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________________ अनन्तर वहा पर रखे हुए चौकी, पट्टा, तृणादि के ग्रहण के लिए भी प्राज्ञा प्राप्त करनी चाहिए, नही तो बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण और सेवन मे चोरी का दोष टल नही सकता । (घ) श्राज्ञा प्राप्त सार्धामिकावग्रह सेवन - उपश्रिय मे निवास कर रहे एक समाचारी वाले साधुत्रो से नियत क्षेत्र और काल के लिए स्थान या मकान की आज्ञा लेकर ही वहा : रहना चाहिए तथा भोजन प्रादि करना चाहिए, नही तो चोरी के दोष से साधु अछूता नही रह सकता । (ड) श्राज्ञा प्राप्त भक्त-पान का सेवन --- युथाकल्प यथासूत्र प्रासुक एषणीय आहार मिल जाने पर उस ग्राहार को उपाश्रय मे लाकर गुरु के समक्ष दिखाए बिना, ग्रालोचना किए विना उसका सेवन नहीं करना चाहिये । साधुग्रो की मडली मे बैठकर सेवन करे, धर्म-साधना रूप अन्य उपकरणों का सेवन भी गुरु की ग्रांज्ञा से ही करना चाहिए । बुडो को दिखाए बिना और उनकी प्राज्ञा लिए विना किसी भी वस्तु का सेवन करना चोरी है । my ४ मैथुन - विरमण - महाव्रत - - देव मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी दिव्य एव प्रदारिक काम सेवन का तीन योग और तीन करण से सर्वथा त्याग करना "मैथुन- विरमण महाव्रत" है । दुराचार से पूर्णतया निवृत्ति पाना ही ब्रह्मचर्य है । वासना की तृप्ति के लिये शारीरिक मिलन को मैथुन कहते हैं । मैथुन से निवृत्त होकर श्रात्मावस्थित होना ही ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है - कायिक, वाचिक श्रीर मानसिक । h विकृत मन से किसी का स्पर्ग नहीं करना, विपरीत लिंगी योग - एक चिन्तन ] [ १२१
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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