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किए गए प्रार्त्तव्यान और रोद्रध्यान मन मे, बुद्धि मे और शरीर मे स्थिरता नही रहने देते और मानसिक एवं वैचारिक अस्थिरता योग की शत्रु है।
प्रार्तध्यान और रोद्रध्यान का मूल है आपत्ति । आपत्ति का अर्थ है-दुख, क्लेग, विघ्न, प्राफत, वेरोजगारी-पाजीविका का अभाव, दोषारोपण और विपदा । आपत्ति में प्रत्येक प्राणी भयभीत होता है। जब किसी व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि आपत्ति को झेलने से मेरा भविष्य उज्ज्वल हो जाएगा तो वह आनेवाली आपत्ति का भी स्वागत करने लगता है । जो आपत्ति का स्वागत करता है, वही महामानव है।
, तितिक्षु महामानव को अन्तरात्मा भी कह सकते है, वहिरात्मा महामानवता की परिधि मे प्रवेश नहीं कर सकता, जब तक कि वह तितिक्षागील वनकर कण्टो का स्वागत नहीं करता।
आपत्ति चार प्रकार की होतो है-द्रव्यापत्ति, क्षेत्रापत्ति, कालापत्ति और भावापत्ति । इन का विश्लेषण, पहले अध्याय मे किया जा चुका है।
जितनी भी आपत्तिया प्राणी मात्र पर आक्रमण कर सकती है, उनकी गणना - यदि सक्षेप में की जाए तो उपर्युक्त चार की सख्या का उत्लघन नही होता। आपत्तियो का सामना केवल समता द्वारा ही किया सकता है, क्योकि जब कोई अन्तरात्मा समता के भीतर प्रवेश कर जाता है-तब उस पर होने वाले प्रापत्तियो के प्रहार भले ही हजारो-लाखो हो, वे उसकी प्रगति मे वाधक नही बन सकते । जब किसी कछुए पर शिकारियो का प्रहार, होता है, तब वह अपने अगो-उपाङ्गो को सकोच कर खोपड़ी में २४ ]
[ योग : एक चिन्तन