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________________ जाएगी। प्राधव और वध का यदि अपलाप हो जाए तो जीव का जन्म-मरण अकारण ही मानना पडेगा। संवर और निर्जरा ये साधना के मूल मत्र हैं, इनका यदि अपलाप हो जाए तो प्राथवनिरोध और वध को क्षीण कैसे किया जा सकेगा ? मोक्ष तत्त्व का अपलाप करने से साधना का चरम एव परम लक्ष्य ही समाप्त हो जाएगा। अन सम्यग् जानो प्रायश्चित्त-दाता मे इस दृष्टि भी निरपलाप गुण का होना आवश्यक है। वीतराग भगवान ने जिन तत्त्वो का निरूपण किया है, द्रव्य और द्रव्य-पर्याय, गुण और गुण-पर्याय जो जैसा है उसे उसके यथार्थ रूप में अनेकान्तवाद द्वारा समझना, फिर इस निर्णय तक पहुचना कि जो त्याज्य एव हेय है उससे निवृत्त होना चाहिये और जो ग्राह्य एव उपादेय है उसमे प्रवृत्ति करनी चाहिये, तथा जो साधक जीवन के लिये उपयोगी एव ज्ञातव्य है, उन्हे ध्यान का विषय बनाना चाहिये । इस प्रकार उन तत्त्वो का विभागीकरण करना सम्यग्ज्ञान है। वस्तु मे जो धर्म या गुण अस्तित्व से विभूपित है उसे नास्तित्व के पक से कलकित करना और जो नास्तित्व धर्म से युक्त है उसे अस्तित्व धर्म से युक्त करना मिथ्यावाद एव अपलाप है। . मिथ्यावाद का विरोधी दृष्टिकोण सम्यग्वाद है। सम्यग्वाद ही निरपलाप है । निरपलाप जैन दर्शन का प्रमुखतम आधार है। अपलाप कर्म-बंध का कारण है और निरपलापता मोक्ष सवर एव निर्जरा का प्रधान अग है। इसी को दूसरे शब्दों मे आस्तिकवाद भी कहते हैं। अशुद्ध प्ररूपणा न करना ही निरपलाप है और कथनी एव करनी मे लुकाव-छिपाव न किया जाए उसी को शुद्ध प्ररूपणा कहते हैं। २२) [ योग : एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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