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________________ १६, विपर्ययेहेक्षा यह शब्द भी तीन शब्दो से बना हुया है विपर्यय+ईहा+ ईक्षा। अपने मन की धारणा के विपरीत दूसरे उसके सवव मे क्या चाहते है, इस विपय का विचार करना। यह भी मानव की ही विशेषता है कि वह जो कुछ भी करता है उसमे हानि और लाभ सोच कर करता है और साथ ही कार्य करने से पहले या करते समय यह अवश्य सोचता है कि इस कार्य से मेरा यश होगा या अपयश ? दूसरे मेरे समर्थक बनेंगे या विरोधी ? मेरा सम्मानबढेगा या अपमान होगा? मैं जिस सघ मे रहता हूं-उसकी प्रतिष्ठा होगी या अवनति ? संघ मेरा अनुगमन करेगा या विरोध । इन वातो का सूक्ष्म दृष्टि से.चिन्तन करना मानव-धर्म है। मानवेतर. प्राणी मे यह विशेषता मिलनी असम्भव है। १७.. मौन न-बोलना-ही-मौन है। झूठ न बोलना, निन्दा न करना, विना विचारे न वोलना, व्यर्थ न बोलना, अहंकार की भापों में न बोलना, गुस्से में प्राकर न बोलना, कपट भापों में न बोलना, विकथा न करना, पीडाकारी, हिसाकारी भाषा न बोलना, भय से न बोलना, हसी मजाक से न बोलना, व्यग्यात्मक भाषा न बोलना' कलहकारी वोली न बोलना भीमान के-ही अंग है। मौन करने से-वाणी की शक्ति वढती है। मन श्रद्धा के केन्द्र मे स्थिर हो जाता है। शका और भय से मुक्त होकर समाधिस्थ . भी हो जाता है। बोलने की शक्ति होते हुए भी न बोलना अर्थात रसनेन्द्रिय को नियत्रित करना भी मानवधर्म है। २४६.] योग - एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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