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समयानुसार परिवर्तित होता रहता है, वे सब भोग-प्रधान पर्व माने जाते हैं । जिन पर्वो में मानव की भावना त्याग को ओर या निवृत्ति की ओर बढती है वे पूर्व त्याग प्रधान माने जाते हैं, जैसे कि श्रष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णमासी, पर्युपण संवत्सरी या किसी तीर्थङ्कर का कल्याणक दिवस । इन पर्वो मे प्रादर्श गृहस्थ की भावना विशेषकर त्याग की ओर ही अग्रसर रहती है ।
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पौषधोपवास व्रत भी दो तरह का होता है एक प्रतिपूर्ण श्रीर दूसरा आशिक । जिसमे चतुर्विध आहार का अहोरात्र के लिये त्याग हो, उसके साथ ही कुशील सेवन का भी त्याग हो, शरीर के सभी तरह के लकार, विभूपा, स्नान, मजन, बनाव आदि का पूर्णतया त्याग हो, यहां तक कि उसमे चन्दन यादि का लेप लगाना और मेहदी आदि लगाना भी निषिद्ध हो, जिस आभरण को शरीर से अलग नहीं किया जा सकता उसे छोड़कर कोई ग्राभरण न पहना जाए पहनने के वस्त्र भी सांदे हो वही पौषधोवास व्रत है। इसमे चमकीले भडकीले वस्त्रो का परित्याग भी आवश्यक है । इसमें उद्योगी हिंसा, प्रारम्भी हिंसा, विरोधी हिसा का भी दो करण तीन योग से पच्चक्खाण होता है । किसी प्रकार का शस्त्र-शस्त्र अपने पास रखना भी सर्वथा वर्जित है । इस व्रत की आराधना कम से कम एक अहोरात्र के लिये हुआ करती है । जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव पूर्णतया अनुकूल नहीं होते तब प्रशिक रूप से भी पौपधत्रत की आराधना की जा सकती है ।
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पौधशाला मे जहा पौषघव्रत की प्राराधना- प्रारम्भ की हो उस स्थान एव विछौने को बिना देखे बिना पडिले हे उपयोग में नही लाना चाहिये। रात को बिना प्रमार्जन किए चलना नही चाहिये, दिन मे बिना देखे मलमूत्र नही परठना, रात को विना योग - एक चिन्तन ]
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