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________________ स्प हैं । मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा इनका अभाव ही अप्रमाद है । अप्पमाय तहावरं -जो प्रवृत्तिया प्रमाद से रहित है उनसे कर्म वध नही होता। अप्पमत्तो परित्वए-अप्रमत्त होकर धर्म के आचरण मे उद्यम करो। घोरा महत्ता अवलं सरीर-मारड पक्खी व चरेऽप्पमत्तो। ___काल निर्दयी है और शरीर निर्वल है, यह जानकर साधक को भारण्ड पक्षी की तरह सदैव अप्रमत्त होकर विचरना चाहिए। सवयो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं-अप्रमत्त साधक को कही से भी भय नही होता । वह न स्वय किसी से डरता है और न किसी को डराता ही है, अभय रहना ही उसका सहज जीवन है। जहां भय है वहा प्रमाद है। अभय और अप्रमाद इनका परस्पर कार्य-कारण-भाव है। जहा अभय है वहा अप्रमाद है और जहा अप्रमाद है वही अभय है। समयं गोयम ! मा पमाए-भगवान महावीर कहते है-हे गौतम । समय भर का भी प्रमाद मत करो, क्योकि प्रमाद सबसे वडा अवगुण है। इसकी छाया मे हजारो ही नही लाखो अवगुणदोष निवास करते है। जिनका परिणाम दुर्गतियो मे भोगना पडता है । दु खो की अविच्छिन्न परम्परा जिसमे हो वह दुगति है। गोयम शब्द मन का प्रतीक भी है, क्योकि 'गो' शब्द का अर्थ है-"इन्द्रिया" और यम का अर्थ है नियन्त्रण। मन इन्द्रियो का नियंता है । साधक अपने मन को सबोधित करते हुए कहता योग । एक चिन्तन ] [१५५
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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