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________________ मे समान-भाव से दया का व्यवहार करना, समदर्शिता रूप मानवधर्म है। मानवता का पालन मानव ही कर सकता है, मानवेत र प्राणी नही । समद्रप्टा बनना भी मानवता ही है । १४. सेवा दूसरो को सुख और शान्ति पहुचाना, सबके काम मे सहायता करना सेवा है । अपना सुख छोडकर' ही दूसरो की सेवा की जा सकती है। जिसके मन मे सहानुभूति, दया अनुकपा होगी, वही सेवा कर सकता है। क्रोध और अभिमान छोडकर ही सेवा की जा सकती है । शान्त, सहिष्णु एव अक्षुब्ध व्यक्ति ही सेवा करके पुण्यानुवधीपुण्य और निर्जरा का पात्र बन सकता है। सेवा भी मानव ही कर सकता है मानवेतर नहीं । अत सेवा भी मानवता का अभिन्न अंग है। १५. ग्राम्येहोपरम . यह शब्द ग्राम्य+ईहा+उपरम इन तीन शब्दो से बना हुआ है । ग्राम्य का अर्थ है-इन्द्रिय-समूह, भौतिक सुख या पशुवृत्ति। इन की कामनामो से निवृत्त होना ही ग्राम्येहोपरम है। इन्द्रियो की दासता भौतिक सुखो मे तल्लीनता मूढता, अनभिज्ञता, परस्पर लडना-झगडना, स्वार्थ-परायणता, परमार्थहीनता ये सब पशुवृत्ति के अवगुण है । इन सवसे बचे रहना मानवता है। पशुवृत्ति प्रात्मा को पतन की ओर उन्मुख करती है, जबकि मानवता उच्चस्तर की प्रकृति एव सस्कृति है। इसका पालन भी मानव ही कर सकता है, अत ग्राम्येहोपरमता भी मानवता का सहचारी गुण है, मानवता का चिन्ह है। योग । एक चिन्तन ] [२४५
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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