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________________ द्वारा पूर्वकृत कर्मो का क्षय किया जाता है। सब प्रकार की इच्छाओं का निरोध और खान-पान में सन्तोष एव नियमितता रखना तप है। बडो की इच्छा एवं प्राज्ञा के अनुसार चलना विनय है और अपनी इच्छा का निरोध करना संतोप है। सन्तोष एव गान्ति ही सबसे बड़ा तप है। यद्यपि आगमो मे वाह्य तप के छ भेद वर्णित हैं, तथापि इस प्रसंग मे उनका विवरण नई रीति एवं नई शैली से किया गया है, संख्या भी उनकी दस वतलाई गई है। अत. उन्हे दशविध पचक्खाण भी कहते है जैसे कि -- .. . . । १. अनागत प्रत्याख्यान-भविष्य में किए जाने वाले तप को पहले ही कर लेना' अनागत तप है, अर्थात् महीना, तिथि, वार, नक्षत्र या पर्व के दिन यदि किसी साधु ने उपवास, प्रायम्बिल, वेला, तेलादि विशिष्ट तप करने की प्रतिज्ञा कर रखी हो, यदि वह कारण वश उस तप की आराधना पहले ही कर लेता है तो उसे अनागत तप कहते हैं। जैसे कि किसी तपशील साधक की प्राचार्य, तपस्वी, ग्लान आदि की सेवा करने के लिये नियुक्ति होने वाली है. तो वह यह समझ कर कि तपस्या और सेवा एक साथ होनी कठिन हैं, प्रत. वह उस "तपस्या की आराधना समय आने से पूर्व ही कर लेता है और बाद में निश्चिन्त होकर सेवा मे सलंग्न हो जाता है। तप की इस विधि को अनागत कहा जाता है। " .., २. प्रतिक्रान्त-प्रत्याख्यान-नियत-किये हुए उपर्युक्त महीनो और दिनो मे पापवादिक स्थिति. उपस्थित होने पर यदि. उस समय साधु तप न कर सके तो उसी तप को बाद मे-यदि करे, तब उस तप-विशेप को अतिक्रान्त तप कहते हैं।- , .. ३. कोटि-सहित प्रत्याख्यान-जव एक पंच्चक्खान की समाप्ति १३६ ] [ योग . एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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