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________________ और दूसरे पच्चक्खान का प्रारम्भ किया जाए, वह कोटि-सहित तप कहलाता है। जैसे कि-रत्नावली, मुक्तावली, कनकावली आदि तपो की जहा पूर्णता होतो है, दूसरी बार यदि उसी तप की पाराधना करनी हो तो वह वही से प्रारम्भ किया जाता है। उपवास से उस की पूर्णता होती है और उपवास से ही प्रारम्भ होता है - तपस्या की इस विधि को कोटि सहित तप कहते है। ४. नियत्रित प्रत्याख्यान-जिसने प्रत्येक मास मे, जितने दिन तप करने का समय निश्चित किया हुआ है, उसके द्वारा उसी तिथि मे उतने काल के लिए वह तप अवश्य करना नियन्त्रित तप है । जो तप अङ्गीकार किया हुप्रा है वह अवश्य ही करना, भले ही शरीर मे भयकर पीडा हो जाए; भले ही विहार करना पडे, या सेवा मे लीन रहना पड या अन्य कोई विघ्न-बाधा उपस्थित हो जाए, प्राणो को रहते हुए उसे न छोडना नियत्रित तप है। इसकी आराघना वज्र-ऋपभ-नाराच-सहनन वाले जिन-कल्पी, पूर्वधर श्रुतकेवली ही कर सकते हैं। - ... ... .. ; . .. ५. सागार-प्रत्याख्यान, आगार-सहित पच्चक्खाण ,-- को सागार-प्रत्याख्यान कहते हैं। किसी-किसी तप मे आगार अर्थात् अपवाद रखे जाते है। उन अपवादो मे से किसी एक के, उपस्थित होने पर भी त्यागी हुई वस्तु. का समय पूरा होने से पहले भी यदि वह वस्तु काम मे लेली जाए तो पच्चक्खाण-भग नही होता। अन्नत्थणा - भोगेणं, सहसागारेण, . सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, महत्तरागारेणं, परिट्ठावणियागारेणं-इत्यादि अनेक प्रागार , तप मे रखे जाते हैं । तप की इस विधि को सागार-प्रत्याख्यान कहते है। ६ अनागार-प्रत्याख्यान-जिस पच्चक्खाण में किसी भी योग : एक चिन्तन] [ १३४
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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