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________________ २. निरवलावे : निरपलाप 中令全会命令令令令中会令令专令令它会中{令令令 किसी की आलोचना सुनकर उसे अन्य के सामने प्रकाशित न करना, अपितु उसे अपने गहरे हृदय-स्थित गुणसिन्धु मे डालकर उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर देना चाहिये, उस विष को अमृत बना देना चाहिये । यही प्रायश्चित्त-दाता की गम्भीरता एव महत्ता है, अतः निरपलापता माधक का महत्त्वपूर्ण गुण है । अपलाप का दूसरा अर्थ है मिथ्यावाद-बकवाद या किसी तरह की गलत वाते बनाना । यह एक अवगुण है, इससे रहित होना निरपलापता है । प्रायश्चित्त-दाता महा साधक जितना कुछ देखता है और जितना कुछ सुनता है, वह सब कहने योग्य नही होता है। उसे तो केवल वही बातें कहनी चाहिये जो सत्य हो एव शास्त्र की दृष्टि से पवित्र हो। शेप सब बाते अपलाप मात्र ही होती है, उनसे निवृत्ति पाना ही निरपलापता है। अपलाप का तीसरा अर्थ है--सत् की नास्ति करना, अर्थात् उसके अस्तित्व को स्वीकार न करना,अथवा उसका निषेध करना। जैसे कि नव तत्त्व शाश्वत हैं उनके अस्तित्व को नकारा नही जा सकता, यदि कोई विद्वान् अपने तर्क-वल के द्वारा नवतत्त्वो मे से जीव तत्त्व का अपलाप कर दे तो पुण्य, पाप प्रास्रव, सवर, बन्ध, निर्जरा, मोक्ष इन सवका अपलाप हो जाना निश्चित है। पुण्य-पाप का यदि अपलाप हो जाएगा तो ससार की लीला ही समाप्त हो योग . एक चिन्तन ] [ २१
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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