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________________ १२. सम्यग्दृष्टि ++100+++++++ ++ जो जीव सम्यग्दर्शन से संपन्न है वह सम्यग्दप्टि कहलाता है । पदार्थों एव तत्त्वो का यथार्थ निश्चय करने की रुचि ही सम्यगदर्शन है। तत्त्व-निश्रय की रुचि भी यात्म-परितोप एव आत्मोस्थान के लिए या आध्यात्मिक विकास के लिए होनी चाहिये। आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न एक विशेष प्रकार की ज्ञान-वत्ति जो नेयमात्र को तात्त्विक रूप में जानने की हेय को त्यागने की और उपादेय को ग्रहण करने की रुचि के रूप में उदित होती है वही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन के उदय की सूचना देने वाले पाच लक्षण हैं प्रशम, सवेग, निर्वेद अनुकम्पा और आस्तिक्य । १ प्रशम - तत्वो के अमत् पक्ष की ओर आवर्पण करने वाली वृति का शान्त होना ही प्रगम है। २. सवेग-समार और सासारिक वधनो के भय भी सदा के लिये मुक्त होने की भावना ही सवेग है । ३. निवेद-ऐन्द्रियिक विषयो मे आसक्ति का न रह जाना · ही निर्वेद है, अर्थात् वैराग्य-भाव ही निर्वेद है । । ४. अनुकम्पा-दुखी प्राणियो के दुख दूर करने की भावना ही अनुकम्पा है। ४४] [योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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