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________________ हो जाए, खान-पान के पदार्थो मे अासक्ति न रहे, परीषह और उपसर्ग उपस्थित होने पर उन्हे समभाव से सहन करने लगे, स्वर्गीय सुख-साम्राज्य से विरक्त रहे, निदान न करे, नित्यप्रति कष्ट सहने का अभ्यास करता रहे, केशलोच करना, वस्त्र न रखना या जरूरत से कम रखना, सर्दी के दिनो मे शीत सहना, गर्मियो के दिनो मे धूप को प्रातापना लेना, वीरासनादि लगाना, पैदल विहार करना, पैरो मे जूता न डालना, सिर से नगे रहना, निर्दोष गोचरी करके आहार करना, रसीले पदार्थो एव विगयो का त्याग करना, जितेन्द्रिय बनना, मन को जीतना, मौन रखना इत्यादि सव तप के ही अनेक रूप है। जैन आगमो मे तपस्या बारह प्रकार को बतलाई गई है। ज्ञानाचार के आठ रूप, दर्शनाचार के आठ रूप, चारित्राचार के पाठ रूप और बारह प्रकार के तप-इन छत्तीस आचारो का यथाशक्य यथासम्भव निरन्तर पालन करना और इनके पालनार्थ अपनी शक्ति का प्रयोग करना वीर्याचार है, अत पाच प्रकार के प्राचारो का जीवन के अन्तिम श्वास तक गलन करना ही प्राचार है। . योग एक चिन्तन ] [६७
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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