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________________ है णान्त दोप है । इस प्रकार का व्यक्ति रौद्रध्यानी माना जाता है । कठोर एव खराब विचारो वाला रौद्रव्यानी दूसरे के दुख मे प्रसन्न होता है और दूसरे को सुख मे देखकर खिन्न हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को अकार्य करके भी पश्चात्ताप नहीं होता। जिसे पाप कार्यो मे प्रवृत्ति सुखद प्रतीत होती है वह रौद्रध्यानी है । इन लक्षणो से रौद्रध्यान की पहचान होती है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दोनो निम्न कोटि के व्यान है । इनसे और इनके कारणो से दूर रहना साधक के लिए अनिवार्य है। इनकी साधना योग-साधना नही है। यह तो जान-बूझ कर दुर्गति मे जाना है। निकृष्ट-ध्यान से ही पाप प्रवृत्ति होती है। निकृष्टध्यान पापवृत्ति को जगाता है और पापवृत्ति निकृष्ट-ध्यान को जागृत करती है, दोनो एक दूसरे के पूरक, एक पोषक हैं। इन दोनो से सावधान एव सतर्क रहने के लिए सर्व प्रथम इनका विवेचन करना आवश्यक होगा । हानि एव विघ्न समूहो से अपने को सुरक्षित रखना ही धर्म-ध्यान एव शुक्लध्यान की प्रवृत्ति मे सहायक है, अत. लाभ की अपेक्षा सव से पहले साधको को हानि के सभी उन्मार्गो से परिचय कराना हितैपी का कर्तव्य है। यह व्यान तीसरे गुणस्थान तक तो होता ही है, चौथे एव पाचवे गुण-स्थान मे तो आशिक रूप मे ही पाया जाता है। धर्म-ध्यान . धर्म और ध्यान इन दो पदो से यह शब्द बना हुआ है। धर्म का अर्थ है-किसी तत्त्व या व्यक्ति की वह प्रवृत्ति जो उसमे सदा रहे, उससे कभी भी अलग न हो, अर्थात् वस्तु का स्व-भाव ही धर्म है। अथवा जिन-प्रणीत आगमो द्वारा प्राचार्यो एव १७२। [ योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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