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________________ ५ तत्त्वरूपवती धारणा-जब मा चितन करते-करते अभ्यास दृढ़ हो जाता है तव पाचवी धारणा की भावना जगानी चाहिए । इस धारणा में अपने को सब कर्मो मे एव शरीर से रहित शुद्ध-शुद्र परमात्मा के रूप में चितन करना चाहिये।' २ पदस्य-धर्मध्यान आगमशास्त्र के किसी एक पाठ का एकाग्रता से चिंतन करना, जैसे "लोगस्सुज्जोयगरे,,पाठ का ध्यान करना। इस पाठ में सात गाथाये हैं, और अट्ठाईस चरण हैं। उनमें से अतिम तीन चरणो को छोड़ कर पच्चीस चरणो का पच्चीस श्वासो मे चिंतन करना। पदो मे ध्यान को अवस्थित करना ही तो पदस्थ-ध्यान कह लाता है। अथवा एक-एक पद पर स्कते हुए प्रत्येक पद के अर्थ का चिन्तन करना पदस्थ धर्म-ध्यान है। अथवा अपने हृदय में, मस्तक मे या दोनो भौहों के मध्य मे या नाभि में ॐ को चमकते सूर्य के समान देखे, इसी मे अरिहन्त को या सिद्ध पद को देखे । अथवा-हृदय मे पाठ पाखुडियो वाले एक पुण्डरीक कमल का निर्माण करके उसकी पाठो पखुडियो पर क्रमश पीले रग वाले आठ पद अकित करे। 'नमो अरिहताण, नमो सिद्धाण, नमो पायरियाणं, नमो उवज्झायाण, नमो लोए सबसाहूण, सम्यग्दर्शनायनमः, सम्यग्ज्ञानाय नम , सम्यक्चरित्राय नम"। फिर प्रत्येक पद पर ध्यान देकर उसे बार-बार पढना पदस्थ धर्मव्यान है। ३ रूपस्थ-धर्म ध्यान ध्याता अपने चित्त मे यह चितन करे कि मै समवसरण में साक्षात् तीर्थंकर भगवान को देख रहा हूं। अशोक वृक्ष के नीचे १ इसकी विशेष व्याख्या के लिये पाठक-गण योग-शास्त्र तथा ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ देख सकते हैं । १८८] [ योग . एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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