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________________ कामोद्दीपक चित्रो से नज्जित हो, जहां गाय, भैंस, भेड, वकरी आदि पशु रहते हो और जहा नपुंसक का निवास हो, अर्थात् जहां विपरीत लिंगी व्यक्ति रहते हो, वहा साधु को नही ठहरना चाहिये, जहा इन्द्रियो की प्रवृत्तिया एव मन की वृत्तिया उत्तेजित हो, वहा न ठहरे। वृत्तियो को अन्तर्मुखी होने में सहयोग दे वही स्थान "विविक्त शयनासन" कहलाता है । 1 २. विजातीय कथा -विवर्जन- स्त्री के लिए पुरुप विजातीय है और पुरुष के लिए स्त्री विजातीय है । केवल विजातीयो मे कथा नही करनी, एकाकी विजातीयो की संगति कभी न करे, उनके साथ बातचीत भी अधिक न करे, यह दूसरी भावना है । ३. विजातीय- इन्द्रियावलोकन - वर्जन - विजातीयो के मुख J नेत्र आदि गो को काम - राग की स्थिर दृष्टि से नही देखना चाहिये, क्योकि उन्हे देखने से सयम को हानि पहुचती है- 1 - I 4 ४. पूर्व कोड़ित अननुस्मरण- गृहस्थ अवस्था मे भोगे हुए काम-भोगो का स्मरण नहीं करना चाहिये । स्नान विलेपन, केश विन्यास श्रादि रूपों में शरीर की सजावट एव बनाव मे दत्तचित्त व्यक्ति का चित्त चचल हो जाता है उसमें विकारोत्पत्ति हो जाती है । विभूपा से भी दूर रह कर ही साधु अपने शील की रक्षा कर सकता है | T ५ प्रणीताहार - विवर्जन- शीलवान साधक को चाहिए कि वह थोडा खाए और थोड़ा ही पीए । "प्पपिण्डासी पाणासी"" सरस, स्निग्ध एव पौष्टिक आहार का उपयोग न करे और प्रमाण से अधिक रूक्ष श्राहार भी न करे। इन पांच भावनाओ मे से यदि कोई भी एक भावना निर्वल हो जाए तो ब्रह्मचर्य जीवन से निकल जाता है | योग • एक चिन्तन ] - [ १२३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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