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________________ ३. दृढ़-धर्मता 中变令它是一类令史十史事令学生 दृढधर्मता का अभिप्राय है आपत्तिकाल मे भी धर्म मे दृढ रहना। कुछ लोग कहा करते हैं "आपत् काले मर्यादा नास्ति"--आपत्तिकाल मे धर्म-मर्यादा आवश्यक नही, उस समय सभी प्रतिज्ञाए भंग की जा सकती हैं। यह नीति-वाक्य सामान्य लोगो के लिये है, महामानवो पर यह उक्ति चरितार्थ नहीं होती। महामानव बनने का अधिकारी वही हो सकता है जिसे सुख मे भी धर्म प्रिय है और आपत्ति-काल मे भी जो धर्म पर दृढ रहता है। ऐसा व्यक्ति ही विश्व-विजयी एव आत्म-विजयी बन सकता है । लौकिक या प्राध्यात्मिक कोई भी सफलता हो वह अनेक प्रकार के झझटो एव दुखो के साथ जूझकर समता एव सहनशीलता से ही प्राप्त की जा सकती है। धर्म भी साधक को तभी सफलता देता है जब कि वह आपत्ति एव विपत्ति को वरदान समझकर सहर्ष सह लेता है और तभी वह आध्यात्मिक सपत्ति को प्राप्त करने का अधिकारी बन सकता है। जैसे विष और अमृत ये दोनो परस्पर विरोधी तत्व हैं। अमृत के अभाव मे विष अपने आप मे पूर्ण समर्थ है, किन्तु शरीरव्यापी विष को अमृत का एक विन्दु भी नष्ट कर देता है । धर्म में निश्चल रहने से कर्म-रोग, भवरोग, और कपाय-भाव ये सव स्वत ही नष्ट हो जाते है। कर्म-रोग एव भवरोग से पीडित व्यक्ति द्वारा योग . एक चिन्तन ] २३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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