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________________ काय इन छ कायिक जीवो के अस्तित्व पर ग्रास्था रखते हुए उनकी हिंसा न करना, जीवत्व की धारणा स्वीकार करना, इनमे कभी संशय न करना, स्वाध्याय से सम्यग्ज्ञान मे प्रवेश करना, अपनी श्रद्धा को जिन-वाणी के अनुकूल रखना, मोहजनक जड चेतन आदि पदार्थो से राग न रखना, शत्रुता रखनेवाले पर प्रीति एव ह ेप न रखना, स्व- कर्त्तव्यो के प्रति सदैव जागरूक रहना आदि श्रप्रमाद के अनेक रूप है । यह एक ऐसा साधन है, जो प्राध्यात्मिक क्षेत्र मे साधक को पीछे हटने से बचाता है, पापकर्मो की थोर नही झाकने देता, परम एव चरम लक्ष्य से भटकने नही देता, साधना मे कभी अरुचि नही होने देता । इसी को दूसरे शब्दो तर्जागरण भी कहते है । इसकी विद्यमानता मे आयु का वध नही होता, इसके प्राप्त होते ही अजर-अमर रूप ग्रन्तरात्मा की अनुभूति होने लग जाती है । F सातवे गुणस्थान से लेकर चौदहवे गुणस्थान तक प्रप्रमाद की सत्ता रहती है । अप्रमाद के प्रभाव से कपाय प्रादि विकार निर्बल हो जाते हैं । जैसे सूर्य के उदय होने पर उल्लू श्रादि निशाचारी जीव इधर-उधर छिप जाते है, वैसे ही अप्रमाद के अवतरण से जीवन मे रहे हुए अवगुण सभी लुप्त एव नष्ट हो जाते है । कि हिय ? श्रप्पमात्री - गौतम स्वामी ने भगवान महावीर के समक्ष प्रश्न रखा है-' हित क्या है ?" भगवान उत्तर देते है "अप्पमात्रो - अप्रमाद ।" विचारो को बाहर से लौटाकर आत्मा में लगाना, अपने स्वरूप मे रमण करना, विकथा - श्रनुपयोगी वार्तालाप में समय-यापन न करना इत्यादि श्रप्रमाद के ही अनेक [ योग : एक चिन्तन १५८ ]
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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