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________________ जब केवल ज्ञानी, मन पर्यव-ज्ञानी, अवधि जानी एव पूर्वो के वेत्ता मुनिवर विद्यमान हो, उस समय सूत्र-व्यवहार मुख्य नहीं होता, तत्र आगम-व्यवहार की मुख्यता होती है। प्रागम-व्यवहारियो के अभाव में सूत्र-व्यवहार की मुख्यता मानी जाती है। जिस दोष या प्रायश्चित का उल्लेख सूत्र मे नही होता उस समय यदि किसी के पास यह पुरानी धारणा हो कि "अमुक प्राचार्य के पास ऐसा कारण बना था और उन्होने उसका प्रायश्चित्त यह दिया था" तो उस समय उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देते हुए धारणा-व्यवहार से काम लिया जाना चाहिये। कुछ ऐसे दोप भी होते है जिनका युगानुकूल प्रायश्चित्त गुरु या प्राचार्य दिया करते हैं और उसे दोपी साधक सहर्ष स्वीकृत कर लेता है, यही आजा-व्यवहार कहलाता है। कुछ प्रायश्चित्त जीताचार व्यवहार से दिया या लिया जाता है। जैसे कि पाक्षिक प्रतिक्रमण के बाद एक उपवास, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण के बाद एक वेला और सावत्सरिक प्रतिक्रमण करने के अनन्तर एक तेला प्रायश्चित्त दिया जाता है, यह जीत-व्यवहार है। (च) अपरित्रावी-अर्थात् गम्भीर स्वभाव वाला । पालोचना करने वाले के दोपो को दूसरे के समक्ष प्रकट न करने वाला महापुरुप ही आलोचना सुनने का अधिकारी हो सकता है । - (छ) निर्यापक-जो दोपी साधक किसी कारणवश एक साथ प्रायश्चित्त वहन करने में समर्थ न हो उसे थोडा-थोड़ा प्रायश्चित देकर निर्वाह कराने वाला निर्यापक कहलाता है। सव को एक डण्डे से नहीं हाका जा सकता, समर्थ और असमर्थ को देखना भी अत्यावश्यक होता है। १६]. [ योग । एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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