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________________ अातंक का स्थान है। सम्पत्ति विपत्ति से घिरी हुई है, सयोग वियोग से परिव्याप्त है, जन्म मृत्यु से घिरा हुआ हैससार के सभी पदार्थ- अनित्यता से घिरे हुए हैं। इस तरह की भावना आत्मा मे विरक्ति पैदा करती है। जहा विरक्ति है वहा आसक्ति प्रवेश नहीं कर पाती। जव मोह-वर्धक पदार्थो को नित्य समझा जाता है, तभी उन मे आसक्ति बढती है। प्रासक्ति की गहरी जडो को विरक्ति ही उखाड़ सकती है। विरक्ति साधक को धर्मध्यान के शिखर पर पहुंचा देती है । - . .. ३ अशरणानुप्रेक्षा जब सकट:काल मे या मृत्यु के समय मनुष्य जड़-चेतन पदार्थो या देवी-देवताओ की शरण ढुंढता है, तव वह अनुभव करता है कि यहा माता, पिता, पुत्र, मित्र, कनक, कामिनी आदि मे से मुझे सहायता या शरण देने वाला कोई नही है । तव वह उद्बुद्ध होकर कहता है ~~'हे जीव । केवलि-भाषित धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई तेरा रक्षक नहीं है।" ___ इस अनुप्रेक्षा से आत्मा को इस बात का लाभ होता है कि अज्ञान एव मोह के वशीभूत अपरिपक्व साधक जिन पदार्थो को शरणरूप मानता है, मोह-तिमिर के हट जाने पर वे सभी पदार्थ स्वयं उसे अशर्रणरूप दीखने लगते है। ४ संसारानुप्रेक्षा-मोह का नाम ही ससार है जीव मोह के उदय से ही चौदह राजुलोक के भीतर विविध गतियो और योनियो मे जन्म मरण के चक्र मे भटक रहा है । फिर भी इस को सुख नहीं सुखाभास ही मिल पाता है । ससार में जितने भी अनन्त-अनन्त । जीव है उन सब के साथ प्रत्येक जीव का सम्बन्ध मित्रता और शत्रुता के रूप में स्थापित हो चुका है । इस प्रकार ससार-परिभ्रमण योग एक चिन्तन] [१८३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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