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________________ ****44646 १५. विनयोपेत 4) ****÷÷÷÷÷÷÷÷÷ दिपूर्वक णीञ प्रापणे धातु से विनय शब्द की निष्पत्ति होती है । विनय शब्द अनेकार्थक है । अभ्युत्थान, प्रणाम, भक्ति, प्रीति, शिष्टता, नम्रता, सयम, शिक्षा, ग्रपनयन, लध्यविन्दु मे पहुचाने वानी साधना, इन सब का विनय शब्द से ग्रहण हो जाता है, परन्तु विनय का मुख्य अर्थ है आाचार | 4 + विनय ही धर्म का मूल है, इसी सदर्भ मे एक शास्त्रीय वार्ता प्रस्तुत करना उचित रहेगा । एक वार सुदर्शन सेठ ने थावच्चा पुत्र से प्रश्न कियाभते । श्रापकी दृष्टि मे धर्म का मूल क्या है ?" 8 उत्तर मे थावच्चापुत्र ने कहा- 'सुदर्शन । मेरा यह विश्वास है कि धर्म का मूल विनय है विनय के दो भेद है, अगार - विनय और अनगार-विनय | श्रावक की ग्यारह उपासक प्रतिमाओ और बारह व्रतो का समावेश अगार-विनय मे हो जाता है । अठारह पापो से निवृत्ति, पाच महाव्रत, छटा रात्रि भोजन-विरमण, दशविध भ्रमणधर्म, दशविध उत्तर- गुण - प्रत्याख्यान इस प्रकार के सभी साधन अनगार-विनय के हो ग्रग हैं। गृहस्थ और साधु दोनो का प्रथम कर्तव्य विनय है । जबकि विनय को धम का मूल बताया गया है, तव जीवन की भूमि पर बिना मूल के धर्मवृक्ष का f विकास असम्भव ही है । ६८ ] योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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