसके बिना साधु साधु ही नहीं रह जाता, किन्तु तप यथाशक्ति देश और काले की सीमा बाघ कर किया जाता है । जीवन भर के लिये साधना मे सलग्न रहना ही सयम है. कभी कभी विशेप विधि से जप, ध्यान और स्वाध्याय करना और खाने-पीने का त्याग करना तप है। सयम को मूलगुण कहते है और तप को उत्तर-गुण कहा जाता है। सयम आती हुई बुराई, को रोकता है और तप के योग एक चिन्तन ]
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द्वारा पूर्वकृत कर्मो का क्षय किया जाता है। सब प्रकार की इच्छाओं का निरोध और खान-पान में सन्तोष एव नियमितता रखना तप है। बडो की इच्छा एवं प्राज्ञा के अनुसार चलना विनय है और अपनी इच्छा का निरोध करना संतोप है। सन्तोष एव गान्ति ही सबसे बड़ा तप है। यद्यपि आगमो मे वाह्य तप के छ भेद वर्णित हैं, तथापि इस प्रसंग मे उनका विवरण नई रीति एवं नई शैली से किया गया है, संख्या भी उनकी दस वतलाई गई है। अत. उन्हे दशविध पचक्खाण भी कहते है जैसे कि -- .. . . । १. अनागत प्रत्याख्यान-भविष्य में किए जाने वाले तप को पहले ही कर लेना' अनागत तप है, अर्थात् महीना, तिथि, वार, नक्षत्र या पर्व के दिन यदि किसी साधु ने उपवास, प्रायम्बिल, वेला, तेलादि विशिष्ट तप करने की प्रतिज्ञा कर रखी हो, यदि वह कारण वश उस तप की आराधना पहले ही कर लेता है तो उसे अनागत तप कहते हैं। जैसे कि किसी तपशील साधक की प्राचार्य, तपस्वी, ग्लान आदि की सेवा करने के लिये नियुक्ति होने वाली है. तो वह यह समझ कर कि तपस्या और सेवा एक साथ होनी कठिन हैं, प्रत. वह उस "तपस्या की आराधना समय आने से पूर्व ही कर लेता है और बाद में निश्चिन्त होकर सेवा मे सलंग्न हो जाता है। तप की इस विधि को अनागत कहा जाता है। "
.., २. प्रतिक्रान्त-प्रत्याख्यान-नियत-किये हुए उपर्युक्त महीनो और दिनो मे पापवादिक स्थिति. उपस्थित होने पर यदि. उस समय साधु तप न कर सके तो उसी तप को बाद मे-यदि करे, तब उस तप-विशेप को अतिक्रान्त तप कहते हैं।- , ..
३. कोटि-सहित प्रत्याख्यान-जव एक पंच्चक्खान की समाप्ति १३६ ]
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और दूसरे पच्चक्खान का प्रारम्भ किया जाए, वह कोटि-सहित तप कहलाता है। जैसे कि-रत्नावली, मुक्तावली, कनकावली आदि तपो की जहा पूर्णता होतो है, दूसरी बार यदि उसी तप की पाराधना करनी हो तो वह वही से प्रारम्भ किया जाता है। उपवास से उस की पूर्णता होती है और उपवास से ही प्रारम्भ होता है - तपस्या की इस विधि को कोटि सहित तप कहते है।
४. नियत्रित प्रत्याख्यान-जिसने प्रत्येक मास मे, जितने दिन तप करने का समय निश्चित किया हुआ है, उसके द्वारा उसी तिथि मे उतने काल के लिए वह तप अवश्य करना नियन्त्रित तप है । जो तप अङ्गीकार किया हुप्रा है वह अवश्य ही करना, भले ही शरीर मे भयकर पीडा हो जाए; भले ही विहार करना पडे, या सेवा मे लीन रहना पड या अन्य कोई विघ्न-बाधा उपस्थित हो जाए, प्राणो को रहते हुए उसे न छोडना नियत्रित तप है। इसकी आराघना वज्र-ऋपभ-नाराच-सहनन वाले जिन-कल्पी, पूर्वधर श्रुतकेवली ही कर सकते हैं। - ... ... .. ; . .. ५. सागार-प्रत्याख्यान, आगार-सहित पच्चक्खाण ,-- को सागार-प्रत्याख्यान कहते हैं। किसी-किसी तप मे आगार अर्थात् अपवाद रखे जाते है। उन अपवादो मे से किसी एक के, उपस्थित होने पर भी त्यागी हुई वस्तु. का समय पूरा होने से पहले भी यदि वह वस्तु काम मे लेली जाए तो पच्चक्खाण-भग नही होता। अन्नत्थणा - भोगेणं, सहसागारेण, . सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, महत्तरागारेणं, परिट्ठावणियागारेणं-इत्यादि अनेक प्रागार , तप मे रखे जाते हैं । तप की इस विधि को सागार-प्रत्याख्यान कहते है।
६ अनागार-प्रत्याख्यान-जिस पच्चक्खाण में किसी भी योग : एक चिन्तन]
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प्रकार का प्रागार नही रखा जाता, चाहे कितनी. ही विघ्नवावाए आए, किन्तु साधक प्रत्याख्यान को भग नहीं करता, उसे अनागार प्रत्याख्यान कहते हैं। अनाभोग और सहसाकार तो उसमे भी होते हैं, क्योकि विना उपयोग के अगुली आदि मुह मे पड़ जाने से यदि आगार न हो तो पच्चक्खाण के भग होने की संभावना रहती है।
७. परिमाणकृत-प्रत्याख्यान-जिम प्रत्यास्यान में दत्तियो की संख्या, कवलो की सख्या, घरो की संख्या, भिक्षा का परिमाण या भोज्य एव पेय द्रव्यो की मर्यादा की जाती है वह परिमाणकृत-प्रत्याख्यान कहलाता है। - r ८ . निरवशेष, प्रत्याख्यान-काल-मर्यादा रखकर चतुर्विधं
आहार का सर्वथा परित्याग करना, सथारा करना, किसी भी पाहार या आगार की छूट न रखना निरवशेष प्रत्याख्यान कहलाता है। - - - - - - -
सकेत-प्रत्याख्यान-नवकारसी, पोरसी, उपवास आदि का नियत समय पूर्ण हो जाने के बाद तपश्चर्या करने वाला साधक जब तक अंशन आदि का सेवन न करे तव तक पच्चक्खाण में रहने के लिए उसे किसी तरह का सकेतकर लेना चाहिए, उसके लिए ग्रेथकारो ने अनेक सकेत बतलाए हैं, जैसे कि अंगुष्ठ, मुष्ठी, 'ग्रयो, गृह, स्वेद, उच्छवास, स्तिबुक, दीपके इत्यादि अनेक तरह के संकेत हो सकते हैं । इनमे से किसी भी सकेत को मानकर खाने'पीने का पच्चक्खाण किया जा सकता है। जैसे कि- अंगूठो - जब तक दाए हाथ की अमुक अगुली मे यह अंगूठी रहेगी, तब तक खाने-पीने का पच्चक्खाण किया जाता है।
.[ योग . एक चिन्तन
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मुष्टि-मुट्ठी बद करके यह निश्चय करे कि जव , तक यह मुट्ठी नही खोलूगा, तब तक मेरा खान-पान का पच्चक्खाण है।
ग्रंथि-किसी कपडे मे गाठ लगाकर मन मे निश्चय कर लेना कि जब तक गाठ नही खोलूगा, तब तक पारणा नहीं करूंगा, यह ग्रथि-सकेत-पच्चक्खाण है।
गृह-मन में निश्चय कर लेना कि जब तक घर मे प्रवेश नही करू गा, तव तक तपस्या का पारणा नही करू गा।
- स्वेद-मन में यह निश्चय कर लेना कि जब तक तन परं से पसीना नही सूखेगा, तब तक मेरा खान-पान का पच्चक्खाण रहेगा! -
उच्छ्वास-जब तक अमुक संख्या की पूर्ति सासो से नही - होगी, तब तक खाने-पीने का त्याग रखूगा।
: स्तिबुक-अमुक स्थान में पड़ी हुई पानी की वूदे जब तक सूख नही जाएगी, तब तक खाने-पीने की वस्तु का उपयोग नही करू.गा। .
दीपक-जब तक. यह दीपक प्रज्वलित रहेगा, तब तक मेरा पच्चक्खाण है।, ... । ।
- - - - - ... .. दर्शन-जब तक गुरुदेव के दर्शन न करू गा, तब तक तपस्या का पारणा नही करू गा। 77; नित्य-नियम-जव तक अमुक मत्र का स्मरण,न कर लूगा, अमुक स्तोत्र का पाठ न कर लूगा,, अमुक ग्रन्थ का स्वाध्याय न-कर लूगा,-माला या प्रानुपूर्वी न पढ लूगा, तब तक खान-पान का उपभोग नही करू गा।:: :: : :
ग्राम-जब तक उस ग्राम मे न पहुच जाऊगा, तब तक मार्ग योग : एक चिन्तन
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में खान-पान का त्याग रखगा। . . . . . . ___आदेश-जब तक कोई मुझे पारणा करने के लिए नही कहेगा, तब तक पच्चक्खाण रखूगा।
इस प्रकार अनेको सकेत हो सकते है। इन में से कोई सा भी संकेत साधक कर लिया करते हैं। इससे खाने-पीने की बेसनी एव व्याकुलता नही बढती, नही तो साधक स्वय वस्तु के यथासमय न मिलने से व्याकुल हो सकता है, या गुस्से मे आकर यथासमय वस्तु न मिलने पर दूसरो को भी व्याकुल कर सकता है। अत पारणे वाले दिन भी सवर एव सतोष से समय-यापन करे, यही सकेत प्रत्याख्यान का उद्देश्य है। .
१० अद्धा-प्रत्याख्यान-काल को लक्ष्य मे रखकर पच्चक्खाण करना अद्धा प्रत्याख्यान है। इसके भी अनेक भेद हैं, उनके नाम और विवेचन इस प्रकार है :- .
(अ) नमस्कार-सहित-सूर्य के उदय-काल से लेकर दो घडी तक अर्थात् मुहर्त भर के लिए नमस्कार मत्र पढे बिना आहार ग्रहण नही करना । इसी का अपर नाम नवकारिसी भी है, जिस के अन्त मे नमस्कार मत्र का उच्चारण किया जाता है वह नवकारिसी है।
(आ) पौरुषी-सूर्य के उदय-काल से लेकर एक पहर दिन चढे तक सभी प्रकार के आहार का त्याग करना पौरुषी प्रत्याख्यान कहलाता है । पुरुष को छाया प्रात घटते-घटते जब अपने शरीर प्रमाण रह जाती है, तब उसे पौरुपी कहते है। पौरुषी तपे भी यथाशक्य करना चाहिए। ११०
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(इ) पूर्वार्ध - प्राकृत भाषा मे इसे पुरिमड्ड कहते हैं । दिनके चार पहर होते हैं। दो पहर की पूर्णता सदैव साढे बारह वजे होती है । इसी को दिन का पूर्वार्ध भी कहते हैं । दो पहर तक सभी प्रकार के आहार का त्याग करना पूर्वार्ध प्रत्याख्यान
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कहलाता है ।
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(ई) एकाशना - दिन में एक बार भोजन करना । इस तप मे कम से कम पौरुषी के बाद ही एक वार भोजन करने की परम्परा प्राचीन काल से चली ग्रा रही है । एकाशना मे या बियासना मे साधक भोजन करते समय अशन-पान, खादिम, स्वदिम यादि चारो प्रकार का आहार कर सकता है । उसके बाद, सभी तरह के आहार का त्याग करना होता है ।
( उ ) एक स्थान - इसका भावार्थ है दिन मे एक ही आसन से और एक ही बार भोजन करना । दाहिने हाथ एव मुख के अलावा शेष सब प्रगो को हिलाए बिना ही भोजन करना, वह भी एक ही वार । भोजन करते समय जिस ग्रग - विन्यास से ' वैठा है उसी ग्रासन से बैठना और पानी भी उसी आसन से बैठे हुए पीना एक स्थान तप है । 11
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एकाशना मे भोजन करते समय सुन्न पड जाने से हाथ-पैर आदि गो को बैठे बैठे सिकोडना-पसारना, शरीर का ग्रागे-पीछे . हिलाना बुलाना किया जा सकता है, जब कि एक स्थान मे ये सव क्रियाए वद करके काय गुप्ति के साथ भोजन करना पडता है । यह तप करना भी कोई साधारण काम नहीं है !
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1. (क) प्राचाम्ल - श्रयबिल मे दूध, दही, घी, तेल, गुड, शक्कर, खाड, पक्वान्न प्रादि किसी भी तरह का स्वादु भोजन,
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नहीं किया जाता है, दिन मे एक ही वार रूक्ष, नीरस भोजन करना होता है । रूखा फुनका या सत्तु या एक जाति के मुन्ने दाने इनमे से किसी एक के द्वारा प्रायविल करने का विधान है। एकाशना
और एक स्थान तप की अपेक्षा प्रायविल तप का विशेष महत्त्व है। यह तप जितेन्द्रिय वनने का पाठ सिखाता है। यह रसनेन्द्रिय को संयम की ओर ले जाने वाला तप है। खाने के लिए बैठ कर भी मन पसन्द आहार न करना महान तप है। " :
(ए) उपवास-जिस तप में साधक खान-पानादि का त्याग करके आत्म-अवस्थित होने का प्रयास करता है, उसे उपवास कहते हैं। इसके दो भेद हैं-चतुर्विध आहार का त्याग और त्रिविधं आहार का त्याग । उपवास दोनो मे से कोई भी हो, उस से सपम की पुष्टि होनी चाहिये, कपायों की मदता हो, मन निर्विकार हो जाए, तभी वह उपवास कहा जाता है। उपवास मे मंगलभावना का होना अवश्यंभावी है । सूर्योदय से लेकर सूर्योदय होने तक चौवीम घटे के लिए उपवास किया जाता है। इसकी दूसरी सना चतुर्थ-भक्त भी है। . . .. . __(ऐ) चरम-अन्तिम भाग को चरम कहते हैं। वह दो प्रकार का होता है । दिवस का अन्तिम भाग और आयु का अन्तिम भाग, जिसे दूसरे शब्दो में भव चरम भी कहते हैं। कम से कम दो घंडी दिन रहते ही आहार-पानी से निवृत्त हो कर चरम प्रत्याख्यान कर लेना चाहिए। जब साधक को यह निश्चय हो जाए कि मेरी प्रायु अव थोड़ी ही रह गई है, अत परलोक . के सुधार के लिये अपश्चिम मारणान्तिक सलेखना की आराधना विधिपूर्वक कर लेनी चाहिए । जीवन भर के लिए चउविहार यातिविहार का त्याग करना चरम-प्रत्यख्यान कहलाता है।"
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तिविहार में पानी का ग्रहण दिन मे ही किया जा सकता है ।
(क) अभिग्रह-प्रत्याख्यान - उपवास आदि तप करने के बाद या विना उपवास के अपने मन में पहले निश्चयं. कर लेना कि अमुक प्रकार का सयोग मिलने पर या, अमुक वस्तु प्राप्त होने. पर, अमुक क्षेत्र-स्थान, काल, प्रहर आदि एव किसी भाव-विशेष के होने पर ही आहार ग्रहण करूंगा, इसे अभिग्रह कहा जाता है । इसकी अधिक से अधिक छ महीने की अवधि होती है। नियंत समय से पहले अभिग्रह फलित हो जाने पर पहले भी -पारणा किया जा सकता है और नियत समय पूर्ण होने पर तो पारणा हो हो सकता है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि अभिग्रहपूति से पहले अभिग्रह को किसी के आगे प्रकट नही किया जाता।" ... (ख) निविकृतिक प्रत्याख्यान-जो पदार्थ मन में विकार उत्पन्न करने वाले है, ऐसे भोज्य पदार्थो को विकृतिक कहते है। विकृतिक मे दूध, दही, घी, तेल, मक्खन, मधु, गुड, मिष्ठान्न प्रादि सभी का समावेश हो जाता है। शरीर-यात्रा के लिए आहार तो ग्रहण करना ही होता है, अतः भोजन मे सात्विकता, का होना जरूरी है। जैसे किसी रुग्ण ,को ऐसी खुराक दी जाती है जिससे उसका जीवन-निर्वाह भी हो जाए और रोग भी न बढे, वैसे ही साधक को ऐसा आहार करना चाहिए जिससे वासना भी न उभरे और जीवन-निर्वाह भी हो जाए। इस तरह .. की तप-विधि का पालन करने से और विकृति-जनक पदार्थों का .. त्याग करने से तप स्वय ही हो जाता है । . . . .
इस तरह की जानेवाली तपस्या से सयम की पुष्टि होती है। श्रद्धा एवं विनय भक्ति से सयम की आराधना करना ही धर्मयोग । एक चिन्तन ]
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साधना है।-धर्म-साधना-ही परमात्म-तत्व को पाने का उपाय है। अहिंसा और सयम की आराधना आन्तरिक आचरण है, तप बाह्य, आचरण है। जैसे ग्रीष्म काल मे पीने को 'शीत' जल मिले
और रहने के लिए ठडी जगह मिले तब शरीर पर गर्मी का, प्रभाव नही पडता, वैसे ही आन्तरिक आचरण और बाह्य प्राचरण दोनो से आध्यात्मिक समाधि प्राप्त होती है, आते हुए। कर्मों का निरोध होता है और पूर्वबद्ध कर्मों का-प्रक्षय होता है । । गृहस्थ के उत्तर गुण सात है तोन गुणव्रत और चार : शिक्षाबत । पाच अणुवतो की रक्षा तीन गुणवत करते हैं और गुणतो की रक्षा चार शिक्षाव्रत करते है । मूलगुणो के निकटतम गुणवत है। उनका सक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१ दिशा-परिमाण-वत-मनुष्य की दौड सब ओर हो सकती है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे छहो दिशामो में मनुष्य चलता है, अत छ दिशाओ की सीमा वाधना अणुवती के लिए अनिवार्य है। ऐसा करने से मर्यादित क्षेत्र से वाहर गमन-ग्रागमन करने का, ' कारोबार करने का, माल मगवाने या भेजने का स्वय निषेध हो जाता है। सीमित क्षेत्र से वाहर जाने की इच्छा स्वय निरुद्ध हो जाती है। ।
। २ उपभोग-परिभोग-परिमाण-त-किसी वस्तु का एक वार ही उपयोग में लाना उपभोग है और किसी वस्तु का बारम्बार काम मे या उपभोग मे लाना परिभोग कहलाता है। दोनो तरह की वस्तुमो का परिमाण अर्थात् मर्यादा करनी अणुवती के लिए अत्यावश्यक है। इसमे स्नान-मजन के साधनो का, खान-पान के पदार्थो का, स्वदेशी-विदेशी वस्तुओ का, पहनने और बिस्तरे के १४४]
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काम में आने वाले ऊनी-सूती वस्त्रो का, फल-फूलो का, पानी की किस्मो का और चौबीस प्रकार के धान्यो का परिमाण करने पर ही अणुव्रतो का विकास हो सकता है। - .. परिमाणकृत पदार्थों की प्राप्ति उद्योग-धयो से 'ही हो सकती है । उद्योग-धन्धे दो तरह के होते है । प्रार्यविधि से किए जाने वाले और अनार्यविधि से होने वालें । पन्द्रह कर्मादानों का जहा तक हो सके तीन करण और तीन योग से प्रत्याख्यान करना चाहिए क्योकि वे सब अनार्यविधि से किए जाते है। अत. उनका परित्याग करना आवश्यक है। आर्य-विधि से व्यापार करनेवाला अणुव्रती अल्पारम्भी.माना जाता है। छब्बीस बोलो की मर्यादा से और पन्द्रह कर्मादानो-अनार्य-व्यापारो के त्याग करने से इच्छाए बहुत कुछ रुक जाती हैं। ..
5. ३. अनर्थ-दड-विरमणवत-किसी प्राणी को प्रयोजन वश जो दड दिया जाता है वह अर्थ दड है। जो किसी भी प्रयोजन के बिना दर्ड दिया जाता है वह अनर्थ-दड है। किसी का बुरा सोचना, अचार, 'मुरब्बा, घी, तेल,' अतिगर्म दूध, पानी आदि का वर्तन खुला रखना, लिहाज मे आकर अविवेकी को अस्त्रशस्त्र देना, जिससे दूसरे पाप-कर्म मे प्रवृति करे वैसे पापकर्म का उपदेश करना अनर्थ-दड है। अनर्थदंड का परित्याग किए बिना अणुनतो की सम्यक् आराधना नही हो सकती, अत श्रावक के लिये अनर्थ दंड से निवृत्त होना अत्यावश्यक है। - अणुव्रतो की रक्षा के लिए शिक्षाप्रतो की आराधना भी श्रावक के लिए अनिवार्य है । जैसे सर्वाङ्ग शरीर की रक्षा त्वचा करती है और त्वचा की रक्षा जल वायु धूप प्रादि वाह्य साधन करते योग एक चिन्तन ]
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हैं, वैसे ही शिक्षावती के बिना गणत निर्बल पार गुणना का निर्बलता से अणुवन निर्मूल हो जाते हैं। शिक्षाद्रतों का स्वरूप इस प्रकार है
१. सामायिक-त-प्रणयतो और गणरत्तों की सम्यक अाराधना मे मामायिक विशुद्ध होती है। जान, दर्गन और देशसयम की आराधना करना हो मामायिक है। इनमें कम से कम दो घटी, चार घडी या छ- घडो भर पाप सहित मन वाणी और काय के व्यापार का पच्चक्लाण करना, धर्मशास्त्रो का स्वाध्याय और धर्म-ध्यान मे प्रवृत्त होना ही सामायिकवत है।।
२. दिशावकाशिक व्रत-कुछ घटो के लिए दिनापरिमाण व्रत को प्रोर उपभोग-परिभोग परिमाणवत को और भो मकुचित करना, या चौदह नियमों को मर्यादा करना । इमका विधि-विधान दिन-दिन के लिए भी है, रात भर के लिए भी और अहोरात्र के लिए भी । इस व्रत के साधक को अतिसीमित क्षेत्र में ही अहिंमा, सयम और तप की प्राराधना करने का व्रत लेना चाहिये । इसमें सभी सचित्त वस्तुप्रो के सेवन करने का त्याग होता है, अचित्त वस्तुप्रो का भी यथाशक्ति कम से कम उपयोग किया जाता है और किन्ही वस्तु का त्याग भी होता है । इस व्रत को दूसरे शब्दो मे छ: काय-दया और सवर भी कहते है।
३ प्रतिपूर्णपोषधोपवास व्रत-यह श्रावक के बारह व्रतो में से ग्यारहवा, चार शिक्षाव्रतो मे से तीसरा तथा उत्तर गुणों मे से छठा व्रत है। इसकी आराधना अधिकतर पर्व के दिनो मे की जाती है। पर्व दो प्रकार के होते हैं-भोग-प्रधान और त्यागप्रधान । जिन पर्यों में खान-पान का, आमोद-प्रमोद का ढग १४६)
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समयानुसार परिवर्तित होता रहता है, वे सब भोग-प्रधान पर्व माने जाते हैं । जिन पर्वो में मानव की भावना त्याग को ओर या निवृत्ति की ओर बढती है वे पूर्व त्याग प्रधान माने जाते हैं, जैसे कि श्रष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णमासी, पर्युपण संवत्सरी या किसी तीर्थङ्कर का कल्याणक दिवस । इन पर्वो मे प्रादर्श गृहस्थ की भावना विशेषकर त्याग की ओर ही अग्रसर रहती है ।
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पौषधोपवास व्रत भी दो तरह का होता है एक प्रतिपूर्ण श्रीर दूसरा आशिक । जिसमे चतुर्विध आहार का अहोरात्र के लिये त्याग हो, उसके साथ ही कुशील सेवन का भी त्याग हो, शरीर के सभी तरह के लकार, विभूपा, स्नान, मजन, बनाव आदि का पूर्णतया त्याग हो, यहां तक कि उसमे चन्दन यादि का लेप लगाना और मेहदी आदि लगाना भी निषिद्ध हो, जिस आभरण को शरीर से अलग नहीं किया जा सकता उसे छोड़कर कोई ग्राभरण न पहना जाए पहनने के वस्त्र भी सांदे हो वही पौषधोवास व्रत है। इसमे चमकीले भडकीले वस्त्रो का परित्याग भी आवश्यक है । इसमें उद्योगी हिंसा, प्रारम्भी हिंसा, विरोधी हिसा का भी दो करण तीन योग से पच्चक्खाण होता है । किसी प्रकार का शस्त्र-शस्त्र अपने पास रखना भी सर्वथा वर्जित है । इस व्रत की आराधना कम से कम एक अहोरात्र के लिये हुआ करती है । जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव पूर्णतया अनुकूल नहीं होते तब प्रशिक रूप से भी पौपधत्रत की आराधना की जा सकती है ।
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पौधशाला मे जहा पौषघव्रत की प्राराधना- प्रारम्भ की हो उस स्थान एव विछौने को बिना देखे बिना पडिले हे उपयोग में नही लाना चाहिये। रात को बिना प्रमार्जन किए चलना नही चाहिये, दिन मे बिना देखे मलमूत्र नही परठना, रात को विना योग - एक चिन्तन ]
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प्रमार्जन किए मल-मूत्र प्रादि परठना नहीं। ऐसा करने से ही जीव-हिमा से होने वाले दोपो एव पापों से अपने को सुरक्षित रखा जा सकता है । पीपघव्रत मे विकया, माया, निदान एवं मिथ्यादर्शन-शल्य आत एवं रौद्रव्यान यादि पापजनक सभी प्रवृत्तिया निषिद्ध हैं। इसका प्रभाव सभी व्रती पर पडता है, व्रत की श्राराधना - प्रत्येक पर्व मे श्रावक के लिये अनिवार्य है ।
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-४ प्रतिथि- संविभागवत - जिन के आने की न कोई तिथि निश्चित है और न समय हो उन्हें ग्रतिथि, कहते हैं । साधु-साध्वी एव श्रमण-कल्प श्रावक इन सब का अन्तर्भाव अतिथि शब्द में हो जाता है । इस प्रसग मे अतिथि शब्द श्रद्धास्पद व्यक्ति का परिचायक है, क्योकि विरक्तात्मा पुरुष गृहस्य को अपने आने या न आने का संकेत नही करते है और न वायदा ही करते हैं । वे घरो मे जाने की बारी भी नही वाघते । उनके द्वारा धारण किया हुआ अभिग्रह फलित हो जाने पर ही वे श्राहार ग्रहण करते हैं ।
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सविभाग का अर्थ है- अपने लिये बनी हुई वस्तु का वितरण अपने उपयोग के लिये लाये गये तथा वनाए गए पदार्थो का स्वय उपयोग या भक्षण न करके आये हुए अतिथि को दे देना श्रतिथि- सविभाग व्रत है 1
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जब धर्म-निष्ठ श्रावक भोजन करने बैठे तब उस का कर्त्तव्य बनता है कि कुछ क्षण गुरुजनो का ध्यान करे, उनकी प्रतीक्षा करे। यदि गुरु अपने क्षेत्र मे विराजमान हों तो रात्रिभोजन न करे, सचित्त वस्तु का आहार भी न करे, स्वय भी सूझता रहे और देने वाली वस्तु को भी सूझती रखे। दिन में अपने घर का द्वार खुला रखे । जब घर में अतिथि पधारे तत्र तुरन्त अपने उत्तरीय वस्त्र से मुख को आच्छादित करले । विधिपूर्वक
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वन्दना नमस्कार करके १४ प्रकार की वस्तुग्रो मे से जिस वस्तू की उन्हे आवश्यकता हो या अपनी बुद्धि से स्वय उनकी आवश्यकता को समझकर सहर्ष समर्पित करना उनके ज्ञान, दर्शन और चारित्र की जैसे भी पुष्टि हो, वृद्धि हो-वैसी वस्तु बहराना अतिथिसविभाग-प्रत है। ..
यह व्रत धर्म-दान के अतिरिक्त अन्य प्रकार के दानो की ओर सकेत नही करता । दान अनुकम्पा से भी दिया जाता है और श्रद्धा भक्ति से भी। अनुकम्पा-दान किसी भी व्रत का बाधक नही है, वह पुण्योपार्जन का हेतु है और प्रभावना का भी, किन्तु धर्म-दान निर्जरा एवं पुण्यानुवधी पुण्य का हेतु है, सम्यक्त्व का पोषक और मिथ्यात्व का शोधक है। प्रत श्रमण महन के अतिरिक्त अन्य भिक्षाचरो के लिए अतिथि शब्द का प्रयोग नहीं होता।
'सग्रह-परायण मनोवृत्ति को निष्क्रिय बनाने और त्याग भावना को जागृत करने के लिए इस व्रत का विधान है। यह अनुदारता एव ममत्व भाव को हटाने के लिए तथा उदार एव दाता बनने का मार्ग है । अन्याय-अनीति से द्रव्योपार्जन करने का त्याग और न्याय-नीति से उपार्जित किए हुए द्रव्य का उपयोग धर्मदान और अनुकम्पादान मे करना अपरिग्रह है। अपनी सुखसुविधानो मे सकोच करना और वस्तु एव द्रव्य पर से ममत्व घटाते रहना, श्रावक का परम लक्ष्य है, क्योकि ममत्व घटाने एव हटाने 'पर हो उसका उपयोग दूसरे के लिए किया जा सकता है। समाज की भलाई के लिए दान करना निष्परिग्रहता है और धर्मदान उत्तर-गुण है । सुपात्र को दान देने से मन के भाव सर्वथा पवित्र हो जाते हैं । उत्तरगुण चाहे महाबत के हो या अणुव्रत के, वे सभी साधको के जीवन का उत्थान करनेवाले हैं।
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२५. व्युत्सर्ग
तप के बारह भेदो मे से बारहवा भेद व्युत्सर्ग है, इसका अर्थ है परित्याग, विशेषतः ममत्व का परित्याग । ममत्व का त्याग करने पर ही इस तप की सार्थकता है।
इसके दो भेद है द्रव्य-व्युत्सर्ग और भाव-व्युत्सर्ग।
तप-परायण साधक शरीर आदि बाह्य पदार्थों का निश्चित काल के लिए या अनिश्चित काल के लिए या जीवन भर के लिए जो परित्याग करता है उसे द्रव्य-व्युत्सर्ग कहा जाता है। अपने शरीर पर भी ममत्व न रखना शरीर-व्युत्सर्ग है ।
कल्पातीत या जिन-कल्प स्वीकार करने पर अपने गण या गच्छ का भी परित्याग कर देना गण-व्युत्सर्ग है।
-जीवन-यात्रा के लिये अत्यावश्यक वाह्य उपकरणो को छोड़कर शेष सभी उपकरणो का त्याग करना अथवा सभी तरह की उपाधियो का पूर्णतया त्याग करना उपधि-व्युत्सर्ग है। भला जो अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखता, वह वाह्य उपवि अर्थात् उपकरणो पर ममत्व का विस्तार क्यो करने लगा? ममत्व ही दु ख का मूल कारण है। ममत्व की निवृत्ति से दु.ख की निवृत्ति स्वत हो जाती है। __सदोष आहार-पानी का त्याग करना अथवा सथारे मे जीवन भर के लिए निर्दोष आहार-पानी का त्याग करना, भक्त १५०]
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कपाय व्यत्सर्ग माया-पुत्सर्ग लाख हुआ है
पान-व्युत्सर्ग है । द्रव्य-व्युत्सर्ग का अस्तित्व अधिक से अधिक सातवे गणस्थान तक पाया जाता है।
क्षपक-श्रेणि प्रारोहण करनेवाला साधक आठवें गुणस्थान से भाव-व्युत्सर्ग का प्रारम्भ करता है और चौदहवे गुणस्थान मे उसकी पूर्णता -हो जाती है। यथाख्यात-चारित्र, वीतरागता और शुक्ल-ध्यान इनसे भाव-व्युत्सर्ग स्वत ही हो जाता है । भावव्युत्सर्ग के अनेक भेद हैं-कषायो की सत्ता को क्षीण करना कपाय-व्युत्सर्ग कहलाता है । इसके भी चार भेद हैं-क्रोध-व्युत्सर्ग, काम-व्युत्सर्ग माया-व्युत्सर्ग और लोभ-व्युत्सर्ग । आगमो मे जिस क्रम से चार कषायो का उल्लेख हुआ है उसी क्रम से उनका क्षय भी होता है।
तीसरे को छोडकर छठे गुणस्थान तक आयु का वध होता है। कभी-कभी जीव छठे गुणस्थान मे प्रायु का वध प्रारम्भ करके सातवे गुणस्थान में उस वध की पूर्णता कर लेता है। जिन कर्म-प्रकृतियो की विद्यमानता मे आयु-कर्म का वध होता है, उन कर्म-प्रकृतियो का क्षय हो जाने पर प्रायु-कर्म का भी वध नही होता । जव नरक श्रादि किसी भी भव की आयु का वध होता ही नहीं, तब ससार-व्युत्सर्ग स्वतः ही हो जाता है । ससारव्युत्सर्ग चार प्रकार का होता है-~नैरयिक ससार-व्युत्सर्ग, तिर्यच ससार-व्यत्सर्ग, मनुष्य-ससार-व्युत्सर्ग और देव-संसार-व्युत्सर्ग। कषाय और नो कषाय से जीव प्रायु का बंध करता है, कषायव्युत्सर्ग के अनन्तर गायु का बध होता ही नहीं है। प्रायु-बध के विना ससार-व्युत्सर्ग हो जाता है, अर्थात् ससार से जीव का सम्बन्ध नही रह जाता । यद्यपि दसवे गुणस्थान तक लोभ कषाय की मात्रा पाई जाती है, तथापि अत्यन्त मद होने से उस के द्वारा योग . एक चिन्तन ]
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पायुक्र्म का वध नही हो सकता। ..
कर्म-वध के कारणो का क्षय होने पर कर्म-व्युत्संग होता है, क्षपक श्रेणि में और यथाख्यात-चारित्र काल मे घोति कर्मों का वध नही हो पाता, बल्कि समय-समय पर वे बलहीन होतेहोते बाहरवे गुणस्थान मे उन्हे सर्वथा क्षीण कर दिया जाता है। क्षीण होते ही जानावरणीय कर्म-व्युत्सर्ग, दर्शनावरणीय कर्मव्युत्सर्ग और अतराय कर्म-व्युत्सर्ग स्वत हो जाया करता है।
तेरहवे गुणस्थान में प्रवेश के पहले समय मे ही केवलज्ञान, केवलदर्शन, सादि अनन्त वीतरागता और विघ्नो का ऐकान्तिक अभाव, अनन्त-शक्ति इत्यादि गण घाति कर्मों के क्षय होने से उत्पन्न हो जाते हैं। चौदहवे गुणस्थान मे अघाति कर्मों का क्षय हो जाता है । शुक्लध्यान के चौथे चरण मे जब वेदनीय-कर्म-व्युत्सर्ग, श्रायु-कर्म-व्युत्सर्ग, नाम-कर्म-व्युत्सर्ग और गोत्रकर्मव्युत्सर्ग हो जाता है, अर्थात् इन कर्मों का अवसान हो जाता है, तब जीव सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है, अात्मा से परमात्मा बन जाता है । कर्म-व्युत्सर्ग चौदहवे गुण स्थान मे ही होता है।
कहीं-कही भाव व्युत्सर्ग के चार भेद उपलब्ध होते है वही पर चौथा भेद योग-व्युत्सर्ग भी देखने को मिलता है। तीन योगो का त्याग करना योग-व्युत्सर्ग है । मन वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहते है । योगो का निरोध ही योग-व्युत्सर्ग है। पूर्णतया योगनिरोध चौदहवे गुणस्थान में ही होता है। योग-निरोध होते ही जीव परमपद को प्राप्त कर लेता है । व्युत्सर्ग-तपे मोक्ष-प्राप्ति मे अन्तरगं कारण है, इसकी आराधना से सभी अन्तरग विकार नष्ट हो जाते हैं । यह परमशान्ति एव अखण्ड समाधि का मूल' कारण है।
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+tortokottotke २६. अप्रमाद
, प्रमाद का विरोधी तत्व अप्रमाद है । असावधानी से सावधानी की ओर बढना अप्रमाद है। जैसे कटकाकीणं मार्ग पर यदि कोई पथिक सभल-संभल कर बडी सावधानी से चलता है तो वह कांटो की चुभन से बहुत कुछ बच जाता है, जैसे क्सिी फिसलन वाले स्थल पर चलता हुआ मानव पद पद पर फिसलता ही जाता है, उसी स्थल पर यदि कोई विवेक पूर्वक सावधानी से चलता है तो वह सब तरह की क्षति से सुरक्षित रहता है, जैसे किसी भूमि-भाग मे मनुष्यो का बहुत बडा मेला भरा हुआ होता है, उस मेले मे जेब काटने वालो का गिरोह भी असावधान व्यक्तियो की खोज मे घूमता रहता है, यदि किसी की गांठ मे धन है तो उसे पूर्णतया सतर्क एव सावधान रहने की प्रावश्यकता होती है. तभी उसका धन सुरक्षित रह सकता है, वैसे ही साधना-पथ के पथिक के लिये प्राध्यात्मिक क्षेत्र मे निरन्तर अप्रमत्त रहने की आवश्यकता होती है।
जिसके कारण जीव मोक्षमार्ग के प्रति प्रयत्नशील बन जाए वह अप्रमाद है । मन, वाणी और काय को सुमार्ग मे लगाना, केवली-भाषित धर्म के पालन करने मे उद्यम करना, देवगुरु और धर्म के प्रति मूढ़ न बनना, जिन वाणी पर, नव तत्त्वो पर और निम्रन्थ प्रवचन पर पूर्ण श्रद्धा रखना, पाच महाव्रतों तीन गुप्तियो
और पांच समितियो आदि मोक्ष के उपायो पर दृढ-निष्ठा रखना, पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एव त्रस योग एक चिन्तन ]
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काय इन छ कायिक जीवो के अस्तित्व पर ग्रास्था रखते हुए उनकी हिंसा न करना, जीवत्व की धारणा स्वीकार करना, इनमे कभी संशय न करना, स्वाध्याय से सम्यग्ज्ञान मे प्रवेश करना, अपनी श्रद्धा को जिन-वाणी के अनुकूल रखना, मोहजनक जड चेतन आदि पदार्थो से राग न रखना, शत्रुता रखनेवाले पर प्रीति एव ह ेप न रखना, स्व- कर्त्तव्यो के प्रति सदैव जागरूक रहना आदि श्रप्रमाद के अनेक रूप है । यह एक ऐसा साधन है, जो प्राध्यात्मिक क्षेत्र मे साधक को पीछे हटने से बचाता है, पापकर्मो की थोर नही झाकने देता, परम एव चरम लक्ष्य से भटकने नही देता, साधना मे कभी अरुचि नही होने देता । इसी को दूसरे शब्दो
तर्जागरण भी कहते है । इसकी विद्यमानता मे आयु का वध नही होता, इसके प्राप्त होते ही अजर-अमर रूप ग्रन्तरात्मा की अनुभूति होने लग जाती है ।
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सातवे गुणस्थान से लेकर चौदहवे गुणस्थान तक प्रप्रमाद की सत्ता रहती है । अप्रमाद के प्रभाव से कपाय प्रादि विकार निर्बल हो जाते हैं । जैसे सूर्य के उदय होने पर उल्लू श्रादि निशाचारी जीव इधर-उधर छिप जाते है, वैसे ही अप्रमाद के अवतरण से जीवन मे रहे हुए अवगुण सभी लुप्त एव नष्ट हो जाते है ।
कि हिय ? श्रप्पमात्री - गौतम स्वामी ने भगवान महावीर के समक्ष प्रश्न रखा है-' हित क्या है ?" भगवान उत्तर देते है "अप्पमात्रो - अप्रमाद ।" विचारो को बाहर से लौटाकर आत्मा में लगाना, अपने स्वरूप मे रमण करना, विकथा - श्रनुपयोगी वार्तालाप में समय-यापन न करना इत्यादि श्रप्रमाद के ही अनेक [ योग : एक चिन्तन
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स्प हैं । मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा इनका अभाव ही अप्रमाद है ।
अप्पमाय तहावरं -जो प्रवृत्तिया प्रमाद से रहित है उनसे कर्म वध नही होता।
अप्पमत्तो परित्वए-अप्रमत्त होकर धर्म के आचरण मे उद्यम करो।
घोरा महत्ता अवलं सरीर-मारड पक्खी व चरेऽप्पमत्तो। ___काल निर्दयी है और शरीर निर्वल है, यह जानकर साधक को भारण्ड पक्षी की तरह सदैव अप्रमत्त होकर विचरना चाहिए।
सवयो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं-अप्रमत्त साधक को कही से भी भय नही होता । वह न स्वय किसी से डरता है और न किसी को डराता ही है, अभय रहना ही उसका सहज जीवन है।
जहां भय है वहा प्रमाद है। अभय और अप्रमाद इनका परस्पर कार्य-कारण-भाव है। जहा अभय है वहा अप्रमाद है और जहा अप्रमाद है वही अभय है।
समयं गोयम ! मा पमाए-भगवान महावीर कहते है-हे गौतम । समय भर का भी प्रमाद मत करो, क्योकि प्रमाद सबसे वडा अवगुण है। इसकी छाया मे हजारो ही नही लाखो अवगुणदोष निवास करते है। जिनका परिणाम दुर्गतियो मे भोगना पडता है । दु खो की अविच्छिन्न परम्परा जिसमे हो वह दुगति है।
गोयम शब्द मन का प्रतीक भी है, क्योकि 'गो' शब्द का अर्थ है-"इन्द्रिया" और यम का अर्थ है नियन्त्रण। मन इन्द्रियो का नियंता है । साधक अपने मन को सबोधित करते हुए कहता योग । एक चिन्तन ]
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है- 'हे मन | तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर।'
अप्रमाद गुणनिधि है, गुणो का अक्षय भडार है। इसके रहते हए जीवन के क्षेत्र से दोष-अवगुण सदा के लिए विदा हो जाते है । सुखो की परम्परा बीच मे कही भी विच्छिन्न नही होने पाती। दुर्गतियो से सदा के लिए सवध टूट जाता है। अप्रमाद अानन्द का अजस्र स्रोत है और धर्म-ध्यान एव शुक्लध्यान का सहायक है। अप्रमाद की विद्यमानता मे अशुभ ध्यान करने का कभी अवसर ही नहीं आ पाता।
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२७. लवालव
लबालव यह जैनागमो का पारिभाषिक शब्द है। 'स्तोक' काल का एक सूक्ष्मतम भाग है, सात स्तोक का एक लव होता है अर्थात् एक मुहूर्त के सत्रहवे अश को लव कहा जाता है। लदो की परम्परा को लवालय कहते हैं। जीवन का कोई भी लव सुनिवृत्ति एव सुप्रवृत्ति के बिना नहीं जाने देना चाहिये। धर्म केवल निवृत्यात्मक ही नही है, प्रवृत्ति को यदि प्रवृति के जल से ही सीचा जाएगा तो वह ठूठ की तरह सूख जाएगी, मुरझा जाएगी। प्रवृत्ति उम समय मदमाते हाथी की तरह पागल हो जाती है जब कि उस पर निवृत्ति का अकुश नही रह जाता।
तीर्थडूर भगवान की प्राज्ञा, गुरु एव शास्त्र की प्राना भी दो प्रकार की होती है-निवृत्ति रूपा और प्रवृत्ति रूपा । जैन धर्म प्रत्येक साधन को सम्यक् भी मानना है और मिथ्या भी। जैसे कि भक्ति-मार्ग जन-जन में प्रसिद्ध है, उसी को ले लीजिए । जैन संस्कृति के अनुसार भक्ति का अर्थ है अपनी आत्मा के प्रति निष्ठा अर्थात् आत्म-तत्त्व के प्रति सर्वतोभावेन समर्पण-प्रात्म-अवस्थिति के लिये समर्पित हो जाना यदि अन्तरात्मा के प्रति हमारी दृढ श्रद्धा एव समर्पण हो जाए तो हमारी सर्वतोमुखी विजय सुनिश्चित
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ग्रात्मा तो प्राणी मात्र मे विद्यमान है । ग्रन्य श्रात्माग्री के प्रति करुणा होनी चाहिये, किन्तु वही सब कुछ है, वही हमारा उद्धार करेगा, ऐसा भक्ति-मार्ग जैन धर्म को स्वीकार्य नही है । हमने जब भी भगवान की भक्ति को है इसी दूसरे मार्ग से की है, यही कारण है कि हमारा अभी तक उद्वार नही हो सका । जब तक हम स्वयं कुछ नही करते, तब तक हमारा उद्वार नही हो सकता, मुक्त होने के लिये हमारी सहायता कोई नही कर सकता | भगवान के गीत गाने से या गुणगान करने से ही हमारा उद्धार नही होगा, भगवान के निर्मल गुणो को अपने जीवन में उतारने से ही हमारा उद्धार हो सकता है । भक्ति के गान से गाने का श्रानन्द तो मिल सकता है, किन्तु हमारे हृदय में प्रभुके गुणो का अवतरण नही हो सकता, गुणा के लिए तो स्वत हो गुणी बनना पडेगा, गायक वनने से काम नही चल सकता। वैसे ही सम्यक्ज्ञान और सम्यक् साधनो द्वारा ग्रात्मोद्धार ही जैन धर्म का मार्ग है ।
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विरक्तो के क्रोध मे भी जो प्रेम देखता है और ग्रासक्तो के प्रेम मे भी जो क्रोध देखता है वही सच्चा द्रष्टा है । जव भौतिक सुखो मे प्रेम की अनुभूति होने लगती है, तब साधक बाहरी दुनिया को भूल जाता है । जव अन्तरात्मा मे एव धर्म-साधन मे प्रेन हो जाता है, तत्र साधक अपने शरीर तक को भूल जाता है । प्रेम परिश्रम को हल्का और दुख को मधुर बना देता है | भलो से प्रेम करना चाहिए और वुरो को क्षमा करना चाहिए । महामानव का निर्णय सदैव दृढ और अटल होता है, तभी वह ससार को अपने साचे में ढाल सकता है, किन्तु जो अपने लिए नियम नही बनाता उसे दूसरो के बनाये नियमो पर चलना पडता है । जिन्होने अपनी ग्रात्मा को जान लिया है, उन्ही लोगो के लिए
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प्रागम-वाणी विशेप रूप से सार्थक होती है ।
साधु को प्रतिक्षण शास्त्रोक्त समाचारी के अनुष्ठान मे इस प्रकार सलग्न रहना चाहिए जिससे शक्ति मन, वाणी और काय की प्रवृत्ति सतत धर्म के प्रति अभिमुख बनी रहे । समाचारी का प्राशय है, वे धार्मिक क्रियाए जिनका पाचरण सम्यक् रूप से किया जाए, अथवा जिसका प्राचरण समान रूप से किया जाए, जैसे सभी प्राणियो को खाद्य, पेय एव वायु प्रादि जीवन-उपयोगी पदार्थों की समान रूप से आवश्यकता रहती है, वैसे ही साधु समुदाय के लिये समाचारी की आवश्यकता भी अनिवार्य है। समाचारी में सभी साधनो का समावेश हो जाता ।
समाचारी को सामाचारी भी कहा जाता है । सामाचारी तीन प्रकार की होती है-प्रोघ-सामाचारी, दशविध सामाचारी और दश-विभाग सामाचारी। इनमे अोघ-सामाचारी के सात भेद हैं, जैसे कि १ प्रतिलेखन २. पिण्ड ३ उपधिप्रमाण ४. अनायतवर्जन ५ प्रतिसेवना ६ अालोचना और ७, विशोधि ।'
सामाचारी का यह विभाग व्यवहार सूत्र, वृहत्कल्प, दशश्रुतस्कन्ध जोतकल्प कल्पसूत्र प्रादि छे सूत्रो मे वर्णित है। दविध सामाचारी की परिचयात्मक व्याख्या इस प्रकार है
१ अावश्यकी सामाचारी-साधु जिस मकान या उपाश्रय मे ठहरा हो, उससे बाहर न जाना यह उसके लिये दैनिक क्रियाकलाप को सामान्य विधि है । विशेप विधि के अनुसार आवश्यक कार्य होने पर वह उपाश्रय से बाहर जा सकता है । उस समय उसका यह कर्त्तव्य बन जाता है कि यदि आवश्यक कार्य के लिये १ प्रोष-नियुक्ति २ योग एक चिन्तन
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बाहर जा रहा हो तो अन्य
कार्यो में वृद्धि न करे। जब स्वाध्याय भूमि में जाना हो, स्वटिल भूमि में जाना हो, किसी रुग्ण के लिये श्रपच अनुपान यादि लाने हो या विहार करना हो, इत्यादि विशेष कारणों से माधु बाहर जा भी सकता है, जैसे राष्ट्रपति का प्रोयोचना कन्या या कुलाङ्गना का विना प्रयोजन के इधर-उधर घूमना-फिरना गोभाजनक नही होना, इससे लोगो पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता बंसी ही स्थिति साधु की भी होती है । उपाश्रय में रहते हुए जैसे माधु सार्वभौम महावतो की रक्षा पांच समितियो और तीन गुप्तियो से करता है वैसे ही उपाश्रय मे बाहर भी अपने व्रतो और समितियों की रक्षा करने का स्वर उसका कर्तव्य बन जाता है । अत बाहर जाते समय साधू ऊचे से ग्रावश्यकी शब्द का उच्चारण करे। यह संचि कि मैं गुरु की या भगवान की माक्षी से श्रावश्यक कार्य के लिये बाहर जा रहा हूं, विना सत् प्रयोजन के नही । यही इसका भाव है ।
'२ नैधिकी सामाचारी - आवश्यकी का प्रतिपक्ष नेपेधिकी है । जब साबु कार्य से निवृत्त होकर उपाश्रय मे प्रवेश करे तब उसे नषेधिक शब्द का उच्चारण करना चाहिए अर्थात् मैं उस श्रावश्यक काय से निवृत हो चुका हू, जिस के लिये मैं बाहर गया था । यदि प्रवृत्ति करते समय मेरे से ग्रकरणीय कार्य होगया हो तो मैं उसका निपेध करता हू, अर्थात् अपने आपको उससे दूर करता हू, श्रत जाती बार श्रावस्सही श्रावस्सही कहना चाहिए और उपाश्रय मे प्रवेश करते समय ऊचे स्वर से निस्सही - निस्सही कहना चाहिए । ऐसे न कहने पर साधु रत्नत्रय का विराधक माना जाता है । गमन-ग्रागमन के समय उसका लक्ष्य- पवित्र एव सत्य होना चाहिए। इसी कारण से इन दो सामाचारियो का निर्देश किया गया है।
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. ३. प्रापच्छा सामाचारी-अपना कार्य हो या किसी दूसरे का कोई कार्य हो, साधु, धर्माचार्य, गुरुजनो या रातिको से बिना पूछे न करे । पूछने पर एव प्राज्ञा प्राप्त होने पर ही उसे किसी कार्य मे प्रवृत्त होना चाहिए। यह सामान्य विधान है कि उच्छवास एव नि श्वास के अतिरिक्त गेष सब कार्यो के लिए साधु को गुरु की पाना लेनी चाहिए। विनीत शिष्य गुरु की स्पष्ट आज्ञा का इच्छुक होता है, क्योकि उसका यह विश्वास है कि गुरु की आज्ञा कार्य-सिद्धि मे सहायक होती है। गुरु की आज्ञा मे चलने से ही मेरा हित है। इससे हानि और लाभ का उत्तरदायित्व मेरे पर नही गुरु पर हो जाता है और अहभाव भी मन मे नही रहता। प्रत कोई भी काम जव शिष्य को करना हो, तव गुरुजनो को पूछ कर ही करना चाहिए। इस सामाचारी का सही अर्थो मे यदि गण मे रहने वाले साधु पालन करते रहे तो शासन की सेवा और बडो की कृपा-दृष्टि अखण्ड बनी रहती है।
४, प्रतिपच्छा सामाचारी~गुरु के द्वारा किसी कार्य में नियुक्त किए जाने पर उसे प्रारम्भ करते समय पुन गुरु से पूछ कर-आज्ञा लेना, अथवा प्रयोजन-वश गुरु ने पहले जिस कार्य को करने के लिए निषेध किया है, आवश्यकता होने पर फिर उसकी अाज्ञा गुरु से प्राप्त करने को प्रतिपृच्छा कहते हैं। यदि गुरु ने किसी कार्य को करने का निषेध कर दिया है, उसी कार्य मे प्रवृत्त होना यदि अावश्यक हो तो गुरु से पूछना चाहिये कि "गुरुदेव ! भले ही इस कार्य के लिए आपने पहले मना किया था, किन्तु समयानुसार यह काम करना ज़रूरी भी बन गया है, यदि आप आज्ञा दे तो मैं करू ?" यही इस सामाचारी'का भाव है।
अथवा अपने काम को करने के लिए गुरु से आजा प्राप्त योग एक चिन्तन
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करना प्रतिपृच्छना है । शिष्य को गुरु से पूछे बिना कोई काम करना ही नही चाहिए, चाहे वह कार्य अपना हो या दूसरे का। पूछने पर भी यदि आज्ञा दे तो करे, नहीं तो न करे । जो काम पूछ कर किया जाता है उसमे अशान्ति नहीं होती, वैमनस्य पंदा नहीं होता और गण एवं संघ मे अखण्ड गान्ति बनी रहती है।
५ छन्दना सामाचारी-लाए हुए ग्राहार का यथाविधि सविभाग करने पर अपने हिम्से मे से भी अन्य मुनिवरो को निमत्रण करना अथवा मुनिवर को भिक्षा में जो प्राप्त हुआ है उसके लिए भी अन्य साधुनो को निमत्रित करना छन्दना-सामाचारी है । इसमे अन्यान्य साथी मुनिवरो से सहानुभूति, अपनत्व, प्रीति आदि की वृद्धि होती है और साथ ही उदारता भी प्रकट होती है, रसनेन्द्रिय-विजय और सतोप, ये उदारता के सहयोगी गुण है।
६. अभ्युत्थान सामाचारी-अभ्युत्थान शब्द गुरुजनो के पधारने, खडे होने और उद्यम करने के अर्थ मे रूढ है, अर्थात् गुरुजनो के आगमन पर, उनके खडे होने पर एव उनके द्वारा किसी कार्य मे प्रवृत्ति करने पर शिष्य को उनसे पहले ही खडे हो जाना चाहिये, इसे ही अभ्युत्थान सामाचारी कहा जाता है।
यदि किसी.साधु को भिक्षा के लिये जाने पर आहार नही मिला, यदि वह दूसरी वार अाहार लेने के लिए जाने लगे तो उसे दूसरे साधुनो से पूछना चाहिए कि "क्या मैं आपके लिए भी आहार लाऊ?" इस प्रकार पदार्थ-प्राप्ति से पहले ही साधुग्रो को ग्रामत्रण करना चाहिए। इसी को दूसरे शब्दो में निमन्त्रण भी कहते है। छन्दना और अभ्युत्थान ये दोनो समा१६२ ]
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चारिया अभिव्यक्त करती हैं कि साधक के प्रति वत्सलता का होना अत्यावश्यक है। जब साधक मे परमार्थ इण्टि. जाग उठती. है तभी वत्सलता, विनीतता एवं प्रीति आदि का उद्भव हो जाता है । अत इन दोनो, सामाचारियो का पालन होने पर ही गणव्यवस्था ठीक चल सकती है।
७ इच्छाकार सामाचारी-बडा साधु छोटे साधु से और छोटा साधु बड़े साधु से यदि कोई काम कराना चाहे तो उसे इच्छाकार का प्रयोग करना चाहिए, अर्थात् यदि आपकी इच्छा हो तो मेरा यह काम आप कर दे। इस तरह परस्पर एक दूसरे से सहयोग लिया और दिया जाता है, किन्तु सहयोग भी. बल प्रेरित न होकर इच्छा-प्रेरित होना चाहिए। सामान्य विधि के अनुसार बल-प्रयोग सर्वथा वर्जित है, किन्तु विशेप विधि मे आज्ञा एव वल का प्रयोग भी व्यवहार मे किया जा सकता है। जो काम या सहयोग प्रसन्नता एव इच्छा से किया जाता है वह पुण्यानुवधी पुण्य का और निर्जरा दोनो का कारण होता है। अनिच्छा से किया हुआ कार्य कर्म-वध का ही कारण होता है, अत दूसरे की इच्छा होने पर ही उसको काम लेना चाहिए। हुक्म और बल-प्रयोग तो राजनीति मे ही सफल हो सकता है धर्म-नीति मे नही । .
८ मिथ्याकार सामाचारो-साधक के द्वारा कही न कही भूल का हो जाना भी स्वाभाविक है। जब कभी साधु को अपनी भूल का ज्ञान हो जाए तभी "मिच्छामि दुक्कड" का उच्चारण करना चाहिए। जो अपने द्वारा हुई भूल को मिथ्या मान कर उससे निवृत्त होता है, उसी का दुष्कृत मिथ्या होता है। जब साधक अपने साधुत्वं की मर्यादा से स्खलित हो जाए या उसमे योग . एक चिन्तन ]
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कोई विपरीत प्राचरण हो जाय, तब वह अपनी दूति ग्रात्मा की निन्दना करें, पश्चात्ताप करें । यहीं उम सामाचारी का भावार्थ है । साधु को प्रपनी भूल वडे चातुर्य से देखते रहना चाहिए तभी दोपो से निवृत्ति हो सकती है ।
ह तथाकार सामाचारी - प्रायश्चित्त देते समय, ग्रागमवाचना देते समय, शकाओ का समाधान करते समय जो कुछ भी गुरुजन कहें उस समय "तहत्ति" - जैसे श्राप कहते हैं वह सत्य है, ऐसा कहना तथाकार है। इसमे गुरु वचन विनयपूर्वक स्वीकृत किए जाते है । इससे शिष्य के मेन मे गुरुभक्ति का दिग्दर्शन कराया गया है । ग्रनाशातना और विनय ये दोनो ज्ञान प्राप्ति मे मूलकारण हैं ।
१०. उपसम्पदा सामाचारी- किसी भी गण मे जाकर साधक जो गुण-समृद्धि प्राप्त करता है उसे उपसम्पदा कहते हैं । सामान्यत. गण-व्यवस्था की दृष्टि से एक गण का साबु दूसरे गण मे नही जा सकता । इसके कुछ विशेष कारण भी हैं, परन्तु तीन कारणो से दूसरे गण मे जाना विहित है, घाध्यात्मिक लाभ के लिए अनिश्चित काल तक स्वाध्याय आदि के लिए अपने गण को छोडकर श्रन्य गण मे जाना उपसपदा है । उपसपदा के तीन भेद हैं ज्ञानउप सपदा, दर्शन उपसपदा और चारित्र - उपसपदा ।
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श्रागम-शास्त्रों के अध्ययन के लिए, शकाओं के समाधान के लिए, पुनरावृत्ति करने के लिए, ज्ञान की विशिष्टता के लिए नई धारणा एव नया ज्ञान प्राप्त करने के लिए दूसरे गण मे रहनेवाले किसी विशिष्ट ज्ञानी के पास गणनायक आचार्य की आज्ञा लेकर ज्ञान पाने के लिए जाना ज्ञानार्थ - उपसंपदा है ।
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' , दर्शन का अर्थ है श्रद्धा, जिस वस्तु का जैसा स्वभाव है उसे वैसा ही मानना-विश्वास करना सम्यग्दर्शन है। सच्चा परीक्षक वही होता है जो सत् और असत् मे, असली और नकली मे, खोटे और खरे मे भेद को समझ सके। सम्यग्दृष्टि भी प्राध्यात्मिकता के सदर्भ मे सच्चा पारखी होता है। अपनी श्रद्धा को विशुद्ध से विशुद्धतर बनाने के लिये तया दर्गन-शास्त्रो के रहस्य को समझने के लिए प्राचार्य के माध्यम से अनिश्चित या निश्चित काल के लिये दूसरे गण मे जाना दर्शनार्थ-उपसपदा है।
। किसी विशिष्ट सयमी के निर्देशन मे रहकर तपस्या, वैया. वृत्य, ध्यान-समाधि, कपाय-उपशमन, इन्द्रिय-निग्रह इत्यादि चारित्र-धर्म की विशिष्ट आराधना के लिए प्राचार्य के माध्यम से दूसरे गण मे जाना चारित्रार्थ उपसम्पदा है।
प्राचार्य के द्वारा की हुई व्यवस्था से एक गण को छोडकर दूसरे गण मे आना-जाना आगम-विहित है। अपनी इच्छा से दूसरे गण मे जाना स्वच्छन्दता है। अनुशासन से ही शासन चलता है। स्वच्छन्दता से अराजकता बढती है, जन-शान्ति डावाडोल हो जाती है, धर्म के प्रति जन-आस्था उठ जाती है। समाज मे विषमता पैदा हो जाती है । अत सब कार्य सघनायक की आजा से करने चाहिए, अपनी इच्छा से नही, यही उपसपदा सामाचारी से स्पष्ट सकेत मिलता है।
सामाचारी का सम्यक पालन ही चारित्र है। चारित्र का और विनय का सम्बन्ध सामाचारी के साथ ऐसा जुडा हुप्रा है जैसे बीज और छिलके का सम्बन्ध होता है। छिलके के बिना वीज अकिचित्कर है और बीज के बिना छिलका अकिंचित्कर योग एक चिन्तन
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है । सामाचारी के विना चारित्र नही और चारित्र के बिना सामाचारी नही । साधुत्व के सभी साधनो का समावेश समाचारी से हो जाता है । अनुशासन, विनय, तप, वैयावृत्य अनाशातना संयम इत्यादि सभी साधन सामाचारी के भीतरी अग है। जवकि संघ एवं गण सामाचारी के बाह्य अग है।
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२८. ध्यान-संवरयोग
.......fototkootterta तीन योगो का सवर ध्यान से होता है, अथवा ध्यान ही संवर-योग है। सर्व प्रथम यह जानना आवश्यक होगा कि ध्यान का अधिकारी कौन है ? ध्यान का स्वरूप क्या है ? और ध्यान का कालमान कितना है ?
आदि के तीन संहननो वाले साधक ध्यान के अधिकारी माने गए हैं। साधक के द्वारा किसो एक विशिष्ट विषय पर मन को एव वृत्नियो को केन्द्रित करना ध्यान है । छद्मस्थ का केन्द्रित किया हुआ मन ध्येय पर अधिक से अधिक अतर्मुहूर्तप्रमाण ही रह सकता है।
__ मन की प्रवृत्तिया तीन प्रकार की होती है-भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता । जिससे मन भावित है उसमे चित्त को बार-बार लगाना भावना है। ध्यान से उपराम होने पर उससे प्रभावित मानसिक चेष्टा को अनुप्रेक्षा कहते हैं । मन मे उठने वाले सकल्प की सभी तरगे चिन्ता में समाविष्ट हो जाती है।
' चल चेतना को चित्त कहा जाता है और उपर्युक्त तीन भेद चल चेतना के ही हैं।
स्थिर चेतना को ध्यान कहा जाता है । चित्त अनेक वस्तुप्रो, विपयो या व्यक्तियो की ओर दौड़ता ही रहता है। चित्त को योग । एक चिन्तन ]
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नियन्त्रित करके, उसकी भाग-दौड समाप्त करके उसे एक ध्येय पर स्थिर कर देना ध्यान है।
ध्यान तीन तरह का होता है-मानसिक ध्यान, वाचिक ध्यान और कायिक ध्यान । इन्हे ही दूसरे शब्दो में मनोगुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति भी कहते हैं। ' ध्यान के भेद __एकाग्र चिन्तन को ध्यान कहते है, इस अपेक्षा से ध्यान के दो भेद होते हैं-अप्रशस्त ध्यान और प्रशस्त ध्यान । अप्रशस्त ध्यान के दो भेद है-मार्तध्यान और रौद्रध्यान । अति का अर्थ है दुख, उससे उत्पन्न होनेवाली एकाग्रता को आर्त-ध्यान कहा जाता है। दुख उत्पन्न होने के मुख्य चार कारण हैअनिष्ट वस्तु का सयोग, इष्ट वस्तु का वियोग, प्रतिकूल वेदना और भोगो की लालसा । इन चार कारणो से ही आतध्यान हुयाकरता है।
प्रार्तध्यान का स्वरूप और उसके भेद
अनिष्ट वस्तु के सयोग से जब दुखित प्रात्मा उसे दूर करने, के लिए सतत चिन्ता किया करता है, तब वह अनिष्ट-सयोग प्रार्त-- ध्यान कहलाता है। किसी इष्ट वस्तु के चले जाने पर उसकी प्राप्ति के निमित्त निरतर चिन्ता करना इष्ट-वियोग आत ध्यान है। शारीरिक एव मानसिक रोगो के उत्पन्न होने से जो चिन्ता उत्पन्न होती है वह चिन्ता ही प्रार्तध्यान है। भोगो की तीनलालसा से अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का उत्कट सकल्प या निदान करना आर्तध्यान है। रोना-धोना, शोकं करना, प्रासू बहाना और - विलाप करना ये आर्तध्यान के चार लक्षण है। आदि के छ गुण१६८]
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स्थानो मे श्रार्त्तध्यान का अस्तित्व रहता है। आर्तव्यान का चौथा भेद प्रमत्त गुण स्थान में नही होता । अपने और अपने साथियो के प्रेम एवं राग से यह ध्यान होता है ।
रौद्र ध्यान का स्वरूप और उसके भेद
अप्रशस्त भावलेश्या एव द्वेष से क्रूरता पूर्ण भावो की सतत श्रवस्थिति ही रौद्र ध्यान है । इसके मुख्य चार मेद है जैसे हिंसानुवधी, मृपानुवधी, स्तेनानुवधी और सरक्षणानुवधी ।
शिकार खेलने के समय मन की एकाग्रता, दुनियावी स्वार्थी की पूर्ति के लिए किसी देव-देवी या पितरो के नाम पर बलि देते समय मन को एकाग्र करना, जनसहार के लिए वम वर्षा करना, किसी को मारने के लिए मन मे योजना बनाना, पनडुब्बी के द्वारा
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किसी समुद्री वेडे को डुबोना, विनाशक वस बनाने के तत्त्वो की खोज करना इत्यादि अनेक रूप हिसानुवधी रौद्रव्यान के है । दूसरो की हानि सोचना, दूसरो के विनाश के लिए टूना-टामन करना आदि भी इसी व्यान मे निहित हैं।
दूसरो को ठगने की प्रवृत्ति, मायाजाल की रचना, "मैं उसके सामने किस प्रकार का झूठ बोलू, किस प्रकार का झूठ बोल कर प्रमुक को निर्धन वना हूँ, राजा से रंक बना दूं, दूसरो को अपने जाल मे फसा दू, उसे वेइज्जत करदू, उसके ऊपर कैसा श्रारोप लगाऊं कि उसकी संपत्ति हड़प कर जाऊ", इस प्रकार के असत्य वोलने की एव दूसरो को पीडित करने की योजनाए बनाना मृषानुवधी रौद्रध्यान है ।
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डाका मारना, चोरी करना, किसी की गाठ काटना, किसी को मार्ग मे लूटना, जूआ खेलना, किसी से धोखेबाजी करना, योग एक चिन्तन |
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विषैले रुमाल को सु घा कर दूसरो के द्रव्य का हरण करना, चोरी के नये-नये तरीके सोचना, स्तेनानवधी रौद्रव्यान है। जब मन मे लोभ होता है और जब उस लोभ को कपट सहयोग देता है तब चोरी की जाती है। चोरी के विषय में गहराई से सोचना, चोरी। करना इन सब दुष्कर्मो का अन्तर्भाव इसी ध्यान मे हो जाता है।
इस ससार मे जितने भी पदार्थ है वे सब के सब पाच इन्द्रियो के विषय है - रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन, सगीत के साज-बाज ये श्रोत्रेन्द्रिय विषय के साधन है। वस्त्र, आभूपण, बनाव के सभी साधन, प्रकाश, खेल-तमागे, नाटक, सिनेमा, दूरदर्शन, प्रदर्शनी इत्यादि साधन चक्षुरिन्द्रिय के विषय है। सुगन्धि के सभी पदार्थ घ्राणेन्द्रिय के विषय है । खाने-पीने का कच्चा-पक्का माल, लौंग, इलायची, पान-बीड़ी, सिगरेट, हुक्का, तम्बाकूसुलफा, भाग आदि सभी पदार्थ रसनेन्द्रिय के विषय है। रेफ्रीजरेटर आदि यत्र रसनेन्द्रिय विपय के पोषक है। पुष्प-शय्या, गलीचे, पलंग, पखा, पारामकुर्सी इत्यादि सब पदार्थ स्पर्शनेन्द्रिय के विषयो के साधन हैं। इन सबकी प्राप्ति धन से होती है, धन, विषय और विषय-साधन ये सव ममत्व एवं मूर्छा के सवर्धक हैं, इनमे शकाशील बन कर रहना कि कोई इन्हे उठा न ले जाए, कोई खराब या तोड-फोड़ न करदे, कोई वलात् इन पर अधिकार न.जमा ले, कोई छीना-झपटी न करले, कोई आगज़नी न करदे, पहरे का प्रबन्ध होते हुए भी भयभीत. रहना, उन की रक्षा के लिए युद्ध करना,, हजारो-लाखो प्राणियो को मौत के घाट उतार देना, इस प्रकार की बाते सोचना या करना सरक्षणानुबधी रौद्र ध्यान है। राग-द्वेष से व्याकुल जीव में चारो प्रकार का रौद्रध्यान होता है । यह ध्यान आवागमन को बढाने वाला है और १७०]
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दुर्गतियो मे धकेलने वाला है।
रौद्रध्यान के लक्षण __जिस से वस्तु के यथार्थ रूप का ज्ञान हो, वह लक्षण कहा जाता है। लक्षणो से जहा वाह्य पदार्थों का ज्ञान होता है वहा उनके प्रातरिक भावो की जानकारी भी प्राप्त हो जाती है। रौद्रध्यान के स्वरूप को जानने के लिये आगमकारो ने उसके चार लक्षण बतलाए है, जैसे किप्रोसन्नदोष
जिस की विचारधारा एव चेतना हिसादि पाप-कर्मो से निवृत्त नही हुई, चित्त-वृत्तिया कर्मों की ओर उन्मुख है, जो निर्दयतापूर्ण व्यवहार करनेवाला है, जो अपने स्वार्थ को पूर्ण करने के लिए दूसरे के धन और प्राणो को भी खतरे मे डाल सकता है, जिसका जीवन लोगो के लिए भयावह है, वह रौद्रध्यान के किसी भी एक रूप मे प्रवृत्ति करता है। बहुलदोष ।
जिस का रोद्र-ध्यान अतिमात्रा मे वढा हुआ है, वह हिंसादि सभी दोपो एव अशुभ कार्यो मे प्रवृत्ति करता है।
अज्ञानदोष-कुशास्त्रो के सस्कारो से, निकृष्ट लेश्या से और अज्ञानता से हिंसा आदि पाप-कार्यो मे भी धर्म-बुद्धि से प्रवृत्ति करना अनान-दोष है।
मामरणान्तदोष-आयु-पर्यन्त किसी भी पाप-कर्म का पश्चात्ताप न करना या किसी के प्रति जो एक वार क्रोध या द्वेष उत्पन्न हो जाता है, उसे जीवन भर कभी भी न छोडना आमरयोग एक चिन्तन ]
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है
णान्त दोप है । इस प्रकार का व्यक्ति रौद्रध्यानी माना जाता है । कठोर एव खराब विचारो वाला रौद्रव्यानी दूसरे के दुख मे प्रसन्न होता है और दूसरे को सुख मे देखकर खिन्न हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को अकार्य करके भी पश्चात्ताप नहीं होता। जिसे पाप कार्यो मे प्रवृत्ति सुखद प्रतीत होती है वह रौद्रध्यानी है । इन लक्षणो से रौद्रध्यान की पहचान होती है।
आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दोनो निम्न कोटि के व्यान है । इनसे और इनके कारणो से दूर रहना साधक के लिए अनिवार्य है। इनकी साधना योग-साधना नही है। यह तो जान-बूझ कर दुर्गति मे जाना है। निकृष्ट-ध्यान से ही पाप प्रवृत्ति होती है। निकृष्टध्यान पापवृत्ति को जगाता है और पापवृत्ति निकृष्ट-ध्यान को जागृत करती है, दोनो एक दूसरे के पूरक, एक पोषक हैं। इन दोनो से सावधान एव सतर्क रहने के लिए सर्व प्रथम इनका विवेचन करना आवश्यक होगा । हानि एव विघ्न समूहो से अपने को सुरक्षित रखना ही धर्म-ध्यान एव शुक्लध्यान की प्रवृत्ति मे सहायक है, अत. लाभ की अपेक्षा सव से पहले साधको को हानि के सभी उन्मार्गो से परिचय कराना हितैपी का कर्तव्य है।
यह व्यान तीसरे गुणस्थान तक तो होता ही है, चौथे एव पाचवे गुण-स्थान मे तो आशिक रूप मे ही पाया जाता है। धर्म-ध्यान .
धर्म और ध्यान इन दो पदो से यह शब्द बना हुआ है। धर्म का अर्थ है-किसी तत्त्व या व्यक्ति की वह प्रवृत्ति जो उसमे सदा रहे, उससे कभी भी अलग न हो, अर्थात् वस्तु का स्व-भाव ही धर्म है। अथवा जिन-प्रणीत आगमो द्वारा प्राचार्यो एव १७२।
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मुनीश्वरों द्वारा निर्दिष्ट वे साधन, जिनका आचरण कर्मक्षय के लिए किया जाए या पारलौकिक सुख-प्राप्ति के लिए किया जाए, अथवा जो साधन अभ्युदय और नि श्रेयस की सिद्धि के मूलकारण हैं । अथवा जो गुण-विशेप के विचार से उचित और आवश्यक हो, अथवा जिन से प्रात्मा अष्टविध कर्मवध से एव सव प्रकार के दुखो से मुक्ति दिलाने वाला हो, वही तत्त्व-धर्म है। इसके अनेक अवान्तर भेद हैं जैसे किधर्म का एक भेद-वस्तु का स्वभाव ही धर्म है-"वत्थसहावो
धम्मो" अथवा प्राज्ञा मे धर्म है, अथवा प्रात्मा __ की अन्तर्मुखीवृत्ति ही धर्म है ।
धर्म के दो भेद-सयम और तप, अशुभ से निवृत्ति और शुभ मे
प्रवृत्ति, श्रुतधर्म और चारित्र धर्म, सम्यक् ज्ञान . . . और सम्यक् क्रिया, विद्या और चारित्र, राग
और द्वेष से निवृत्ति, व्यक्तिगत धर्म और सामाजिक धर्म, सवर-धर्म और निर्जरा-धर्म, सूत्र-धर्म और अर्थ -धर्म, अगार-धर्म और अन
गार-धर्म । धर्य के तीन भेद-अहिंसा, सयम और तप। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और
चारित्र । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति,
कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञान-योग । धर्म के चार भेद-दान, शील, तप और भाव । ज्ञान, दर्शन, .... चारित्र और तप । विनय, श्रुत, तप और
आचार। आज्ञा-विचय, अपायविचय, विपाकयोग एक चिन्तन ]
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विचय और संस्थानविचय, मंत्री, प्रमोद करुणा और मध्यस्य भाव ।
धर्म के पांच भेद - पाच समितियो का पालन, पाच इन्द्रियों का निग्रह | पाच महाव्रतो या पाच प्रणुत्रतो तथा पाच चारित्रों का पालन, चार कपाय और मन, इन पांचों पर विजय ।
धर्म के छ भेद - छ काय की हिंसा से निवृत्ति, छ कायो की यथावत् रक्षा, छ प्रकार का वाह्यतप, छ. प्रकार का ग्राभ्यन्तर तप, छ प्रकार का कल्प | पड् श्रावश्यक |
धर्म के सात मैद - सात शिक्षाव्रत । सप्त कुव्यसनो का त्याग - ( शिकार खेलना, सुरापान करना, जुप्रा खेलना, परस्त्री गमन, वेश्या-गमन, चोरी करना, मांस और डी आदि का सेवन करना, ये मात कुव्यसन है ) 1
धर्म के प्राठ भेद - सिद्धो के प्राठ गुणो का चिन्तन करना । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, व्यान और समाधि इन सवको आराधना करना धर्म हैं ।
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धर्म के नौ भेद-नो वाडो सहित ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना करना | ब्रह्मचर्य संयम भी है और सारे तपो में उत्तम तप भी हैं - "तवेसुं व उत्तमं बभचेरं ।" श्रागमकारों ने ब्रह्मचर्य को उत्तम तप माना
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योग एक चिन्तन
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है। शेप तप के भेद इसी की सिद्धि के लिए
किए जाते हैं। धर्म के दस-भेद-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव,
उत्तम मुक्ति, उत्तम तप, उत्तम सयम, उत्तम सत्य, उत्तम शौचा-अन्त करण शुद्धि, उत्तम अपरिग्रह और उत्तम ब्रह्मचर्य । इस प्रकार
धर्म के अनेक-अनेक भेद हो सकते हैं। ध्यान का अर्थ है-ध्येय में नन्मय हो जाना। ध्यान-योग मे तीन वार्ते मुख्य हैं-चित्त की एकाग्रता के लिए उपयुक्त जीवन की परिमितता और साम्यदशा, अभ्यास और वैराग्य । इन से ध्यान की सिद्धि होती हैं। इन मे से वैरग्यि विध्वंसक क्रिया है
और अभ्यास विधायक क्रिया है। खेत से घास उखाडकर फेकना विध्वंसक क्रिया है, उसमे वीज बोना विधायक कार्य है। वैराग्य अन्त करण मे रहे हुए मोहतत्त्व को उखाड़ कर बाहर फैक देता हैं, जबकि अभ्यास ध्येय को पाने के लिए ध्याता को सहयोग देता है । प्रतिध्यान और रौंद्रध्यान की निवृत्ति एव व्यावृत्ति के लिए ध्यान के साथ धर्म गब्द जोडा गया है। इसका अर्थ होता हैं-धर्म का ध्यान, धर्म मे ध्यान अथवा जो व्यान धर्म से प्रोतप्रोत हो उसे धर्म-ध्यान कहा जाता है। धर्म-ध्यान के मुख्य चार भेद हैं, जिन मे धर्म के सभी भेदो का समावेश हो जाता है। उनका सक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है -
१ आज्ञा-विचय-तीर्थङ्कर भगवान की आज्ञा क्या है ? उन्होने ऐसी आजा क्यो दी है? इस विषय पर विचार, गवेषणा
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एव अनुसंधान करना उनकी प्राना का रहस्य जानने के लिए मन को एकाग्र करना प्रामाविचय धर्म-ध्यान है।
। भगवान की प्राज्ञा को सत्य समझना, उस पर पूर्णश्रद्धा रखना, नव-तत्त्वो मे किसी एक तत्त्व का चिंतन-मनन करना यदि कोई तत्त्व समझ मे न पाए तो उममे गका न करना, वीतराग भगवान की वाणी मे मन को एकाग्र करना और विश्वास रखना कि प्रभुवाणी ही अर्थरूप है-परमार्थ रूप है तथा शेप सब कुछ अनर्थ रूप है।
वाणी तीन तरह की होती है-रोचक, भयानक और यथार्थ । वीतराग प्रभु की वाणो केवल यथार्थ हो होती है जबकि अल्पन की वाणो यथार्थ कम होतो है, रोचक और भयानक अधिक होती है। जिसका चित कपायो से अनुरजित है, उसमे सत्यता की मात्रा अत्यल्प ही होती है। अतः वीतराग प्रभु की वाणी मे असत्याश लेश मात्र भी नही होता । अागम-समुद्र, मे आत्मकल्याण के अनमोल-रत्न भरे पड़े है, जिनसे क्षणमात्र मे ही आध्यात्मिक दरिद्रता नष्ट होकर सदा-सदा के लिए आत्मा आध्यात्मिक विभूतियो मे समृद्ध बन जाता है। इस प्रकार अपनी सूझ-बूझ से जिन-वाणी मे मनोयोग देना धर्म-ध्यान है।
२ अपाय-विचय-अठारह तरह के पापो एवं दोपो के स्वरूप को जानकर उनसे छुटकारा पाने के लिए मनोयोग देना अपाय-विचय धर्मध्यान है । अपाय का अर्थ है हानि एव दुख ।
अपाय चार प्रकार का होता है-द्रव्य-अपाय, क्षेत्रापाय, कालापाय और भावापाय। जो भौतिकद्रव्य सुख एव आनन्द के गोषक एव मारक हैं वे द्रव्यापाय हैं। . १७६]
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जो स्थान दुख और प्राणो का नाशक है वह क्षेत्रापाय कहलाता है।
जो काल उन्नति एवं सुख समृद्धि में बाधक है, जो वातावरण मन के सर्वथा विपरीत है, ऐसे दु धमकाल को कालापाय कहा जाता है।
काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग, और तप आदि प्रकृतियो के उदय से जीव को ऐहिक एव पारलौकिक सकटों का सामना करना पड़ता है, दुर्गतियो में जाकर अपने अशुभ कर्मो का फल भोगना पड़ता है और उसकी जन्म-मरण की परम्परा अटूट बन जाती है।
भावापाय क्या क्या है ? और उनसे अलगाव कैसे हो सकता है ? उनसे बचने के लिए मनोयोग देना अपाय विचय है। साधक को अपाय-विचय धर्मव्यान से कर्मवध के सभी हेतुनो को जानकर उनमे निवृत्त होने का अभ्यास करना चाहिये ।
३. विपाक-विचय-अनुभव मे आनेवाले कर्म विपाको मे से कौन-कौन सा विपाक किस-किस कर्म का फल है ? कर्मो के वशीभूत हुआ जीव चार गति, चौरासी लाख योनियो मे भटक रहा है, सपत्ति-विपत्ति, सयोग-वियोग, दुख-सुख अपने किए हुए यथासभव पाठ कर्मों की एक सौ अढतालीस प्रकृतियो का अनुभव करते हुए ससार मे परिभ्रमण कर रहा है। इस प्रकार कर्मविषयक चिंतन मे मनोयोग देना विपाक-विचय धर्मध्यान है। इससे आत्मा मे यह धारणा जागृत हो जाती है कि अपने द्वारा उपार्जित कर्मों के सिवाय अन्य कोई भी मुझ को सुख-दुख देने वाला नहीं है-"सुखस्य दु खस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति विमुच शेमुषोम्"-जवसाधक यह समझ लेता है कि मुख योग : एक चिन्तन
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का या दु ख का देनेवाला अन्य कोई नहीं है तब वह सोचता है। "हे पात्मन् | दूसरा कोई दुख या सुव देता है इस वुद्धि चा मिथ्या धारणा को विल्कुल छोड दे।" ऐसा चिन्तन करने वाले सावक को सुख-प्राप्ति में कभी अहकार नहीं होता और दुखो के आक्रमण से कभी घबराहट नही होती, वह समता से दोनो का स्वागत करना अपना धर्म समझता है।
४. संस्थान-वित्रय - लोक के स्वरूप एव स्वभाव मे मनोयोग देना सस्थान-विचय चर्म-ध्यान है। प्रागमो के स्वाध्याय से लोक स्वरूप और लोकस्वभाव का ज्ञान होता है। यद्यपि लोकस्वरूप और लोक-स्वभाव ये दोनों अलग-अलग हैं, तथापि इन दोनों का परस्पर आधार-आधेय सबध है, क्योकि लोक-स्वरूप का ज्ञान होने पर ही लोक-स्वभाव का ज्ञान हो सकता है। लोक स्वरूप का अर्थ है-लोक का प्राकार,अायाम-विष्कम्भ, समभाग, मध्यभाग, विशालता, लोक-स्थिति आदि विषयो पर चिन्तन करना । जब ध्याता प्राणियो की उत्पत्ति, स्थिति, जन्म-मरण सुख-दुख, पुण्यपाप, राग-द्वेप आदि विषयो की ओर मनोयोग देता है तब वह लोक-स्वभाव कहलाता है। अत लोक स्वरूप मे लोक स्वभाव का होना निश्चित है।
. इस ध्यान से तत्वज्ञान की विशुद्धि होती हैं, मन अन्य वाह्य विषयो से हट कर स्थिर हो जाता है, मानसिक स्थिरता द्वारा आध्यात्मिक सुखो की प्राप्ति अनायास हो जाती है। धर्म-ध्यान का पहला चरण ध्याता को ध्येय के गुणो की ओर आकृष्ट करता है। धर्म-ध्यान का दूसरा चरण ध्याता को पापवृत्तियो से निवृत्त होने की प्रेरणा देता है। धर्मध्यान का तीसरा चरण ध्याता को कर्म-सिद्धान्त को जानकारी के साथ-साथ उदीयमान कर्म-प्रकृतियों
६ योर एक चिन्तन
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का अलग-अलग फल जानकर समता से उनका भुगतान करने की ओर प्रवृत्त करता है । धर्मध्यान का चौथा चरण ध्याता को ज्ञयु विपयो की ओर आकृष्ट करता है । जब ज्ञान ज्ञेय रूप मे परिणत हो जाता है तब उसको क्षायोपामिक ज्ञान कहा जाता है, किन्तु जब जय ज्ञानरूप में परिणत हो जाता है तब वह आविकनान कहलाता है। पहला विकल्प साधक की दृष्टि से और दूसरा विकल्प-सिद्ध की दृष्टि से है । धर्म ध्यान के लक्षण
जिन लक्षणो से हम धर्म-ध्यान की पहचान कर सकते हैं वे लक्षण सख्या मे चार है, उन का विवरण इस प्रकार है
१ आज्ञा-तवि-तीर्थकरो की, जिनवाणी की या प्राचार्यो की आना में रुचि का होना धर्मध्यान का पहला लक्षण है। जो साधक पाना-पालन में रुचि रखता है वह निश्चित ही धर्म में च्यान रखता है। . २. निसर्ग रुचि-पूर्व जन्माईजत सस्कारो की प्रबलता से स्वभावत ही केवला-भाषित तत्त्वो पर श्रद्धा का होना धर्म ध्यान का दूसरा लक्षण है ।
३ सूत्र-चि-सूत्रागम, अर्थागम और उभयागम- द्वारा केवली-भाषित तत्वो पर आस्था रखना, उनके अनुसार माचरण करना या ग्रागम शास्त्रो के प्रति विशेष रुचि का होना मूत्ररुचि है।
४ प्रगाढ-रुचि-विस्तार के साथ द्वादशाङ्ग वाणी का जान प्राप्त करके जिन प्रणीत भावो पर होने वाली श्रद्धा, अथवा प्रागमानुसार धर्मोपदेश सुनकर जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे अवगाढरुचि या उपदेशरुचि कहा जाता है। योग एक चिन्तन
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पच परमेष्ठी के गुणो का कथन करना, भक्ति-पूर्वक उनकी प्रशसा एव स्तुति करना, गुरु श्रादि की विनय करना, भूल कर भी कभी उनकी प्राशातना न करना, उन्हे १४ प्रकार का दान देना, उनके श्रुत, शील एव सयम मे अनुराग रखना तत्त्वो के अर्थों पर श्रद्धा रखना, साधक के ये सभी गुण धर्म-ध्यान के चिन्ह हैं।
धर्मध्यान के अवलम्बन
गगन-चुम्बी महलो के शिखर पर पहुंचने के लिए जैसे लिफ्ट, सीढी आदि का उपयोग करना जरूरी होता है वैसे ही धर्म-ध्यान के शिखर पर पहुचने के लिए निम्नलिखित प्रमुखतम चार अवलम्वन है, केवली-प्ररूपित शास्त्रो का मनन करते-करते जब स्व-अर्थात् अपना ही अध्ययन प्रारम्भ हो जाता है वह स्वाध्याय कहलाता है । स्वाध्याय द्वारा श्रुत-ज्ञान प्राप्त होता है, श्रु त ज्ञान से धर्मध्यान के शिखरो पर पहुचना सुगम हो जाता है ।
१ वाचना-संवर और निर्जरा के लिये शिष्य को सूत्र और अर्थ का स्वाध्याय कराना, वाचना है। गुरु की यह मनोभावना होती है कि शिष्य आगमो का ज्ञान प्राप्त करके बहुश्रुत बने । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे शिष्य को वाचना देते हैं। कुछ गुरुजन इस उद्देश्य से भी वाचना देते है कि उनके शिष्य उनकी साधना मे सहायक वने, क्योकि सुशिक्षित गिष्य ही आहार-पानी, वस्त्र, पात्र, मकान, आदि की शुद्ध गवेषणा करने योग्य बन सकता है और दूसरो के सयम मे सहायक बन सकता है। कुछ गुरुजन अपने कर्मो की निर्जरा के उद्देश्य से शिष्यो को वाचना देते हैं। कुछ गुरुजन इस उद्देश्य से भी वाचना देते हैं कि पढने की अपेक्षा पढाने १८०]
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से ज्ञान स्पष्ट हो जाता है, अत मेरा सीखा हुया ज्ञान भी वाचना देने से स्पष्ट हो जाएगा। कुछ गुरुजन इस लक्ष्य से वाचना देते हैं कि शास्त्र पढाने की परम्परा चलती रहे नही तो शास्त्र का ही व्यवच्छेद हो जाएगा। अध्ययन और अध्यापन की परम्परा अपने गण मे विच्छिन्न न होने देना यह बहुश्रुत का परम कर्त्तव्य है।
शिष्यो का भी यह कर्त्तव्य होता है कि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिये, तत्त्वो पर श्रद्धा करने के लिये, चारित्र एव सयम की विशुद्धि के लिये, हठवाद या एकान्तवाद को छोड़ने और छडाने के लिये, अनेकान्तवाद का प्राथयण लेने के लिये, प्रागमो का अध्ययन करने पर द्रव्य एव पर्यायो का यथातथ्य ज्ञान हो जाएगा इस विचार से श्रुतज्ञान का अभ्यास निरन्तर करते रहना चाहिए ।
२. पच्छना-वाचना ग्रहण करते समय या पहले सीखे हए श्रुतज्ञान में शब्दगत या अर्थगत सन्देह होने पर शका-समाधान के लिये ज्ञानी गुरुजनो से श्रद्धापूर्वक प्रश्न पूछना ही पृच्छना है। प्रश्नोत्तर विधि से ज्ञान बढ़ता है, शकाओं का समाधान करने से एवं पाने से मन समाधिस्थ हो जाता है।
३. परिवर्तना-सूत्र रूप मे और अर्थ रूप मे सीखे हुए ज्ञान की आवृत्ति करते रहना, उसे चितारते रहना परिवर्तना है। परि. वर्तना से श्रुतज्ञान इतना सुदृढ़ हो जाता है कि वह भावी जन्मो मे भी उद्बुद्ध हुए विना नहीं रहता। स्वाध्यायशील साधक का भावी जन्मो मे भी मस्तिष्क स्वच्छ निर्मल एव व्युत्पन्न रहता है।
४. धर्म-कथा-धर्मकथा के अतिरिक्त शेष सब विकथाए है। धर्मकथा सुनाने वाला यदि शरीर-सम्पदा से युक्त हो, उसकी धारणा-शक्ति और स्मरण-शक्ति प्रवल हो, वाणी और स्वभाव मे योग , एक चिन्तन ]
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माधुर्य हो स्वमत और परमत का ज्ञान हो, मानवता की पहचान हो, मन मे विरक्ति हो, जिनवाणी पर अटल श्रद्धा हो और विनीत एव निर्लोभी हो वही वक्ता धर्मकथा से जनता को प्रभावित कर सकता है, धर्म-प्रभावना से जीव अपना भविष्य उज्ज्वल करता है । धर्मकथा करना भी स्वाध्याय है । निरन्तर किये जाने वाले स्वाध्याय से धर्म ध्यान की ओर प्रवृत्ति बढती जाती है । यह स्मरणीय है कि धर्मोपदेश देने से वक्ता का भी कल्याण होता है और वह जनता का भी कल्याण करता है ।
धर्म- ध्यान की अनुप्रेक्षाएं अनुप्रेक्षा का अर्थ है परिचित श्रीर स्थिर विपय का निरन्तर चिन्तन करना अथवा कुछ विस्मृत हुए सूत्र और ग्रर्थ को स्मरण मे लाने के लिये वारवार मनोयोग देना, अथवा एकत्व, श्रनित्यत्व, अगरणत्व और ससारत्व की भावना जगाने के लिये मनोयोग देना ग्रनुप्रेक्षा है इसके भी चार रूप हैं, जैसे कि—
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१ एकत्वानुप्रेक्षा - "इस ससार मे न कोई मेरा है-न मैं किसी का हु, मैं तो अकेला हू" इस तरह आत्मा के एकत्व एव सहायपन की भावना करना एकत्व - अनुप्रेक्षा है । इस से ग्रात्मा को यह अनुभूति हो जाती है कि जब मेरा कोई है ही नही और न मैं किसी का हूं, शरीर भी मेरा नही है तव ममत्व किस पर करू ? ममत्व ही मोह और दुख का मूल कारण है। मोह, ग्रासक्ति और इच्छा इन सब से मुक्त होने में ही सुख है । इस तरह की विचारधारा ही आत्मा को मोह- सागर से पार उतारती है ।
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२. प्रनित्यानुप्रेक्षा - संसार मे सभी दृश्यमान पदार्थ परिवर्तनशील है, यह शरीर भी अनेक विघ्न-बाधाश्रो का, रोगो एव
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[ योग एक चिन्तन
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अातंक का स्थान है। सम्पत्ति विपत्ति से घिरी हुई है, सयोग वियोग से परिव्याप्त है, जन्म मृत्यु से घिरा हुआ हैससार के सभी पदार्थ- अनित्यता से घिरे हुए हैं। इस तरह की भावना आत्मा मे विरक्ति पैदा करती है। जहा विरक्ति है वहा आसक्ति प्रवेश नहीं कर पाती। जव मोह-वर्धक पदार्थो को नित्य समझा जाता है, तभी उन मे आसक्ति बढती है। प्रासक्ति की गहरी जडो को विरक्ति ही उखाड़ सकती है। विरक्ति साधक को धर्मध्यान के शिखर पर पहुंचा देती है । - . ..
३ अशरणानुप्रेक्षा जब सकट:काल मे या मृत्यु के समय मनुष्य जड़-चेतन पदार्थो या देवी-देवताओ की शरण ढुंढता है, तव वह अनुभव करता है कि यहा माता, पिता, पुत्र, मित्र, कनक, कामिनी आदि मे से मुझे सहायता या शरण देने वाला कोई नही है । तव वह उद्बुद्ध होकर कहता है ~~'हे जीव । केवलि-भाषित धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई तेरा रक्षक नहीं है।"
___ इस अनुप्रेक्षा से आत्मा को इस बात का लाभ होता है कि अज्ञान एव मोह के वशीभूत अपरिपक्व साधक जिन पदार्थो को शरणरूप मानता है, मोह-तिमिर के हट जाने पर वे सभी पदार्थ स्वयं उसे अशर्रणरूप दीखने लगते है।
४ संसारानुप्रेक्षा-मोह का नाम ही ससार है जीव मोह के उदय से ही चौदह राजुलोक के भीतर विविध गतियो और योनियो मे जन्म मरण के चक्र मे भटक रहा है । फिर भी इस को सुख नहीं सुखाभास ही मिल पाता है । ससार में जितने भी अनन्त-अनन्त । जीव है उन सब के साथ प्रत्येक जीव का सम्बन्ध मित्रता और शत्रुता के रूप में स्थापित हो चुका है । इस प्रकार ससार-परिभ्रमण योग एक चिन्तन]
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का चिन्तन करना ही मसारानुप्रेक्षा है।
इन अनुप्रेक्षाग्रो से ससार को वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो जाता है। जिस को खरे और खोटे रत्न का ज्ञान होता है वह खरे रत्न का कभी दुरुपयोग नहीं कर सकता और खोटे रत्न की चमक दमक को देखकर उस पर मुग्ध नही हो सकता । वह संसार को कदलीस्तभ के समान निस्सार समझता है । ससार को सारम्प समझना ही भूल श्रीर श्रज्ञानता है । संसार में यदि कुछ साररूप है तो केवली - भापित धर्म ही है । ससार के सयोग-वियोग-जन्य दुखों श्रीर सुखाभासो पर विचार करना ही धर्म ध्यान की प्रवृत्ति को जगाना है । धर्म ध्यान से ससार की निवृत्ति स्वय हो जाती है ।
धर्म- ध्यान का चौथा चरण है सस्थान-विचय। किसी ग्राकार विशेष का व्यान करना ही संस्थान-विचय है । आत्मा का श्राकार या उस के स्वरूप का विचार करना ही धर्मध्यान है । इस के मुख्यतया चार भेद है जैसे कि पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्य और रूपातीत । इन धारणाओ के बल से ध्यान की सिद्धि की जाती है ।
१. पिण्डस्थ - धर्म - ध्यान
ध्यान करने वाले के लिये ध्येय की सिद्धि के निमित्त सबसे पहले एकान्त एव शान्त वातावरण वाले स्थान मे पहुच कर पद्मासन या सुखासन से बैठकर अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा मे खडे हो कर मन, वाणी और काय को एव इन्द्रियो को अशुभ प्रवृत्तियो से हटाकर अपने मे सलीन करना अनवार्य है । पिण्डस्थ का अर्थ है अपने पिण्ड मे श्रर्थात् शरीर मे अवस्थित श्रात्मा का ध्यान करना । इसकी सिद्धि के लिये क्रमश. पाच धारणाए उपयोग मे लाई जाती हैं जैसे कि
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- १ पाथिवी-धारणा --सबसे पहले एकाग्रमन से इस मध्यलोक मे अवस्थित अत्यन्त, निर्मल, श्वेत रग वाले क्षीर-समुद्र को ध्यान मे देखे, फिर उसके ठीक मध्य मे जम्बूद्वीप प्रमाण लम्वे चौड़े, हजार पखुडियो से युक्त तपे हुए स्वर्ण वर्ण वाले एक कमल के आकार की कल्पना करे । उसके मध्य मे पीले रग वाली सुमेरु के समान ऊची कणिकाओ के दृश्य की कल्पना करे । उसके शिखर पर मणिरत्नो से जड़ा हुआ एक सिंहासन ध्यान मे देखे । फिर उस सिंहासन पर अपने को अष्टविध कर्मों का क्षय करने के लिये उद्यत होकर ध्यान मुद्रा मे बैठे हुए की धारणा करे । इस धारणा का बार-बार हृदय मे नित्यप्रति अभ्यास करना चाहिये। जब इस ध्येय की सिद्धि करने मे सफलता प्राप्त हो जाय, तब दूसरी धारणा का मनन करना चाहिए।
२ प्राग्नेयी धारणा ~ ध्यान करने वाला उसी सिंहासन पर बैठा हुआ चिन्तन करे कि मेरी नाभि के भीतरी भाग से एक श्वेत रग वाला कमल विकसित हुआ है, जिसकी सोलह पखुड़िया हैं, उसकी प्रत्येक पखडी या पत्ते पर अपआ इ ई उ ऊ ऋऋ लु ल ए ऐ, ओ औ अप ये सोलह अक्षर क्रमश. स्वर्णिम वर्ण मे लिखे हुए है। उनके मध्य मे एक पीले रंग वाला अक्षर 'ह' लिखा हुआ भासित हो रहा है। इसी कमल से कुछ ऊपर हृदय कमल प्रीधे मुख खिला हुआ है। उस कमल के पाठ ही पत्ते हैं जिनका रग बिल्कुल काला है । वे काले पत्ते हैं-ज्ञानावरणीय, दर्गनावणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय रूप पाठ कर्म है ऐसा चिन्तन करे।
नाभि-कमल के ठीक मध्य मे जो पीले रग वाला 'ह' है। उसमे से धुप्रा निकल कर अग्नि-शिखा मानो भडक उठी है, वह
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श्रीधे मुख वाले कमल को जलाने लगी है, जलाते हए वह अग्नि शिस्त्रा मेरे मस्तक तक आ गई है, फिर वह अग्निशिवा गरीर के दोनो ओर रेखा रूप पाकर ऊपर की ओर दोनो कोनो के रूप में आपस मे मिल गई हैं । शरीर के चारो ओर वह गिखा त्रिकोण रूप हो गई है। अब इस त्रिकोण की तीनो रेखायो पर र र र र र र र रूप अग्नि-तत्त्व वेष्टित है।
इसके तीनो कोनो मे बाहर की ओर अग्निमय स्वस्तिक है। भीतर तीनो कोनो मे अग्निमय 'ॐ' लिखे है । ऐसा भी चिन्तन करे कि यह मण्डल भीतर तो पाठ कर्मों को और बाहर शरीर को दग्ध करके भस्म बना रहा है। शनैः शनै वह गान्त हो रहा है, परिणाम स्वरूप वह अग्नि-शिखा जहा से उठी थी वहीं समा गई है। इस प्रकार का चिन्तन करना प्राग्ने यी धारणा है।
आग्नेया
र र र र र र र र र र र र र र र र र र
रा
र र र
homoon
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३. वायवी-धारणा- जब ध्याता दूसरे ध्येय की धारणा मे पूर्णतया सफल होजाए तो, वह यह चिन्तन करे कि मेरे चारो ओर वायु मडल घूम-घूम कर कर्मो की राख को उडा रहा है। ध्यानावस्था मे उस मडल के चारो ओर स्वाय-स्वाय अक्षर अकित हुए देखे।
स्वाय
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स्वाय ४. वारुणी-धारणा- ध्याता जब तीसरी धारणा के अभ्यास मे सफल हो जाए, तव वह चौथी धारणा में प्रवेश करके चितन करे कि मेरे ऊपर काले-काले मेव छा गए है खूब पानी बरसने लग गया है । जल-धाराएं आत्मा के साथ लगी हुई कर्म-रज को या आत्मा को मलिनता को दूर करके स्वच्छ एव निर्मल कर रही है । ऐसा भी चितन करे कि उस मेघ मण्डल मे चारो ओर प प प लिखे हुए है।
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५ तत्त्वरूपवती धारणा-जब मा चितन करते-करते अभ्यास दृढ़ हो जाता है तव पाचवी धारणा की भावना जगानी चाहिए । इस धारणा में अपने को सब कर्मो मे एव शरीर से रहित शुद्ध-शुद्र परमात्मा के रूप में चितन करना चाहिये।' २ पदस्य-धर्मध्यान
आगमशास्त्र के किसी एक पाठ का एकाग्रता से चिंतन करना, जैसे "लोगस्सुज्जोयगरे,,पाठ का ध्यान करना। इस पाठ में सात गाथाये हैं, और अट्ठाईस चरण हैं। उनमें से अतिम तीन चरणो को छोड़ कर पच्चीस चरणो का पच्चीस श्वासो मे चिंतन करना। पदो मे ध्यान को अवस्थित करना ही तो पदस्थ-ध्यान कह लाता है। अथवा एक-एक पद पर स्कते हुए प्रत्येक पद के अर्थ का चिन्तन करना पदस्थ धर्म-ध्यान है। अथवा अपने हृदय में, मस्तक मे या दोनो भौहों के मध्य मे या नाभि में ॐ को चमकते सूर्य के समान देखे, इसी मे अरिहन्त को या सिद्ध पद को देखे । अथवा-हृदय मे पाठ पाखुडियो वाले एक पुण्डरीक कमल का निर्माण करके उसकी पाठो पखुडियो पर क्रमश पीले रग वाले आठ पद अकित करे। 'नमो अरिहताण, नमो सिद्धाण, नमो पायरियाणं, नमो उवज्झायाण, नमो लोए सबसाहूण, सम्यग्दर्शनायनमः, सम्यग्ज्ञानाय नम , सम्यक्चरित्राय नम"। फिर प्रत्येक पद पर ध्यान देकर उसे बार-बार पढना पदस्थ धर्मव्यान है। ३ रूपस्थ-धर्म ध्यान
ध्याता अपने चित्त मे यह चितन करे कि मै समवसरण में साक्षात् तीर्थंकर भगवान को देख रहा हूं। अशोक वृक्ष के नीचे
१ इसकी विशेष व्याख्या के लिये पाठक-गण योग-शास्त्र तथा ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ देख सकते हैं ।
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सिंहासनस्थ भगवान को छत्र चामरादि आठ प्रतिहार्यो के सहित देख रहा हूं। बारह प्रकार की परिपद भगवान के धर्मोपदेश सुन रही है। चौतीस अतिशय और पैतीस वाणो के अतिशयो से युक्त भगवान के दर्शन करने के लिए चिंतन करना, अरिहत भगवान का साकार ध्यान करना रूपस्थ धर्म-ध्यान है। ४ रूपातीत धर्मध्यान
जव ध्याता अपने को सिद्ध भगवान की तरह निर्विकल्प समझकर ध्यान करता है, तब ध्येय मे परिणत ध्याता भी अपने मे रूपातीत सिद्ध भगवान की अनुभूति करने लग जाता है।
सस्थान-विचय धर्मध्यान के पिण्डस्थ आदि चार भेदो मे से कोई सा भी भेद मन की एकाग्रता, कषायो के शमन, सवर एव निर्जरा मे समर्थ है। कोई सा भी ध्यान अपने आप मे न न्यून है और न अधिक । इनका उत्तरोत्तर विकास चौथे गुण-स्थान से प्रारम्भ होता है और सातवे गुण-स्थान मे धर्मध्यान की पूर्णता हो जाती है। धर्म-ध्यान मे पूर्णतया अप्रमत्त सयत ही लीन हो सकता है।
धर्मध्यान के सदर्भ मे दो परम्पराए विद्यमान हैं । एक मान्यता श्वेताम्बरो की है, वह सातवे गुणस्थान से लेकर बाहरवे गुणस्थान तक धर्मध्यान का अस्तित्व मानती है । दूसरी दिगम्बरो की है वह धर्मध्यान का अस्तित्व सातवे गुणस्थान तक ही स्वीकार करती है, आगे के गुणस्थानो मे शुक्लध्यान ही पाया जाता है । वह भी केवल पूर्वधर श्रुतज्ञानी मे ही, अन्य मे नही। शुक्लध्यान और उसके भेद -
जो ध्यान अत्युज्ज्वल हो, जिसमे प्रविष्ट होकर साधक को योग एक चिन्तन
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परमानन्द एवं परमशान्ति के अतिरिक्त किसी भी अन्य पदार्थं की अनुभूति न होती हो जो यथाख्यात चारित्र के बल से वीतरागता की चोर वढता ही जाए, वह शुक्लध्यान है । शरीर का छेदनभेदन होने पर भी इस ध्यान में लीन साधक का मन लक्ष्य मे तिल भर भी विचलित नही होता । शुक्लव्यान के चार प्रकार है
१ पृथक्त्व-वितर्क - सविचारी ।
२ एकत्व - वितर्फ - अविचारी । ३ सूक्ष्म क्रिया अनिवर्त्ती ।
४ समुच्छिन्न क्रिया- श्रप्रतिपाती ।
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१ पृथक्त्व-वितर्क - सविचारी -
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जब एक द्रव्य के पृथक्-पृथक् अनेक पर्यायो का नयो की दृष्टि से चिन्तन किया जाता है तब पृथक्त्व पद-सार्थक होता है उसमे पूर्वगत श्रुतज्ञान का प्रालवन लिया जाता है, अत पृथक्त्वपद के साथ ही वितर्क पद का उपयोग किया गया है । वितर्क शब्द का विशेष अर्थ है श्रुतज्ञान । सविचारी का अर्थ है शब्द का चिन्तन करते करते अर्थ का चिन्तन करना, ग्रत शब्द से अर्थ मे और अर्थ से शव्द मे चिन्तन की धारा बदलते रहना, मन, वचन और काय मे से एक योग से दूसरे मे विचारो को सक्रमण करना ही सविचारी कहलाता है । इसमे ध्यान का विषय द्रव्य और उसके पर्याय ही रहते हैं ।
ध्यान दो प्रकार का होता है- सालंबन और निरालवन । इन्ही को दूसरे शब्दों मे सविकल्प ध्यान और निर्विकल्प - ध्यान भी कह सकते हैं । ध्यान मे ध्येय का परिवर्तन होता भी है और नही भी । जब कोई व्याता - पूर्वघर हो तब पूर्वगत श्रुतज्ञान के
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श्राधार पर और यदि पूर्वधर न होता प्राप्त श्रुतज्ञान के आधार पर एक पर्याय से दूसरी पर्याय मे तथा दूसरी पर्याय से तीसरी पर्याय में विचारो का सक्रमण करता रहे, यही इस ध्यान की उपयोगिता है । इस ध्यान का पूर्ण विकास ग्यारहवे गुणस्थान मे होता है ।
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एकत्व-वितर्क- अविचारी - इस ध्यान मे श्रुतज्ञान का प्रवलवन होने पर भी मुख्य रूप से प्रभेद चिन्तन की प्रधानता रहती है अर्थ, शब्द और योगो का पारस्परिक परिवर्तन एव सक्रमण नही होता । जिस प्रकार निर्वात स्थान मे दीपक की लौ डोल एव स्थिर रहती है उसी प्रकार इस ध्यान मे चित्त स्थिर रहता है । एक लक्ष्य को छोडकर दूसरे लक्ष्य पर नही जाता, चित्त एकाग्र हो जाता है । यह ध्यान क्षपक श्रेणी मे होता है और बारहवे गुणस्थान मे इसकी पूर्णता हो जाती है । उपर्युक्त दोनो मे से पहले भेद-प्रधान ध्यान का अभ्यास दृढ हो जाने के अनन्तर ही इस दूसरे प्रभेद - प्रधान ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है ।
सूक्ष्म क्रिया अनिवर्त्ती - शुक्लध्यान का तीसरा चरण तेरहवे गुणस्थान के अन्तिम छोर पर और चौदहवे गुणस्थान मे प्रवेश करने से पहले उपयुक्त होता है । मुक्त होने से पहले केवली भगवान मन और वचन इन दो योगो का निरोध पूर्णतया कर देते हैं, अर्ध काय-योग का निरोध भी कर लेते है । सिर्फ काय में उच्छवास और निश्वास श्रादि सूक्ष्य क्रियाएं ही रह जाती हैं । केवली वहा से पीछे नही हटते। योगनिरोध के क्रम मे काय-योग के सूक्ष्म रूप का आश्रय लेकर शेष सभी योगो को रोक लेते हैं ।
समुच्छिन्न- क्रिया-प्रप्रतिपाती - शैलेशी अवस्था को प्राप्त
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केवली भगवान सभी योगो का निरोध कर लेते हैं। योगो के निरोध से सभी क्रियाए रुक जाती हैं। तब उनका यह ध्यान सदैव ही बना ही रहता है। इस ध्यान के प्रभाव से वे यासयो का पूर्ण निरोध करके पूर्णसवर और अघाती कर्मो का सर्वथा क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर लेते है।
शुक्ल-ध्यान के पहले दो भेद छमस्थ में पाए जाते है और अतिम दो भेद केवल जानी मे ही पाए जाते है । इन मे किमी भी प्रकार के श्रुतज्ञान का पालम्बन नही होता, अत ये दोनो ध्यान निरालम्बन भी कहलाते है । शुक्लध्यान के चार लक्षण -
१. अव्यन - शुक्लध्यानी के मन मे या शरीर मे क्षोभ एव व्यथा का सवा प्रभाव होता है।
२ असम्मोह-शुक्लध्यान मे विपयो का सम्बन्ध होने पर भी वैराग्य वल से चित्त बाहरी विषयो की ओर नहीं जाता तथा उसमे सूक्ष्म पदार्थ विषयक मूढता का अभाव होता है।
३ विवेक-शुक्लध्यान मे शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान होता है।
४. व्युत्सर्ग-शुक्लध्यान की अवस्था मे देह और उपधि पर स्वभावत अनासक्ति हो जाती है। शुक्लध्यान के चार पालम्बन१ क्षमा-सहन-शीलता रखना, किसी के द्वारा परीषह उपसर्ग
दिए जाने पर भी क्रोध को पैदा ही न होने देना, उत्पन्न हुए क्रोध को नम्रता से, विवेक से निष्फल बना डालना।
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२. मार्दव-चित्त मे सुकोमलता और वाह्य व्यवहार मे नम्रवृत्ति । का होना मार्दव है। अभिमान की सभी वृत्तियों का
विनाश कर देना ही मार्दव है। ३. प्रार्जव-विचार, भाषण और व्यवहार की एकता ही प्रार्जव • अर्थात् निष्कपटता है। ४ निलो मता-धर्म के साधन एव देह श्रादि पर भी असक्ति न '
रखना निर्लोभता है। " शुक्लध्यान की चार अनु क्षाए१ अनन्तवत्तिता-भव-परम्परा की अनन्तता का चिन्तन करना
कि यह जीव अनादि काल से समार मे चक्कर लगा रहा है, चार गतियो मे निरन्तर विना विश्राम के परिभ्रमण करते-करते धर्म के अभिमुख नही हो पाता है। इस प्रकार का
विचार करना। २. विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तुयो के विविध परिणामों पर विचार
करना कि सभी भौतिक-सामग्री अशाश्वत है, क्या यहां के और क्या देवलोक के कोई भी
स्थान शाश्वत नहीं है। ३. अशुभानुप्रक्षा-ससार की अंशुभ पर्यायो का चिन्तन करना,
, जैसे कि एक अत्यन्त सुन्दर व्यक्ति मर कर
अपने ही कलेवर मे कृमि के रूप से उत्पन्न हो
जाता है, यह है ससार की अशुभता। ४. अपायानुप्रेक्षा-विषय-कपायों से या राग-द्वप से होने वाले
दुष्परिणामो से जीवो को जो कुछ फल भोगना पड़ता है, वह अपायानुप्रेक्षा है ।
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ध्यान का स्वरूप, लक्षण, आलबन और अनुप्रेक्षा ये सब कर्मो के स्थिति घात, रस-घात, कर्मों के प्रक्षय, सवर और निर्जरा, ये सब आत्मा के उत्थान, विकास एवं कल्याण के सफल साधन हैं । जो कार्य-सिद्धि स्थिर प्रकाश में हो सकती है, वह वादल की चचल दामिनी के प्रकाश मे नहीं हो सकती। कोई काम यदि ध्यान से किया जाए वह अवश्य सफल होता है फिर दुःख-निवृत्ति
और परमानन्द की प्राप्ति क्यों न होगी? योगो का संवरण ही ध्यान है और ध्यान है अन्तर्मुखी वृत्ति यो की एकतानता।
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२६. उदय मारणान्तिक
令中全會令公分令499令令令李令令令令令参令夕节 साधक को मारणान्तिक कष्ट आने पर भी समभाव रखना चाहिए । समभाव तभी मन मे , रह सकता है जब कि हम सुखों की तरह दु खो का भी स्वागत करते रहे । दुख और सुख दोनो हमारे अतिथि है । जो जिसका प्रतिथि है, वह उसी के घर मे ही तो जीएगा, वह अन्य किसी के घर में नही जा सकता । एक का स्वागत तो हम सहर्ष करते है और दूसरे का स्वागत विल्कुल ही नही करते । भला इस तरह करने से वह क्या हमारा पीछा छोड देगा ? ज्ञानी लोग सुख का स्वागत चाहे करे या न करे, किन्तु दु ख का सम्मान अवश्य करते है। दुख से परिचय अवश्य ही बढाना चाहिए, क्योकि पहले से ही सावधान व्यक्ति को अकस्माद् प्राने वाले, दुख भयभीत नही कर सकते । दुखो का स्वागत सहनशीलता से होता है । . . · सहिष्णुता अर्थान् सहनशीलता दो प्रकार की होती है, एक तो कष्ट और विपत्ति मे स्थिर रहना सिखाती है, दूसरी निषिद्ध वस्तुप्रो से दूर रहकर ज्ञान कराती है । सहिष्णुता भी धर्म का एक अंग है, जिसको सहिष्णुता,से प्रेम है वह उसे कभी छोड नही सकता, क्योकि प्रेम जीवन मे माधुर्य घोलता है और दुखो को हल्का भी करता है और साथ ही दु ख को सुख के रूप में बदल देता है । तप करना, किसी को वैयावृत्य मे.सलीन रहना, पैदल विहार योग : एक चिन्तन ]
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करना, सिर पर छाता न रखना, पैरो मे जूते न पहनना, निर्दोष भिक्षा लाना, मर्यादित वस्त्र रखना, अपना काम गृहस्थो से या दूसरो से न कराना, स्वावलम्बी बनना, केशलुचन करना, सर्दीगर्मी, भूख-प्यास को सहन करना । कायक्लेशतप करना, भीषण गर्मी मे भी पखा न करना, धूप की श्रातापना लेना, सर्दियो मे अधिक वस्त्रो का उपयोग न करना, ठंडी शिला पर लेटना, शरीर श्रीर उपकरणो की विभूपा न करना, मूढा, पलंग चारपाई आदि का प्रयोग न करना, विशेष कारण के विना उपाश्रय से वाहर न जाना, रोग एवं प्रतिक उत्पन्न होने पर सहनशक्ति से काम लेना, स्वाध्याय आदि के द्वारा शरीर को अपने वश में रखना, अज्ञानियो के द्वारा दिए गए परीपद् उपसर्गों को सहन करना इत्यादि कारणों से दुख सहते-सहते इतना प्रबल अभ्यास हो जाता है कि साधक मारणान्तिक कष्ट आने पर भी अपने परम लक्ष्य से विचलित नही होता । जो साधक सुखशील हैं, भौतिक सुखो के इच्छुक है, वे साधुता को भार ही समझते हैं ।
सच्चा साधक प्रिय धर्मी और दृढ धर्मी होता है । सुख के दिनो मे भी उन्हे धर्म प्रिय होता है और दुख के दिनो मे भी वे • अपनी वृत्ति मे दृढ रहते है । चय सोगमहल - सुकुमारता का परित्याग करने पर ही वास्तविक अर्थो मे साधुता का पालन होता है, श्रत मारणान्तिक वेदना भी यदि शरीर मे पैदा हो जाए तो भो सयम- मर्यादा का उल्लघन न करे, सहन-शक्ति से उस वेदना को सहन करे, यही मुमुक्षु जन का परम कर्तव्य है ।
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३० संग परित्याग
संग शब्द के यद्यपि अनेक अर्थ है, तथापि उनमें एक अर्थ मिलना और साथ रहना भी है ।
सग दो प्रकार का होता है-सुसग और कुसग । साधक को सबसे पहले कुसग से बचना चाहिए। जिन की संगति से जीवन पतन की ओर जाए, ऐसे लोगो का सग वर्जनीय है । जैसे सभ्य मानव कीचड से अपने ग्रगो को और वस्त्रो को सव तरह " से बचाने का प्रयत्न करता है, कही भी किसी तरह वस्त्रो पर धन्वा नहीं लगने देता और न ही रहने देता है, इसी प्रकार साधक भी जीवन की चादर पर कुसग का धव्वा नही लगने देता। जीवन मे बुराइयो का प्रवेश कुसग से होता है, श्रत उससे बचने के लिए साधक निरन्तर यत्नशील रहता है। यदि गुलाब के पौधे को तेजाव से सोचेंगे तो वह सूख ही जाएगा और यदि उसे अच्छे पानी से सोचा जायगा तो वह फूलेगा, फलेगा, अतः कुसंग तेजाब है श्रौर सुसंग पानी, जिनकी श्रद्धा प्ररूपणा ठीक है, उन की संगति मे रहना और मिथ्या दृष्टि एव ग्रसयतो से वचना, इन दोनो का एक साथ श्राश्रय ग्रहण करना ही कल्याण-प्रद है |
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सग का एक अर्थ और भी है, वह है सासारिक विषयो मे अनुराग या आसक्ति रखना । पाच इन्द्रियो के पाच विषय है-शब्द,
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रूप, रस, गध और स्पर्श । इन्द्रियो के विपय अपने आप मे न शुभ है न अशुभ । उन्हे शुभ और अशुभ के रूप में देखना और प्रयोग मे लाना जीवो की अपनी मनोवृत्ति पर निर्भर है। उदाहरण के रूप मे पाखो का विषय रूप है अत प्रांखो का रूप की ओर जाना स्वाभाविक है । विषयी जीव जब किसी सुन्दर रूप को देखता है तो वह पागल होकर उसके चारो ओर भटकने लगता है, उसी रूप को जव एक दृढ निश्चयी साधक देखता है तो वह उस रूप के पीछे छिपे मल, मूत्र रक्त-मांस, मेदा, अस्थि आदि अंशुचि पदार्थो को देखता हुअा 'भीतरी भगार भरी ऊपर ते कली है।" की भावना भाता हुआ उसी रूप को अशुभ समझ कर उससे विरक्त होकर पाखे बन्द करके प्रात्म-अवस्थित हो जाता है। जो इन्द्रियों के विषय मिथ्यात्व, अज्ञान एवं असंयम के पोषक हैं, या राग-द्वीप के सवर्वक हैं, संयम-मर्यादा के गोषक हैं, वे सब सासारिक विषय कहलाते हैं, उनका संग वर्जनीय है। विषय और विषयों के सभी साधन मोह-वर्धक होने से परिवर्जनीय है, अत: पहले उन के स्वरूप और दुष्परिणामो को सम्यग्ज्ञान से जाने, फिर उनके सग का परित्याग करे । विपयो से परिचय न वढाए, उनको पाने के लिए कभी इच्छा न करे। यही संग-परित्याग है। - -
जो तीर्थङ्करो की दिव्य ध्वनि है, श्रमण-निर्ग्रन्थो के अन्त - करण से निकले शब्द हैं, गुरु के मुखारविन्द से निकली आज्ञावाणी है, अथवा जिस शब्द को सुनकर मानसिक विकार शान्त हो जाए, ज्ञान, दर्शन और चारित्र, की वृद्धि हो, वह शब्द सांसारिक विपय नही है। आगम-शास्त्रो का अवलोकन, श्रमण-निर्ग्रन्थो के दर्शन, निविकारता पूर्ण देखना, देव-दर्शन, उपकरणो की विधिपूर्वक प्रति-लेखन करना, अहिंसा भाव से और शुभ ध्यान से १९८]
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देखना सांसारिक विषय नही है। स्वाभाविक रूप से सुगन्ध का अनुभव हो जाना तथा समवसरण का सुगंधमय वातावरण भी सासारिक विषय नहीं है । जीने के लिए खाना उचित है, खाने के लिए जीना उचित नही, अनासक्त भाव से खान पान करना, प्रासुक निर्दोप आहार-पानी ग्रहण करना सासारिक विषय नही है। विषयानन्द के लिए नही, जीवन-निर्वाह के लिए चौकी-पट्टा, भूमि, प्रासन, अकृत्रिम वायु आदि का उपयोग करना सासारिक सग नही कहा जा सकता।
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३१. प्रायश्चित्त करण
सस्कारो को तोडने का मुख्य उपाय है-प्रायश्चित्त-करण | प्रशुभ संस्कारो को तोडने के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है
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१. कृत प्रपराधी को स्वीकार करना ।
२
श्रपराध जन्य दोष से मुक्त होने के लिए मन मे सच्ची
भावना जागृत करना ।
अपने कृत्यों पर पश्चात्ताप करना ।
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गुरुप्रो के समझाने से आपने अपराध स्वीकार कर लिया, उसे दूर करने की भावना भी हुई, बस ध्रुव पश्चात्ताप की कमी है । पश्चात्ताप का अर्थ है - अपने द्वारा किए किसी दुष्कृत कार्य के प्रति अपने को धिक्कारना ? मैंने यह कार्य किया ही क्यो ? इस तरह अपने दुष्कृती ग्रात्मा की निन्दना करना, में वडा पापी हूं। इस तरह गर्हणा - ग्रात्मग्लानि करना, "ऐसे दुष्कृत्य पुन कभी नहीं करूंगा" यह प्रण करना 1.
आत्मग्लानि ऐसी स्वाभाविक होनी चाहिए जैसी कि माता को अपने पुत्र को पीटने पर ग्लानि उत्पन्न होती है ।
पश्चात्ताप कारण है और प्रायश्चित कार्य है । पश्चात्ताप किए बिना प्रायश्चित्त नही किया जा सकता । जो स्वयं श्रात्म
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प्रेरणा से किया जाता है वह पश्चात्ताप है और जो गुरु की साक्षी एव श्राज्ञा से किया जाए वह प्रायश्चित है । यद्यपि शुद्धीकरण की दृष्टि से आप अपने मकान, दुकान, उद्यान, श्मशान यादि में भी पश्चात्ताप एव प्रायश्चित्त कर सकते है, तथापि किसी ज्ञानी गंभीर प्राचार्य के सामने प्रायश्चित करने की अधिक महत्ता है । ऐसा करने से वह दोप शीघ्र ही दूर हो जाता है । कारण कि किसी के सामने श्रालोचना करने से दोप की निवृत्ति वलपूर्वक होती है, जैसे किसी ने किसी की निन्दा की और उसी से जाकर कहना "मैंने श्राज आपकी निन्दा की थी, मैने यह अपराध किया था यह कहना कठिन है । अपेक्षा इसके कि घर मे बैठकर विचार किया जाए, “ग्राज मैंने अमुक की निन्दा करके बहुत बुरा किया है ।"
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एकान्त मे बैठे-बैठे पश्चात्ताप करना निन्दना है । जिसका अपराध किया है, उसके सामने अपनी भूल मानना और क्षमा याचना करना गर्हणा है । जिस दोष या पाप का संबंध केवल श्रपने से है, दूसरे से नही, उसको किसी अनुभवशील ज्ञानी के सामने प्रकट करना आलोचना है । वैसा फिर न करना सच्चा प्रायश्चित्त है । जिस अपराधी के मन मे दोष या पाप के प्रति पश्चात्ताप नही होता, वह कभी प्रायश्चित्त करने के लिए तैयार नही होता ।
प्रायश्चित्त की तीन सीढिया है - श्रात्मग्लानि, दूसरी वार पाप न करने का निश्चय और श्रात्म शुद्धि । ससार मे सभी को वह व्यक्ति अधिक प्रिय लगता है जो करता है, कहता नही । जो कहता तो है, किन्तु करता नही, वह सबको अप्रिय लगता है । अत कहना और न करना इस रीति को छोड़कर करना और न कहना, इसी मार्ग को अपनाना चाहिए ।
पाप की पहचान ही मुक्ति-मार्ग का पहला पडाव है । जव योग एक चिन्तन ]
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तक पाप या दोष की पहचान नहीं होतो तब तक उसकी निवृत्ति के लिए कभी सोचा नहीं जा सकता । अत अपनी आलोचना और अपनी निन्दा में रुचि का होना इस बात का प्रमाण है कि मैंने अपने घर की देखभाल करनी गरू करदी है। निंदा दूसरे की नही, अपनी करनी चाहिए, अपनी भी नही दूषित आत्मा की करनी चाहिए। जो दूसरो के अवगुण बखानता है, वह वस्तुत अपना अवगण प्रकट करता है। वही यह सिद्ध करता है कि "मैं दोप-दर्गी निन्दक ह।" सर्वोत्तम व्यक्ति वही है जो प्रात्मभाव में रहता है। जो सबके गुण लेता है वह उत्तम है। जो गुणी के ही गुण लेता है वह मध्यम है। अधम वह है जो दोपो का दोष देखता है। जो निर्दोपी का भी दोष ही देखता है, वह अधमाधम है। अत. मानव के लिए भगवान ने यही कहा है कि दोप देखना हो तो अपना देखो, जिस से दोप दूर करने की वृत्ति पैदा हो और अहकार मिट कर नम्रता पाये। अहभाव मे कोई भी साधक प्रायश्चित्त करने के लिए अपने आप को उद्यत नही करता, क्योकि विनीत व्यक्ति ही व्यक्तिगत और सामाजिक अनुशासन का पालन कर सकता है। अविनीत साधक साधना के क्षेत्र मे कही भी सफल नहीं हो सकता। विनीत साधक की दृष्टि अपने दोषो पर और दूसरो के गुणो पर रहती है।
प्रायश्चित्त-वह शास्त्रीय कृत्य प्रायश्चित कहलाता है जिस के करने से पाप या अपराध करनेवाले की पाप वृत्ति भविष्य के लिये छूट जाती है। प्रायश्चित्त दोष या अपराध से न न्यून होना चाहिए और न अधिक । प्रायश्चित्त देनेवाले को मध्यस्थ एव पक्षपात-रहित . होना जरूरी है और द्वेषभाव से दिया हुआ अधिक प्रायश्चित्त भी अन्याय है। अनिच्छा से स्वीकार करना दंड है और इच्छा २०२]
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पूर्वक स्वीकार करना प्रायश्चित्त है। कारावास, जुर्माना और काय परिक्लेश अर्थात् सजा सरकार देती है और प्रायश्चित्त गुरु देते है । दण्ड से दण्डनीय का सुधार हो या न भी हो, किन्तु प्रायश्चित्त से अन्त करण की शुद्धि अवश्य होती है। प्रायश्चित्त के नौ भेद हैं, जैसे कि-आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय प्रायश्चित्त, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल और अनवस्थाप्य इनका विवरण इस प्रकार है।।
१ पालोचना-मूलगुण मे या उत्तरगुण मे लगे हुए दोप की निवृत्ति के लिये गुरु के समक्ष निष्कपट हृदय से पालोचना करना प्रायश्चित्त है। जिम दोष की निवृत्ति अालोचना करने मात्र से हो जाए उसे आलोचना कहते है। अपनी भूल या गलती को पश्चात्ताप पूर्वक कहना ही इसका प्रयोजन है। इससे प्रात्मशुद्धि होती है और पुन: दोष न करने की वृत्ति जागृत होती है।
२ प्रतिक्रमण-जिस दोष की निवृत्ति प्रतिक्रमण करने से हो जाए उसके अनन्तर आलोचना करने की आवश्यकता न पडे, उस प्रायश्चित्त को प्रतिक्रमण कहते हैं । 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड" कहते हुए दोषी जीवन से लौट कर अपने साधक जीवन मे आना प्रतिक्रमण है।
३ उभयप्रायश्चित्त--जिस दोष की निवृत्ति पालोचना और प्रतिक्रमण दोनो से हो वह उभय प्रायश्चित्त कहलाता है।
४. विवेक-शय्यातरपिण्ड, अप्रासुक, अनेषणीय, अकल्पनीय आहर-पानी सेवन करने का त्याग करना, अथवा 'भविष्य मे मुझ से ऐसी भूल नही होगी, या अब मैं भूलकर भी ऐसी भूल नही करु गा" इस प्रकार की प्रतिज्ञा का मूल विवेक है, प्रत. इसे विवेक-प्रायश्चित्त कहा जाता है। - ५. व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग करना, इन्द्रिय-चेष्टाओ को रोक योग : एक चिन्तन ]
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कर मन को किसी व्येय विशेष पर केन्द्रित करना, जप में या पाठ से उपयोग लगाना, जैसे 'इर्यावही' का या "लोगस्पुज्जीयगरे" पाठ का यथासंभव अधिकाधिक ध्यान करना व्युत्सर्ग-प्रायश्चित है ।
६. तप-तप दो उद्देश्यों से किया जाता है- एक आत्मशुद्धि के लिए और दूसरा दोष-निवृत्ति के लिए । जिस दोप की निवृत्ति तप करने से ही हो, अन्य किसी साधारण प्रायश्चित्त से न हो सके, वह तप प्रायश्चित है | नवकारसी, पौरुषी, दोपौरुपी, एकाशना, एकल्लट्ठाण, रस परित्याग, ग्रायविल, उपवास, बेला, तेला यदि तपो के द्वारा दोषो की निवृत्ति करना ही तप-प्रायश्चित्त है ।
७. छेद - साधक के जिस दोष की निवृत्ति साधारण तप से न हो सकती हो और प्रबल तप करने की शक्ति भी उसमे न हो, तब उसे छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है, अर्थात् उसकी दीक्षापर्याय का छेद कर दिया जाता है । इससे जो ज्येष्ठ है वह कनिष्ठ वन जाता है और कनिष्ठ ज्येष्ठ वन जाता है । श्रथवा छेद प्रायश्चित्त लेने वाले के साथ जीवनभर के लिए कनिष्ठ सन्तों द्वारा ज्येष्ठ होते हुए भी कनिष्ठ जैसा व्यवहार किया जाता है, इसे ही छेद प्रायश्चित्त कहा जाता है ।
८. मूल - यह वह प्रायश्चित्त है जिसके करने पर साबु को एक बार लिया हुआ सयम छोड़ कर पुन दीक्षा लेनी पड़ती है, किसी महाव्रत के सर्वथा भग होने पर इस प्रायश्चित्त का विधान है ।
अनवस्थाप्य – दोप - निवृत्ति के लिये विशिष्ट तप करने के बाद ही दुवारा दीक्षा ग्रहण करने को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त कहा जाता है ।
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यद्यपि दोषो की कोई गणना नही की जा सकती, वे अनगिनत हैं, तथापि उन सबको चार भागो मे विभक्त किया जा
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सकता है जैसे कि--अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । वस्तुत ये चार दोषो को परखने के मापदड है। अबोध अवस्था मे साधक के ज्ञान, दर्शन, चारित्र एव तप मे जो विपय-कपाय तथा राग-द्वीप के वशीभूत होकर प्रमाद आदि के कारण दोप लगा है वह अनुभव के आधार से परखा जाता है। प्रत्येक दोप के चार-चार स्तर होते है, यह किस स्तर का दोष है ? उसे परख कर जिस स्तर का दोष हो उसकी निवृत्ति उसी स्तर के प्रायश्चित्त से की जाती है। प्रायश्चित्त-विधान का विज्ञ मुनीश्वर ही जान सकता है कि यह दोष किस प्रायश्चित्त से निवृत्त हो सकता है ? जिस से साधक के मन मे सयम-विषयक उत्साह भी बना रहे और दोष भी निवृत्त हो जाए। वह दोष-स्तर या मापदड चार प्रकार का होता है जैसे-राजनीति के दण्डविधान मे न्यायाधीश भी -अपराध के स्तर को देखकर उसी के आधार पर अपराधी को दड देता है, सबसे पहले किसी व्यक्ति के मन मे मारने के सकल्प पैदा होते हैं, उसके बाद उसे मारने के लिए जिन उपायो से मारा जा सकता है उन उपायो या साधनो को जुटाने का प्रयास करना, तत्पश्चात् मारने के सकल्प से लेकर प्रहार करने तक सभी चेष्टायो को तीसरे स्तर मे मानते हैं, प्राण-हत्या हो जाने के अनन्तर प्राणदड, आजीवन कारावास, स्वदेशनिष्कासन इत्यादि कठोर दड दिये जाते हैं । प्राणदण्ड, आजीवन कारावास और देश-निकाला ये तीनो दण्ड दोष के स्तर पर ही आधारित होते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र मे भी साधक के दोप स्तर को देखकर उसे प्रायश्चित्त दिया जाता है । दोष-स्तर की परख निम्नलिखित चार रूपो मे की जाती है
१. अतिक्रम-जब किसी साधक के मन मे गुरुजनो की आज्ञा एव सघ-मर्यादा के विरुद्ध सकल्प पैदा होते है, वही से दोपो
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का अवतरण प्रारम्भ हो जाता है, यही दोष-प्रवृति का प्रथम नर है जिसे अतिक्रम कहा जाता है ।
२ व्यतिक्रम - किसी मूलगुण या उनर गुणो को टूपित करने के लिए कोई विधि या युक्ति सोचना और उन्हें दूषित करने के लिए सामग्री जुटाने की योजना बनाना व्यतिक्रम है । यही दोपी के दीपो का द्वितीय स्तर है ।
३ प्रतिचार - सोची हुई योजना के अनुसार अपराध करने के लिए कार्यक्रम मे जुट जाना श्रतिचार है । इसके मुख्यतया चार भेद है। पहला स्तर, दूसरा स्तर, तीसरा स्तर और चौथा स्तर | एक वह है जो व्यतिक्रम के निकट है श्रीर चौथा अनाचार के निकट है । इन भागो मे से किसी भी भाग मे पहुंचा हुआ दोप उत्तर-उत्तर व्रतो को क्षति ग्रस्त कर देता है, किन्तु बिल्कुल नष्ट नही करता । यही तीसरा स्तर है जिसके आधार पर प्रायश्चित्त का निर्धारण किया जाता है ।
४ अनाचार - जब प्रवल दोप से व्रतं या मर्यादा पूर्णतया ही भग हो जाए, विल्कुल ही मुर्दा हो जाए, तब उस दोप को अनाचार कहते हैं । अनाचार मे व्रत का कुछ भी अश शेष नही रह जाता, यह चौथा स्तर है दोप प्रवृत्ति का, जिसके लिये अधिकाधिक दण्ड अपेक्षित है ।
न्याय स्वपक्ष-विपक्ष से दूर रहकर ही किया जाता है । दूपितात्मा की शुद्धि हो जाए और सामाजिक वातावरण भी शान्त बना रहे वैसा न्याय करना चाहिए। निरपराधी को दडित न किया जाए और अपराधी को सुधार की दृष्टि से यथासम्भव दण्डित किया जाना ही चाहिये, श्रेष्ठजनो की रक्षा करना न्याय है । न्याय भी हिसा का ही दूसरा रूप है । न्याय से ही मानवता की रक्षा
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होती है। मानवता का स्तर नीचे न गिरने देना ही न्याय का मुख्य उद्देश्य है ।
हिंसा को लक्ष्य मे रखकर प्रायश्चित्त दिया जाता है और श्रात्मशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त लिया जाता है । यद्यपि प्रायश्चित्त के भी अनेक रूप हैं, तथापि जीवन-शुद्धि की दृष्टि से वे सब एक है । हितबुद्धि द्वारा की हुई दण्डव्यवस्था से यदि किसी को दुखानुभूति भी हो वह अशुभकर्मों का कारण नहीं हो सकती, क्योकि दण्डित करते समय गुरुजनो के भाव, दु.ख देने के नही होते । - साधु या साध्वी दूसरे साधक का केशलुचन भी करते है, पैर से काटा भी निकालते हैं, स्वस्थ करने की इच्छा से फोडे यादि को दबा कर पीप भी निकाल देते हैं, जिससे रोगी को पीडा भी होती है, किन्तु उसे हिंसा नही कहा जा सकता । विधि- मार्ग मे या निषेधमार्ग मे प्रवृत्त कराते हुए शिष्य का मन दुखित भी हो जाए तो भी गुरु का श्रहिंसा व्रत पित नही होता। वैसे ही प्रायश्चित्त देते हुए भी श्राचार्य पाप कर्म का वध नही करता, क्योकि अपने कर्त्तव्य का पालन करना भी न्यायोचित है ।
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प्रायश्चित्त देते समय गुरु जनो को भी यह ध्यान रखना चाहिये कि जिस स्तर का दोष हो उसकी निवृति उसी स्तर के प्रायश्चित्त से की जाए, अत दोपावस्था मे माधक के लिए प्रायश्चित्त अत्यावश्यक है । प्रमत्त अवस्था मे दोष यदा-कदा लग ही जाता है । प्रायश्चित्त के बिना दोषो की निवृत्ति नहीं हो सकती । प्रायश्चित्ती - करण भी सांधना का एक प्रमुखतम अङ्ग है ।
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kkkkkkk0RRIAsksktotr4%A4.. ३२. मारणान्तिक आराधना 令令令令令令令令空中令令今令令众中参令小事令中印
। अभी तक जिन इकत्तीस योगों का विवेचन किया गया है वे सब साधना-मय जीवन के लिये उपयोगी हैं, परन्तु जीवन के साथ मरण का भी तो अटूट सम्बन्ध है, उसे किसी भी तरह तोडा नही जा सकता। प्रत्येक साधक को एक न एक दिन मृत्यु मे अवश्य जूझना पड़ता है। अत अब मारणांतिक आराधना के रूप में अहिसा-व्रती साधक मृत्यु पर कैसे विजय प्राप्त करे ? इस विषय का विवेचन किया जाता है।
सयम एव तप की उत्कर्पता से कषायो एवं शरीर को कृश करना सलेखना है। यदि जीवन एक कला है तो,मरण भी एक कला ही है। जिसको जीने की कला नही पाती, उसे मरने की कला भी नही आ सकती। ___पहले के इकत्तीस साधन चारित्र का निर्माण करके जीने की कला सिखाते हैं, किन्तु जीवन की जितनी भी कलाए है, उन सव मे मरण-कला चूलिका के समान है या माला मे सुमेरु के समान है । इसी कला के सौन्दर्य का निर्माण करने के लिये उसमे आनन्द भरने के लिये उपयुक्त इकत्तीस जीवनकला के साधन वताए गए हैं । यह कला कपायो को मदता एवं क्षीणता से आती है, सिद्धि या प्रसिद्धि से नही। २०८]
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मारणान्तिक आराधना की भूमिका ही सलेखना है । काल की अपेक्षा से सलेन्वना तीन प्रकार की होती है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट | जघन्य छह मास का काल, मध्यम एक वर्ष का काल और उत्कृष्ट वारह वर्ष का काल सलेखना-काल है।
बारह वर्ष के सदेखना-काल का क्रम इस प्रकार हैसलेखना करनेवाला साधक सर्व प्रथम चार वर्षो मे रस-परित्याग तप अर्थात् आयबिल करे । मध्य के चार वर्षों मे उपवास वैला, तेला प्रादि विविध विध तप करता रहे, फिर दो साल तक एकान्तर तप करे । पारणे के दिन पायबिल करे। उसके बाद ग्यारहवे वर्ष के पूर्वार्द्ध मे छह महीने तक वेला, तेला, चौला आदि तप न करे, किन्तु उत्तरार्द्ध के छह महीनो मे तेला, चौला आदि उत्कृष्ट विविध तपो की आराधना करे। इस पूरे वर्ष मे पारणे के दिन आयबिल करे, वारहवे वर्ष मे निरन्तर प्रायविल करे। जब आयु एक महीने की या एक पक्ष की रह जाए तव पूर्णतया अनगन करे । (उत्तरा०प्र० ३६ । गा० २५१ से लेकर २५५ तक)।
आमरण अनशन का प्रागभ्यास या पूर्वाभ्यास ही सलेखना है। प्रागभ्यास की सफलता ही सथारे की सफलता है। इस प्रक्रिया को ही मारणातिक आराधना कहते हैं । कषाय भाव का अत करने के लिए, मोह-ममत्व के इधर-उधर फैलते हुए जाल का छेदन करने के लिए या उन्मूलन करने के लिए सयारा किया जाता है । इतना ही नही, जीवन के निर्वाहक और पोषक तत्त्वो को घटाते हुए सभी विकारो को मद या क्षोण करना ही सन्लेखना है। यह सलेखना-बत वर्तमान शरीर का अत होने तक लिया जाता है। इस व्रत की आराधना गृहस्थ और साधु दोनो कर सकते हैं।
शका हो सकती है कि अनगन के द्वारा शरीर का अन्त करना योग एक चिन्तन ]
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तो स्पष्ट रूप में प्रात्महत्या है ? फिर इसको ब्रत मानकर त्यागधर्म मे स्थान देना कहा तक उचित है ?
इस गका के समाधान में यह दृढता से कहा जा सकता है कि अनगन देखने में भले ही दुखकारी या प्राणनामा प्रतीत होता हो, किन्तु सलेखनानन मे प्राणनाग तो होता ही है, किन्तु वह हिंसा की कोटि में नहीं माना जा सकता, क्योंकि अनगन मे राग-द्वेष, मोह आदि विकार नहीं होते, जबकि प्रात्महत्या या परहत्या रागहेप, क्रोध, मान प्रादि विचारो के बिना नही हो सकती। इस व्रत से तो माधक शुद्ध ध्यान की उपलब्धि करता है क्योकि संलेखना तो त्याग-प्रधान धर्म है। धर्म के साथ जोना और धर्म के साथ मरना यही जैन सस्कृति का मुव्य ध्येय है । जव देह का अत निश्चित रूप से जान पड़े, तब मरणभय से सर्वथा मुक्त होकर दुर्ध्यान मे निवृत होकर, सयम और तप की विशिष्ट अाराधना के लिए इस व्रत को विवेय माना गया है। __ प्राचाराग-सूत्र में बताया गया है कि जव मुनि को यह अनुभव हो कि मैं इस गरीर को धारण करने में बिल्कुल असमर्थ हो रहा है, उसे देहात का ज्ञान हो जाए, तब वह क्रम से ग्राहार का सकोत्र करे, शरीर को एक कपायो को तपस्या से कृश करे। जिम मनि का चारित्र निरतिचार रूप में पल रहा हो, सलेखना कराने वाले प्राचार्य भी मुलम हो, दुर्भिस प्रादि का भय भी न हो, किन्तु उसे देहपात का ज्ञान नहीं, तब वह सयारे का अधिकारी नहीं माना जा सकता। यदि किसी विशिष्ट कारण से वह संथारा करना चाहता है तो मानना पडेगा कि चारित्र की कठिनता में या किसी अन्य कारण से उसका चित्त खिन्न हे और वह खिन्नता के
आवेग मे प्राणो को त्याग करना चाहता है। ऐसा प्राण-त्याग जैन सस्कृति को इप्ट नहीं है। २६०]
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जैन मस्कृति का यह उद्घोप है कि सिंह वृत्ति वाले निर्भीक मुनि मृत्यु काल का ज्ञान प्राप्त करते ही अपने विशुद्धत र चारित्र, अपने सम्यग् जान एव अपनी उपतर तपस्या के द्वारा निर्भीक होकर अपनी आखो से पौलिक गरीर और मृत्यु के खेल को युस्कराते हुए देखता है, वह मरने के लिये नहीं मरता, अपितु मृत्यु का खेल देखने के लिये अपने शरीर को मृत्यु के अर्पित करता है। उसे उस समय वही आनन्द प्राता है, जो किसी वस्त्र-प्रिय व्यक्ति को पुराने वस्त्र त्याग कर नए वस्त्र धारण करते समय आता है। अत सलेखना पूर्वक मथारा आत्महत्या नहीं किन्तु मुनि-जीवन को साधना का एक विशिष्टतम अग है । मरने के तीन रूप-~~
किसी विशिष्ट सासारिक कारण से विवश होकर स्वय अपने प्राणो का नाश करना आत्महत्या हे । अात्महत्या के अनेको ही भेद है जैसे कि जलकर मरना, डूबकर मरना, फासी लेकर मरना, विष खाकर मरना, विजलो के करण्ट से मरना, ट्रेन आदि से कटकर मरना, गोलो खाकर मरना इत्यादि सब अात्महत्या के भेद हैं । इस विधि से मरने वाले को जैन मस्कृति प्रापनीय नहीं समझती । उसका कहना है कि दूसरे को हिंसा जैसे पाप की जननो है, वसे ही अात्महत्या भा पाप है, क्योंकि प्रमन योग से प्राणो का अतिपात करना ही पाप है।
दूसरे के द्वारा मारे जाने की सभावना होने पर उनकी निवृत्ति के लिये सागारी सथारा भी किया जा सकता है।
यदि किसी को यह बात हो जाए कि मेरा मरण-काल निकटतम है तो मुझे अब मोह ममत्व से निवृत होकर सलेखना एव सथारे द्वारा मृत्यु का स्वागत करना चाहिए ताकि मारणायोग ! एक चिन्तन ]
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न्तिक आराधना हो पाए, तभी में पाराधक बन सकूगा इस उद्देश्य को लेकर शुद्ध भाव से सथारा किया जाता है।
मरण-काल को जानने के अनेक उपाय है। पाठको की जान कारी के लिए कुछ एक उपाय प्रदर्शित किए जाते है
१. किसी विशिष्ट ज्ञानी के कहने से मरण-काल का जान होता है।
२. किसी सुअवसर पर देव दर्शन करने के अनन्तर देववाणी से भी मृत्यु काल का ज्ञान हो जाता है ।
३ मृत्यु-सूचक किसी स्वप्न द्वारा भी मृत्यु का ज्ञान हो जाता है।
४ जन्म कुण्डली मे किसी विशिष्ट योग से भी आयु की पूर्णता का ज्ञान हो सकता है ।
५ किसी शकुन या अपशकुन से भी मरण-काल का ज्ञान हो सकता है। - ६ अपने ही परिपक्व अनुभव ज्ञान से भी अपनी मृत्यु का ज्ञान हो सकता है।
७ अपने दाहिने हाथ को नाक की सोध मे सिर पर रखकर कलाई को देखना चाहिये, य द कलाई पतली दोखे तो उत्तम है, यदि वीच से छिन्न होकर दीखे तो मरण-काल निकट समझना चाहिये।
८ पाखे बन्द करने पर जो प्रकाश दिखाई देता है, यदि वह न दिखाई दे, तो मरणकाल निकट समझना चाहिये।
नाक के अग्र भाग को प्रतिदिन देखना चाहिये । जब २१२]
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वह दिखाई देना वद हो जाय तो भी मृत्यु-समय निकट जानना चाहिये।
मृत्यु दो तरह की होती है, ज्ञान-पूर्वक मृत्यु और अज्ञानपूर्वक मृत्यु । सलेखना एव सथारे के साथ मृत्यु का होना ज्ञानपूर्वक है । राग-द्वेष के साथ पाप-कर्मो का आचरण करते हुए काल-धर्म को प्राप्त होना अज्ञान-मरण है । अज्ञान-मरण से दुखो की परम्परा लम्बी हो जाती है और ज्ञानपूर्वक मरण से ससारयात्रा बहुत ही कम रह जाती है । जब तक किसी साधक को अपने मरणकाल का कोई ज्ञान नहीं है तब तक उसे सथारा करने की प्राज्ञा नही है, मृत्यु-समय का ज्ञान होने पर अन्त समय मे मानव-जन्म प्राप्त होने का पूर्णतया लाभ उठाने की भावना को साकार बनाने के लिए सथारा करना प्रावश्यक है। सथारे में करणीय नियम
सथारे मे चार वातो का त्याग होता है - आहार, शरीर, उपधि और पाप। इन चारो का त्याग तीन करण और तीन योग से किया जाता है ।
__ सथारा करने के दो मार्ग हैं श्रावक-मार्ग और साधु-मार्ग । सथारा प्रागार सहित भी किया जाता है और आगार के बिना भी। जो आगार-सहित किया जाता है, वह देव-सबन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यञ्च सवन्धी किसी उपसर्ग के उपस्थित होने पर किया जाता है । सागारी सथारा करने मे विकल्प होते है। यदि इस उपसर्ग से मेरा मरण हो जाए तो जीवन भर के लिए, यदि बचाव हो जाए, उपसर्ग टल जाए तो मै पारणा कर लूगा। यदि आगार-रहित सथारा किया गया है तो जीवन भर के लिए ही योग , एक चिन्तन ]
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किया जाता है, उसकी पूर्णता मृत्यु होने पर ही होती है।
याहार त्याग-पाहार चार प्रकार का होता है असण, पाण लाइम, साइम । आर्य मनुप्य जब भी पाहार करते हैं, वे उपर्युक्त चार प्रकार का ही प्रहार करते है। सयारे मे इन सब का परित्याग जीवन भर के लिए किया जाता है ।
शरीर त्याग-शरीर हर प्राणी को प्रिय है। सभी घातक पदार्थो एव हिंसक जन्तुनो मे मानव अपने शरीर को सुरक्षित रखना चाहता है। इसकी रक्षा के लिए मब तरह के उपचार किए जाते है और धन को पानी की तरह बहा दिया जाता है । किन्तु सथारे मे उस गरीर को मुस्कराते हुए मृत्यु को अर्पित कर दिया जाता है, क्योकि साधक अपने शरीर से मोह-ममत्व को हटा लेता है।
उपधि-त्याग-जीवन-निर्वाह के लिए जिन पदार्थों की आवश्यकता मानव को रहती है उन सबको उपधि या उपकरण कहते हैं। जव साधक अपने गरीर पर भी मोह-ममत्व नहीं रहने देता, उसका परित्याग करने को प्रस्तुत हो जाता है, तव उपधि का परित्याग तो स्वत ही हो जाता है। जो अपने शरीर पर भी ममत्व वुद्धि नही रखता, वह वाहर की वस्तुओ पर ममत्व क्यो रखने लगा ? अत सथारे मे उपधि का भी त्याग स्वत हो जाता है।
‘पाप-त्याग-जो कर्म या क्रिया मन को या आत्मा को मलिन करे, अथवा जो जीव को दुर्गति का अतिथि वनाए, वह पाप है। पाप अठारह प्रकार का होता है। उन सबसे निवृत्त होना सथारे मे परमावश्यक है। जैसे कि
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१ प्राणातिपात-विरमण-मै जीवन भर के लिए किसी के प्राणो का अपहरण नही करू गा, भले ही वह जन्तु छोटा हो या वडा, अस हो या स्थावर, अपराधी हो या निरपराधी, शत्रु हो या मित्र, मानव हो या मानवेतर, आर्य हो या अनार्य, सब को अपनत्व दृष्टि से, दिव्य दृष्टि से या समान दृष्टि से देखूगा। उपसर्ग देने वाले को भी दिव्य दृष्टि एव शान्त दृष्टि से देखना किसी का भी मन मे बुरा चिन्तन न करना, प्राणातिपातविरमण व्रत है।
२ मषावाद-विरमण-सभी प्रकार के छोटे - बडे झूठ से विरक्त होना, न अपने लिए झूठ बोलना, न दूसरे के लिए झूठ बोलना और न उभय पक्ष मे झूठ बोलना, असत्य से अपने आप को हटाकर सत्य के अखड प्रकाश मे लाना मृषावाद विरमण है।
३. अदत्ता-दान-विरमण-चोरी के छोटे-बडे सभी भेदो से अपने को पूर्णतया मुक्त करना । भला जो अपने पास रही हुई उपधि का भी त्याग करता है, वह दूसरे की उपधि पर ललचायमान होकर उसे ग्रहण करने का प्रयास क्यो करेगा ?
४ भैथुन-विरमण- सब प्रकार के छोटे-बड़े मैथुन के भेदो से विरक्त होना । जव आहार और शरीर का सर्वथा त्याग कर दिया जाय तब मैथुन मे प्रवृत्ति हो ही नही सकती ?
५. परिग्रह-विरमण-सब प्रकार के जड़-चेतन पदार्थो, स्वजनो एव परिजनो के ऊपर मोह का त्याग करना । 'परिमाण में और मूल्य मे छोटा या बडा किसी भी प्रकार का परिग्रह न रखना या किसी पर मोह-ममत्व न रखना परिग्रह-विरमण कहलाता है। योग' एक चिन्तन
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भला जिसने उपधि रखने का ही त्याग कर दिया, वह परिग्रह के पचड़े मे क्यों पड़ने लगा ?
६ क्रोध - विवेक - हिंसा झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पाच कारणो से क्रोध उत्पन्न होता है । जिसके जीवन से ये पाचो पाप निकल गए है, उसे क्रोध उत्पन्न होने का कभी अवसर ही प्राप्त नही होता । जब ग्राहार, शरीर और उपधि का ही त्याग कर दिया, तब क्रोध की उत्पत्ति का तो अवसर ही समाप्त हो जाता है |
७. श्रभिमान- विवेक जिन जिन कारणो के होते हुए अभिमान की सत्ता बनी रहती है, उन उन कारणो के हट जाने से अभिमान भी सदा के लिए लुप्त हो जाता है ।
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८. माया - विवेक - हिंसा करते हुए कपट किया जाता है, झूठ बोलते हुए, चोरी करते हुए, दुराचार की ओर बढते हुए तथा परिग्रह के निमित्त से प्राणी कपट करता है । कारण का प्रभाव होने पर कार्य का भी प्रभाव हो जाता है । माया चाहे सासारिक हो या धार्मिक, माया के दोनो रूप वर्जित है ।
६. लोभ-विवेक - जिसने श्राहार, शरीर और उपधि का त्याग कर दिया है। उसके हृदय में लोभ पैदा ही नही हो सकता, क्योकि भौतिक पदार्थो के लाभ से लोभ बढता है । ममत्व के त्याग और समत्व की प्राप्ति से लोभ समाप्त हो जाता है ।
१० राग-विवेक - काम- राग, स्नेह-राग और दृष्टि- राग, ये तीन राग अगस्त है । केवल धर्मराग ही प्रशस्त है । धर्मराग को दूसरे शब्दो मे धर्म-श्रद्धा भी कह सकते है | सथारे मे एक धर्मराग ही रह जाता है, शेष सब राग लुप्त हो जाते हैं ।
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११. द्वेष-विवेक- राग प्रकृति के निवृत्त होने से जीव पर से द्वेप की छाया स्वत: ही हट जाती है। जब किसी पर राग होता है, तभी दूसरे पर होप होता है । जब राग ही नही रहा तो दूप का उद्भव कहा हो पाएगा?
१२ कलह-विवेक-जव क्रोध और द्वेष पर नियन्त्रण हो गया तो कलह-क्लेग तो स्वत ही समाप्त हो जाता है। इस प्रकार लडाई-झगड़े का त्याग भी सयारे मे स्वत ही हो जाता है।
१३ अभ्याख्यान-विवेक-जिमने झूठ का त्याग कर दिया, वह किसी पर झूठा आरोप क्यो लगाने लगा ? सथारे मे सव प्राणियो के प्रति समता होती है। असत्यारोप लगाया जाता है विषमता मे, जव हृदय से वैपम्य ही चला गया तो फिर आरोपप्रत्यारोप कैसे ?
१४. पैशुन्य-विवेक-पीठ पीछे निन्दा करना, चुगल खोरी, मुखवरी करना पैशुन्य है।
१५ परपरिवाद-सथारे के लिये प्रस्तुत शुद्ध हृदय मे किसी की चुगली या निन्दा का भाव उदित ही नहीं होता। सथारे मे साधक परम शान्ति का अनुभव करता है। जहा सब जीवो पर मैत्रीभाव हो जाए, वहा इन पापो का प्रवेश होता ही नही है।
रति-अरति-विवेक-असयप मे प्रवृत्ति, प्रीति तथा मन की दौड को रति कहते है और सयम मे प्रीति का न होना, उपेक्षा भाव का होना अरति है। रति और अरति का उदय कपाय भाव से होता है, जब कपाय ही नहीं, तब साधक हृदय से इस पाप का भी निराकरण स्वत हो जाता है।
१७. माया-मृपा-विवेक-दूसरे और आठवें पाप का मिश्रण योग एक चिन्तन ]
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ही माया - मृपा है । इसका अर्थ है कपट पूर्वक झूठ बोलना । जव भी कपट और झूठ दोनो का त्याग हो गया, तब इस पाप की निवृत्ति स्वय हो जाती है । सथारा करने वाले के हृदय में कपट के भाव आते ही नही है ।
१८ मिथ्या दर्शन - शल्य - विवेक - जिसकी श्रद्धा या विचार मिथ्या एव गलत हो वह सथारा करता ही नही, उसमे सथारे के प्रति प्रीति, रुचि होती ही नही, ग्रत वह मिथ्यात्व श्रनुरजित विचारो को मन मे नही थाने देता । सम्यग्दृष्टि मे तत्व से विपरीत श्रद्धा होती ही नही । सथारे में धर्म की साधना विशेष रूप से की जाती है । अत इस पाप की निवृत्ति भी स्वय हो
जाती है ।
आहार, शरीर, उपधि और अठारह तरह के पापो की निवृत्ति, ससार से विरक्ति और हृदय मे विवेक का होना ही सथारा कहलाता है । संथारा जीवन का परमोत्कर्ष है, सथारा विचार और ग्राचार का परिपक्व फल है । संथारा आराधक बनाने का प्रमोध साधन है । सधारा परमपद को पाने का सीधा मार्ग है, सथारा त्याग की चरम सीमा है । सथारा कर्मजाल से मुक्त होने का सफल उपाय है । सथारा सव तरह की इच्छाओ से निवृत्ति होने का राजमार्ग है। सथारा सब तरह के दुखो से छूटने का श्रेष्ठ साधन है । सथारा पूर्ण से पूर्ण वनने का, ग्रात्मा से परमात्मा बनने का उत्तम साधन है ।
साधु के तीन मनोरथ
साधु सर्वदा यही सोचता है कि कब वह सुअवसर प्राप्त हो, जब मैं जिन वाणी का थोड़ा या वहुत ग्रव्ययन करू । इससे
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श्रुतज्ञान की विशिष्टता और उपयोगिता सिद्ध होती है । साधु के मन में श्रुत-ग्रध्ययन की अभिरुचि सदैव बनी रहनी चाहिए, तभी वह साधना के क्षेत्र मे विजयी एव सफल हो सकता है । ऐसी भावना रखता हुआ यदि साधु मन मे, वाणी से और काय से करता है, तो वह महानिर्जरा एव कर्मो का महा पर्यवसान करता है ।
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दूसरा मनोरथ है धन्य होगा वह दिन जब मैं राग-द्व ेप से अलग होकर और आठ गुणो से युक्त होकर स्थविर कल्पी से जिन कल्पी और जिन क्त्पी से कल्पातीत वनकर एकल्ल विहार प्रतिमा को अगीकार कर विचरण करूगा ? ऐसी भावना रखता हुग्रा साधु कर्मो की महानिर्जग एवं महापर्यवसान करके अपने मनोरथ को सिद्ध करता है । स्थविर-कल्पी साधु को इस स्वर्णिम अवसर की प्रतीक्षा अवश्य करनी चाहिए । इस भावना को पूर्ण करने के लिए उसे सतत अभ्यास करते रहना चाहिये ।
साधु का तीसरा मनोरथ है-वह दिन मेरे लिये धन्य एवं कल्याणकारी होगा, जब मैं जीवन की अन्तिम घड़ी को विधिपूर्वक सव प्रकार से आहार का, शरीर का, उपधि का तथा पापो का परित्याग कर समाधिपूर्वक पादोपगमन सथारा करके आयु के अन्तिम क्षणों मे शरीर त्याग का दृश्य देखू गा । इस मनोरथ को पूर्ण करने के लिये मन, वाणी और काय से नित्यप्रति सथारा करने का अभ्यास करते हुए, मन से भावना भाए, वाणी से सथारे की प्रक्रिया का समर्थन करे और काय से कुछ क्षणो तक सथारे का अभ्यास करता रहे। इस से भी साधु कर्मो की महानिर्जरा नौर महापर्यवसान करता है ।
श्रमणोपासक के तीन मनोरथ' -
१. स्थानाङ्ग सूत्र का स्थान ३, उद्देशक ४ ॥
योग एक चिन्तन ]
[ २१९
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श्रावक सर्वदा यह चिन्तन करे कि कब वह स्वणिम अवसर प्राप्त होगा जव कि मैं न्यायोपाजित परिग्रह को थोडा बहुत श्रुतसेवा मे, प्रवचन-प्रभावना मे, सहधर्मी-वत्सलता मे, निर्धनो की सहायता मे खर्च करू , दान मे लगाता रहं। जिस द्रव्य पर से ममत्व-बुद्धि उठ जाती है, वही द्रव्य दान मे दिया जा सकता है। इस मनोरथ को पूर्ण करने के लिये मैं यथाशक्य नित्यप्रति सचित धन का अधिकाधिक शुभ कार्य मे दान करता रहगा। मन मे उदारता होगी, वाणी मे प्रीति, सम्मान होगा, काय मे दान देने की शक्ति एव व्यवहार होगा। ऐसी भावना भाने वाला श्रावक भी कर्मो की महानिर्जरा एवं महापर्यवसान करता है।
उसका दूसरा मनोरथ है—कव मैं गृहवास का परित्याग करके सत्ताईस गुणो से सम्पन्न होकर साधुवृत्ति को ग्रहण करूगा । साधक को साधना मे आगे वढने की भावना कभी भी नही छोडनी चाहिए। यदि किसी कारणवश आगे न बढ सके तो भावना में दीनवृत्ति भी नहीं आने देनी चाहिए। इस मनोरथ से भी श्रावक महानिर्जरा एवं कर्मों का महापर्यवसान करता है।
उसका तीसरा मनोरथ है-कब मैं पादपोपगमन सथारा करके समाधिपूर्वक अपनी आयु के अन्तिम क्षणो को सफल बनाता हुमा तथा काल की आकाक्षा न करता हुआ, धर्मसाधना मे विचरण करू गा। सथारा किए जाने पर भी मृत्यु की इच्छा न रखना यह जैन सस्कृति की महती विशेषता है। इस मनोरथ की सिद्धि के लिये धावक मन से, वचन से और काय से नित्यप्रति अभ्यास करे इस से वह कर्मो की महानिर्जरा एव महापर्यवसान करता है।
महापर्यवसान का अर्थ है भवपरम्परा की या अशुभ कर्मो २२० ।
[ योग एक चिन्तन
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की महाराशि का अन्त करना । जव तक कर्मों की निर्जरा अनन्त गुणा नही होती, तब तक उनका अन्त या महापर्यवसान भी नही होता। मरण-भेद
स्थानाङ्ग सूत्र के दूसरे स्थान के चतुर्थ उद्देशक मे बारह प्रकार के वालमरण का उल्लेख किया गया है जैसे कि १ वलयमरण २. वशात-मरण ३. निदान-मरण ४ तद्भव-मरण ५. गिरिपतन ६ तह-पतन ७ जल-प्रवेश-मरण ८ अग्नि-प्रवेश-मरण ६ विप-भक्षण, १०. शस्त्रावपाटन ११ वेहायस-मरण १२ गृद्धस्पृप्टमरण ।
भगवती सूत्र मे दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक मे निदान-मरण के स्थान मे अन्तःशल्य मरण का उल्लेख है, गेप ग्यारह भेद स्थानाग की तरह ही हैं।
समवायाङ्ग सूत्र के सत्रहवे समवाय मे सत्रह प्रकार के मरणो का उल्लेख किया गया है जैसे कि १ श्रावीचि-मरण, २ अवधिमरण, ३ आत्यन्तिक-मरण ४ वलय-मरण ५ वशात मरण, ६. अन्त शल्य-मरण, ७ तद्भव-मरण, ८ बाल-मरण, ६. पण्डितमरण, १० वाल-पण्डित-मरण, ११ छद्मस्थ-मरण १२ केवलीमरण, १३ वेहायस-मरण, १४. गृदृस्पृष्ट-मरण, १५ भक्तप्रत्याख्यान-मरण, १६ इगिनी-मरण, १७ पादपोपगमन-मरण ।
इन पदो का सक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है१ प्रत्येक क्षण मे आयुष्कर्म के दलिको का क्षय होना आवीचि__ मरण है । यह भेद सभी देहधारी जीवो मे पाया जाता है।
योग एक चिन्तन
[२२१
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२ प्रायु की मर्यादा पूर्ण होने पर एक शरीर छोड कर दूसरे
शरीर को धारण करने के लिये परलोक जाना, कियो के
मारने पर नहीं, अपनी मौत से मरना अवधि-मरण है। ३. जिस भन मे नरकभव या देवभव को प्राप्त किया है, वहा की
प्रायु पूर्ण कर, पुन उसो भव को पाना, जहां में मर कर वहा
गया है। इसको प्रात्यन्तिक-मरण कहते है । ४. महारत या अणुव्रत को भग कर या छोड़ कर मरना वलय
मरण है। ५ इन्द्रियो के दिपयो में ग्रामक होकर मरना वशान-मरण है,
जैसे दीपक की लौ पर पतगा जल कर मर जाता है। वीणा के मधुर स्वर को सुनकर सर्प, जिह्वा के वश होकर मछली
मरती है। ऐसी मृत्यु को वयात मरण कहते हैं । ६ व्रतो मे लगे हए दोपो की आलोचना निन्दना किए बिना
मरना अन्त गल्य-मरण है। ७ जिस भव की आयु पूर्ण को, उसी भव मे पुन उत्पन्न होना,
जैसे मनुष्य का मर कर मनुष्य-भव में उत्पन्न होना, तिर्यच का मर कर तिर्यच योनि में जन्म लेना तद्भवमरण है। ऐसा मरण मनुष्य या तिरंच का ही होता है, देव या नारकियो का
नहीं। ८ अविरत, अपच्चखाणी एव असयत जीवो का मरण वाल
मरण कहलाता है। ६ सर्वविरत संयमी एव सयत जोवो का मरण पण्डित-मरण
माना जाता है।
२२२]
[योग एक चिन्तन
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१०. श्रादर्श गृहस्थ एव श्रमणोपासक का जो मरण होता है वह
बाल-पण्डित-मरण कहलाता है। ११. छमस्थ की मृत्यु को छमस्थ-मरण कहते है । छद्मस्थ का
अर्थ है अल्पज्ञ। १२ केवली की मृत्यु को केवली-मरण कहा जाता है । जीव की
सर्वज अवस्था को केवली कहते है। १३ वृक्ष, पर्वत आदि से गिरकर या गले मे फासी लेकर मरना
वेहायस-मरण है। १४ गृद्व पक्षी आदि हिंस्र-जन्तु प्रों द्वारा अपने शरीर का भक्षण
करवा कर मरना गृद्व-स्पृष्ट-मरण कहलाता है ।
आमरण अनगन को जैन-भापा मे सधारा कहते है। सथारे के तीन भेद है, उनमे से किसी एक के द्वारा मृत्यु को प्राप्त होना ही आराधकता है। ऐसी मृत्यु कर्मों की अनन्त वर्गणायो को क्षय कर देती है। भव्य जीवो को इसकी प्राप्ति के लिए प्रात, साय यह भावना अवश्य करनी चाहिए। जैसे विरक्त आत्मा मे दीक्षा-ग्रहण करते समय हर्प और उत्साह बढा करता है. वैसे ही मृत्यु का समय निकट-जानकर सफल साधक के मन मे हप एव उत्साह ससीम से नि सीम हो जाते है। जो जीव मृत्यु से डरता रहता है उसको मृत्यु नही छोडती, चाहे वह किसी भी देवलोक मे जन्म क्यो न ले। जव साधक आगे बढकर मृत्यु का स्वागत करने के लिए निर्भीकता से उद्यत होता है, तव मृत्यु सदा-सदा के लिए उसका पीछा छोड़ देती है। अत साधक मृत्युभय को अपने हृदय मे अणुमात्र भी स्थान न दे। उसे सर्वदा यह भावना भानी चाहिए कि यदि सलेखना पूर्वक अनशनबन के द्वारा इस क्षण-भगुर योग एक चिन्तन
या उसको मृत्यु नहीं हो जाते है । जो जी मन मे हप एव
[ २२३
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शरीर का नाश होता है तो यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात
है |
सयम और तप की विशुद्ध प्राराधना करके जो मृत्यु होती है वही सकाममरण है । इससे विपरीत पापवृत्तियो के चक्र मे फस कर मरना ग्रकाममृत्यु है । वह जन्म-मरण की परपरा को वढाने वाली मृत्यु मानी गई है । यह मृत्यु जीवो को ससारसागर में डुबोती है सकाम मृत्यु जीव को उभारती है और साथ ही अभय बनाती है ।
सयम और तप का नवीनीकरण ही सथारा है । यद्यपि सखना के द्वारा मधारे का पहले से ही अभ्यास प्रारम्भ किया जाता है, तथापि पूर्णतया सथारा तो प्रतिम मास, पक्ष या सप्ताह के भीतर ही किया जाता है । उसमे ग्राचार-विचार आदि मे नवीन कारण किए विना श्राराधक वनना दुशक्य है । नवीनीकरण मे श्रद्धा, सवेग, निर्वेद, धृति प्रादि की साधना पहले की अपेक्षा अधिक होती है । इन गुणो की देखरेख मे ही जीवन समुन्नत होता है ।
सथारे के तीन भेद है उनका विश्लेषण निम्नलिखित है १५ भक्त - प्रत्याख्यान - यह सथारे का पहला भेद है, इसमे सथारा करने वाला स्वय भी अपनी शुश्रूपा कर सकता है और दूसरे से भी करवा सकता है । वह सयारा करने पर भी गमनागमन कर सकता है । उपाश्रय के भीतर कमरे से बाहर या अन्दर ऊपर-नोचे जा-प्रा सकता है । यह सथारा कारण से भी किया जाता है और विना कारण से भी । उपाश्रय के एक भाग मे जहा से मृत्यु के पश्चात् मृत शरीर का निर्हरण किया जाए, वसति से बाहर ले जाया जाए, वही
२२४ ]
[ योग. एक चिन्तन
-
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पर सयारा करना चाहिये । इस मे सारे के सभी नियमो का पालन सामान्यतया करना ही होता है ।
१६ इगिनीमरण - इस सथारे मे सामान्य नियम वे ही है जो भक्त - प्रत्याख्यान के है, किन्तु कुछ विशेष नियम भी है जो कि पहले मे नही है । इसमे मर्यादित या निश्चित की हुई भूमि से बाहर न जाने का प्रण करना होता है । इसमे सथा रेवाला अपनी शुश्रूषा स्वय कर सकता है, किन्तु दूसरे से अपनी सेवा नही करवा सकता । इसकी श्राराधना वसति मे भी की जा सकती है और वसति से बाहर भी। इसमे मर्यादा क्षेत्र के प्रदर हलन चलन किया जा सकता है । यह पहले की अपेक्षा अधिक कठिन है ।
-
१७ पादपोपगमन - कटी हुई वृक्ष की शाखा की तरह किसी एक ही स्थान मे पडे रहना । यह सथारा प्राय उपाश्रय से बाहर गिरि-कदरा यादि एकान्त स्थान मे किया जाता है । इस संचारे वाला अपने शरीर की शुश्रूषा सेवा, देखभाल न स्वय करता है और न दूसरो से करवाता है ।
3
सलेखना पूर्वक भ्रामरण अनशन का हेतु शरीर के प्रति निर्मोह एव निर्ममत्व होना है। जब तक देह का ममत्व रहता है तव तक मनुष्य मृत्यु से भयभीत रहता है । जब देह के ममत्व से मुक्त हो जाता है तब मृत्यु के भय से भी मुक्त हो जाता है । इसका मुख्य लक्ष्य श्रात्म-लीनता है ।
प्रनाचरणीय भाव
আর
उपर्युक्त सथारे के किसी भी भेद मे दोषो से सर्वथा अछूता रहना ही व्रत का महत्त्व है। किसी तरह का भी प्रमाद व्रत के योग एक चिन्तन ]
[ २२५
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महत्त्व को गिरा देता है । सथारे में भी कुछ ऐसे दोष है जो मान____सिक दुर्वलता से लग जाते हैं । प्रमाद दोषो के लिए मार्ग खोल देता
है । सथारे मे लगने वाले दोप निम्नलिखित हैं. १.- इहलोकाशंसा-प्रयोग-मनुष्य-लोक विषयक इच्छाए करना, जसे कि "मैं अगले भव मे राजा, मत्री, सेठ या प्राचार्य व " अंथवा मित्रो पर या पुत्रादि पर स्नेह बधन रखना दोष है। . २. परलोकाशंसा-प्रयोग-परलोक-विषयक इच्छा रखनाजैसे कि "मैं परलोक मे इन्द्र बनूं, या 'उच्च देव बनू' ऐसी चाहना रखना, दोप है। , . . । __ ३ जीविताशसाप्रयोग-पूजा-सत्कार आदि विभूतिया देख कर उनके लालच मे आकर अधिक जीने की इच्छा करना। ... ४ मरणाशसा-प्रयोग-सेवा-सत्कार न. देखकर, प्रशसा .
आदि न देखकर, भूख-प्यास, वेदना आदि से पीड़ित होकर,-किसी को पास,पाते न देखकर, उद्वन्ग के कारण शीघ्र मरने की चाह करना दोष है।
५.. काम-भोगाशसा-प्रयोग-दृष्ट या अदृष्ट काम-भोगो की कामना करना, अथवा सयम और तप-त्याग के बदले किसी भी तरह की भोग-सामग्री की चाह करना दोप है। यद्यपि सारे के समय वचन और काय से ऐसी कोई क्रिया नहीं की जाती, तथापि केवल मानसिक भावो को लक्ष्यों मे रखकर सथारे मे दोप लग जाने की सभावना रहती है, अंत सब प्रकार के दोपो से सावधान रहना ही साधक का कर्तव्य है। संखेलना-विधि ।
। विधि से किया हुआ कोई भी कार्य अवश्य सफल हो जाता २२६ ]
[योग एक चिन्तन
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है ? सलेखनाव्रती साधक को सलेखना की विधि का जान होना ही चाहिए । विधि का ज्ञान श्रुतज्ञान से होता है । श्रुतज्ञान देहलीदीपक न्याय को चरितार्थ करता है। श्रुतज्ञान स्व-प्रकाशक भी होता है और पर- प्रकाशक भी । वहे अन्दर भी प्रकाश करता है श्रौर बाहर भी । प्रत्येक कार्य के निष्पादन करने की विधि- अलगअलग है । घट बनाने की विधि अलग है और पट - बनाने की विधि भिन्न है |
श्राध्यात्मिक क्षेत्र में भी साधना के अनेक भेद है । 'जिस साधना से सलग्न रहना हो, उस की आराधना भी विधि से ही की जानी चाहिये । इन्द्रियो और मन को नियन्त्रित करने की श्रीर
{
3
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}
कपायो के निग्रह करने की अनेक विधिया है । जैसे दीक्षा-विधि से दी जाती है और विधि से ही ली जाती है, उसी प्रकार विधि-पूर्वक ग्रहण किया हुआ स्यारा ही जीवन को समुन्नत करने का एक मात्र अमोघ उपाय है । संथारा प्रोषधशाला मे, उपाश्रय मे या किसी एकान्त स्थान मे करना चाहिए ।
717
'
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- जब पूर्णतया सथारा- करना हो तब सब से पहले, आमरण अनशन करने के लिए उचित स्थान जो कि सब तरह से निर्दोष हो उसका निरीक्षण करना जरूरी है । मलमूत्र परठने के लिए भी उचित एव निर्दोष स्थान होना जरूरी है। भूमि पर प्रसन बिछा कर पूर्वाभिमुख या उत्तर दिशाभिमुखं चौकडी लगाकर बैठे—'इच्छा' कारण सदिसह भगव, इरियावहिय" का पाठ पढ़े, तस्सुत्तरीकरणेण का पाठ पढे, 'फिर लोगस्सुज्जोय गरे पाठ का ध्यान करे, फिर साधु, साध्वी, श्रावक और श्रीविका चारों तीर्थ से खित खिमावना करें, जैसे कि
3
1
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योग एक चिन्तन' ]
၁၁။
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प्रायरिय-उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुल गणे य। जे मे केइ कसाया सव्वे तिविहेण खामसि ।। सव्वस्स समणसंघस्स, भगवनो अलि करिय सीसे । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स प्रहयपि ।।
उस के बाद सब जीवो से सिमत खिमावना करते हुए कहे-- मैं सब जीवों को हृदय से क्षमा करता है और वे सब जीव मुझे क्षमा करे, मैं सब जीवो के साथ पूर्ण मैत्री स्थापित करता है, क्योंकि मेरे मन में अब किसी के प्रति वर-विरोध नही रहा।
उसके बाद जो पहले साधु के महाव्रतो में या श्रावक के व्रतो में किसी तरह का कोई दोष लगा हो तो उसकी आलोचना, निन्दना, गर्हणा करके सब तरह से मन के माया-शल्य, निदानशल्य और मिथ्या-दर्शन-गल्य रूप तीनो शल्यो का उद्धरण करके सभी अकरणीय एव अनाचरणीय दुष्कृत्यो को जीवन भर के लिए न मन से करना, न मन से कराना और न मन से समर्थन करना, न वाणी से दुष्कृत्य करना, न वाणी से पाप कराना और न वाणी से पाप कर्म का समर्थन करना, न स्वय काय से पाप-कर्म करना, न काय द्वारा पाप कर्म कराना और न पाप-कर्म 'का काय द्वारा समर्थन करना, इस प्रकार सधारे मे नौ कोटि से प्रत्याख्यान किया जाता है।
यह शरीर मेरे लिए निधान की तरह एव बहुमूल्य रत्नो से । भरे हुए डिब्बे की तरह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, इन्द्रिय और मन के अनुकूल रहा है, यह मेरे लिये सम्मत, अनुमत एव विश्वस्त रहा है । मैं इस शरीर को सर्दी-गर्मी से बचाता रहा, भूख-प्यास से इसकी रक्षा करता रहा, इसे चोर-डाकुमो के प्रहार से २२८ ]
[ योग , एक चिन्तन
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सुरक्षित रखता रहा, हिंस्र जन्तुग्रो से, डास-मच्छर, कीडी-खरमल आदि क्षुद्र प्राणियो से इसे हानि नही पहुचने दी, उत्पन्न होने वाली विविध व्याधियो, प्रातको, परीपह उपसर्गों से बचाने का उपाय करता ही रहा, किन्तु अब मैं अन्तिम श्वास तक इस शरीर के मोह-ममत्व से अलग होता हूं, शारीरिक मोह का पूर्णतया त्याग करता हूं । अब यह पुराना झोपडा धराशायी होनेवाला है। "मेरा मरण शीघ्र हो।" इस तरह काल होने की आकाक्षा न करता हुआ, अनित्य आदि बारह प्रकार की भावनाप्रो मे विचरण करते हुए सयारे को सफल करूं।
सलेखना-पूर्वक आमरण अनशन पर मुझे दृढ श्रट्ठा है, श्रा के अनुरूप प्ररूपणा है, दोनो के अनुरूप सयम की आराधना तथा सथारे की पाराधना करना ही मेरे जीवन का परम लक्ष्य है। जब मेरा सथारा निरतिचार सीझेगा, तभी मैं अपने को कृतार्थ समझूगा । अब जड-चेतन प्रादि पदार्थों से मेरा कोई सवद नही, हसी-मजाक, विकथा-प्रमाद आदि विकारी वातावरण से दूर रहकर जिनवाणी, तत्त्वज्ञान एव बोध कथाप्रो से अपने को भावित करूं, गुरुदेव मुझे धर्म-शिक्षा, उपदेश देते हुए मेरे भावो को मगलमय एव कल्याणमय बनाकर आराधकता के स्तर पर पहुचाकर नमस्कार-मत्र का स्मरण कराते हुए मेरा सयारा सीझने का आशीर्वाद प्रदान करें। मारणान्तक सलेखना करने का पाठ .__ अपच्छिम-मारणतिय-सलेखना-झूसणा-आराहणा । पोषधशाला पु जी-पु जी ने उच्चार-पासवण भूमिका पडिलेही पडिलेहीने, गमणागमणे पडिक्कमी-पडिक्कमीने, दर्भादिक सथारो' सथरीसथरीने, दर्भादिक सथारो दुरूही-दुरूहीने, पूर्व तथा उत्तर दिशि योग एक चिन्तन ]
(२२९
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पल्यक प्रादि प्रामने वेमी वेसी ने, करयल मपरिग्गहियं सिरसावत्त मत्थए अजलि त्ति कटु एवं वयामी
नमोत्थु णं अरिहंताण भगवताण, प्राइगराण तित्थगराणं सयसबुद्वाण ।
पुरिमुत्तमाण पुरिसमीहाण पुरिमवरपुंडरीयाणं पुरिमवरगध-हत्यीण।
लोगुत्तमाण लोगनाहाण लोगहियाणं लोगप्पईवाणं लोग पज्जोयगराण। ___ अभयदयाण चखुदयाण मग्गदयाणं सरणदयाण जीवदयाण बोदियाण।
धम्मदयाणं धम्मदेसयाण धम्मनायगाण धम्मसारहीण धम्मवरचाउरत चक्कवट्टीण। । दीव-ताण-सरण-गइ-पइठाण, अपडिहय वरनाणदंसणधराणं वियदृछउम्याण।
जिणाणं जावयाण, तिण्णाण तारयाण, बुद्धाण बोहयाण मुत्ताण मोयगाणं।
__सबण्णूण सव्वदरिसीण सिव-मयल-मरुय-मणत-मक्खय , मवावाहमपुणरावित्ति सिद्धिगड नामधेय ठाण सपत्ताण नमो जिणाण जियभयाण । ___ एम अनन्ता सिद्ध जी ने नमस्कार करोने, जयवंता वर्तमान तीर्थकरो ने नमस्कार करीने ।
निम्नलिखित पाठ दो बार पढकर धर्माचार्य को नमस्कार 2 करे। २३०]
[ योग'. एक चिन्तन
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इच्छामि खमासमणो वदिउ जावणिज्जाए निसीहियाए अणुजाणहं मे मि उगह निसीही "अहो काय काय" सफास खमणिज्जो भे किलामो अप्पाकलताण बहुमुभेण मे दिवसो वइक्कतो? जत्ता भे? जवणिज्ज च भे?' खामेमि खमासमणो ! देवसिय वइक्कम । आवस्सियाए पडिक्कमामि खमासमणाण देवसियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए जकिचि मिच्छाए मणदुक्कडाए, वयंद्रुक्कडाए कायदुक्कडाए।
__ कोहाए माणाए मायाए लोहाए । सव्वकालियाए सम्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइयारो को तस्स खमासमणो । पडिक्कमामि निदामि गरिहामि अप्पाणं वोंसिरामि । इस प्रकार अपने धर्माचार्य को नमस्कार करके'' साधु प्रमुख चारे तीर्थ खमाविने, सब्वजीवराशि खमाविने, पूर्वे जे व्रत आदरया छे तेना जे अतिचार दोष लाग्या होय ते सर्व ने पालोई पडिक्कमी निंदी 'नि-शल्य थई ने सर्व पाणाइवाय पच्चक्खामि, सव्व मुसावाय पच्चक्खामि, सन्द 'अदिनादाण पच्चक्खामि, सव्व मेहुण पच्चक्खामि, सव्व परिग्गह पच्चक्खामि । सव्व कोह माण जाव मिच्छादमणसल्ल अकरणिज्ज जोग पच्च
खामि, जावज्जीवाए तिविह. तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि करतपि नाणुजाणामि, मणसा वयसा कायसा एम अठारे पाप स्थानक पच्चक्खीने, सव्व असण पाणं खाइम साइम चउविहपि आहार पच्चक्खामि जावज्जीवाए। इस प्रकार चारो आहारो का प्रत्याख्यान करके। . ज.पिय इम सरीर इट्ठ- कत पिय मणुण्ण मणाम धिज्ज बेसासियं समय अणुमय, भडकरडसमाणं, रमण करडगभूय मा णसिय, माण उपह मा ण खुहा, मा ण पिवासा, माण वाला, मा ण योग, एक चिन्तन ]
[३३१
करके।
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चोरा, मा ण दमगा, माण मसगा, मा ण वाहिय, पित्तिय, कफिय सन्निवाइय विविहा रोगायका परीसहा उवसग्गा फासा फुसति, एवपियण चरमेहि ऊसास-नोमासेहि वोसिरामित्ति कट्टु इस प्रकार शरीर का व्युत्सर्ग करके काल श्रनवकखमाणे विहरामि । इस प्रकार की सहहणा परूवणा, करिए तिवारे फर्सनाए करी शुद्ध, एहवा ग्रपच्छिम मारणतिय-संलेहणा-झूसणा- श्राराहणा ना पच श्रइयारा जाणियच्वा न समायरियव्वा, त जहा ते आलोऊ
इह लोगामसप्पोगे, पर लोगाससघग्रोगे, जीवियाससप्पग्रोगे मरणाससप्पोगे कामभोगाससप्पोगे ।
+
समाधि मरण ही सथारा है, अत मरण को कला बनाने के लिये श्रमण संस्कृति मे जीवन के प्रारम्भ से ही अभ्यास करने का सकेत किया गया है क्योंकि मृत्यु कभी भी आ सकती है । मृत्यु से डरने की आवश्यकता नहीं, मृत्यु से भयभीत होना श्रज्ञान का फल है । अज्ञानियो का जन्म-मरण दोनो ही नगण्य हैं । ज्ञानियों का जीवन कलापूर्ण होता है । जीवन का कालमान बड़ा होता है जब कि मरण का समय स्वल्य ही होता है । जीवन भर में धर्म
7
1
कला का विकास जितना करने पाता है उसके अनुसार ही मरणकला का विकास होने पाता है । मरण कला ही प्रमाणित करती है कि इस साधक ने जीवन भर मे धर्म-कला सीखने मे कितना परिश्रम किया है ? इस बात से भी इन्कार नही किया जा सकता कि भगवान महावीर ने जो सन्थारे के विधि-विधान का निर्देश किया है, वह अन्यत्र कही देखने को नही मिलता ।
रत्नत्रय के प्रारावक तीन प्रकार के होते हैं - उत्कृष्ट आराधक, मध्यम आराधक और जघन्य आराधक । इनमें पहली कोटि का आराधक उसी भव मे परमपद को प्राप्तकर लेता है । दूसरी कोटि [ योग एक चिन्तन
२३२ }
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का तीसरे भव को प्रतिक्रम नहीं करता और तीसरे स्तर का श्राराधक सात या आठ भव को अतिक्रम नही करता ।
रत्नत्रय का प्राराधक सदा के लिए नरक गति से नियंचगति से, दुर्गतिरूप मनुष्यगति से, भवनपति वानव्यतर- ज्योतिष्क, श्राभियोगिक, किल्विषी, परमाधामी, तिर्यग्ज भक, स्त्री, नपुसक और दैवी, इन सब से सवव विच्छेद कर देता है । वह तो केवल उच्चवैमानिक देव बनता है या मुकुल, सुजाति में सब तरह के वैभव से सपन्न महामानव बनता है। जब तक वह सिद्धत्व को प्राप्त नही कर लेता, तब तक इन दो सुगतियो मे ही जन्म-मरण करता रहता है । वह सात भव देव के और प्राठ भव मनुष्य के, इस प्रकार पन्द्रहवें भव मे निश्चय ही सिद्धत्व को प्राप्त कर लेता है । शुद्ध सधारा करने से कर्मो की महानिर्जरा और महापर्यवसान होता है, दुखो की परम्परा समाप्त हो जाती है । यही है आराधक वनने की कल्याण परंपरा |
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योग एक चिन्तन 1
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मानव-धम
सत्यं दया तप. शौच, अहिसा ब्रह्मचर्यञ्च, सतोप समदृक् सेवा, विपर्य्ययेहेक्षा,
नृणा
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अन्नाद्यादे सविभागो, भूतेभ्यश्च यथार्हत | तेष्वात्म- देवता - बुद्धि, सुतरां नृषु पाण्डव । ॥१०॥ कीर्तनञ्चास्य, स्मरण महता गते ।
श्रवण
सेवेज्या वनतिर्दास्यं सख्यमात्म समर्पणम् ॥ ११ ॥
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तितिक्षेच्छा शमो दम. ।
त्याग स्वाध्याय एव च ॥११॥ ग्राम्येहोपरम. शनै । मौनमात्म - विमर्शनम् ||९||
नृणामयं परो धर्मो, त्रिशल्लक्षणवान् राजन् ।
समुदाहृत ।
जनाना सर्वात्मा येन तुष्यति ||१२||
श्रीमदभागवत स्क० ७ श्र० ११ ।
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मानव-धम
यद्यपि जैनागमो मे मानवता के लक्षणो की विस्तृत व्याख्या की गई है, फिर भी हम यहा श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में दिए गए मानवता के लक्षणो का परिचय दे रहे है, केवल इस उद्देश्य से कि हम यह जान सके कि अन्य सम्प्रदायो ने भी मानवता के उन्ही लक्षणो का निर्देश किया है जो जैन शास्त्रो मे वर्णिन है।
यह निश्चित है कि . मानव सव प्राणियों में श्रेष्ठ है, क्योकि जो विशेषताएं मानव मे पाई जाती है उनकी प्राप्ति अन्य प्राणियो मे सर्वथा असम्भव है। जीव परमपद की प्राप्ति जब भी करेगा, तव मानवता को ग्रहण करके ही कर सकता है। यही कारण है कि मानवता को दुर्लभ कहा गया है।
मानवता का अर्थ है मानव-धर्म । जो व्यवहार सब के लिये हितकर एव परम प्रिय हो वह धर्म है। उचित-अनुचित का विचार करके प्राणि-मात्र का हित सम्पादन करनेवाली चित्तवृत्ति ही धर्म है, अथवा वस्तु का जो भी गुण या स्वभाव है, वह धर्म कहलाता है। स्वकर्त्तव्य भी धर्म की परिधि मे आ जाता है। धर्म-विशिष्ट मानव ही मानव है, अत. मानव वडा नही है, अपितु मानव मे रही हुई धर्म-भावना अर्थात् मानवता ही बड़ी है। योग . एक चिन्तन ]
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यद्यपि मानवता की सीमा नही बाधी जा मकती, तथापि यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि देखने में दो हाथो वाले सभी प्राणी मानव ही हैं, किन्तु केवल मानव- योनि में जन्म लेने मात्र से मानव मानव नही बन जाता, मानव वह है जो उत्तरोत्तर अपनी मानवता का विकास करता है । मानव-धर्म क्या है ? इस सन्दर्भ मे विचारक ऋषिपयों ने मानव धर्म के ऐसे तीस लक्षण बताए है, जो मानवता के विकास की परख हैं, जिनसे वास्तविक मानवता का परिचय प्राप्त होता है, जो मानवता के विकास की कसौटी हैं. जैसे कि
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१. सत्य
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जिसका अस्तित्व पहले भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा वही सर्वदा एक रूप रहने वाला तत्त्व सत्य है । सत्य भी आत्मा की तरह अमर तत्त्व है। वह आत्मा के भीतर भी है श्रीर बाहर भी । प्रत्येक वस्तु के दो रूप होते है - वहिरंग और अतरग । इन्ही को दूसरे शब्दो मे द्रव्य सत्य और भाव- सत्य भी कह सकते हैं । द्रव्य सत्य का प्रकाश घुन्धला होता है और भाव सत्य का प्रकाश प्रत्युज्ज्वल होकर सर्वत्र फैलता है । सम्यग्दृष्टि जीव सत्य' की आराधना दोनों तरह से करता है । उसके मन में भी सत्य का वास होता है, मस्तिष्क मे, वाणी मे' तथा कार्य में भी सत्य निवास करता है । जब ग्रात्मा सत्यमय हो जाता है तव वह परमात्मा' बन जाता है । जीवन के भीतर सत्य का जितना प्रकाश होगा, जीवन उतना ही मान्य एंव प्रामाणिक होगा, अंतः सत्य मानवता का प्रथम लक्षण है ।
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[ योग'. एक चिन्तन
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२. दया दया का अर्थ है निष्काम भाव से प्राणियों की रक्षा करना। रक्षा दूसरे को भी की जाती है और अपनी भी । दयों के भी दो रूप होते हैं, द्रव्य-दयों और भाव-दया। अपने और दूसरो के प्राणों की रक्षा करना द्रव्य-दया है और अपने आपको और अन्य व्यक्ति को पाप-कर्मों से, राग-द्वेष से बचाना भाव-दया है। द्रव्यदया पुण्यबंध का तथा' भाव दया सर्वर और निर्जरों का कारण है। मानवता मे दोनो तरह की दया समाविष्ट है।
३. तप तप का अर्थ है अपने आपको साधना की प्रोग मे तपाना । खाने मे, पीने मे, पहनने मे, बोलने मे, भोगादि मे संतोष रखनाकपायो का शमन और इन्द्रियो का दमन सतोप-वृत्ति से ही होता है । शमन और दमन से मन का निग्रह स्वत: ही हो जाता है। तप भी दो तरह का होता है बहिरंग और अतरग। जिसका प्रभाव शरीर पर या लोगों पर पड़े, वह बहिरग तप है और जिस का प्रभाव आत्मा या मन पर पडे, वह अतरग तप कहलाता है “सम्यग्दृष्टि-सच्चे मानव के लिए दोनो प्रकार का तप उपयोगी होता है।
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४. शौच शुचि और शौच ये दोनो शब्द पवित्र एवं स्वच्छ अर्थ मे प्रयुक्त होते हैं । शौच भो दो प्रकार का होता है द्रव्यं शौच और योग . एक चिन्तन ]
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भाव-शौच । अपवित्र को पवित्र करना ही शौच की उपयोगिता है। जब अपवित्र द्रव्य को पवित्र करने के लिए अनेक शोधक पदार्थों का उपयोग किया जाता है, उसे द्रव्य-शौच कहा जाता है मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु, धूप, साबुन, तेजाब आदि से जो सफाई की जाती है वह द्रव्य-शौच है इनसे भावो की शुद्धि नही हो सकती। जो भावो को पवित्र करनेवाले तत्त्व हैं, उनसे ही
आन्तरिक शुद्धि होती है । मत्र, ब्रह्मचर्य तप,- पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त, क्षमा आदि तत्त्वों से अन्त करण की शुद्धि होती है। वहिरग शुद्धि सश्यता है और अन्तरग शुद्धि सस्कृति । व्यवहार नय की दृष्टि से दोनो प्रकार के शौच उपयोगी हैं, किन्तु निश्चयनय सस्कृति को ही मुख्यता देता है। भावो की पवित्रता ही सस्कृति है, सभ्यता और संस्कृति दोनो शब्द मानवता की बाहरी और भीतरी पवित्रता के ही द्योतक है।
५. तितिक्षेच्छा
. इस शब्द का अर्थ है सहन-शक्ति का उपयोग । जब कभी कोई अनाडी व्यक्ति गाली दे, या लोगो के सामने निन्दा करे, या तिरस्कार करे, उस समय साधक को सहनशक्ति से काम लेना चाहिए। अथवा यदि कोई मार-पीट करके कष्ट देता है, उसे शान्तिपूर्वक सहना चाहिये । कर्म-भोग के रूप मे स्वत उत्पन्न हुए कष्टो को सहन करना भी मानवता का लक्षण है।
राग-द्वेष से तटस्थ रहना समता है और समता ही सहनशक्ति है । अत्याचारी के अत्याचारो को सहना लोक-व्यवहार मे अपराध माना जाता है, उस अपराध से बचने के तीन उपाय हैं२४०]
[ योग : एक चिन्तन
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अत्याचारी को उपदेशो एव शिक्षाओ द्वारा समझाना, इतने प्रेम भरे शब्दो से उसे समझाना जिससे अपराधी को ऐसा जान पडे कि यह मेरा हितैषी है, सच्चा मित्र है। यदि समझाने पर भी नही मानता तो मौन धारण करले । यदि मौन धारण करने से भी मन मे खलबली मच रही हो तो टल जाने मे ही हित है । इनमे से जिस उपाय से भी मन को शान्ति मिल सके और दूसरे का सुधार भी हो सके वैसा आचरण करना चाहिये, किन्तु स्वय अपराध से अछूता रहे। दूसरे से अपराध छुडाता हुआ व्यक्ति यदि स्वय अपराधी बन जाए तो यह बुद्धिमत्ता नही है, इसे मानवता का विकास नही कहा जा सकता है ।
६. शम
उभरने वाले मानसिक विकारो को उभरने न देना शम कहलाता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहकार ग्रादि विकार मानव को वेचैन बनाए रखते हैं। जिस वार्तालाप से, जिस साहित्य से, जिस वातावरण से किसी भी विकार के भडकने की सभावना हो, उससे अपने को दूर रखना तथा शान्त-उपशान्त एव प्रशान्त रहना शम है । शम हो मानवता है, विकारों से दब जाना मानवता नही ।
७. दम
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जव इन्द्रिया अपने-अपने विषय को ग्रहण करने के लिए दीड लगाना चाहती हो, धर्म-मर्यादा का उल्लघन कर रही हो, पथभ्रष्ट करने के लिए उतारू हो रही हो, तब उन्हे सयम से योग एक चिन्तन ]
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नियत्रित करना, बहिर्मुखी से अन्तर्मखी बनाना दम कहलाता है। जैसे घोडे को लगाम से वश मे किया जाता है वैसे ही इन्द्रियों को दम-नीति से नियत्रित किया जाता है। उन्हे उद्दण्ड एव उच्छ खेल न होने देना मानवता है। ।- 2
८. अहिंसा । हिंसा न करना ही अहिसा है। सकल्प-पूर्वक या जान-बूझ कर किसी भी निरपराधी छोटे-बड़े प्राणी को मारना हिंसा है। मानसिक हिसा, वाचिक हिंसा और कायिक हिंसा से निवृत्त होना अहिंसा है। अहिंसा भी दो प्रकार की होती है एक द्रव्यत अहिंसा और दूसरी भावत अहिंसा । किसी के प्राणो को न लूटना, उसे व्यथा न पहुचाना, द्रव्यत अहिंसा है। राग-द्वष से अलग रहना भावत अहिंसा है।
दूसरो के प्राणो की रक्षा करना भी मानवता है और रागद्वेप से अपने को अलग रखनी भी मानता है। अहिंसा के बिना मानवता पनप नही सकती। इसका पालन मानव ही कर सकता है, अत इसे भी मानव-धर्म कहा गया है ।
ह. ब्रह्मचर्य सदाचार का पालन मानव ही कर सकता है, ब्रह्मचर्य मानवता के साथ ही पनपता है। एक पत्नीव्रत का पालन करना भी कथचित् ब्रह्मचर्य है, क्योकि उसमे सतोष की प्रधानता होती है और दुराचारी वृत्तियों के दमन का भाव होता है। इसके अतिरिक्त ब्रह्म में लीन होने के जितने भी उपाय हैं उन सब का २४२]
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श्राचरण करन वस्तुत. ब्रह्मचर्यं है । तवेसु वा उत्तमं वमचेरं । सब तपो मे ब्रह्मचर्य को उत्तम कहा गया है, क्योकि तपश्चर्या ब्रह्मचर्य की सिद्धि के लिए की जाती है । ब्रह्मचर्य का पालन मानव ही कर पाता है, अत ब्रह्मचर्य भी मानव धर्म है ।
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१०. त्याग
किसी पाप या वस्तु- विशेष को छोड़ने के अर्थ मे त्याग शब्द का प्रयोग होता है । वह दो प्रकार का होता है, आशिक त्याग और पूर्ण त्याग | इनमे पहला भेद गृहस्थाश्रम मे पाया जाता है और दूसरा सन्यासाश्रम मे । इन को क्रमश श्रमणोपासक वृत्ति और साधु वृत्ति भी कहते हैं । जब साधक लक्ष्य की ओर बढता है तब मार्ग मे श्राने वाले प्रगति के बाधक तत्त्वो को छोड़ता हुआ साधना-पथ पर अग्रसर होता है । त्याग पापवृत्तियो का किया जाता है और पर - पदार्थ का भी । जब एक और साधक चढता है तो दूसरी ओर बहुत कुछ छोड़ता भी है । ग्रात्मा ने जो अपना सबंध पर - पदार्थों से जोडा हुआ है उसको अपने से अलग करना त्याग है। त्याग भी मानव ही कर सकता है ।'
११. स्वाध्याय
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जिनः शास्त्रो का अध्ययत करने से सयम एव तप मे प्रवृत्ति हो, अथवा जिन के अध्ययन करने से सुवृत्ति एव सुनिवृत्ति विषयक ज्ञान हो, अथवा उपादेय रूप धर्म के सभी भेदो का तथा हेयरूप पाप के सभी भेदो का ज्ञान हो, अथवा ग्रात्म-तत्त्व का सुनना, जानता, समझना, चिन्तन, मनन करना अथवा ध्यान और समाधि
योग एक चिन्तन ]
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के विधि-विधानो को पढ़ कर ज्ञान प्राप्त करना ही स्वाध्याय है। ध्यान के शिखरो पर चढने के उपाय स्वाध्याय से ही जाने जाते हैं । स्वाध्याय अतरग तप है. स्वाध्याय से मन एकाग्र होता है, ज्ञान की वृद्धि होती है, चारित्र निर्दोप बनता है। स्वाध्याय भी मानव-धर्म है, क्योकि मानवेतर प्राणी स्वाध्याय नहीं कर सकता।
१२. सन्तोष __ जितने भी दृश्यमान पदार्थ है वे सव इन्द्रिय-ग्राह्य हैं। जो इन्द्रिय-ग्राह्य पदार्थ हैं, वे सब आसक्ति उत्पन्न करनेवाले हैं । जीवन मे आसक्ति का कम होना, अर्थात् अनासक्ति ही संतोष है। ममत्व की निवृत्ति हो समता है और इच्छाओ का निरोध ही सन्तोप है. सतोप को ही अपरिग्रह कहा जाता है । सनोष से तृष्णा और लोभ ये दोनो स्वत ही नष्ट हो जाते है, । इससे सभी इच्छाए अनायास ही शान्त हो जाती हैं। फिर साधक न अपने को वरिष्ठ समझता है और न दूसरे को कनिष्ठ । सतोपवृत्ति भी मानव के अन्त करण मे ही उत्पन्न हो सकती है, अत सतोप भी मानवता का एक अग है । इससे पाप-प्रवाह स्वतः ही अवरुद्ध होने लगता है।
१३. समहक समदर्शी होना । सब को समान दृष्टि से देखना ही समर्शिता है। कचन और काच मे, नगर और वन मे, सुख और दुख मे, जन्म और मरण मे, ऊच और नीच मे, नरक और स्वर्ग मे, हानि और लाभ मे, उदय और अस्त मे, समदर्शी बनकर रहना, शत्रु और मित्र को समान भाव से देखना, त्रस और स्थावर जीवो २४४ ]
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मे समान-भाव से दया का व्यवहार करना, समदर्शिता रूप मानवधर्म है। मानवता का पालन मानव ही कर सकता है, मानवेत र प्राणी नही । समद्रप्टा बनना भी मानवता ही है ।
१४. सेवा दूसरो को सुख और शान्ति पहुचाना, सबके काम मे सहायता करना सेवा है । अपना सुख छोडकर' ही दूसरो की सेवा की जा सकती है। जिसके मन मे सहानुभूति, दया अनुकपा होगी, वही सेवा कर सकता है। क्रोध और अभिमान छोडकर ही सेवा की जा सकती है । शान्त, सहिष्णु एव अक्षुब्ध व्यक्ति ही सेवा करके पुण्यानुवधीपुण्य और निर्जरा का पात्र बन सकता है। सेवा भी मानव ही कर सकता है मानवेतर नहीं । अत सेवा भी मानवता का अभिन्न अंग है।
१५. ग्राम्येहोपरम . यह शब्द ग्राम्य+ईहा+उपरम इन तीन शब्दो से बना हुआ है । ग्राम्य का अर्थ है-इन्द्रिय-समूह, भौतिक सुख या पशुवृत्ति। इन की कामनामो से निवृत्त होना ही ग्राम्येहोपरम है। इन्द्रियो की दासता भौतिक सुखो मे तल्लीनता मूढता, अनभिज्ञता, परस्पर लडना-झगडना, स्वार्थ-परायणता, परमार्थहीनता ये सब पशुवृत्ति के अवगुण है । इन सवसे बचे रहना मानवता है। पशुवृत्ति प्रात्मा को पतन की ओर उन्मुख करती है, जबकि मानवता उच्चस्तर की प्रकृति एव सस्कृति है। इसका पालन भी मानव ही कर सकता है, अत ग्राम्येहोपरमता भी मानवता का सहचारी गुण है, मानवता का चिन्ह है। योग । एक चिन्तन ]
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१६, विपर्ययेहेक्षा यह शब्द भी तीन शब्दो से बना हुया है विपर्यय+ईहा+ ईक्षा। अपने मन की धारणा के विपरीत दूसरे उसके सवव मे क्या चाहते है, इस विपय का विचार करना। यह भी मानव की ही विशेषता है कि वह जो कुछ भी करता है उसमे हानि और लाभ सोच कर करता है और साथ ही कार्य करने से पहले या करते समय यह अवश्य सोचता है कि इस कार्य से मेरा यश होगा या अपयश ? दूसरे मेरे समर्थक बनेंगे या विरोधी ? मेरा सम्मानबढेगा या अपमान होगा? मैं जिस सघ मे रहता हूं-उसकी प्रतिष्ठा होगी या अवनति ? संघ मेरा अनुगमन करेगा या विरोध । इन वातो का सूक्ष्म दृष्टि से.चिन्तन करना मानव-धर्म है। मानवेतर. प्राणी मे यह विशेषता मिलनी असम्भव है।
१७.. मौन न-बोलना-ही-मौन है। झूठ न बोलना, निन्दा न करना, विना विचारे न वोलना, व्यर्थ न बोलना, अहंकार की भापों में न बोलना, गुस्से में प्राकर न बोलना, कपट भापों में न बोलना, विकथा न करना, पीडाकारी, हिसाकारी भाषा न बोलना, भय से न बोलना, हसी मजाक से न बोलना, व्यग्यात्मक भाषा न बोलना' कलहकारी वोली न बोलना भीमान के-ही अंग है। मौन करने से-वाणी की शक्ति वढती है। मन श्रद्धा के केन्द्र मे स्थिर हो जाता है। शका और भय से मुक्त होकर समाधिस्थ . भी हो जाता है। बोलने की शक्ति होते हुए भी न बोलना अर्थात रसनेन्द्रिय को नियत्रित करना भी मानवधर्म है। २४६.]
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.. १८. आत्म-विमर्शन ..---- - प्रत्येक बात के सवध मे सब से पहले अपने मन मे उचित चिन्तन करना । प्रात्म-निणय और आत्म-विश्वास शुभ सकल्पो से ही हो सकते हैं। मानव जिस कार्य को करना चाहता है उस के पास-पास भीतर और बाहर होने वाले लाभ और हानि, स्वल्प लाभ और अधिक लाभ, स्वल्प हानि और अधिक हानि, इन सब बातो के प्रत्येक पहलू पर विचार करना मानवता है। आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टि से' हानि और लाभ का विचार करके अंत मे आत्म-निर्णय करना मानव-धर्म है
१६ संविभाग
- सविभाग का मुख्य अर्थ:-है , जीवन उपयोगी वस्तुओ का उचित विभाग एवं उचित वितरण- करना- प्राय ससार मे यह देखने मे पाता है कि मनुष्य राग और पक्षपात के अनुसार ही अन्न-- धन आदि का वितरण करता है। किसी को कम दिया जाता है। और किसी को अधिक । यही विषम व्यवहार कलह का कारण होता है।
न्याय नीति के अनुसार वस्तुप्रो का बटवारा करना मानवीय धर्म है। जो उचित मविभाग नही करता वह वस्तुत चोर है। चोर तो वधन, का अधिकारी होता है, मोक्ष का नही । "असविभागी नहु तस्स मोक्खी".-यदि कोई , साधक होकर भी. भोजन-पानी, वस्त्र, स्थान प्रादि का बटवारा उचित, नही करता, स्व-पर का भेद भाव रखकर वितरण करता है वह असविभागी माना जाता है। भले ही वह लोगो के आगे कितना ही उच्च सयमी योग एक चिन्तन ]"
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हो, किन्तु भगवान महावीर के शब्दो मे वह मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता । वस्तु का न्यायोचित बटवारा होने पर न किसी की शिकायत होती है और न किसी को दुग्व होता है। अत न्यायसगत वितरण करना मानवता है। मानवेतर प्राणियो मे यह विशेषता नही पाई जाती।
२०, आत्म-बुद्धि सभी मानवो मे आत्मीयता का अनुभव करना, "वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना रखना। ऐसे शुभ सकल्प मानव मे ही उत्पन्न हो सकते हैं। सब प्राणियो को आत्मतुल्य समझना, या सव मनुप्यो को अपने सम्बन्धी के समान समझना, अपनत्व भाव रखना, किसी में भी परत्व की भावना न रखना, भले ही वह छोटा है या बडा, धर्मात्मा है या पापात्मा, आस्तिक है या नास्तिक, किसी के प्रति भी दुपंभाव न रखना, घृणा, अर्थात् नफरत न रखना मानवता है। मानव का मानव के प्रति सद्व्यवहार करना ही मानवधर्म है।
२१. देवता-बुद्धि मानव-मात्र मे देवतुल्य पूज्य-भावना रखना । किसी के साथ राक्षसी या दानवी भावना से बर्ताव न करना, दिव्यदृष्टि से देखना, समझना, मानना प्रत्येक मानव का हिनचिन्तन करना मानवता है। आदर की दृष्टि से सव का सम्मान करना ही देवता-बुद्धि है।
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२२, श्रवण
जीवन-उत्थान के शिक्षा-सूत्र सुनना, प्रभु-वाणी एव सन्तवाणी सुनना, गुरुजनो के उपदेश सुनना जिनके श्रवण से सम्यक ज्ञान के पालोक से प्रात्मा पालोकित हो मके वैसे शिक्षा-सूत्र एव सूक्तिया सुनना मानवीय कर्तव्य है । सुशिक्षामो के सुनने से मानवता पनपती है-पल्लवित, पुष्पित एव फलित होती है, विकसित होतेहोते वह मानवता समीम से असीम हो जाती है। मानवेतरो में ऐसी श्रवण-गक्ति नहीं पाई जाती है।
२३. कीर्तन
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परम श्रद्धेय रूप परमेष्ठी, धर्माचार्य आदि के गुणों की प्रगसा करना, उनका पुनीत नाम लेकर दूसरो के सामने स्तुति करना, उनका यशोगान करना, जिस से सब लोग धर्मलाभ और पुण्यानुवन्धी पुण्यसे लाभान्वित हो जाएं, इस प्रकार की ध्वनि-प्रक्रिया को कोतन कहा जाता है। कीर्तन करना भी मानवीय भावना है मानवेतर प्राणी कीतन करना नहीं जानता। अत कीर्तन भी मानवता का अभिन्न अंग है।
प्रगसा के अनेक कारण होते है, जैसे कि स्वार्थसिद्धि के लिये की गई प्रगसा से दूसरो के हृदय मे दुर्वासना बढती है। लोककार्यार्थ की गई प्रशसा से अभिमान बढता है। दूसरे की उन्नति के लिये की गई प्रशसा मे उत्साह वढता है और निष्काम प्रशसा से श्रंय वढता है । अत गुणी जनो की स्तुति, प्रशसा एव यगोगान मानव-धर्म है। योग . एक चिन्तन ]
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२४. स्मरण भगवान के गुणों का स्मरण करना,महापुल्पो को उत्तम गति कैसे प्राप्त हुई ? सीखी हुई या पढी हुई शिक्षाग्रो को पुन पुन. याद करना मानव-धम है। मानवेतर प्राणियो मे स्मरण रूप विशेषता भी नहीं पाई जाती है।
२५. लोक-सेवा जनता-भगवती की सेवा करना ही भगवान की सेवा हैं। जनता के लिये रोटी, कपडा, मकान आदि का प्रवन्ध करना, विद्यालय, चिकित्सालय, प्रशिक्षणालय खोलना, वेरोजगारो को किसी कारोवार मे लगाना, अनाथ, वृद्ध, अपाङ्गो को सुख-सुविधा की व्यवस्था करना, शत्रु-राज्यों के आक्रमणो से जनता की रक्षाव्यवस्था करना, चोर-डाकुओं से जनता को बचाना, जिन कारणो से जनता की पाप-वृत्ति हट जाए वैसी व्यवस्था करना, लोक-सेवा है। जन-सेवा मानव ही करता है। मानवता ही मानव-धर्म है। मानवता से ही मानव महान् बनता है।
२६. इज्या यज् धातु-देवपूजा, सगतिकरण और दान अर्थ मे प्रयुक्त होती हैं। यज् का सप्रसारण रूप इज्या बनता है । देवपूजा-धर्मदेव और देवाधिदेव इनको क्रमश, श्रमण निग्रन्थ और, तीर्थङ्कर या. अरिहन्त भगवान भी कहते हैं । पूजा का अर्थ है--सत्कार बहुमान करना। मन मे श्रद्धा, वाणी से स्तुति और काय से प्राज्ञा-पालन, इन तीनो के समन्वय को पूजा कहते हैं। अपने और दूसरो के लिये कल्याणकारी साधनो को जुटाना संगतिकरण है। धर्म-दान, २५०]
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अनुकम्पा दान अभय-दान, विद्या-दान अन्न-वस्त्र-औषध-दान, सहयोग, आत्मबलिदान- इन सब को इज्या या यज्ञ कहा जाता है। यज्ञ अनेक प्रकार के होते हैं। इस प्रसग में सात्त्विक यज्ञ हो अभीष्ट है, तामसी और राजसी यज नही, क्योकि सात्त्विक यज्ञ करना ही मानवता है। सात्त्विक यज्ञ निम्नलिखित है
रहना
१. स्वाध्याय-यज्ञ अध्ययन-अध्यापन में सैलीन रहना। २. जप-यज्ञ-पठितग्रन्थो का पुन -पुन परिशीलन करना,
या जाप करना। ३. कर्म यज्ञ-सुशिक्षाओ को जीवन मे उतारना, अप्रमत्त
होकर कर्तव्य का पालन करना। ४ मानस-यज्ञ- समाधिस्थ रहना, धर्मध्यान में तल्लीन
रहना। ५ ब्रह्म-यज्ञ-प्रात्मा मे सलीन होना या परमात्मा मे
तल्लीन रहना। ६ देव-यज्ञ-धर्म-गुरु या धर्माचार्य का सम्मान करना। ७ पितृ-यज्ञ - माता-पिता की सेवा या बहुमान करना। ८. भूत-यज्ञ-छोटे-बडे सभी प्राणियो की रक्षा करना किसी
का अहित न सोचना और प्राणि मात्र के लिये अन्न-दान
देना भूतयज्ञ । ६ प्रतिथि-यज्ञ-अतिथियो का सम्मान करना।
इस प्रकार के सात्त्विक यज्ञ मानवता के पोपक'माने
गए है। योग एक चिन्तन ]
[' २५१
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२७. विनय विनम्रता का होना ही विनय है । विनय से मानवता चमकती है, जैसे किसी स्थान में चिन्तामणि रत्न पटा होने पर भी वह उस पुण्यवान को ही प्राप्त होता है जो उसके गुणो की परख करने वाला जौहरी है, जो उसे झुककर उठाने का प्रयास करता है । वैसे ही सम्यग् जान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र ये तीन अनमोल रत्न चिन्तामणि के समान है, परन्तु इनकी प्राप्ति विनीत व्यक्ति को ही हो सकती है, अभिमानी व्यक्ति इन्हे प्राप्त नही कर सकता।
___ अहकार के नष्ट एव मद होने से जिस गुण की उपलब्धि होती है वही विनय है। विनय से ज्ञान-दर्शन और चारित्र की प्राप्ति होती है। विनीत मानव सब को अच्छा लगता है । वंदना, वात्सल्य, स्तुति, प्रीति, आदर, सत्कार, बहुमान इन सब का ग्रहण विनय शब्द से हो जाता है । यह निश्चित सिद्धान्त है जो श्रद्धेय के प्रति विनीत होगा, वह अवश्य ही विश्ववद्य वन जाएगा।
२८. दास्य पूज्य जनो का या पच परमेष्ठी का दास बन कर कर्तव्य का पालना करना दास्य है । दास्य-भाव अपनाने वाले के लिए वह दिन अधिक दूर नहीं होता जब वह दासत्व से निवृन होकर सदा के लिए स्वामी बन जाता है। जिसका दास बनने से कालान्तर मे जो स्वामी उसे अपने तुल्य बना देता है, वस्तुत उसी स्वामी की दासता उपयोगी मानी जाती है । वह दासता जीवन का पतन नहीं, बल्कि उत्थान करनेवाली होती है। मानवता का विकास २५२ ]
[योग एक चिन्तन
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वस्तुत इसी दासता से हो सकता है । जब तक परमपद की प्राप्ति न हो, तव नक स्वामो-सेवक का सवध बना रहता है, तत्पश्चात् वह स्वत ही सदा के लिए नष्ट हो जाता है। पूज्यजनो का तथा गुणी जनो का दास वनकर उनकी प्राजा का पालन करना मानवता है।
२६. सख्य
विश्व मैत्री और भगवत्-मैत्री दोनो का ममावेश सख्य मे हो जाता है। इससे मानवता का विकास होता है। इस गुण के विकसित होने से शेप सभी गुण स्वय विकसित हो जाते हैं, क्योकि जब किसी के साथ मित्रता का सबध होता है तब वह उसका न कभी अहित सोचता है और न उसकी कभी बुराई करता है। अत मानवता के विकास मे सख्य भी एक अमोघ उपाय है।
३० आत्म-समर्पण . __ मानवो की भलाई के उद्देश्य से मूक एव निरीह प्राणियो की रक्षा आत्म-बलिदान देकर भी करनी चाहिए। गुरु के आगे अपने द्वारा किए गए अपराधो को सरल हृदय से व्यक्त करना, अपनी भूल को शुद्ध हृदय से मान लेना, पुन वैसी भूल न करने के लिए सतत जागरूक रहना प्रात्म-समर्पण है। यह विशेपता भी मानव मे ही पाई जाती है। अत आत्म-समर्पण करना भी मानवता का एक अभिन्न अंग है। ' योग एक चिन्तन ]
[२५३
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इस प्रकार श्री मद्भागवत् के निर्माता महर्षि व्यास ने मानवता के विकास के लिये उपयुक्त जिन तीस गुणो का वर्णन क्यिा है, वे ऐसे गुण हैं जो साम्प्रदायिकता की संकीर्णतानो से मुक्त है, सर्व-जनोपयोगी है, मानव-मात्र के लिये ग्राह्य हैं और जैनत्व के सिद्वान्तो का समर्थन करनेवाले है।
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[योग . एक चिन्तन
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दैवी सम्पत्ति
अभय सत्व - संशुद्धिर्ज्ञानयोग-व्यवस्थितिः । दानं दमश्च यज्ञश्च, स्वाध्यायस्तप आजवम् ।। अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग शान्तिर-पैशुनम् । दया भूतेष्वलोलुप्त्वं, मार्दवं ह्री-रचापलम् ॥ तेज क्षमा धृतिश्शौचमद्रोहो नातिमानता। भवन्ति सम्पदं देवी-मभिजातस्य भारत ! ॥
, गीता १६-१-३ अर्थात् निर्भयता, भावो की निर्मलता, ज्ञानयोग में मन की स्थिति, सुपात्रदान, इन्द्रिय-दमन, सात्विक यज्ञ, स्वाध्याय, तप, निष्कपटता
अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, अपिशुनता (चुगली न करना), जीव-मांत्र पर दया, अलोभ, हृदय की सुकोमलता, लज्जाशीलता, चपलता से रहित होना
तेजस्विता, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, निर्वैरता, अतिमान का न होना
उपर्युक्त सभी गुण पवित्रात्मा के साथ ही जन्म लेते है, इन गुणो को देवी सपत्ति या दिव्य सपत्ति भी कहते है। योग एक चिन्तन
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जिन गुणो द्वारा देवत्व की उपलब्धि हो या दिव्य सपत्तिया प्राप्त हो उन सभी गुणो को देवी सपति कहते है, अथवा उच्च देव जब अपनी स्थिति पूर्ण कर के मनुष्य-लोक मे मनुष्यत्व को प्राप्त करता है तब वह जिन गुणो से समृद्ध होता है उसके स्वाभाविक गणो को दैवी सपत्ति कहा जाता है।
जिस मनुष्य मे ये दिव्य गुण होते है, वह विश्व का कल्याण और उद्धार कर सकता है। प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि उक्त दैवी सपत्ति का यथाशक्य सचय करे। इनकी आराधना पालना के लिए किसी भी देश, काल, जाति, सप्रदाय का कोई प्रतिवध नही । इन गुणो को कोई भी व्यक्ति अपने जीवन मे उतार कर अपना 'उद्धार कर सकता है। अत इन गुणो को सामान्य धर्म कहते हैं । विगेप धर्म वह कहलाता है जो देश, वेप वर्ण, जाति, काल सप्रदाय आदि को विवक्षा रखता हो।
__जैन धर्म सामान्य और विशेप दोनो से अनुरजित है। सामान्य के बिना विशेप नही और विशेष के विना सामान्य नही दोनो एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं ।
श्रीमद्भागवत् और गीता दोनो पर श्री कृष्ण का प्रभाव है और श्रीकृष्ण त्याग एव सयम के साकार रूप जन-जन के उद्धारक भगवान श्री नेमिनाथ के उपदेशो से प्रभावित हुए थे, अत उनकी वाणी ने मानवता के समुद्धार के लिये सर्वत्र ऐसे ही गणो का वर्णन किया है जिन पर जैनत्व की स्पष्ट छाप है । प्रस्तुत पुस्तक मे वर्णित ३२ योगो की विस्तृत व्याख्या इसका प्रमाण है।
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