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१०. श्रादर्श गृहस्थ एव श्रमणोपासक का जो मरण होता है वह
बाल-पण्डित-मरण कहलाता है। ११. छमस्थ की मृत्यु को छमस्थ-मरण कहते है । छद्मस्थ का
अर्थ है अल्पज्ञ। १२ केवली की मृत्यु को केवली-मरण कहा जाता है । जीव की
सर्वज अवस्था को केवली कहते है। १३ वृक्ष, पर्वत आदि से गिरकर या गले मे फासी लेकर मरना
वेहायस-मरण है। १४ गृद्व पक्षी आदि हिंस्र-जन्तु प्रों द्वारा अपने शरीर का भक्षण
करवा कर मरना गृद्व-स्पृष्ट-मरण कहलाता है ।
आमरण अनगन को जैन-भापा मे सधारा कहते है। सथारे के तीन भेद है, उनमे से किसी एक के द्वारा मृत्यु को प्राप्त होना ही आराधकता है। ऐसी मृत्यु कर्मों की अनन्त वर्गणायो को क्षय कर देती है। भव्य जीवो को इसकी प्राप्ति के लिए प्रात, साय यह भावना अवश्य करनी चाहिए। जैसे विरक्त आत्मा मे दीक्षा-ग्रहण करते समय हर्प और उत्साह बढा करता है. वैसे ही मृत्यु का समय निकट-जानकर सफल साधक के मन मे हप एव उत्साह ससीम से नि सीम हो जाते है। जो जीव मृत्यु से डरता रहता है उसको मृत्यु नही छोडती, चाहे वह किसी भी देवलोक मे जन्म क्यो न ले। जव साधक आगे बढकर मृत्यु का स्वागत करने के लिए निर्भीकता से उद्यत होता है, तव मृत्यु सदा-सदा के लिए उसका पीछा छोड़ देती है। अत साधक मृत्युभय को अपने हृदय मे अणुमात्र भी स्थान न दे। उसे सर्वदा यह भावना भानी चाहिए कि यदि सलेखना पूर्वक अनशनबन के द्वारा इस क्षण-भगुर योग एक चिन्तन
या उसको मृत्यु नहीं हो जाते है । जो जी मन मे हप एव
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