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________________ जो स्थान दुख और प्राणो का नाशक है वह क्षेत्रापाय कहलाता है। जो काल उन्नति एवं सुख समृद्धि में बाधक है, जो वातावरण मन के सर्वथा विपरीत है, ऐसे दु धमकाल को कालापाय कहा जाता है। काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग, और तप आदि प्रकृतियो के उदय से जीव को ऐहिक एव पारलौकिक सकटों का सामना करना पड़ता है, दुर्गतियो में जाकर अपने अशुभ कर्मो का फल भोगना पड़ता है और उसकी जन्म-मरण की परम्परा अटूट बन जाती है। भावापाय क्या क्या है ? और उनसे अलगाव कैसे हो सकता है ? उनसे बचने के लिए मनोयोग देना अपाय विचय है। साधक को अपाय-विचय धर्मव्यान से कर्मवध के सभी हेतुनो को जानकर उनमे निवृत्त होने का अभ्यास करना चाहिये । ३. विपाक-विचय-अनुभव मे आनेवाले कर्म विपाको मे से कौन-कौन सा विपाक किस-किस कर्म का फल है ? कर्मो के वशीभूत हुआ जीव चार गति, चौरासी लाख योनियो मे भटक रहा है, सपत्ति-विपत्ति, सयोग-वियोग, दुख-सुख अपने किए हुए यथासभव पाठ कर्मों की एक सौ अढतालीस प्रकृतियो का अनुभव करते हुए ससार मे परिभ्रमण कर रहा है। इस प्रकार कर्मविषयक चिंतन मे मनोयोग देना विपाक-विचय धर्मध्यान है। इससे आत्मा मे यह धारणा जागृत हो जाती है कि अपने द्वारा उपार्जित कर्मों के सिवाय अन्य कोई भी मुझ को सुख-दुख देने वाला नहीं है-"सुखस्य दु खस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति विमुच शेमुषोम्"-जवसाधक यह समझ लेता है कि मुख योग : एक चिन्तन [ १७७
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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