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________________ शान्ति सयम की ओर ही ले जाती है। असयम से प्रात्मा पर इन्द्रियो की विजय होती है, जबकि सयम से प्रात्मा की इन्द्रियो पर पकड हो जाती है । अत. प्रणिधि का जो अन्तरग रूप है वही साधक के लिए ग्राह्य है। हर्ष और शोक से मुक्त अवस्था मे ही प्रणिधि का भाव जीवन मे उतरता है, क्योकि हर्ष और शोक ये एक ही सिक्के के दो पहलू है । जिसमे हम हानि या प्रभाव अनुभव करते हैं वह है शोक, जिसमे लाभ या प्राप्ति का अनुभव करते है वह है हर्ष, दोनो मे सम रहना हो शान्ति, समता एव चित्त की एकाग्रता है । प्रणिधि-साधना का साधक सदैव विपत्ति मे धैर्य व दृढता की परीक्षा और सपत्ति मे क्षमा व उदारता की परीक्षा देता ही रहता है। उसकी प्रत्येक घड़ी परीक्षा की उत्तीर्णता के साथ वीतती है। उसकी बुद्धि हस के समान गुण-ग्राहिणी होती है, उसका हृदय स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ, वाणी मे माधुर्ग एव प्रिय सत्य, दृष्टि मे मध्यस्थता, तन मे सहनशीलता हुआ करती है। प्रणिधि बहुत बडी निधि को.भी कहते हैं। जिस साधना की आराधना करने पर गुणो की अक्षीण महानिधि प्राप्त हो जाए वह भी प्रणिधि है। चेतना के स्वच्छ एव निर्मल प्रवाह को भी प्रणिधि कहा जाता है। निष्कपट आचार-विचार की साधना भी इसी नाम से पुकारी जातो है । जो स्वकर्तव्य के पालन मे अप्रमत्त है और फल के प्रति निष्काम है, वही इसकी आराधना कर सकता है। योग ! एक चिन्तन ] [८५
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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