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________________ मे उन्होने श्री कृष्ण जी से कहा कि क्या कोई ऐसी भी नदी है, जिस मे स्नान करके हमारी अन्तरात्मा शुद्ध एव पवित्र हो जाए ?" __ श्री कृष्ण जी ने कहा 'युधिष्ठिर | एक ऐसी नदी रहती है जिसमे तुमने अभी तक स्नान किया ही नहीं। उसमे स्नान किए बिना तुम्हारा मनोरथ फलित होना 'असभव है । उस नदी का नाम शान्ति नदी है, जोकि सयम जल से परिपूर्ण है । उसमे सत्य का प्रवाह है, शील और मर्यादा ही उसके तट हैं, उसमे दया की ऊची-ऊची तरगे उठती रहती हैं, उस नदी में स्नान करो। पानी से अन्तरात्मा की विद्धि नहीं होती। इस निर्देश से यह प्रमाणित होता है कि सयम, सत्य, शील और दया की पावन भूमि पर ही मानसिक शान्ति का उदय होता है और मानसिक शान्ति के विना आन्तरिक शुद्धि सर्वथा असम्भव है। उक्त सभी साधन कर्म-मल-को दूर करने वाले हैं, अत शान्ति एव समता की नदी मे स्नान करने से ही प्रात्मा की शुद्धि होती है। विशेषता यह है कि इस नदी मे जो एक वार स्नान कर लेता है वह फिर सदैव पाप-कलुष से दूर रहता है, उसका मन बुरे विचारो से सर्वदा वचा रहता है, उसकी वृत्तिया अन्तर्मुखी हो जाती हैं, उसकी अन्तरात्मा से शुचिता का स्रोत फूट पडता है, फिर उसे वाह्य शुद्धि की आवश्यकता का अनुभव ही नहीं होता। वह तो क्या उसके शरीर का स्पर्श करने वाले का मन भी शुद्ध हो जाता है। यही तो शुचि-धर्म की विगेपता है। इसी सयम-स्नान को 'योग-संग्रह मे 'शुचि-धर्म' कहा गया है। १. शान्ति-नदी-सयम-तोयपूर्णा, सत्यवहा शीलतटा दयोमि. ! तनाभिषेक कुरु पाण्टुपुत्र । न वारिणा-शुद्धयति चान्तरात्मा ॥ महाभारत शान्तिपर्व योग : एक चिन्तन ] [४३
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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