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________________ के लिए पूछा था, वस्तुत. उस अर्थ को वह विल्कुल नहीं जानता था। इसको भाव-चोरी कहते है। इस तरह दूसरे की मान प्रतिष्ठा को लूटना भी चोरी है। ऐसी चोरी का जन्मान्तर में दुर्गतिरूप फल भोगना पडता है और साधक दुर्लभबोधि बन जाता है। इस महानत की आराधना तभी हो सकती है जबकि पांच भावनात्रो का सम्यक् पालन किया जाय। वे पांच भावनाए निम्नलिखित है. (क) अवग्रहानुज्ञापना-साधु या साध्वी को चाहिए कि किसी दूसरे के द्वारा नहीं, बल्कि स्वय अधिकार प्राप्त स्वामी को भली-भाति जानकर उससे रहने के लिये स्थान को याचना करनी चाहिए, अन्यथा अदत्तादान का दोष लगना समव है। . (ख) सीमा-परिज्ञान, अधिकारी वर्ग से उपाश्रय की सीमा को खोलकर उसका सेवन करना चाहिए। एक बार अधिकारियोद्वारा उपाय की आजा प्राप्त होने पर भी, उनसे वार-बार सीमा-परिमाण खोलकर अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, क्योकि रोग एव वुढ़ापे आदि के कारण साधु को परठनेपरठाने के स्थान आदि की वार-बार आवश्यकता होती है। अदत्ता-दान दोप से बचाव के लिये अधिकारी वर्ग एवं किसी दाता को कष्ट न हो, इस भावना.की रक्षा के लिये स्थान को विधिवत् खोलकर पाना प्राप्त करना साधु का कर्तव्य है ।अनुमति के विना यदि भय पूर्वक, स्थान का उपयोग किया जाएगा, तो उसे चोरी ही कहना उपयुक्त होगा। ... (ग) अवग्रहानुग्रहणता-स्थान विशेष की आज्ञा लेने के ___ १२० ], [योग : एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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