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________________ नियन्त्रित करके, उसकी भाग-दौड समाप्त करके उसे एक ध्येय पर स्थिर कर देना ध्यान है। ध्यान तीन तरह का होता है-मानसिक ध्यान, वाचिक ध्यान और कायिक ध्यान । इन्हे ही दूसरे शब्दो में मनोगुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति भी कहते हैं। ' ध्यान के भेद __एकाग्र चिन्तन को ध्यान कहते है, इस अपेक्षा से ध्यान के दो भेद होते हैं-अप्रशस्त ध्यान और प्रशस्त ध्यान । अप्रशस्त ध्यान के दो भेद है-मार्तध्यान और रौद्रध्यान । अति का अर्थ है दुख, उससे उत्पन्न होनेवाली एकाग्रता को आर्त-ध्यान कहा जाता है। दुख उत्पन्न होने के मुख्य चार कारण हैअनिष्ट वस्तु का सयोग, इष्ट वस्तु का वियोग, प्रतिकूल वेदना और भोगो की लालसा । इन चार कारणो से ही आतध्यान हुयाकरता है। प्रार्तध्यान का स्वरूप और उसके भेद अनिष्ट वस्तु के सयोग से जब दुखित प्रात्मा उसे दूर करने, के लिए सतत चिन्ता किया करता है, तब वह अनिष्ट-सयोग प्रार्त-- ध्यान कहलाता है। किसी इष्ट वस्तु के चले जाने पर उसकी प्राप्ति के निमित्त निरतर चिन्ता करना इष्ट-वियोग आत ध्यान है। शारीरिक एव मानसिक रोगो के उत्पन्न होने से जो चिन्ता उत्पन्न होती है वह चिन्ता ही प्रार्तध्यान है। भोगो की तीनलालसा से अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने का उत्कट सकल्प या निदान करना आर्तध्यान है। रोना-धोना, शोकं करना, प्रासू बहाना और - विलाप करना ये आर्तध्यान के चार लक्षण है। आदि के छ गुण१६८] [ योग । एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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