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है और चित्त की स्थिरता मे ही समाधि है - आत्म-स्वरूपअवस्थिति है ।
योग-दर्शन जिसे चिंति - शक्ति कहता है जैन संस्कृति मे वही श्रात्मा है, योग-दर्शन उसे अप्रतिसक्रमा अर्थात् परिणाम-रहित कहता है। जैन दर्शन-भी ग्रात्मा को अपरिणामी मानता है, अत ध्यानावस्था मे आत्म चिन्तन की ही प्रधानता रहती है ।
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जैन दर्शन का वैशिष्ट्य -
योग-दर्शन मे कही भी ध्यान के भेदो का वर्णन नहीं किया गया । जैन दर्शन ने ही उसे चार भागो मे विभक्त किया है । जैसे कि श्राव्यान, रौद्र ध्यान, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान । ये शब्द इतने मनोवैज्ञानिक एव अध्यात्म-पथ प्रदर्शक है कि इनके अपनाए विना पतजलि भी नही रह सके । उन्होने इन्ही शब्दो को कुछ परिवर्तन के साथ अपनाया है। आर्तध्यान और रौद्र व्यान, अशुभ ध्यान हैं, प्रत इन्हे योगदर्शन कृष्ण कहता है और धर्म- ध्यान और शुक्ल ध्यान शुभ है इन्हे शुक्ल कहा गया है और आत्मा को प्रशुक्ल कृष्ण कहा गया है । (योग ० ४।७)
योगदर्शन मे ध्यान की विस्तृत परिभाषाएं है, उसके क्रमिक विकास पर अच्छा प्रकाश डाला गया है, किन्तु ध्येयस्थिरता के लिये ध्येय का विवेचन नगण्य सा रहा है। योगी
ध्यान की 'एकतानता तक पहुचने के लिये क्या करे ? इसका विवेचन वहां सामान्य सा ही है - जैसे प्रणव अर्थात् ॐकार के ध्यान के साथ "तज्जुपस्तदर्थ - मावनम् ” ( योग० ११२८) कह कर 'ॐ के जप और अर्थ की भावना भाने के लिये कहा गया है, किन्तु इतने मात्र से ध्यान की एकतानता असम्भव है ।
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हेमचन्द्राचार्य जी ने भी अपने योगशास्त्र मे इस विषय पर
योग : एक चिन्तन ]
[ उन्नीस