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________________ सीखा जाता है और सिखाया भी जाता है । मतिज्ञान, अवधिज्ञान मन पर्यव-ज्ञान और केवलज्ञान ये चार ज्ञान सीखने-सिखाने से उपलब्ध नही होते, क्योकि ये ज्ञान अक्षर रूप नही है । जो कुछ भी सीखा जाता है या सिखाया जाता है, वह श्रुतज्ञान है । अनुशासन में रहने की रीति नीति के ज्ञान को शिक्षा कहते है । शिक्षा दो प्रकार की होती है, ग्रहण - शिक्षा और ग्रासेवनशिक्षा | इन्ही को दूसरे शब्दो मे विद्या पढने की और कला सीखने की क्रिया भी कहते हैं। विश्व में विज्ञान और कला का ही बोल वाला है । लोक व्यव्हार मे मनुष्य अक्षर ज्ञान प्राप्त करके शब्द-वोध र अर्थ-बोध के द्वारा जो शिक्षा ग्रहण करता है वह ग्रहण - शिक्षा है और जो वह जीवन कला या धर्म कला का नित्य प्रति ग्रभ्यास करता है वह ग्रासेवन- शिक्षा है । श्रागम श्रद्धागम्य भी है और ज्ञानगम्य भी । जब शिष्य गुरु से सूत्रगत मूल पाठ का उच्चारण सीखता है पद और पदो के अर्थ का ज्ञान करता है, ग्राजा और धारणा से अर्थ के वास्तविक अभिप्राय को जानता है, तब यह क्रम ग्रहण शिक्षा का माना जाता है । श्रुतज्ञान सीखने पर जो जीवन मे प्रभाव पडता है, उसके दो रूप - हैं निवृत्ति और प्रवृत्ति । ये चारित्र के अतरंग और वहिरग कारण हे । क्षायो एव राग-द्वेष आदि के विचारो से निवृत्त होना चारित्र का अंतरग कारण है । निवृत्ति का ही दूसरा नाम विवेक है । शरीर को प्रत्येक क्रिया मे सयम पूर्वक प्रवृत्ति करना यतना है, अत खान-पान मे, गमनागमन मे, उठने-बैठने मे, शरीर के योग : एक चिन्तन ] [ २९
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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