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________________ लगते हैं। दूसरे महाव्रत की पाच भावनाए है उनके सम्यक् पालन करने से ही सत्य के दर्शन हो सकते हैं। जैसे कि (क) अनुविचिन्त्य भाषणता-सत्यवादी को सम्यग-ज्ञान पूर्वक विचार करके बोलना चाहिए, क्योकि विना विचारे बोलने वाला कभी असत्य से बच नहीं सकता। (ख) क्रोध-विवेक-सत्यवादी को क्रोध के दुष्परिणामो को.. जानकर उसे छोड देना चाहिए। क्रोधान्ध व्यक्ति सत्य की मर्यादा का उलघन कर जाता है स्व-पर का भान उसमे नही रहता, वह सत्य-असत्य का विवेक खो बैठता है। अत जव भी क्रोध आने लगे तभी उसका नियन्त्रण करना क्रोध-विवेक है। (ग) लोभ-विवेक-मानव लोभ के वशीभूत होकर झूठ वोल जाता है, क्योकि धन-प्राप्ति की इच्छा असत्य की सबसे प्रिय सखी है, अत सत्यवादी को सत्य की रक्षा के हेतु लोभ से भी निवृत्त होना चाहिये। साधक के लिये सन्तोष से लोभ का नियत्रण करना आवश्यक ही नही अनिवार्य है। (घ) भय-विवेक--सत्य की रक्षा के लिये और झूठ से बचने के लिए सत्यवादी को निर्भीक रहना चाहिए। अपने प्राणो को बचाने की इच्छा सत्यव्रत को दूषित कर देती है, प्राण-भीरु साधक महाबतो की रक्षा नहीं कर सकता है। - (ड) हास्य-विवेक-जिसे सत्यवादिता की रक्षा करनी है और सत्य भगवान की प्राराधना करनी है, उमे हसी-मज़ाक छोडना ही पड़ेगा, क्योकि हास्य-वश मानव बहुधा झूठ बोल जाता है। जव तक बात मे झूठ की पुट न दी जाए तब तक हंसी-मज़ाकका रूप ही नही बनता है, अत इन पाच भावनामो से ही सत्य [योग . एक चिन्तन ११६ ]
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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