SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैसे क्रिया के विपरीत होने से कार्य भी विपरीत ही हो जाता है, वैसे ही क्रिया सम्यक होने से कार्य भी सम्यक् होता है। मुशिष्य नित्यप्रति आलोचना वोलकर या लिखकर करता है । जैसे शरीर मे पित्त बढ जाने से जब तक उल्टी के द्वारा वह पित्त बाहर नही निकल जाता, तब तक शरीर मे घवराहट रहती है, उसके निकल जाने पर वेचनी भी दूर हो जाती है, वैसे ही ग्रालोचना करने से सभी दोष विलुप्त हो जाते हैं, मन सत्र तरह से समाहित हो जाता है, अत सदोप साधक के लिए आलोचना करना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा परलोक सुखकर नही होता है। योगी बनने के लिये यही प्रथम सीढी है, इस पर साधक को सावधान होकर चढने का प्रयास करना चाहिये । २० ] [ योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy