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________________ ११. द्वेष-विवेक- राग प्रकृति के निवृत्त होने से जीव पर से द्वेप की छाया स्वत: ही हट जाती है। जब किसी पर राग होता है, तभी दूसरे पर होप होता है । जब राग ही नही रहा तो दूप का उद्भव कहा हो पाएगा? १२ कलह-विवेक-जव क्रोध और द्वेष पर नियन्त्रण हो गया तो कलह-क्लेग तो स्वत ही समाप्त हो जाता है। इस प्रकार लडाई-झगड़े का त्याग भी सयारे मे स्वत ही हो जाता है। १३ अभ्याख्यान-विवेक-जिमने झूठ का त्याग कर दिया, वह किसी पर झूठा आरोप क्यो लगाने लगा ? सथारे मे सव प्राणियो के प्रति समता होती है। असत्यारोप लगाया जाता है विषमता मे, जव हृदय से वैपम्य ही चला गया तो फिर आरोपप्रत्यारोप कैसे ? १४. पैशुन्य-विवेक-पीठ पीछे निन्दा करना, चुगल खोरी, मुखवरी करना पैशुन्य है। १५ परपरिवाद-सथारे के लिये प्रस्तुत शुद्ध हृदय मे किसी की चुगली या निन्दा का भाव उदित ही नहीं होता। सथारे मे साधक परम शान्ति का अनुभव करता है। जहा सब जीवो पर मैत्रीभाव हो जाए, वहा इन पापो का प्रवेश होता ही नही है। रति-अरति-विवेक-असयप मे प्रवृत्ति, प्रीति तथा मन की दौड को रति कहते है और सयम मे प्रीति का न होना, उपेक्षा भाव का होना अरति है। रति और अरति का उदय कपाय भाव से होता है, जब कपाय ही नहीं, तब साधक हृदय से इस पाप का भी निराकरण स्वत हो जाता है। १७. माया-मृपा-विवेक-दूसरे और आठवें पाप का मिश्रण योग एक चिन्तन ] [२१७
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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