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________________ प्रमार्जन किए मल-मूत्र प्रादि परठना नहीं। ऐसा करने से ही जीव-हिमा से होने वाले दोपो एव पापों से अपने को सुरक्षित रखा जा सकता है । पीपघव्रत मे विकया, माया, निदान एवं मिथ्यादर्शन-शल्य आत एवं रौद्रव्यान यादि पापजनक सभी प्रवृत्तिया निषिद्ध हैं। इसका प्रभाव सभी व्रती पर पडता है, व्रत की श्राराधना - प्रत्येक पर्व मे श्रावक के लिये अनिवार्य है । श्रत इम 1 ' 1 -४ प्रतिथि- संविभागवत - जिन के आने की न कोई तिथि निश्चित है और न समय हो उन्हें ग्रतिथि, कहते हैं । साधु-साध्वी एव श्रमण-कल्प श्रावक इन सब का अन्तर्भाव अतिथि शब्द में हो जाता है । इस प्रसग मे अतिथि शब्द श्रद्धास्पद व्यक्ति का परिचायक है, क्योकि विरक्तात्मा पुरुष गृहस्य को अपने आने या न आने का संकेत नही करते है और न वायदा ही करते हैं । वे घरो मे जाने की बारी भी नही वाघते । उनके द्वारा धारण किया हुआ अभिग्रह फलित हो जाने पर ही वे श्राहार ग्रहण करते हैं । ५ सविभाग का अर्थ है- अपने लिये बनी हुई वस्तु का वितरण अपने उपयोग के लिये लाये गये तथा वनाए गए पदार्थो का स्वय उपयोग या भक्षण न करके आये हुए अतिथि को दे देना श्रतिथि- सविभाग व्रत है 1 * जब धर्म-निष्ठ श्रावक भोजन करने बैठे तब उस का कर्त्तव्य बनता है कि कुछ क्षण गुरुजनो का ध्यान करे, उनकी प्रतीक्षा करे। यदि गुरु अपने क्षेत्र मे विराजमान हों तो रात्रिभोजन न करे, सचित्त वस्तु का आहार भी न करे, स्वय भी सूझता रहे और देने वाली वस्तु को भी सूझती रखे। दिन में अपने घर का द्वार खुला रखे । जब घर में अतिथि पधारे तत्र तुरन्त अपने उत्तरीय वस्त्र से मुख को आच्छादित करले । विधिपूर्वक १४८ ] [ योग : एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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