SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करना, सिर पर छाता न रखना, पैरो मे जूते न पहनना, निर्दोष भिक्षा लाना, मर्यादित वस्त्र रखना, अपना काम गृहस्थो से या दूसरो से न कराना, स्वावलम्बी बनना, केशलुचन करना, सर्दीगर्मी, भूख-प्यास को सहन करना । कायक्लेशतप करना, भीषण गर्मी मे भी पखा न करना, धूप की श्रातापना लेना, सर्दियो मे अधिक वस्त्रो का उपयोग न करना, ठंडी शिला पर लेटना, शरीर श्रीर उपकरणो की विभूपा न करना, मूढा, पलंग चारपाई आदि का प्रयोग न करना, विशेष कारण के विना उपाश्रय से वाहर न जाना, रोग एवं प्रतिक उत्पन्न होने पर सहनशक्ति से काम लेना, स्वाध्याय आदि के द्वारा शरीर को अपने वश में रखना, अज्ञानियो के द्वारा दिए गए परीपद् उपसर्गों को सहन करना इत्यादि कारणों से दुख सहते-सहते इतना प्रबल अभ्यास हो जाता है कि साधक मारणान्तिक कष्ट आने पर भी अपने परम लक्ष्य से विचलित नही होता । जो साधक सुखशील हैं, भौतिक सुखो के इच्छुक है, वे साधुता को भार ही समझते हैं । सच्चा साधक प्रिय धर्मी और दृढ धर्मी होता है । सुख के दिनो मे भी उन्हे धर्म प्रिय होता है और दुख के दिनो मे भी वे • अपनी वृत्ति मे दृढ रहते है । चय सोगमहल - सुकुमारता का परित्याग करने पर ही वास्तविक अर्थो मे साधुता का पालन होता है, श्रत मारणान्तिक वेदना भी यदि शरीर मे पैदा हो जाए तो भो सयम- मर्यादा का उल्लघन न करे, सहन-शक्ति से उस वेदना को सहन करे, यही मुमुक्षु जन का परम कर्तव्य है । १ १९६३ - ^ [ योग : एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy