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किन्ही का क्षय कर देने पर सम्यक्त्व मोहनीय का वेदन किया जा रहा हो तव आत्मा को उस शुद्ध अवस्था को ही क्षायोपमिक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। जब सम्यग्दर्शन विरोधिनी सभी प्रकृतियो को क्षय कर दिया जाता है, तब प्रात्मा मे जो शुद्धतर अवस्था होती है वह क्षायिक सम्यग्दर्शन है। प्रीपशमिक की स्थिति अतर्मुहूर्त है। क्षायोपशमिक की ६६ सागरोपम से कुछ अधिक और क्षायिक की स्थिति सादि अनन्त है। जव आत्मा सम्यग्दर्शन के प्रकाश मे पहच जाता है,तब उस पर मिथ्यात्वरूप अन्धकार का अाक्रमण नहीं होता। जैसे प्रकाश-पु ज अधकार का निरोध करता है वैसे ही सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व का निवेव या निरोध स्वत: हो जाता है, प्रत सम्यग्दर्शन भी सवर है।
२. अव्रत-अणुनत और महावत के अभाव का नाम अवत है। प्रसयत एव अमयादित जीवन में ही इस आश्रव का अस्तित्व पाया जाता है। पहले गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान तक सभी जीव अवती है और अव्रती का जीवन बहुधा मर्यादाहीन होता है। उसके लिये हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, परिग्रह आदि पापो के सभी द्वार खुले रहते हैं। उसका मुख्य उद्देश्य ऐन्द्रियिक सुख है, उसकी उत्तरोत्तर प्राप्ति के लिए वह सब तरह के पापाचरण या अपराध करने के लिए भी उद्यत रहता है। यदि राज-भय से समाज-भय से या किसी असमर्थता के कारण कोई पापाचरण नही करता तो वह व्रती या सयमी नहीं है। जो किसी भी व्रत का पालन नहीं करते उन्हे अविरत भी कहते हैं । अविरत जीव सात प्रकार के होते हैं जैसे कि
१. जो व्रतो के स्वरूप को नही जानते उनकी निष्ठा त्याग मे नही हो सकती, अत वे किसी के कहने से व्रतो को अंगीकार भी ९२ 1
योग . एक चिन्तन