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________________ नही करते और न उनका पालन ही करते है । इस प्रकार के लोग बिल्कुल साधारण होते हैं । २ उन्हे भी ग्रव्रती कहा जाता है जो व्रतो को न तो जानते है और न गीकार ही करते हैं, किन्तु अज्ञानता से पालते है, ऐसे तापस एव वालतप करने वाले मिथ्यादृष्टि माने जाते है । ३ वे भी अविरतो की कोटि मे माने जाते है जो व्रतो के स्वरूप को जानते भी नही, और स्वीकार करके पालते भी नही । ऐसे लोग पार्श्वस्थ साधु वेपधारी होते हैं, वे लौकिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए साधुत्रेष मे रहते है | ४ उन्हे भी पूर्णतया विरत नही कहा जा सकता है - जिन्हें व्रतो का ज्ञान नही, किन्तु उन्हे धारण करते हैं और वरावर पालन भी करते हैं, ऐसे व्यक्ति प्रगीतार्थ मुनि कहे जाते हैं । जो साधुता से बिल्कुल अपरिचित हैं वे अगीतार्थ माने जाते है । फिर भी न तो व्रतो को अविरत - सम्यग्दृष्टि है | मानव हुए है । ५ जिन को व्रतो का ज्ञान तो है, धारण करते है और न पालते ही है, वे राजा श्रेणिक और श्री कृष्ण इसी कोटि के ६. जो व्रतो के स्वरूप को जानते हुए भी न स्वीकार कर सकते है और न पालन ही कर सकते है । एकान्त सम्यग्दृष्टि अनुत्तरवैमानिक देव इसी कोटि मे आते है । ७ जो व्रतो के स्वरूप को जानते भी हैं स्वीकार भी करते हैं, पालन नही कर सकते, वे मरीचि की तरह सविग्न पाक्षिक होते है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग् ग्रहण और सम्यक् पालन से ही व्रत सफल होते हैं। जिनको न व्रतों का ज्ञान है, न उनका विधिपूर्वक ग्रहण ही करते हैं और न व्रतो का यथार्थ पालन ही करते हैं, यदि कभी योग एक चिन्तन ) [ ९३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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