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________________ घुणाक्षर न्याय से वे व्रतो को पाल भी ले तो उससे वे व्रती नही बन सकते हैं । अविरतो के उपर्युक्त सात भेदो मे से पहले चार भेद मिथ्यादृष्टि अविरतो मे पाए जाते है, क्योकि उन्हे व्रतो का यथार्थ ज्ञान होता ही नहीं, अत उनका व्रत-ग्रहण एव व्रत-पालन अकिचित्कर माना जाता है । शेष तीन भेद सम्यग-दृष्टि अविरतों मे पाए जाते है। यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टि यथाविधि व्रतो का ग्रहण तथा पालन नही कर सकता, तथापि-वे ब्रतो के स्वरूप को यथार्थत जानते है। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव व्रत-नियमो को यथावत् जानते हए भी व्रतो को स्वीकार एव पालन नहीं कर सकते, क्योकि उनके प्रप्रत्याख्यान कपाय-चतुष्क का उदय होता है। वह उदय काल देशव्रत एव सर्ववतो के धारण व. पालन का प्रतिवन्धक है। देशवत और सर्वत्रतो के स्वरूप को भली-भाति जानकरही सम्यग्दृष्टि जीव विधिपूर्वक उन्हे धारण करते है तथा उनका पालन करते है, तभी वे क्रमश अणुव्रतो या महानती कहलाते है। अव्रत पाश्रव है और व्रतसवर है। सुव्रती बनने से ही अवतो होने या.अविरति होने का कलक उतर सकता है। व्रत सवर से प्रत्रतआश्रव का निरोध हो जाता है । पाचवे गुणस्थान से लेकर सभी गुण-स्थान उत्तरोत्तर बत-सवर के है। ३ प्रमाद-आदि के छ गुणस्थान प्रमाद से. लिप्त हैं। प्रमाद भी अबत की तरह पाश्रव है । प्रमाद का अर्थ है अन्त करण को दुर्वलता, धर्मविमुखता, अकर्तव्य मे प्रवृत्ति और कत्तव्य की विस्मृति । अथवा.जिस कारण से जीव का मोक्ष मार्ग मे उत्साह एव प्रीति न होने पाए, वह प्रमाद है। प्रमाद के आठ भेद है।' १ प्रवचनसारोद्धार, द्वार-२०७ । ९४] [ योगः: एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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